मंगलवार, अगस्त 31, 2010

बिछड़े सभी बारी बारी-२

उस दिन तन्ख्वाह मिलनी थी। सुबह से मेन ब्रांच से तीन चार फ़ोन आ चुके थे मेरे पास कि मैंने दो सौ रुपये लेने हैं, मेरे तीन सौ पचास हैं, मेरे एक सौ दस हैं। हद हो गई यार, ब्याज कमाना है या नाम कमाना है तो करो अपने दम पर। वाहवाही भी लूटेंगे और बंदूक दूसरे के कंधे पर रखकर। अब मैं कैसे कहता कि यारों मेरा भी कुछ हिसाब किताब रहता है, वो कब होगा? खैर लिस्ट बना लेता, नाम और उसके सामने उनके बताये रुपये। उधर से कैशियर साहब आवाज लगाते भोले को, उधर से मैं अपनी लिस्ट लेकर खड़ा हो जाता। ये हर महीने का बंधा बंधाया रूटीन था जी। अरे मैं बताना भूल गया शायद कि ये रिकवरी नोटिस मेरे खिलाफ़ नहीं बल्कि भोले के खिलाफ़ होते थे। अपन तो वैसे भी लेकर लौटाया  नहीं करते, बल्कि मुकर जाने के कायल हैं। 
“हां भई, फ़लाने का फ़ोन था, कह रहा था कि तीन सौ पचास लेने हैं?
“आहो जी, देने हैं उसदे।”
“अच्छा, …….  के दो सौ रुपये हैं?”
“हां जी, हैगे, ओ वी रख लो।”
“अच्छा, मेरा हिसाब.?”
“कोई नी जी, साड्डी तां घर दी गल्ल है, फ़िर कर लांगे।”
“एक सौ दस …. के भी हैं? ये दस रुपये का क्या चक्कर है, मेरे से तो सौ रुपये की गवाही दिलवाई थी?”
“ओ जी, एक पेप्सी होर पिलाई सी उसनूं, दस रुपये उसदे हैगे।”
“ते भले आदमी, फ़िर दस रुपये दुकानदार को देगा कि इसको?”
“न जी, इसनू ही देने है, दुकानदार नाल ओ आपे कर लेगा।”
और बकाया पैसे लेकर मुझे अलग ले गया, जाकर एक सौ पचास रुपये दिये। मैंने कहा, "ओये मेरे तो ज्यादा पैसे हैं, पांच सौ हैं।" कहने लगा, "मैं कौन सा मना कर रहा हूं, अब भी पांच सौ ही हैं। ये एक सौ पचास तो वो पंडित आयेगा ढाबे वाला, उसको देने हैं। और ये मत कहना कि तुमने खाना नहीं मंगवाया था।"
मुझे कुछ दिन पहले की बात याद आ गई। गरमी बहुत थी, और ये महाराज दफ़्तर में फ़्रूटी का टैट्रापैक मुंह से लगाये घूम रहे थे, जैसे बच्चे लॉलीपॉप मुंह में दिये रहते हैं। मैंने तो देखकर अनदेखा कर दिया, पता था इसके ड्रामों का,  हमारे इन्चार्ज और एक दूसरे स्टाफ़ ने देखा तो पूछा. “क्या ड्रामा है भई?”   कहने लगा, “ऐन्नी गरमी हैगी कि जान निकल जाये, पैसे साले साथ थोड़े जाने हैं,  खाओ पियो ते मस्त रहो।”   छेड़ दी जी दुखती रग उसने, एक बोल ही उठा, “लेके आ यार, मेरे लिये भी एक फ़्रूटी।” इन्चार्ज महोदय कैसे चुप रहते, उन्होंने भी आर्डर दे दिया। टोटल चार नये आर्डर मिले और उसने सब से दस दस रुपये लिये, मुझसे एक बार पूछा वो भी ऐसे, “संजय बाऊ,  तू तो नईं पियेगा न?” मेरे इन्चार्ज ने मेरे पैसे भी देने चाहे, मैंने मना कर दिया और भोला भी कहने लगा, “इसदी प्यास नहीं बुझनी इस डब्बी नाल” और सारे हंस दिये, हंसना भी चाहिये जी। दो मिनट में ही पांच फ़्रूटी ले आया भूरे की दुकान से। सबने बड़े चटखारे ले लेकर पी। दस मिनट  बाद मैंने कहा, “भोले, जरा भूरे को बुला कर ला।” कहने लगा, “की कम्म है?” मैंने कहा, “यार, बुला तो सही।”  आ गया जी भूरा, “हां जी बाऊजी, बताओ?” मैंने कहा, ”यार भूरे, आज  भोले ने तेरी इतनी सेल करवाई है, एक फ़्रूटी तो पिलाता इसको।”  भोला बीच में ही बोल पड़ा, “तू जा ओये दुकान ते आपनी, मैं नईं पीनी होर फ़्रूटी, जाके ग्राहक संभाल अपने।” और भूरा कहने लगा, “बाऊजी, काहे की सेल करवाई है, एक अपने आप पी गया फ़्रिज में से निकालकर,  पांच फ़िर दुबारा ले आया बैंक के नाम पर और पीने के बाद जाकर कह रहा है कि मेरे खाते में लिख ले, महीने बाद हिसाब करेंगे।”
हा हा हा, मुझे पहले ही पता था और अब सारे स्टाफ़ वाले उसके पीछे पड़ गये, और वो कह रहा था, "त्वाडा की गया है? तुसी फ़्रूटी पी पैसे देकर, बात खत्म। मान लो मैं भूरे को दे देता तो इस बात की क्या गारंटी है कि इसने वो आगे पेमेंट  की है या नहीं? अगर त्वानूं कोई तकाजा करे ते मैन्नूं कहो।” सही कहता था जी।

“साले, तू जो रोज ये  सात आठ दिन से  खाना लेकर आता था ढाबे से, ये भी मेरे नाम लिखवा कर आता था?”
“अच्छा, भूखा मर जाऊँ फ़िर? मेरा पेट नहीं है क्या?”
“चल, आगे से ध्यान रखियो, तू क्या रखेगा मैं ही रखूँगा। तू कब बाज आयेगा, इन हरकतों से?  सारी जगह उधार का करोबार फ़ैला रखा है तूने। बाजार में,  स्टाफ़ में किसी को छोड़ेगा कि नहीं।”
“ओ जी, टेंशन न लिया करो। एकाध जगह है जहाँ दूसरों का नाम लेना पड़ता है, नहीं तो अपनी गुडविल बहुत है जी। और ये स्टाफ़ वालों ने मेरे से पैसे लेने होते हैं तो टाईम से सैलरी के वाऊचर भेज देते हैं न तो कौन परवाह करेगा तुम्हारी सबकी? अहसान तो मानते नहीं उल्टे भाषण देते रहते हैं।” और हंस देता हो हो करके। उस दिन शाम तक मेज पर तबले की और ढोलक की थाप देता और ट्रैक बदल बदल के पंजाबी गानों की दो-दो तीन-तीन लाईने बड़े सुर में सुनाता।
’जद जोबन तीर चलाये, कुड़ी हंस के नीवियां पाये, ते समझोSSSSSSS,  मामला.. गड़बड़ है’
‘मेरा बड़ा करारा पूदना, मेरा बड़ा करारा पूदना’
’तूतक तूतक तूतियां, अई जमालो ओ तूतक तूतक तूतियां’
सब जानते थे कि आज ये चुप होने वाला नहीं है और आगे दो तीन दिन ऑफ़िस आने वाला नहीं है, पूरा एन्जॉय करेगा अपनी बची खुची सैलरी को और फ़िर से वही रुटीन शुरू। उस दिन मेरे दिमाग में खुजली ज्यादा ही हो रही थी, बिठा लिया पास में। समझाया उसे कि छुट्टियां और पैसे बेकार मत खर्च किया कर, बाद में बहुत काम आयेंगी। उसका तर्क ये था कि गाज़ियाबाद और फ़रीदाबाद तो देख रझे हैं, ये अकेली  बाद किसने देखी है? किसी दिन ऐसे ही फ़ूंक निकल जायेगी तो भी तो ये छुट्टियां और पैसे बेकार ही जाने हैं। मैं भी जुटा रहा और वो भी अड़ा रहा, आखिर में ये डील हुई कि वो छुट्टियां बचाकर रखेगा और साल में एक बार दो तीन दिन के लिये उसे हरिद्वार लेकर जाना पड़ेगा। उस साल मैंने बहुत खींच कर रखा उसे, छुट्टी लेनी भारी कर दी उसके लिये। कभी कभी गुस्से में आकर कहा करता, “मेरी जितनी ऐसी तैसी तुसी कीती है न, आज तक किसी ने नहीं कीती।” मैं पूछता, “एक बार ये बता दे, तेरे से अपना कौन सा काम करवाया है या तेरा क्या नुकसान किया है?” सिर हिला देता कि चलो ठीक है।
गजब आदमी, खाना न मिले तो दो दो दिन ऐसे ही निकाल दे और मिल जाये तो चार आदमियों के बराबर अकेला खा ले। सारा दिन अपनी हिन्दी, पंजाबी, डोगरी की कॉकटेल  भाषा में    बोलते रहना, चुप रहना जैसे सजा थी उसके लिये। हमारे एक अधिकारी तो दुखी होकर उसे ऑफ़र दिया करते कि दस मिनट चुप बैठ जा और दस रुपये ले लियो। दो या तीन मिनट मुश्किल से बीतते कि जाकर पीछे से जफ़्फ़ी डाल देता और कोई गाना गाने लगता और कहता त्वाडा घाटा नईं करवाना जी। झूठ बोल कर  पैसे ले लेता था  लेकिन अगर उसे खजाने की या पैसों की रखवाली पर बैठा दो तो मजाल है कि खजाने वाले सांप से रत्ती भर भी कम हो। उधारी लौटाने में लेट बेशक हो जाये लेकिन अगर सामने वाले ने कह दिया कि तेरे से सौ नहीं दो सौ लेने थे तो एक बार भी बहस नहीं करता, ठीक है जी। कितना ही डांट ले, नाराज भी जो जाता कभी कभी लेकिन अगले ही पल कोई काम कह दें तो उसने कभी पलट कर जवाब नहीं दिया। जिसने आड़े वक्त में थोड़ी सी मदद कर दी, अपने काम के लिये बेशक उसे दो दिन, चार दिन या हफ़्ते के लिये ले जाये कभी मना नहीं किया उसने। नजर का सच्चा एक्दम, ईगो नाममात्र की भी नहीं। बीस गालियां दे दे कोई, या नाजायज भी कर दे इसके साथ, मैंने कभी दुर्भावना नहीं देखी इसके मन में। हमारे जैसा कोई भड़काता कभी तो कहता, “उसने ऐसा कह दिया तो कौन सा हम छोटे बाप के हो गये जी?”  किसी के घर जाता, तो जाते ही महिलाओं से मां-बहन का नाता जोड़ लेता। दुनिया प्रेरणा लेती है मशहूर आदमियों से, अपने को प्रेरणा दे जाते हैं ऐसे कैरेक्टर। ऐसी नम्रता अपने अंदर आ जाये तो मजा ही आ जाए। 
अगली बार हरिद्वार लेकर चलेंगे जी, पहले एक बानगी देख लीजिये इसकी कलाकारी की।
मेन ब्रांच से सीनियर मैनेजर साहब  शायद पहली बार हमारे एक्स्टेंशन काऊंटर पर आये। कहने लगे कि यार दो साल हो गये थे, मैं इधर आया ही नहीं था। आज सोचा कि देखकर तो आऊं। खैर, जाने लगे तो भोले को बाहर ले गये। धीरे धीरे कुछ बात होती रही और मैं ताड़ता रहा। दो दिन बाद फ़ोन आया, हाल चाल पूछकर कहने लगे, “यार, बात करवाओ जरा उससे।” मैंने करवा दी, इससे पूछा कि क्या बात है? आगे से बोला, “क्यों, वड्डे अफ़सर नूं मेरे नाल कम्म नईं हो सकदा?” मैंने कहा, “जरूर हो सकदा है।” अब जी आलम ये हो गया कि हर दूसरे दिन फ़ोन आये सीनियर मैनेजर साहब का, ये इधर से हां जी, हां जी, बस्स। चिंता न करो जी तुसी। अपन भी सुनते रहते और इसका अपने को दिया जवाब याद करते रहे। एक दिन फ़िर से फ़ोन आया। मैनेजर साहब कहने लगे, “यार, उससे बात तो करवाओ।” मैंने कहा, “सर, कितने पैसे हैं?” बोले, “तीन सौ, आपको बताया है क्या उसने?” मैंने कहा, “सर जी,  अपने बछड़े के दांत पता हैं मुझे। जबतक आप अपने मुंह से नहीं बताओगे, पैसे लेकर दिखा दो।” बताने लगे बेचारे, “तीन महीने पहले इसे टैंपरेरी एक हफ़्ते के लिये मेन ब्रांच में बुलाया था। आखिरी दिन जब वापिस जाना था, मेरे पास आया और कैंटीन का कार्ड दिखाकर बोतल मंगवाने की पूछने लगा। मैंने कागज पर ब्रांड लिखकर दे दिये और पूछा कितने रुपये दूं? इसने मुझसे सिर्फ़ तीन सौ मांगे। मैंने कहा भी कि ये ब्रांड कम से कम पांच सौ के आयेंगे लेकिन ये कहने लगा कि फ़ाईनल हिसाब फ़िर कर लेंगे, आप तीन सौ ही दो। मैंने इसे कहा कि देख स्टाफ़ में किसी से कुछ मत बताईयो, सबको मालूम चल जायेगा कि मैं दारू पीता हूँ। आगे से ये मुझे कह्ता है कि जी ऐही गल्ल मैं आपजी नूं कह रया सी, स्टाफ़ में किसीसे न कहना कि मुझसे आपने बोतल मंगाई है नहीं तो सारे मेरे पीछे पड़ जायेंगे। मेरा तीर मेरे ऊपर ही चला गया है, न बोतल लाया और न ही मना कर रहा है। मैं जोर से मांग नहीं सकता कि सब क्या सोचेंगे।” इतना हंसा मैं उस दिन और बाद में तो ये हमारी ब्रांच में एक जोक ही बन गया। होती है कई बार ऐसी मजेदार स्थितियां, जब दोनों पक्ष एक ही बात कहते हैं, किसी को बताना मत नहीं तो….। लेकिन कहां छुपती है असलियत?    ...जारी........
:) फ़त्तू  बस स्टैंड पर बस का इंतजार कर रहा था। दो शहरी लड़कियां भी वहीं खड़ी थीं और अखबार पढ़ रही थीं इंगरेजी का। फ़त्तू ने मोटे अक्षर जोड़ जोड़ कर पढ़े और पूछने लगा, "यो रापे(rape) के होवे है जी?" क्या समझातीं वो? एक बोली, "इसका मतलब है लड़ाई झगड़ा।" बस आई और जब तक फ़त्तू सीट ढूंढता, एक लड़की सीट घेर चुकी थी और अपनी सहेली के लिये साथ वाली सीट पर अखबार रख चुकी थी। फ़त्त्तू ने आराम से अखबार उठाई और जम गया सीट पर। लड़की ने कहा भी कि ये सीट हमारी है, फ़त्तू कित माने था? लड़की भी कित माने थी, बहस करे गई। कुछ देर तो फ़त्तू ने सुना, फ़िर बोला, "सीट तो सै मेरी, तेरे न जंचती हो तो बेशक रापे कर लै मेरे साथ, थम दो सौ मैं एकला, पर देखी जायेगी।"


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शनिवार, अगस्त 28, 2010

बिछड़े सभी बारी बारी

कुछ दिन पहले हमारे आदरणीय अनुराग शर्मा जी ने किसी पोस्ट पर या कमेंट में एक बात उठाई थी कि किसी लेखक को अपने आसपास के परिवेश से किसी पात्र को अपने लेखन में शामिल करना चाहिये या नहीं? हमें तो जी पुरानी आदत है ही हर बात में टांग फ़ंसा देते हैं। सोचने लगे बड़ी गंभीरता से, कर लेते हैं कभी कभी ये दिमाग वाला काम भी। तभी तो ऐसे हो गये हैं, न तो अपना भी माईंड बैलेंस इंटैक्ट होता अब तक। जब हमेशा की तरह  किसी फ़ैसले पर नहीं पहुंचे, तो फ़िर अपना वही सिक्का निकाला और उछाल दिया, जिसके दोनों तरफ़ लिखा है, देखी जायेगी।
अपने को ज्यादा टेंशन इसलिये नहीं हुई कि अपन में लेखक वाले कोई गुण नहीं हैं। ऊपर वाले के फ़ज़ल से काम-धंधे से भी लगे हैं, दीन-दुनिया के टंटों-झमेलों में भी उलझे रहते हैं, कौम के गम में अपने शरीर का जुगराफ़िया भी  खराब नहीं करते। दाढ़ी भी बढ़ी हुई नहीं, खद्दर का कुर्ता भी एक था और  वो फ़ेंक चुके बहुत पहले ही और सबसे बड़ी बात कि हमारी बात औरों को समझ में भी आ जाती है। कहने का मतलब ये है जी कि हमने क्लीनचिट दे दी खुद को ही कि  हमारे वड्डे उस्ताद जी ने जो कहा था उसका लेखकों  से  लेना देना है, अपन उस परिक्षेत्र से बाहर आते हैं। और फ़िर अपने आसपास के लोगों को पिक्चर से हटा दें तो हम लिखेंगे क्या? क्या होगा हमारे हिन्दी सेवा के व्रत का? ये कल्पना वगैरह वैसे भी हमें घास नहीं डालती,  बिना देखे समझे लोगों पर हम कुछ लिख दें? हमारी खोपड़ी इतनी उर्वर होती तो ये बाल ही न बचे रहते इस पर? ये भी साथ छोड़ गये हैं धीरे धीरे। वैसे भी हमने किसी से वादा किया था कि उस पर कुछ लिखेंगे जरूर। अत: बड़ों से छूट देने का आग्रह करते हुये आज  आपसे परिचय करवाते हैं एक ऐसे पात्र का जिसपर पूरी किताब लिखी जा सकती है, माई फ़्रैंड ’भोला’।
वो हमारा सबोर्डिनेट स्टाफ़ था, निपट अकेला।  नाम तो कागजों में कुछ और था लेकिन अपन उसे भोला कहते थे और वो बुलाता मुझे ’संजय बाऊ।’   माँ-बाप स्वर्ग सिधार चुके थे, भाई बहन कोई थे नहीं, बीवी के साथ मुकदमा चल रहा था। अब चूँकि हमारे समाज में चलन है जिसकी गाड़ी उलट जाये, वो बेवकूफ़ कहलाता है, भले ही वो कितना ही समझदार क्यों न रहा हो। उसकी गाड़ी उलट चुकी थी और अपनी अभी तक नहीं उलटी थी तो   कभी कभी हम उसको भाषण पिलाया करते।   एक बार उसे गृहस्थ जीवन के बारे में  कुछ टिप्स देने की कोशिश करी  तो बड़े ध्यान से सुनता रहा लैक्चर। अपने को भी बहुत दिनों के बाद मिला था कोई झेलक, तो पूरे मनोयोग से लगे हुये थे ज्ञान बाँटने पर। तकरीबन डेढ घंटे का लैक्चर दे दिया तो सोचा कि कुछ आगे के लिये भी बचा लिया जाये। खोल दिया कुर्सी से उसे, तो आप क्या समझे थे कि वो स्वेच्छा से सुन रहा था? इत्ते भले लोग आजकल कहाँ रह रहे हैं जी। सौ रुपये उधार मांगे थे उसने, हमने शर्त रख दी कि थोड़ा सा लैक्चर झेलना पड़ेगा। बंदा हमारा भी उस्ताद था, मान गया लेकिन एक शर्त पर कि पैसे एडवांस में लेगा और भाषण सुनने के लिये उसे कुर्सी पर बाँधना पड़ेगा, सौ रुपये का रिस्क नहीं ले सकता वो। देख लो जी ऐसे ऐसे  कदरदान रहे हैं हमारे। बँधकर बैठना मंजूर. लेकिन भाषण पूरा सुनेंगे। और मजे की बात, ऑफ़िस के दूसरे लोग भी हँस हँस कर इस ’rendezvous with Simi Grewal’ के देसी संस्करण को,जो चल रहा था शनिवार को ऑफ़िस समय के बाद और गाड़ी आने के पहले, पूरा एंजॉय कर रहे थे।  तो जी, जब ये सब खत्म हुआ तो एक तमाशबीन स्टाफ़ ने आवाज लगाई, “हाँ भाई, हो गया सब? क्या समझा?” भोले ने खड़े  होते हुये अँगड़ाई ली, अकड़े शरीर को ठीक करता हुआ बोला, “गीत गाया पत्थरों ने।”   तेरी तो…। यही किसी बाबाजी के यहाँ जाते तो लोग माथा भी टेकते, चढ़ावा भी चढ़ाते और हम फ़्री में सुना रहे हैं तो हमें ही पत्थर बताते हैं लोग। 
वैसे ये हमारे भोले का इज्जत करने का स्टाईल था।  इज्जत बहुत करता था मेरी। कभी किसी झंझट में फ़ंसता और मदद की गुहार पर मैं अपनी समझ से उसे कोई रास्ता बताता तो सुनकर कहता था, “बाऊ, हरिद्वार जाने का रास्ता सब बता देते हैं, किराया कोई नहीं देता।” मतलब ये कि किराया दे दो रास्ता बेशक मत बताओ। या फ़िर कभी अपने से खफ़ा हो जाता(ये खफ़ागिरी सिर्फ़ तभी होती जब मैं उसे उधार देने से मना कर देता) तो गाकर कहता कि, “तेरे सामने बैठ के रोना ते दिल दा दुखड़ा नहीं बोलना।“  मैं कहता यार ये क्या बात हुई, रोयेगा भी और बतायेगा भी नहीं और फ़िर मेरे क्या फ़र्क पड़ेगा तेरे रोने से। वो कहता, “कभी आई न ऐसी नौबत तो फ़िर बताइयो फ़र्क पड़ता है कि नहीं।”  मैं हँस देता।
मुझे उस ब्रांच से ट्रांसफ़र हुये दो साल से ज्यादा हो गये हैं, उसके फ़ोन आते रहते हैं मेरे पास, अब बात तमीज से करता है थोड़ी “कब वापिस आओगे?” दूरी शायद और चीजों के साथ तहजीब भी सिखा देती है। अभी कल फ़ोन आया तो मैंने पूछा, “घरवाली के साथ कुछ समझौता हुआ क्या?” हँसने लगा और बोला, “कश्मीर की समस्या तो हो सकती है हल हो जाये, मेरी समस्या जगमोहन सिंह भी नहीं हल कर सकता।” उसे क्या पता कि  उसका जगमोहन सिंह  बेचारा कामनवैल्थ और विकास दर में ही इतना उलझा है कि फ़ुर्सत नहीं है उसके पास।   इससे काम करवाना होता था तो मेरे बड़े अधिकारी, जिनके साथ पूरे सम्मान के रिश्ते के बावजूद अपनी अनवरत कशमकश चलती रही, उसे कोई काम न कहकर मुझे बुलाकर उससे काम करवाने के लिये कहा करते। और मेरे वजह पूछने पर कहते थे कि ऐसा जटिल चरित्र, जब तुम्हारा कहना मान ही लेता है तो तुम्हीं करवाओ इससे यह काम। और मेरा मान रखता वो। बदले में क्या लेता था, सिर्फ़ आश्वासन कि वो अकेला नहीं है किसी मुसीबत में।
दो बार मेरे साथ हरिद्वार जाकर आया वो, बहुत मजेदार एक्स्पीरियंस रहे। उस समय मालूम होता कि कभी ब्लॉग लिखेंगे तो फ़ोटो शोटो लगाकर दो तीन पोस्ट लिखता उस अनूठे अनुभव पर।  अब भी लिखूंगा और इस बहाने याद करूंगा अपने दोस्त को। पढ़ोगे न बन्धुओ?
:) फ़त्तू अपनी रिश्तेदारी में कहीं गया। उसे देखते ही मेजबान दंपत्ति के होश उड़ गये, यो तो टिक्कड़ ही घणै पाड़ै सै। दूसरे कमरे में जाकर उन्होंने सलाह की और मर्द ने झूठमूठ ही पीटने की और औरत ने जोर जोर से रोने की एक्टिंग शुरू की। आधे घंटे तक ड्रामा करके वो बैठक में आये तो देखा बैठक खाली। बहुत खुश हुये दोनों और अपनी समझदारी जताने लगे।
पति बोला - “मन्नै के सच में मारया तेरे एक भी?  अपने हाथ पे ही दूसरा    हाथ मारता रया।”
पत्नी बोली - “और मैं के सच में रोऊँ थी?, न्यूँए किल्की मारूँ थीं।”
पलंग के नीचे से फ़त्तू बोल्या, “और बावलो, मैं के सच में गया?  आड़े ई सूँ। पकाओ रोटी, भूख लाग री सै।”

बुधवार, अगस्त 25, 2010

बड़े लोग और बड़ी बातें, अपन छोटे ही भले!

एक होता है ग्रह और एक होता है पूर्वाग्रह। होने को तो एक दूसरा गॄह भी होता है और उपग्रह भी होते हैं, और भी इस टाईप के शब्द होते होंगे  लेकिन आज का बिना राशन का हमारा भाषण पूर्वाग्रह पर केन्द्रित है। बचपन से ही देख रहा हूँ कि लोग पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं, अब तो ऐसा लगता है कि यदि कोई इससे बचा हुआ है तो हमें  शक ही होने लगता है कि वो इंसान भी है कि नहीं?  तो जी, बचपन से जो प्रचलित पूर्वाग्रह महसूस किये, उनमें लोगों का बड़ों के आगे झुकने और अपने से छोटों को लतियाने का पूर्वाग्रह सबसे टॉप पर दिखा। अब टॉप से मतलब चिट्ठाजगत के टॉप से भी न लेना और स्कर्ट के साथ पहने जाने वाले टॉप से भी नहीं। अब हम भी जब इसी दुनिया में रहते हैं, यहीं सांस लेते हैं तो हम इस मायाजाल से कैसे बच सकते थे? हमने  भी सोचा कि चलो हम भी हो लेते हैं  ग्रस्त इस से। हो गये जी। जब इत्ते वड्डे वड्डे बंदे अपील करते हैं तो हमने भी सोच लिया कि हम भी अपनी आत्मा फ़ात्मा की आवाज़ को दबा देंगे। 
जितने भी प्रेरणा देने वाले महापुरुष या स्त्रियां हुईं हों, सभी ने जोर दिया इस बात पर कि ’थिंक बिग’।  किंग खान बेचारा पीठ दर्द से परेशान होते हुये भी लोगों को ’डोंट बी संतुष्ट’ का उपदेश देता रहा, चेहरे पर दर्द देखिये कभी उस समय। ये कम त्याग की बात नहीं है जी। हे भगवान, हम तो चालीस साल तक अपराध ही करते रहे। लगा कि गलत थे हम जो ’स्माल इज़ बिग’ का फ़ार्मूला पकड़े बैठे थे और जकड़े बैठे थे। मानव जीवन पता नहीं कितनी योनियों के बाद मिला है, और हमने अपना बचपन, अपनी जवानी मिट्टी कर दी इस संतुष्ट रहने की आदत से।
बड़े बनने के चक्कर में हमने अपनी सुकून वाली जिन्दगी में जैसे आग लगा दी, खुद अपने ही हाथों। जब छोटे थे तो ये सोचते थे कि यार किसी का दिल न दुख जाये कहीं अपने किसी काम से, अब कोई भी काम करने लगें तो पहले दिमाग में आता है कि इस काम में मेरा फ़ायदा कैसे होगा और क्या होगा? पहले सोचते थे कि जो भी होगा, साथी लोगों के साथ मिलजुलकर बाँट लेंगे और अब सोचते हैं कि अपना घर भरना चाहिये और बाकी जायें भाड़ में। पहले लगता था कि दूसरे की इज्जत अपनी इज्जत से बढ़कर है और अब कोशिश रहती है कि दूसरे की बेइज्जती कर सकें तभी अपनी इज्जत में चार चाँद लगेंगे। ये इस दुनिया के दस्तूर अपने से नहीं निभाये जाते जी। रह रहकर ’तीसरी कसम’ के हीरामन की याद भी आती है और ’जब जब फ़ूल खिले’ के राजा शिकारे वाले की भी।  यहाँ बड़ों की दुनिया के ऐसे ऐसे दस्तूर पता चलते हैं कि एक दूसरे के नाम के कुत्ते तक पाले जाते हैं। ताव ताव में मैंने भी अपने एक दोस्त को कह दिया कि अगर ऐसा न हो तो मेरे नाम का कुत्ता पाल लियो, मुँह पर तो उसने कुछ नहीं कहा कि लेकिन मन में तो हँसा ही होगा कि खुद को क्या समझ रहा हूँ। मन से तो मैं चाहता रहा कि ऐसा न हो और  इस शर्त में मैं हार जाऊँ। सोच रहा हूँ कि भौं-भौं हिन्दी में ठीक रहेगी या पंजाबी में?
आज की बातें ज्यादा बहकी-बहकी लगें तो जी हमारा कसूर कम और हालात का ज्यादा मानना। मुझे भी अभी ही समझ आई है कहानी।  आज सुबह से ही  मन जाने कैसा कैसा हो रहा था, सारा दिन ऑफ़िस में भी एकदम बुझा बुझा सा रहा। जबकि आज का दिन तो बहुत खास दिन था, यूँ भी त्यौहार का दिन और दिल की ऐसी कैफ़ियत? लेकिन जैसी नीयत होती है वैसी ही नियति होती है। आज ऑफ़िस में ही सात बज गये और फ़िर भी काम बीच में ही छोड़कर आना पड़ा। दोपहर दो बजे तक कनैक्टिविटी न रहने के कारण बिल्कुल खाली बैठना पड़ा और उस के बाद जो काम करना शुरू किया तो इस कामी की भी बस हो गई।
लौटते समय  रास्ते में एक ही सीन दो अलग  अलग जगह देखा, सड़क के बीच में हाथापाई करते और लड़ते-भिड़ते दो गुट। रास्ता जाम हो रहा है तो हो, पर बड़ा कौन की जिद में सड़क पर तमाशा करते बड़े लोग। दिमाग में सचमुच बहुत कन्फ़यूज़न होने लगे थे। क्या यारों, त्यौहार के दिन भी। रास्ता तो जाम था ही, बाईक साईड में लगाकर आराम से देखने लगा इधर उधर। दिल जैसे डूबा जा रहा था। फ़िर बचपन में पढ़ा रक्षा-बंधन का निबंध याद आया, श्रावण पूर्णिमा…..। अनायास ही ध्यान ऊपर आसमान की ओर चला गया, पूनम का चाँद। और याद आने लगी अपनी ही एक बेमतलब सी पोस्ट। और याद आने लगा कि बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि पूरे चांद का अपराधियों, आध्यात्मिक और मानसिक रूप से संवेदनशील लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। घर आकर खाये छप्पन भोग और नेट खंगाला। कई स्टडीज़ पर नज़र पड़ी। एक पोस्ट  के अनुसार प्रत्यक्ष असर देखना हो तो कुछ घंटों तक चांद को निहारें, असर खुद ही दिखने लगेगा।
तो जी खटौला बिछाया हमने बाहर और एकटक निहारा किये चमकते  चांद को बहुत देर तक। सच में अजब मंजर दिखा - कभी चमकता चांद तो कभी टूटा तारा,  आलाप भरते गुलाम अली, आगाज़ और अंज़ाम की बातें, आबादी और बर्बादी की सूरतें….। बच्चे भी अजीब नजरों से देख रहे थे, हा हा हा। सुला दिया है बच्चों को प्यार से समझाकर। अब कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा रात भर। और लगा  अच्छा ही हुआ कि तीन दिन पहले भीगकर मोबाईल भी खराब हो गया, अपनी मर्जी से कभी नंबर या नाम दिखा देता है कभी नहीं। रख दिया है इसे भी परमानैंट साईलेंस मोड पर। लगता है इसके सिम पर भी चांद की कलाओं का असर पड़ता है, बढ़िया है, कितने सामान कर लिये थे पैदा। अपन तो ठीक नहीं करवाने वाले इसे, जब नहीं था तब भी तो चल ही रही थी जिन्दगी, नहीं रहेगा तब भी चलेगी। निर्भरता कम कर लेनी है जी अब तकनीकी चीजों पर।    अपन पहले जैसे छोटे ही भले और भला अपना शिकारा।
तो जी, लब्बो लुआब ये है कि सच में चांद का मन पर बहुत असर पड़ता है, खासतौर पर अपने जैसे हिलेले, सरकेले लोगों पर। चाँद अलबत्ता वैसा ही निर्दोष और निष्कलुष है, और यही उसका  थोड़ा सा दोष है, अगर है तो। ज्यादा  दोषी है तो अपना मन। अगर चाँद भी कभी कभी सूरज की तरह तेज दिखा पाता तो होती क्या अपनी हिम्मत इतनी बात कहने की, सुनाने की? तो बड़े लोगों, तुम्हारी बड़ी-बड़ी बातें तुम्हें मुबारक, अपन अपनी फ़ाकामस्ती में मस्त हैं। जब तक मन चाहेगा, जैसा मन चाहेगा, लिखेंगे। बस ये चाँद चमकता दमकता दिखता रहे, बहुत है अपने लिये। महीने में एक बार ही सही, निहारेंगे जरूर। सिम तो अपनी भी सेंसिटिव ही है।
आज तक तो सीरियसली नहीं सोचा था, लेकिन आज रिटायरमेंट के बाद की लाईफ़ के बारे में कुछ प्लानिंग कर ली है। कोई सीनियर सिटीजन टाऊनशिप या हाऊसिंग सोसायटी नहीं, तलाश शुरू करते हैं किसी human behaviour institute(हिंदी में बोले तो मंटो के टोबा टेक सिंह) की, जहाँ रहने खाने की सुविधा हो, एडवांस बुकिंग करने पर कोई छूट वगैरह हो तो बेहतर है नहीं तो देखी जायेगी।  आपको ऐसे किसी संस्थान की जानकारी हो तो कृपया बताईयेगा जरूर, बतायेंगे न? 
:)  फ़त्तू सबको एक आंख से ही देखता था सो उसके ब्याह में अड़चन आ रही थी। एक जगह जुगाड़ भिड़ाकर फ़ेरों के समय लाईट गायब करवा दी ताकि कोई उसकी कमी न पकड़ ले। पंडित जी ने फ़ेरों के लिये आवाज लगाई कि कन्या को भेजा जाये। उधर से जवाब आया कि कन्या तो सो गई है। तुरंत ही उपाय निकाला गया कि उसके मामा उसे उठाये उठाये फ़ेरे लगवा देंगे और ऐसा ही किया गया। फ़ेरे पूरे होते ही फ़त्तू के पक्ष से औरतों ने मंगल गीत गाने शुरू किये,                               “ब्याह लियो रै म्हारो काणियो”
कन्या पक्ष से फ़ौरब जवाब आया,           “म्हारी चाल पड़े जब जाणियो।”
इब दोनूं मिलकर ’मेरी दोस्ती मेरा प्यार’ गावैं सैं।(with  50% ph)

सबक: फ़त्तू जैसों के भी फ़ूफ़ा इस दुनिया में हैं।


गाना सुनो-देखो जी हमारी पसंद का और chill मारो, हमारी  देखी  जायेगी।


शनिवार, अगस्त 21, 2010

पार्क. पेट दर्द और पुलिस - दूसरा बयान...।

भाग एक से आगे....
अब पार्क में पहुंचकर हम सब जॉगिंग शुरू किया करते और वो कहता, “याल, तुसी लदाओ पालक दे चत्तर, मैं वी आंदा हां।”(यार, तुम लगाओ पार्क के चक्कर, मैं भी आता हूँ)।  अब हम थे बड़े शरमा जी(बेसरम नहीं थे तब तक) उस समय, अकेले में जो मर्जी मिट्टी पलीद कर दें उसकी लेकिन दूसरों के सामने छवि खराब नहीं करते थे कभी। आंख तरेर कर देखता मैं उसे, और वो मुस्करा कर कहता, “जा याल, तू वी। मैं तै लयां न, मैं त्वाडे पिछे पिछे आंदा पयां।”(जा यार तू भी, मैं कह रहा हूँ न, मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा हूँ)। था बदमाश, मेरी शराफ़त का फ़ायदा उठा लेता था। जब हम रनिंग का पहला चक्कर ही पूरा करके  आते तब तक तो वो वहीं घास में लेटकर ’आराम शब्द में राम छिपा, जो भव बंधन को खोता है’ में तल्लीन हो चुका होता। उस पार्क में सैक्ड़ों की भीड़ में अकेला वो होता जो खर्राटे लेकर सो रहा होता।

कई दिन तक ऐसे ही चलता रहा और एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया कि वो घर से उठकर पार्क तक आ जाता है तो फ़िर वहां आकर क्यों सो जाता है?  दिया जी जवाब उसने, और बड़ा जबरदस्त बयान दिया। बड़ा सीरियस होकर कहने लगा, “याल, मैं जदों दौलदा हां ते मेले ढिढ(पंजाबी में पेट को कहते हैं) विच पील हुंदी है बोत ज्यादा। तू उस दिन मैन्नूं जमीन ते डिगाया सी न, उस दिन तों ही दल्द हैगा।”(यार मैं जब दौड़ता हूँ तो मेरे पेट में दर्द होती है, बहुत ज्यादा। तूने उस दिन मुझे जमीन पर गिराया था न, उस दिन से ही दर्द है)। अपराधबोध से भरा मैं और क्या कहता, पूरी छुट्टियों में वो ठाठ करता रहा और हम अपनी करनी पर पर्दे डालते रहे।
टाईम किसके लिये रुकता है जी कभी, गर्मियां गईं और देखते देखते आ गया जन्माष्टमी का पर्व। जहां बाहर अंधेरा घिरा, हम सब उभरती प्रतिभाओं के अंतस में रोशनी छा गई। एक एक दोस्त के घर जाकर उसे बाहर घूमने के लिये इकट्ठा किया। जब किसी के मां-बाप थोड़ा नखरा सा दिखाते अपने लाल को भेजने में, यार लोग मुझे आगे कर देते कि देख लो जी ये भी हमारे साथ जा रहा है। इत्ती रैपूटेशन थी हमारी, शक्ल देखते ही अपने लड़के को हमारे हवाले कर देते थे मां बाप। आज गोविन्दाचार्य की याद आ गई एकदम से, आदमी भला था वो भी बस बोलते समय कन्ट्रोल का बटन नहीं दबाकर रखता था। हमें तो किसी साले ने नहीं कहा कि ये मुखौटा है हमारे ग्रुप का, जब किसी को अपनी शराफ़त का सुबूत देना होता हमें बैकबैंचर से फ़्रंटरनर के रूप में पेश कर देते थे।

तो जन्माष्टमी की रात को होली के हुड़दंगियों की टोली निकल पड़ी, नजारे देखने के लिये। हम तो रहते थे सबसे पीछे, इनकी शरारतें देख देखकर हैरान होते थे। हमारा चाचू भी साथ में था। सामने से एक रिक्शा आ रहा था जिसपर तीन मूर्तियां विराजमान थीं। हमारा एक फ़ारवर्ड प्लेयर था जिसे सब ’बकरी’ कहकर बुलाया करते थे, उसे पता नहीं क्या सूझी भागकर गया और उस रिक्शे पर कूदकर चढ़ गया। अचानक हुई इस हरकत से उधर से चीखपुकार मची, इधर से हा हा हू हू और हमारे पसीने छूटे। इन्हीं हरकतों की वजह से इनके साथ आता जाता नहीं था और ये थे कि इमोशनल कर देते थे कसमें खाकर और खिलाकर। खैर, इधर ये सब हुआ और उसी पल एक एम्बैसेडर कार आ कर वहां रुकी। शीशा खोलकर अंदर बैठे बंदे ने मामले की दरियाफ़्त शुरू की और हमारे गैंगलीडर को ये बात बड़ी नागवार गुजरी। उस्ताद हमसे दो तीन साल बड़ा था कालेज में पढ़ता था और खास मौकों पर ही हमारे साथ घूमने निकलता था। अब जब वो गाड़ी वालों से बहस करने लगा तो हम उसे बाहर से पूरा (अ)नैतिक समर्थन दे ही रहे थे। अचानक से ही गाड़ी के चारों दरवाजे लगभग एक साथ खुले और जब वो बंदे बाहर निकले तो हमें ज्ञान प्राप्ति हुई कि सादी वर्दी में पुलिस पार्टी थी। उस्ताद ने जोर से हांक लगाई, हम तो समझे थे कि कहेगा ’टूट पड़ो’  लेकिन जो सुनाई दिया वो था,  ’भागो…….. पुलिस्स्स्स्स्स्स्स्स’। जिसे जिधर राह मिली भाग लिये अरबी घोड़ों की तरह। हम सब आगे आगे, पुलिस वाले पीछे हमारे। थोड़ी दूर पर एक तिराहा आ गया, जो सीधा सोचते थे वो सीधी राह पर निकल लिए, जिनका झुकाव लेफ़्ट फ़्रंट की तरफ़ रहता था वे बायीं सड़क पर मुड़ गये और हम ठहरे दक्षिणपंथी, जबसे पता चला था कि दिल वगैरह बेकार की चीजें बायें हिस्से में होती हैं तबसे ही दक्षिणपंथी हो गये थे, हमारे हिस्से में आई हमारे वहां की मशहूर सरकुलर रोड। तिराहे पर जाकर एक बार ठिठके जरूर थे, मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं की कशमकश में, लेकिन फ़िर सोचा अपनी राह ही चलेंगे यानि कि दायें भागेंगे। इतना देखा कि टीम बिखर गई है, लेकिन कौन किधर है इतना सोचने का समय किसे था? देखते थे तो मुड़कर देखते थे कि कितनी दूर रह गये हैं वो जालिम। अपनी जान का डर नहीं था जी हमें तब भी, सोच यही थी कि कहीं इनकाऊंटर वगैरह कर दिया गया हमारा तो बेचारे मानवाधिकार वालों पर और वजन बढ़ जायेगा। नादान थे न, बाद में बड़े होने पर पता चला कि उनके यहां एलिजिबिलिटी क्राईटेरिया कुछ अलग ही होता है।

खैर, लगभग एक किलोमीटर भाग लिये तो पीछे लाईन क्लियर दिखाई दी। अब जाकर ध्यान आया कि सांस धौंकनी की तरह चल रही है, गला सूख रहा है, हाथ-पांव खिंचे पड़े हैं बिल्कुल। एक दुकान के बाहर एक चबूतरा सा बना हुआ था, तशरीफ़ का टोकरा टिका दिया उसपर। और जब बैठ गया तो देखा कि मेरा चाचू  पहले ही वहां बैठा अपनी सांसो को व्यवस्थित कर रहा है।

मैंने कहा, “ओये, तू मेरे तों वी पहले आ गया?”

चाचा, “भैन** पुलिस, हंह हंह..........।

मुझे गुस्सा और हंसी एकदम से आये। सांस मेरी भी फ़ूली हुई थी, लेकिन मौका कैसे चूक जाता, कहा उसी के स्टाईल में, “वाह चाचा, अज्ज तेले ढिढ विच पील नईं हुई, दोल्दे टैम,    हंह..हंह……….।(वाह चाचा, आज तेरे पेट में दर्द नहीं हुई, दौड़ते समय?)

चाचा, “ओ याल, भैन** पुलिस……हंह हंह…..पिच्छे….हंह  हंह।

आज भी जब दिल्ली जाना होता है तो मिलने पर एक बार उसके  ढिढ की पील याद दिलाता हूं और वो हंस कर कहता है, "छड्ड्या कल याल,  ऐन्नी पुलानी गल्लां याद दिलांदा है"। जब कभी दूसरे दोस्तों से मिलना होता है तो हमें तो बहुत हंसी आती हैं ऐसी बातों पर, थी शायद हमारी पीढ़ी ऐसी ही। जरा जरा सी बातों पर खुश हो जाने वाली,  ठीक भी था उस समय के हिसाब से, इन्तज़ार करते रहते बड़ी खुशियों का तो शायद ही कभी हंस पाते। आज हैं सबके पास बड़ी खुशियां, अच्छे मकान, गाड़ियां, ब्रांडेड क्न्ज़्यूमर गुड्स, बच्चे महंगे स्कूलों में, बस नहीं है तो वो बचपन की बेफ़िक्री जिसमें आपस में लड़ते भी थे, झगड़ते भी थे लेकिन दूसरे ही पल गले लग जाते थे। वो बेलौस ज़िन्दगी को गई है कहीं।

मैंने अपना ब्लॉग खेल खेल में शुरू किया तो सूरदास की लिखी पंक्तियों से चुराकर ’मो सम कौन..?’ रखा, यही मानता था कि अपने से सब ज्यादा पढ़े लिखे हैं समझ ही जायेंगे कि … का मतलब कुटिल, खल, कामी ही है। इससे कम कुटिलता और क्या होगी कि एक लाईन सूरदास की उड़ा ली,  प्रोफ़ाईल में चचा गालिब की लिखी चीज डाल दी, और जब खुद लिखने बैठा तो अपनों का ही मजाक बनाने लगा।  क्या मैं और हम सब ही ऐसे नहीं हैं कि जिस काम का त्वरित लाभ न होता है, उसे करने में हमारे पेट में दर्द हो जाता है और जब कोई डर हो तो हमें कोई पेट का दर्द याद नहीं रहता?  हम सब डंडे के ही यार नहीं हैं क्या? और ले लो मजे, मुझे सर चढ़ाने के। आये होंगे कुछ हंसने हंसाने के लिये और जायेंगे बोझिल मन से। हो जाओ यारों बेशक नाराज, देखी जायेगी…।

:) फ़त्तू तब बालक ही था। एक दिन उसके मास्टरजी ने उसकी हरकतों से तंग आकर उसे कहा, “सुसरे, जवाहर लाल नेहरू जद तेरी उमर का था तो क्लास का मॉनीटर बना हुआ था, एक तू सै कि मुर्गा बनण के अलावा आज तक कुछ और न बण्या सै।
फ़त्तू, “रैण देयो मास्टर जी, घणै एग्जाम्पल न देयो, जवाहर लाल नेहरू जद आपकी उमर में था तो देस का परधानमन्त्री था, आप बालक पीटणिया के सिवा कुछ और न बण सके सो।

बुधवार, अगस्त 18, 2010

पार्क. पेट दर्द और पुलिस

अपनी जवानी के दिनों में महबूबा का इतना इंतज़ार नहीं रहता था जितना बचपन में गरमी की छुट्टियों का। लोग पता नहीं क्यों गरमियों को कोसते थे, हमारा बस चलता तो अपना बचपन कांगो में या जायरे में गुजारते, जहाँ भारत की तरह नहीं कि सिर्फ़ दो महीने की गरमी की छुट्टियां हों बल्कि सारा साल ही गरमी के कारण स्कूल से निज़ात मिल जाती। एन.आर.आई. कहलाते सो अलग से।  हम तो बचपन में कई बार सोचा करते थे कि स्कूल वालों को सिर्फ़ गरमी के महीनों की फ़ीस लेनी चाहिये, जब छुट्टी होती हैं। लेकिन हम इतने बड़े हो गये, आज तक किसी ने नहीं मानी, तब उस समय कौन मानता हमारी जब हम सचमुच के मासूम थे?

वैसे हमें स्कूल से कोई नफ़रत नहीं थी, अच्छा ही लगता था। बस ये टीचर नहीं होने चाहिये थे स्कूल में। लेकिन ये टीचर भी न होते तो हमारा ललित कलाओं में रुझान नहीं हो सकता था। पढ़ाई-वढ़ाई तो खींचखांच कर कर लेते थे, लेकिन ये जो नैतिक शिक्षा और संस्कार-वंस्कार का ड्रामा था, हमसे झिलता नहीं था। ये तो गनीमत थी कि आठवीं क्लास पार करते ही हमारी संगति कुछ ढंग के लड़कों से हो गई, अगर कहीं और दो तीन साल अपने टीचर्स की तानाशाही झेलनी पड़ती तो तय है कि हम इतने संस्कारी हो जाते कि आज हाईकमान को भी ममता दीदी कहकर बुला रहे होते। लेकिन नहीं, हम समय रहते जग गये।  आजकल धन्यवाद प्रस्तावों का सीज़न चल रहा है, चाहिये तो हमें भी यही था कि अपने दोस्तों को धन्यवाद दे देते। पर नहीं देंगे, कल्लो जिसे जो करना है।

तो जी बात कर रहे थे हम ललित कलाओं की तरफ़ हमारे रुझान की, अपने नैतिक शिक्षा वाले गुरूजी के हम तहेदिल से आभारी हैं जिनकी सख्तियों के चलते हमने स्थापित परंपराओं को  तोड़ना शुरू किया। अब गीता के श्लोक और रामचरित मानस की चौपाईयां याद करने तक तो ठीक था, लिखवा कर देख लेते, लेकिन नहीं जी, स्टेज पर खड़े करवाकर उसका सस्वर पाठ करवाने के आदेश को मानना हमारे कोमल मन को नहीं भाया। उसपर हमारे नये बने मित्र धनंजय का साथ, स्कूल का इतिहास बदल कर रख दिया हमने। उस शानदार शेर की ऐसी तैसी नहीं फ़ेरनी हमें यहां पर ’अकेला जानिब-ए-मंज़िल, कारवां’ वाले की,’ नहीं तो यहाँ फ़िट बैठता है वो शेर एकदम से।

स्कूल से भागकर पहली फ़िल्म देखी, ’जीत’।  टांगेवाले तो नहीं थे लेकिन तभी इरादा कर लिया था कि और कहीं जाय न जायें, प्रेमनगर जरूर जायेंगे। हफ़्ते में एक फ़िल्म पक्की , गीत-संगीत-अभिनय जैसी ललित कलायें हमने स्कूल से भागकर फ़िल्मों से ही पसंद करनी शुरू की  थी। और एकाध बार और जरूर निकला करते स्कूल से और दिल्ली भ्रमण किया करते। घुमक्कड़ी का शौक वहीं से पैदा हुआ हमें।  राजधानी  का भूगोल और इतिहास वहीं से जानना शुरू किया। सभी ऐतिहासिक स्थल उस समय ही देखे। बुद्धा गार्डन, लोधी गार्डन, पुराना किला और सफ़दरजंग का मकबरा जैसे स्थान हमें बहुत प्रिय हो गये थे और ये अनुभव आगे बहुत काम आये।

इतना सब होने के बावजूद गरमियों की छुट्टियों का बहुत इंतज़ार रहता था। स्कूल जाने वाले दिनों में हमेशा झकझोर कर उठाया जाता था हमें और छुट्टियां होते ही हम पौ फ़टने से पहले ही उठ जाया करते। छत पर सोते थे और पैर में रस्सी बांधकर ग्रिल से नीचे लटका देते थे, जैसे जहांगीरी न्याय वाली कहानी में फ़रियादी आते थे और शाही घंटा बजाकर अपनी फ़रियाद पेश करते थे, हमारे मित्रगण नीचे से आकर रस्सी खींचते और हम अपने घरवालों की नींद खराब किये बिना उठकर अपने मिशन पर चल देते। वैसा ही मंजर होता था जैसे वानर-दल किसी अभियान पर निकला हो या लालू पासवान की रैली में कोई जत्था नारे लगाता जा रहा हो, चलो दिल्ली।   बस हमारा नारा होता था, चलो पार्क। इत्ते हैल्थ कांशियस थे जी हम सब बचपन से ही।

दूर के रिश्ते में हमारा एक चाचा था ’बिट्टू’  हमउम्र ही था तो हम तो नाम से ही बुलाया करते थे, बस जब कुछ खास बात हो तभी चाचा कहा करते। और संयोग देखिये, एकदम लपूझन्ना वाले लफ़त्तू की फ़ोटोकॉपी। कसम से, कोई वैज्ञानिक अगर इस विषय पर खोज करे कि ’ये ल तो ल बोलने वाले तिस मित्ती ते बने होते हैं’ तो एकाध   इनाम तो हमारे  शिव भैया दिलवा ही देंगे अपने हलकान विद्रोही से।    अलग अलग स्कूल में होने के बावजूद छठी क्लास तक हम कदम से कदम मिला कर चलते रहे। उसके बाद हम तो थे चूंकि चंचल स्वभाव के, कहीं एक जगह ज्यादा टिकते नहीं थे, वो निकला चरित्र का धनी और पौराणिक पात्र अंगद से प्रेरणा लेकर पांव जमा दिया शेर ने छठी क्लास में। हम पहुंच गये दसवीं में, वो सूरमा नहीं हिला अपनी जगह से। पंचवर्षीय योजना भी पूरी कर दी उसने, पर अड़ गया तो अड़ गया। आखिर में स्कूल के प्रिंसीपल साहब ने घर आकर अपनी टोपी उतारकर रहम की भीख मांगी तो उसके घरवालों ने शरणागत का मान रखते हुये हमारे चाचा को स्कूल से बाहर करना मंजूर कर लिया। वैसे बंदा बहुत बढ़िया था, यारों का यार। लोग तो किताबी पढ़ाई किया करते हैं, उसने  ’आराम करो आराम करो’ वाली कविता को जीवन में उतारा था। कभी कोई हड़बड़ी नहीं, कोई जल्दी नहीं। सब काम बड़े सुकून से किया करता। अपने साथ खूब जमा करती उसकी।

ऐसी ही गरमी की छुट्टियां चल रही थीं और उसकी मां ने एक दिन मुझे घेर लिया। बहुत प्यार से उन्होंने मुझसे मिन्नत करी कि सुबह पार्क जाते समय उसे भी ले जाया करूं। ऐसा पता नहीं क्या था कि मुझपर भरोसा सब कर लेते थे, उनको भी यही आशा थी कि मैं साथ लेकर जाऊंगा तो उनके लाल की तरफ़ से वो निश्चिंत रह सकेंगी। हमने कौन सा कंधे पर बैठाकर ले जाना था, हां भर दी और वैसे भी नाटते तो हम थे ही नहीं किसी काम को। दे दिया अल्टीमेटम उसे कि सुबह टाईम खराब नहीं करना है और दूसरी से तीसरी आवाज लगानी पड़ी तो खाट ऊपर होगी और वो नीचे। हमारी तो खैर बात मानता ही था चाचा मेरा, धमक गया और हां भर दी। अगले दिन जाते ही उसकी खाट उलट दी। और जबतक वो हड़बड़ा कर खड़ा हो, पहले से ही चढ़ गये उसपर राशनपानी लेकर कि कल ही कह दिया था दो आवाज लगानी है बस, कल से पहली आवाज के बाद ही ये अंजाम होगा। थोड़ा बहुत झूठ कई बार अच्छा रहता है जी, अगले दिन से बिट्टू का बि..   ही मुंह से निकलता था और वो फ़ट से उठ खड़ा होता।
पिक्चर अभी बाकी है दोस्त......

:) फ़त्तू के एक ऐसे परिचित की मौत हो गई थे, जिसके परिवार या मित्रों में से कोई फ़त्तू को नहीं पहचानता था। जब फ़त्तू को उस मौत की जानकारी मिली तो वो भी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिये गया। अर्थी को कंधा देने के लिये फ़त्तू ने भी खुद को प्रस्तुत किया। हम हिन्दुस्तानी तो वैसे भी मुंह माथा देखकर प्रतिक्रिया देने में यकीन रखते हैं,  बाकी तीनों जगहों पर अदला बदली चलती रही और फ़त्तू को चूंकि कोई नहीं जानता था वो बेचारा लगातार अपनी ड्यूटी में लगा रहा। देख जरूर रहा था कि उसका कोना कोई रिप्लेस नहीं कर रहा।  आखिर सब्र का बांध टूट गया। उसने अपने बढ़ते कदम रोके, हाथ उठाया हवा में और बोला, "डटट जाओ रै सारे," कहकर अर्थी को नीचे रखने लगा। बैलेंस बनाने के लिये बाकियों ने भी  अर्थी को नीचे रखा और गुस्से में फ़त्तू से पूछबे लगे, "के बात हो गई रै, ईसा उल्टा काम क्यूंकर कर दिया तन्नै?" फ़त्तू और भी ज्यादा गुस्से में बोल्या, "मेरे साल्यो, मैं थम से पूछूं सूं कि इस छोरी** को मारण वाला मैं सूँ के थारी नजर में, जो सारा वजन मुझ ऐकले पर डालो सो?"

गाना सुनो यारो तुम, हमारी तो देखी जायेगी।  अपने को इसमें किशोर कुमार वाला हिस्सा बहुत पसंद है। पसंद अपनी अपनी, ख्याल अपना अपना।

रविवार, अगस्त 15, 2010

पीपल का पेड़, दद्दू लोग और हमारा मिडास टच

मेरा एक सहकर्मी है, नहीं था, पता नहीं ये है ठीक है या था ठीक है। कई साल हम इकट्ठे रहे आजकल अलग अलग जगह पर पोस्टेड हैं।   जाने दो, हरियाणा का वासी,  ठेठ जाट और उसपर तुर्रा ये कि कई साल तक उसकी और मेरी सीट साथ साथ रही थी। मतलब अंदाजा लगा सकते हैं कि कितने गुणों, दुर्गुणों की खान है वो। पक्का आर्यसमाजी, तर्क ऐसे जोर से किया करता कि बस पूछिये मत। चाय का ऐसा शौकीन कि हर एक घंटे के बाद तलब लग जाती उसे, “रे, चाय मंगा ल्यो रे कोई सा।” मैं नया नया आया था, पहला ही दिन था मेरा वहां।  मैंने सोचा कि यार इसमें क्या बड़ी बात है?  प्यून को आवाज लगाने ही वाला था कि दूसरी तरफ़ बैठे साथी ने इशारे से रोक दिया। ’दो मिनट चुपचाप बैठ,’ हंसते हुये उसने धीरे से मुझसे कहा। मैं भी पुराना तमाशबीन, बैठा रहा। दो नहीं पांच मिनट लगे होंगे, मेरे यार ने पन्द्रह बार हांक लगा दी होगी, और फ़िर खुद ही खड़ा होकर कहने लगा, “मन्नै ई बोलकर आनी पड़ोगी, सारे बैठे हैं मेरे सुसरे जाढ़ भींचकर” और जाकर खुद ही चाय का आर्डर देकर आया। अब साथ वाला कहने लगा,  ’इसका रोज का ड्रामा है, तलब लग जायेगी तो न्यूऐ रुक्के मारेगा और फ़िर आप ही चाय पिलायेगा सबको।’   बस जी अपने को जम गया बंदा, अपनी पटेगी इसके साथ, पटी अपनी और खूब जमकर पटी।

एक दिन बताने लगा कि मेरे गांव के घर में एक पीपल का पेड़ है। जब कभी भी गांव जाना होता है, देखता हूं कि घर की सभी औरतें कुंये से पानी खींचती हैं और पीपल को जरूर चढ़ाती हैं, और मैं उनकी धर्मान्धता का हमेशा बहुत मजाक उड़ाया करता। फ़िर उसने बताया कि एक दिन पता नहीं उसके मन में क्या आई कि बिना काम के ही वैसे ही गांव चला गया। बाहर चारपाई पर बैठा था और अंदर उसके लिये चाय-दूध की तैयारी चल रही थी। अनायास ही उठा और कुंये से एक बाल्टी पानी खींचा और जाकर पीपल की जड़ में डाल दिया। कह रहा था कि मेरी चाची ने मुझे देखा और हैरान भी हुई कि आज तुझे क्या हुआ है?  रात को वो अपने बीबी बच्चों के पास शहर लौट आया। सुबह गांव से फ़ोन आया और चाची ने बताया कि कल शाम जिसे तुमने पानी डाला था, वो बरसों पुराना पीपल का पेड़ गिर गया है। बात हंसी मजाक में आई गई हो गई, लेकिन वो भूल नहीं पाया  अब तक कि ये केवल संयोग मात्र है या फ़िर कुछ लेने-देने का संबंध?  आखिर तो हम भारतीय बहुत पहले से और विज्ञान जगत भी सौ पचास साल से वनस्पति में जीवन को मानता ही है।
भूला अगर वो नहीं, तो मैं भी नहीं। मेरे अपने दादाजी अंतिम समय में लगभग तीन साल तक बिस्तर में रहे। मधुमेह के कारण उनके घुटनों पर असर पड़ गया था।  वैसे एकदम एक्टिव, खुराक वगैरह उस समय भी हमसे ज्यादा, आवाज हमसे ज्यादा बुलंद, जिंदादिल एकदम। इन तीन सालों में अपना उनका वास्ता सिर्फ़ खाना लाकर देने तक, दवा देने तक या थोड़ा बहुत हंसी मजाक तक ही रहा, पता नहीं क्यूं। पिताजी रिटायर हो चुके थे तब तक, और मेरे दादाजी की व्यक्तिगत संभाल उन्होंने स्वेच्छा से और जिद करके अपने तक ही रखी।  नहलाना, धुलाना, कपड़े बदलना, बिस्तर पर पड़े मरीज के सभी दैनिक कार्य, सब कुछ पिताजी के सुपुर्द था और उन्होंने पूरी तपस्या के साथ यह काम किया। बाई द वे, बता दूं कि मेरे पिताजी अकेले पुत्र रहे अपने मां-पिताजी के, एक बहन और थीं और उनका भी तब तक देहांत हो चुका था। बल्कि मेरे दादाजी के बड़े भाई नि:संतान थे तो मेरे पिताजी दो परिवारों के अकेले पुत्र रहे।

उस दिन कार्तिक पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा, गुरू नानक जन्म दिवस, गंगा स्नान और\या पता नहीं किन किन त्यौहारों की छुट्टी थी। देख लो जी कित्ती नाईंसाफ़ी है सरकार की, चालाकी भी कह सकते हैं कि सिर्फ़ एक छूट्टी में इतने त्यौहार और कम से कम तीन धर्म निबटा देती है। देर तक सोकर, नहा धोकर, इत्र फ़ुलेल लगाकर रोड इंस्पैक्टरी के इरादे से घर से निकलने वाला था कि पिताजी ने कहा कि यार आज तेरी छुट्टी है, मेरी मदद कर कुछ। तेरे दादाजी को नहलाना है, दो तीन दिन हो गये हैं। दो तीन दिन से दद्दू कुछ सुस्त दिख रहे थे, खाना भी कम खा रहे थे। मैंने कहा कि चलो पहली बार पिताजी ने कुछ काम कहा है, हाथ लगवा देते हैं। हम दोनों बाप बेटे ने मिलकर उनके कपड़े उतारे, नहलाया, बदन पोंछ कर कपड़े  पहना रहे थे कि दादाजी ने अपनी आंखें तो खुली रहने दीं और सांस लेना बंद कर दिया। मेरा पहली बार सेवा टहल करना शायद बरदाश्त नहीं हुआ उन्हें, मुझे उसी समय याद आ गया पीपल का वो पेड़ जो शायद बरसों से बाट जोह रहा था मेरे दोस्त के हाथों पानी डाले जाने की।
दादाजी के बड़े भाई, मेरे बड़े दादाजी, मैंने पहले बताया कि नि:संतान थे। हमारी दादी का देहांत कई साल पहले हो चुका था। इनकी उमर अस्सी के ऊपर ही थी। घर हमारे तीन चार किलोमीटर के फ़ासले पर थे, कई बार कहने के बावजूद हमारे साथ रहने नहीं आ रहे थे वो, हर बार यही कहते कि कुछ हिसाब किताब है मेरा लोगों के साथ, समेट लूं फ़िर वहीं रहना है तुम लोगों के पास। वैसे कोई दिक्कत नहीं थी, उनके घर के आसपास सभी अपने कुल परिवार के ही लोग थे, हमारा घर ही उन सबसे दूर था।  दूसरे तीसरे दिन कभी पिताजी, कभी मैं और कभी मेरा भाई उनसे मिलने जाते रहते थे। काफ़ी एक्टिव थे बड़े दादाजी हमारे, लेकिन वृद्धावस्था के चलते महीने दो महीने में एकाध बार नर्सिंग होम में एडमिट होना ही पड़ता था। साथ में रहने वाले जरूरत पड़ने पर हमें खबर कर देते और हमारे घर से कभी मेरे पिताजी और कभी मेरी मां और उधर के परिवारों से कोई सदस्य, सभी मिलजुल कर समय निकाल लेते थे। तीन चार दिन में बड़े दादाजी घर वापिस हो लेते थे। वही रूटीन शुरू, रात ढलते ही टी.वी. ऊंची आवाज में चालू और वो भी चालू हो जाते थे, ड्रिंकने और थिंकने में। हमारे साथ न रहने की सबसे बड़ी वजह यही समझ में आती है मुझे। मुझे फ़ख्र है कि मेरे घर का सबसे बिगड़ा सदस्य मैं हूं। इस बिगड़ैलपने पर फ़ख्र इसलिये होता है कि मेरे परिवार के बाकी सदस्यों की सादगी और बढ़ जाती है इससे।

तो जी ऐसा हुआ कि शाम को ऑफ़िस से वापिस आया तो मां कहने लगी कि तेरे बड़े दादाजी नर्सिंग होम में हैं। मैं कहने लगा, “इसमें क्या बड़ी बात है, छ: महीने न देखें नर्सिंग होम का बिस्तर तो बड़ी बात होगी।”  भगवान के आगे मेरे पत्थरदिल होने की, बेरहम होने की, ममताशून्य होने की शिकायत की गई और समझाबुझाकर मुझे पहली बार नर्सिंग होम भेजा गया कि जा उनके पास, वो याद करते रहते हैं तुझे,  और उन्हें अच्छा लगेगा। चला गया जी, सोचकर गया था कि घंटा भर बैठ कर आ जाऊंगा, वहां लग गये तीन चार घंटे, दूसरे परिवार से जिस रिलीवर ने आना था, वो आया ही नहीं। बैठा हुआ कुढ़ता रहा, खीझता रहा और जब वापिसी का मौका लगा तो कसम खाकर उठा कि आज के बाद नहीं आना इनके पास होस्पिटल में। दो घंटे के बाद फ़ोन आ गया कि मरीज के घर जाने की जिद के चलते उन्हें घर ले आया गया था और अब वो अपने असली घर को चले गये हैं। देख लो जी कैसी लाज रखी मेरी कसम की भगवान ने, पहली बार गया था उनसे मिलने नर्सिंग होम में, नहीं हुआ बरदाश्त उनसे भी। मेरी आंखों के सामने फ़िर से पीपल का पेड़ भरभराने लगा था….।
वो दिन है और आज का दिन, मेरा अपना कोई बीमार होता है तो मैं कोशिश करता हूं कि रिस्क न ही लूं कोई। पत्त्थरदिल समझा जाना मंजूर है, लेकिन…।
यहां ब्लॉगजगत में आया, तो कुछ पुराने ब्लॉगर्स ने मुझे हाथों हाथ ले लिया, मैं धन्य हो गया। मैंने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाते हुये कुछ ऐसे ब्लॉग शार्टलिस्ट किये, जो अपेक्षाकृत नये थे और मुझे अपीलिंग लगे, मैं उनका फ़ॉलोवर बन गया। इनसे भी शायद बर्दाश्त नहीं हुआ,
२.http://athaah.blogspot.com/
३. http://bhanu-choudhary456.blogspot.com/
४. http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
ये मैंने दो चार उदाहरण दिये हैं, जिसे छू दिया है वही इनैक्टिव हो जाता है। हा हा हा। जस्ट फ़ॉर टैस्टिंग ’अपना पंचू’ को फ़ॉलो करना बंद किया तो लोकेन्द्र सिंह राजपूत जी कुछ ऐक्टिव दिखने लगे हैं। जो पुराने वाले हैं अपने यार बेली, वो पके हुये हैं, लेकिन मुझे अब भी अपने पर यकीन है। हा हा हा...
क्यों नहीं भारत सरकार मेरे इस मिडास टच का फ़ायदा उठाती? पकड़ो किसी घोटालेबाज को,  किसी आतंकवादी को, किसी देश के दुश्मन को, एक बार कुटम्मस चढ़ाकर  भर्ती करो किसी नर्सिंग होम में,  और मुझे भेज दो उसकी लुक-आफ़्टर करने। अबे सालों, तुम्हारी धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी और अलानी फ़लानी छवि भी बरकरार रह जायेगी और मेरा भी कुछ जीवन सफ़ल हो जायेगा। कल को कहीं अमरीका या चीन को पता चल गई न ये बात, तो ले जायेंगे हाईजैक या लोजैक करके, फ़िर हाथ मलते रहना कि ब्रेन ड्रेन हो गया। अभी तो कदर नहीं करते, फ़िर भेजोगे रंग बिरंगे डोज़ियर जैसे अब मांगते हो दाऊद को, और पाकिस्तान देता नहीं। खैर, हम नाउम्मीद नहीं हैं जी, जब चाचा, पायलट, किसान पुत्र, धरती पुत्र, अर्थशास्त्री जैसे प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो आप में से कभी न कभी कोई ब्लॉगर भी जरूर प्रधानमंत्री बनेगा। तब अपनी सुनवाई जरूर होगी। पता नहीं कितने खूनों से हाथ रंगे जाने हैं अपने, देखी जायेगी।

:) फ़तू के गृहस्थ जीवन में उठापटक चल रही थे और इसके चलते फ़त्तू ने दाढ़ी वाढ़ी बढ़ा रखी थी, दिखने में बाबाजी ही लगता था उन दिनों। एक दिन गली में से जा रहा था तो एक मियां बीबी का झगड़ा देख सुनकर ठहर गया। बीवी गुस्सा होकर घर से निकली और दौड़ती हुई फ़त्तू के पास से निकल गई। उधर मियां ने आवाज भी लगाई थी कि ’बाबाजी, पकड़ियो इसे।’ फ़त्तू चुपचाप उस औरत को भागते हुये देखता रहा। 
उसके पति ने पास आकर गुस्से में कहा, “क्या बाबाजी, पकड़ न सके था इसनै?”
फ़त्तू, “बाबाजी ने के कहे था पकड़न ताईं, बाबाजी तो अपनी नै ही  छोड़ै हांडे है।”
तो जी, फ़त्तू से तो रहो सारे बेफ़िक्र, वो तो अपनी ही छोड़े फ़िर रहा है। मस्त रहो और आजादी का दिन सैलीब्रेट करो। हमें तो इस दिन भी ड्यूटी पर जाना है, देखी जायेगी हमारी आजादी की तो।

देशभक्ति के गाने तो बहुत से बजेंगे आज सब जगह, यहां तो कुछ और ही सुन लेना।

गुरुवार, अगस्त 12, 2010

A confession - extended part - बताना तो पड़ेगा ही।

हमारी पिछली पोस्ट पर मिश्रित प्रतिक्रियायें आईं जी। स्क्रिप्ट को पसंद भी किया कुछ ब्लॉगर्स ने और मेरे प्रश्न का जवाब भी कुछ बंधु बांध्वियों ने दिया। हीरो के अंजाम के बारे में जिन्होंने भी प्रतिक्रिया दी, कमोबेश सभी की एक राय थी कि हीरो सजा का पात्र है।  आपका फ़ैसला सर आँखों पर।  अब हमारा पक्ष सुनिये  वह पोस्ट निकालने का, लेकिन उससे पहले थोड़ी सी हमारी बेफ़ज़ूली झेलनी पड़ेगी,   पैकेज है जी, क्योंकि मार्केटिंग का भी है जमाना।
पिछले कुछ दिन से हम इंचीमेंटल हुये जा रहे हैं। सेंटीमेंटल तो कोई भी हो सकता है, पर हम इंचीमेंटल से कम में नहीं मानते।  सात आठ महीने हो गय, यहाँ की खाक छनते छानते। हमें घूम फ़िरकर तीन मुद्दों से ज्यादा कुछ नहीं दिखा, इधर। पहला  धर्म, दूसरा लिंगभेद और तीसरा टिप्पणीनामा। अपने लिये तीनों ही समान हैं। ये सब जरूरी हैं, बिना इनके जीवन निरर्थक है, लेकिन साथ ही यह भी  मानते है कि ये चीजें सब कुछ नहीं हैं।
आजकल फ़िर से  बड़ा धार्मिक वातावरण बना हुआ है।   धर्म की बात करें तो अपने लिये तो धर्म व्यक्तिगत आस्था की चीज है। मैं खुद बहुत तो क्या थोड़ा  भी कर्मकांडी  नहीं हूँ, लेकिन अपने धर्म पर गर्व है मुझे। बहुत सुविधायें, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सदाशयता दी हैं मेरे धर्म ने मुझे। जो मुझसे सहमत नहीं, उनकी सोच का मान रखना भी सिखाया है मुझे इसने। और अपने धर्म पर गर्व सबको होना चाहिये और जिसे नहीं है  उसे स्वतंत्रता भी होनी चाहिये कि वह अपनी मर्जी के धर्म का पालन करे। मुझे मौका मिलेगा और मैं इस लायक हुआ तो मेरी कोशिश होगी कि अपने धर्म को देश के, समाज के और समय के अनुसार ढालूँ। मुझे सफ़ाई करनी होगी तो अपने घर से शुरू करूंगा लेकिन यह गंदगी पडौसी के घर के आगे नहीं फ़ैंकूँगा और न ही चाहूँगा कि पड़ौसी ऐसा करे। यहाँ क्या हो रहा है? अपने आसपास की सफ़ाई पर किसी का ध्यान नहीं, चीख चीखकर दिखाया जा रहा है कि तुम्हारा घर कितना गंदा है।
क्या ये अलग-अलग धर्म एकदम से पैदा हो गये? है कोई ऐसा जिसका वास्ता दूसरे धर्म के लोगों से न पड़ता हो? किसी की शख्सियत को जानने का एक ही पैमाना रह गया है कि वो किस धर्म का मानने वाला है। अगर मेरे धर्म का है तो सब माफ़ और दूसरे धर्म का है तो कौआरार शुरू, ले तेरे की और दे तेरे की।
जनता सरकार के समय की बात है, बहुत समय के बाद भारत-पाक का टैस्ट मैच चल रहा था और टी.वी. पर उसका प्रसारण आ रहा था। सत्तर साल के आसपास की बूढ़ी अम्मां लाठी टेकते हुये हमारे घर आई, अपने जाने किस रिश्ते के मुदस्सर नज़र को टी.वी. पर देखने के लिये।  आर्थिक हैसियत में जमीन आसमान का अंतर होने के बावजूद उन अम्मां का हक से मेरी माँ को बारबार ’ओ बहू, चाय तो पिलाओ एक और’ या ऐसे ही आवाजें लगाना और मेरी मां का अपनी सास की तरह उनका आदर सम्मान करते देखना मुझे तो कहीं से अजीब नहीं लगा। मेरी अपनी दादी और वो अम्मां पास बैठी हुई बहनें ही लग रही थीं  मुझे तो, बेशक पहनावे में उनके अंतर था, लेकिन दिलों में कोई अंतर नहीं था।
जब मेरे दादाजी के मित्र शम्सुल हसन मिलने आया करते थे, तो हमें पूरा नाम लेकर कभी नहीं बताना पड़ता था।  बाबा आये हैं, का मतलब ही हसन बाबा से था। मेरे पिताजी के दोस्त, कुरैशी अंकल, बजरू चाचा हमें तो अपने जैसे ही लगते हैं अब भी। दीवाली पर उनके यहाँ मिठाई देने जाना और ईद पर उनके यहाँ से जब तक सेंवईंयां न आ जायें, हम तो कोई त्यौहार पूरा मान नहीं पाते थे। लड़कपन में कहीं कोई  बदमाशी करते समय इनमें से  कोई दिख भर जाता तो हमें उतना ही डर लगता था जितने अपने परिवार के बड़ों से। 
बताते हैं इंसान ने बहुत तरक्की कर ली है,  ये तरक्की ही तो है कि नफ़रत और विद्वेष फ़ैलाने के लिये विज्ञान के नये आविष्कारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन ये बकवास करना अपना सब्जैक्ट नहीं है जी. अपनी बकवास वाली लाईन तो वही है, उसी पर चलते हैं।
जब धूम का, कृष का, स्पाईडरमैन का और पता नहीं किस किस का सीक्वैल बन सकता है तो हमारी फ़िलिम का सॉरी तुम्हारी फ़िलिम का सीक्वैल नहीं बन सकता क्या? हम पहले थोड़ी गलतबयानी कर गये थे जी। हम हीरो, एंटी हीरो बनने के लायक कभी थे ही नहीं, हम तो साईड हीरो भी नहीं। ये मत सोच लेना जी कि सजा सुनकर  कल्टी मार गये हैं। अपन तो हैं महज दर्शक और किसी को रुचती हो तो हमारी सलाह मान ले, न तो वो अपने घर खुश और हमारी तो खैर देखी ही जायेगी।  नजर डालें हमारी इश्टोरी के  हीरो के पहले कारनामों पर, यहाँयहाँ पर  और यहाँ पर भी। और अब बताईये हमारे पुराने प्रश्न का ही जवाब, ये ध्यान में रखते हुये कि इन नज़ीरों को प्रेरणा मानते हुये  क्या इस बात की संभावना नहीं दिखी किसी को कि   इनसे प्रेरित होकर और भी घटनायें हो सकती हैं? आखिर सिरफ़िरे किसी एक जमात में ही तो नहीं हैं? जब हमें याद आ सकता है वो चुटकुला जिसमें एक गाली देने के आदी सेठ को किसी सरकारी मुलाजिम ने इस बात पर कोर्ट में खड़ा कर दिया कि सेठ ने सात बार उसे गाली दी थी और जज महोदय ने सौ रुपये प्रति गाली के हिसाब से जुर्माना तय कर दिया तो सेठ ने मुनीम से हजार रुपये जमा करवाने की बात कहते कहते तीन गालियाँ और दे दीं, तो भाईजान औरों को भी याद आ सकता है। अगर वो भी पार्ट वन के हीरो की तरह पहले ऐसे ही कई बलात्कार कर दें और फ़िर प्रायश्चित कर ले तो झेल सकोगे क्या?
आदरणीय अली साहब ने अपने कमेंट में छिछोरों का ज़िक्र किया था, तो साहब हमें छिछोरों की छिछोरपंती से उतनी घबराहट नहीं जितनी इस बात से है कि जो छिछोरे बनने से बचे हुये हैं वो अगर छिछोरपने पर उतर आये तो क्या होगा?
हमारी चिंता से किसी को सुकून मिले तो और  इस विषय पर हमारे पुराने विचार जानना चाहे तो इधर और उधर देख लेना। देखने का कोई पैसा नहीं है जी, एक दो पुराने गाने भी सुनने को मिल जायेंगे और क्या जान लोगे बच्चे की? बस शिकायत नहीं करना कोई  कि बताया कुछ और था और दिखाया कुछ और।

रविवार, अगस्त 08, 2010

A confession - बस ये जानना और बाकी था....

आज थोड़ा हटके है जी। किसी को  जोर का झटका धीरे से लगे या धीमा झटका जोर से लगे तो सारी  जिम्मेदारी  हमारी ही है। हम कोई भारतीय रेल नहीं हैं कि कह दें ’सवारी अपने सामान की स्वयं जिम्मेदार है।’  पहले से बता देना इसलिये जरूरी है कि हो सकता है बाद में जाकर आपको अहसास हो कि  हम आज तक बेकार में ही वाह-वाह करते रहे। जिन सज्जन या सज…..   यानि कि  भद्र पाठकों की भावनायें, सम्वेदनायें वगैरह ज्यादा सेंसिटिव हों, कृपया यू-टर्न का इस्तेमाल करें ताकि बाद में और ज्यादा पछतावा न हो। जब जागो तभी सवेरा समझ लेना चाहिये।
भारतीय सिनेमा के ग्रेटेस्ट शोमैन राजकपूर ने जी जान से फ़िल्म बनाई थी, ’मेरा नाम जोकर।’  पब्लिक ने फ़िल्म को नकार दिया, दुखी होकर राजकपूर ने कहा था, ’जो मैं दिखाना चाहता था, वो पब्लिक ने नहीं पसंद किया, अब मैं वो दिखाऊंगा जो पब्लिक को पसंद है।’ बॉबी, सत्यम शिवम सुंदरम, प्रेम रोग और राम तेरी गंगा मैली जैसी सुपरहिट फ़िल्में इसी ज़िद का नतीजा थीं। किसी सामाजिक समस्या का नाम लेकर अंग-प्रदर्शन की चाशनी में पकाकर वो ऐसी डिश परोसते रहे कि पब्लिक पागल हो गई।
हमने भी एक स्क्रिप्ट लिखी है जी, थोड़ी सच्ची थोड़ी काल्पनिक। अप्रूवल हेतु प्रस्तुत है। नायक हमीं बनेंगे जी अपनी इश्टोरी के, वैसे भी या तो कुडि़यों का है जमाना या  एंटी हीरो का है जमाना। हमारे अंदर दोनों क्वालिटी हैं, गैरों के साथ कुड़ियों जैसा नरम दिल और अपनों के लिये एंटी हीरो।
मान लीजिये कि आज से लगभग अठारह बीस साल पहले हमारी इश्टोरी का हीरो  नामजद  हुआ था  एक सामूहिक ब्लात्कार के केस में। पीडि़ता का चाल-चरित्र,  भूत-वर्तमान, आसपास का माहौल जैसा भी रहा हो, खूब हो-हल्ला मचा। थाना, कोर्ट, कचहरी, धरने, प्रदर्शन , दंगा-फ़साद सब कुछ हुआ।   आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला, हमारे पक्ष के लोगों ने जो हुआ उसे सही ठहराया और दूसरे पक्ष के लोगों ने खुद के साथ हुये अन्याय की हर तरह से दुहाई दी। लेकिन सच तो यह है कि यह सब हुआ था। 
अब पेंच ये फ़ंसा जी कि कई साल के बाद हीरो की आत्माराम या जमीरखान जो भी कहते हों, जाग खड़े हुये। उसे अपनी गलती का, अपने द्वारा ढाये गये ज़ुल्मों का ऐहसास हुआ, शर्म के मारे बस डूबे नहीं। उसने पाला बदल लिया और दूसरे पक्ष की आंखों का तारा बन गया।
स्क्रिप्ट यहां फ़ंस गई है जी आकर हमारी।  कानूनी कार्यवाही चल रही है, कयामत का दिन बस आया ही चाहता है, फ़ैसले की घड़ी नज़दीक ही है। सवाल ये है  कि हीरो का यानि मेरा क्या होगा?  जो मेरे साथी  थे, उन्होंने और उनके वकील ने तो उनके निरपराध होने की दलील दी है, लेकिन मैं तो कुबूल कर चुका हूं कि मैं उस सबमें शामिल था। अगर वो सब किसी साजिश के तहत हुआ  था  या किसी क्षणिक उद्वेग का नतीजा था, मेरे पाला बदलने से क्या हकीकत बदल गई? औरों पर तो बेशक अपराध सिद्ध न भी हो, मैं तो सबके सामने जुर्म कबूल चुका हूं , तो क्या मेरा अपराध सिद्ध नहीं होता?   दूसरी तरफ़ अगर मुझे हृदय परिवर्तन की वजह से या किसी और वजह से छूट मिल जाती है तो क्या कल को कोई और शातिर इस बात का फ़ायदा नहीं उठायेगा? यह कहानी दोबारा नहीं दोहराई जायेगी, क्या गारंटी है इसकी?  पहले बलात्कार कर लेंगे, फ़िर बाद में पश्चाताप कर लेंगे।                  
इश्टोरी के इस ट्विस्ट पर आकर उलझ गया हूँ जी, अब आपसे नहीं पूछूंगा तो किससे पूछूंगा? हीरो को माफ़ी दे दी जाये या जुर्म कबूलने पर सजा का हकदार है वो? बाई द वे, इस स्क्रिप्ट पर फ़िल्म बनी तो ड्यू क्रेडिट सही टिप्पणीकार को जरूर मिलेगा।  बल्कि सारा क्रेडिट ही उसे दे देंगे, हमारी तो देखी जायेगी।                         

जारी है या  नहीं है, पता नहीं जी। बॉक्स-ऑफ़िस के ट्रैंड पर डिपैंड है सब।

:) फ़त्तू खुद को बावला कहकर बुलाये जाने से हैरान और परेशान था। एक दिन भटकते टहलते अपने गाँव से दूर किसी दूसरे गाँव जा पहुँचा। गर्मी से बेहाल, कुँये पर पहुँचा तो देखा कि एक के बाद एक लड़कियाँ, बहुयें पानी भरकर ले जा रही हैं। वो एक ओर खड़ा होकर देखता रहा और देखता ही रहा। आसपास  के कुछ लोगों की नजर भी उस पर पड़ी और उन्हें उसकी नीयत पर शक सा भी होने लगा। लेकिन एक अनुभवी बूढ़े ने उसकी नजर को देखा और पानी भर रही एक बहू से कहने लगा, “बहू, इस बावले नै पाणी तो प्या दे माड़ा सा, प्यासा सै।” 
फ़त्तू ने पानी पी लिया और बूढ़े से जाकर पूछने लगा, “ताऊ, मन्नै सब बौअला कहया करैं सैं, या बात तन्नै कुण सा बता गया?”
ताऊ बौल्या, “रै बौअले, किसै के बताण की जरूरतै न पड़ती,  तेरे जिसेयां के लच्णछ  आप ही बता दें सैं।”

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

कुछ गाने-वाने की बात हो जाये?

आजकल ऑफ़िस में कुछ अपग्रेडेशन का काम चल रहा है। जाने का समय तो है, आने का कोई समय नहीं है। पब्लिक डीलिंग तक तो रूटीन का काम चलता रहता है, उसके बाद कभी तो बहुत काम रहता है और कभी सिर्फ़ बैठकर इंतज़ार करते रहो कि इलैक्ट्रिशियन या दूसरे टैक्नीशियन अपने हिस्से का काम कर रहे हैं। कभी लाईट डिस्कनैक्ट कर रहे हैं कभी इधर की तार यहाँ से डालकर वहाँ निकाल रहे हैं। अपन बावलों की तरह कभी इधर देखकर हैरान होते हैं कभी उधर देखकर हक्के-बक्के। सावन का महीना, बंद हाल में लाईट भी नहीं, गा ल्यो कजली और खा ल्यो मालपुये। अब नौकरी करनी है तो ये सब भुगतना ही पड़ता है। एकाध साथी को और बैठना पड़ता है बेचारे को साथ में, जबरदस्ती ही।  अपना तो खैर चल ही जाता है कि पता है घर पर कौन सा गले में हार डाले जाने हैं, जैसे कंता घर भले वैसे भले बिदेस। पर ये खाली बैठना, बस मार ही डालता है। जब दिल ढूंढता था फ़ुर्सत के रात दिन, तब तो मिले नहीं और जब मिलते हैं तो उस समय उन्हें न ओढ़ सकते हैं न बिछा सकते हैं। सुडोकू भी कितने हल करें, अखबार में एक ही आती है और एक ही हिन्दी की वर्ग पहेली। और फ़िर ये कागज की पहेलियां हल करने से जिन्दगी की पहेलियाँ कहाँ सुलझती हैं?
साथी हमारे गृहस्थ आदमी हैं,   बेचारे कुढ़ते रहते हैं और खीझते रहते हैं लेकिन साथ में बैठे जरूर रहते हैं। हमने भी सोचा कि एक्स्ट्रा टाईम में रुकना रोकना तो मजबूरी है, लेकिन अगर इनके मनोरंजन का कुछ ख्याल रखा जाये तो थोड़ा ठीक रहेगा। बिजली तो भाई लोग काटे रखते हैं, रोज अपने मोबाईल में जितनी गुंजाईश होती है, गाने लोड करके ले जाते हैं, फ़ुर्सत हुई तो चला दिया कि टाईम पास हो जायेगा भाई का। एक दिन गज़लें ले गये, तो भाई साहब ने मुँह बिचका दिया। कहने लगे कि इन गज़लों में से दिल, शराब, महबूबा, दीदार जैसे दस शब्द लिख कर देता हूँ, वो निकाल दो फ़िर देखो कि क्या बचता है इनमें? मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई, सही बात है जी, और फ़िर ये सब ख्वाम्ख्वाह की ही तो चीजें हैं। अगले दिन ले गये पंजाबी गाने, उन्हें कहाँ पसंद आने थे? नहीं आये। नये फ़िल्मी गाने उन्हें फ़ूहड़ लगे तो वो भी फ़ेल हो गये। आखिरी हथियार के तौर पर एक रात काली करके अपने पसंदीदा गानों में से शार्टलिस्टिंग की और ले गये हुज़ूर की अदालत में। हम हुये थोड़े से सफ़ल। उन्होंने रियेक्शन तो देनी शुरू की, देखिये बानगी – गाना दर गाना।

चंचल साहब गा रहे थे बुल्ले शाह की काफ़ी – फ़िल्म बॉबी की, सुनते रहे भाई साहब हमारे मगन होकर। जब अंत में चंचल ने कई बार दोहराया, मैं नईं बोलना, मैं नईं बोलना। मैं नईं बोलना जा, मैं नईं बोलनाSSSS -
प्रतिक्रिया – तू नईं बोलना ते ………..  खड़ के, साला शोर मचाई जांदा है नईं बोलना, नईं बोलना। भारत दा विदेश मंत्री समझदा है खुद नूं, पहले कैंदा है पाकिस्तान नाल नईं बोलणा, नईं बोलणा फ़िर आप ही कैंदा है वार्ता करेंगे।

सागर फ़िल्म का गाना था – सागर जैसी आँखों वाली ये तो बता तेरा नाम है क्या?
प्रतिक्रिया – तू सालेया नाम तों कि लैणा है, सीधे सीधे काम बता।

किशोर कुमार गा रहे थे – आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है, जिंदगी भर वो सदायें पीछा करती हैं।
प्रतिक्रिया – केड़े जमाने दी गल्ल करदा ऐ जी ऐ बंदा, आदमी तां सिर्फ़ सुनदा है, कहंदी ते जनानी है। झूठ बोल्दा है जी ऐ।

’रोटी कपड़ा और मकान’ में मनोज जी और जीनत पर फ़िल्माया गाना, ’मैं न भूलूंगा, मैं न भूलूंगी’
प्रतिक्रिया – नईं भुल्लोगे ते दुख ही पाओगे। तुसी वी ऐंवे ही आओगे दफ़्तर विच बिना शेव कीत्ते।

मैं हर गाने पर उनकी प्रतिक्रिया देखदेखकर हैरान हो रहा था कि कितनी सटीक ऑब्जर्वेशन है इनकी।
 आखिर में मेरा अकेला फ़ेवरेट फ़ास्ट गाना. लावारिस फ़िल्म से ’अपनी तो जैसे तैसे, थोड़ी ऐसे या वैसे, कट जायेगी।
प्रतिक्रिया – ऐ गाना है मज़ेदार, देखन विच्च किन्ना मजा आंदा है।
मैंने कहा, “यार, मुझे तो सुनने में ज्यादा मजा आता है, ये गाना। देखने लगो तो ध्यान भटकता है इधर उधर, सुनो तो सिर्फ़ गाने की वर्डिंग पर ध्यान जाता है।
पुनर्प्रतिक्रिया – तुसी तां होजी ड्राई आदमी, अगली बंदी ने किन्नी कुर्बानी कीती सी, तुसी सारी भुला दित्ती।

मैं सोच रहा था कि भाई मेरे, हमने तो भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खां, ऊधम सिंह, मदन लाल धींगड़ा जैसे अनगनित वीरों की कुर्बानी भुला दी तो कल्पना ऐय्यर या जो भी थी, उसकी कुर्बानी भुलाने का इल्ज़ाम भी अपने सर पर ले ही लेते हैं, देखी जायेगी।

आज फ़त्तू वाला स्पेस inner beautiful वाले अमित जी के नाम,  हमारी एक पर्सनल मेल बिना अमित की इजाजत के पब्लिकली पब्लिश कर रहा हूँ, विश्वास है इस धृष्टता का भी बुरा नहीं माना जायेगा।

From: मो सम कौन ?
To: antarsohil1977@gmail.com
Sent: Friday, August 06, 2010 4:16 PM
Subject: [अन्तर सोहिल = Inner Beautiful] New comment on मन्नै तै रै छोड कै लुगाई मेरी जावेगी.
मो सम कौन ? has left a new comment on your post "मन्नै तै रै छोड कै लुगाई मेरी जावेगी":
भाई अमित, वादा पूरा कर लिया तुमने तो।
भले आदमी, एक बार शिकायत तो करते मुझसे कि जिस फ़त्तू को इस्तेमाल करके मैं कमेंट और वाहवाहियाँ बटोर रहा हूं, वो फ़त्तू पहले से ही तुम्हारी पोस्ट्स का कैरेक्टर है। वो तो आज भाटिया जी के ब्लॉग से पुराने लिंंक्स लेते हुये पहुंचा तो पता चला और शर्म से पानी पानी हो रहा हूं। रागणी का भी पूरा स्वाद नहीं ले पाया।
आज मेरी तरफ़ से तुम्हें प्रणाम।

Amit Gupta
to me show details 4:20 PM (2 hours ago)
काहे की शिकायत जी
फत्तू उतना ही आपका है जितना मैं आपका हूँ, दिल से
आपकी टिप्पणी पाकर पोस्ट सफल हो गई
प्रणाम
p.s. -  गाने तो जी और भी बहुत सारे थे, पर आपका ध्यान भी तो रखना है। आज इन्हें ही झेलो..

बुधवार, अगस्त 04, 2010

छेड़छाड़ हमारा अधिकार, हम इसे हासिल करके ही रहेंगे!

आज के अखबार में एक खबर का शीर्षक था, “छेड़छाड़ से रोका तो घर पर हमला।” खबर कुछ इस तरह से थी कि कुछ लड़के एक परिवार की लड़कियों को रोज सड़क पर छेड़ते थे।  लड़कियों के परिवारवालों ने उन्हें रोकने की, समझाने की कोशिश की तो लड़कों ने पहले तो वही पर उन्हें पीटा और फ़िर कुछ देर बाद अपने साथियों के साथ उनके घर पर आकर तोड़फ़ोड़ भी की और फ़िर से उन्हें पीटा। 
देख लो जी, कितनी नाईंसाफ़ी है बेचारे लड़कों के साथ। एक तरफ़ तो इस सवा अरब की आबादी वाले देश का भार इनके कंधों पर जबरन लादने के बिना राशन के भाषण पिलाये जाते हैं, और जब ये बेचारे  प्रेरित होकर सामर्थ्यानुसार भार उठाना चाहें तो अखबार में ऐसी ऐसी खबरें छापकर इनका मनोबल तोड़ा जाता है। इनका गुस्सा तो सबने देख लिया,  त्याग किसी ने नहीं जाना समझा। अपनी पढ़ाई-लिखाई, कैरियर, घर के जरूरी काम वगैरह छोड़कर इस सामाजिक यज्ञ में डाली जा रही आहूति की तारीफ़ करना तो दूर की बात है, ऐसा सिद्ध करने के प्रयास किये जा रहे हैं कि जैसे इन्होंने बहुत गलत काम कर दिया हो।
गलत काम का विरोध हम शुरू से ही करते रहे हैं, विरोध का तरीका बेशक थोड़ा अलग हो सकता है। मिडल स्कूल से लेकर सैकंडरी स्कूल तक स्कूल प्रबंधन के द्वारा हमपर किये गये इमोशनल और फ़िज़िकल अत्याचार का विरोध हमने किया था, स्कूल से भागकर फ़िल्में देखने के तरीके से। अगर हमारे उस स्कूल का इतिहास हमारे द्वारा या हमारे किसी साथी के द्वारा लिखा जाये तो ‘school bunkers association’ के संस्थापक सदस्य के रूप में हमारा योगदान भुलाया नहीं जा सकता। जैसे देश की आजादी में सारे क्रांतिकारी एक तरफ़, बापू-चाचा एक तरफ़ और फ़िर भी इनका पलड़ा भारी था, हमारे स्कूल से भागने वाले तो कई थे लेकिन धनंजय और हमारी जोड़ी का अलग ही स्थान था। अत्याचार हमने सहना नहीं था, बस।
सीनियर सैकंडरी में साथी बदल गये लेकिन मिशन नहीं बदला हमारा। अध्यापक हमें एवायड करते थे, हमसे फ़िर अत्याचार सहन नहीं हुआ, हमने उन्हें अवायड करना शुरू कर दिया। कोई अंग्रेजी फ़िल्म नहीं छोड़ी जी हमने। अपने स्कूल में पहली ऐतिहासिक हड़ताल में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया लेकिन हमने अत्याचार चुपचाप  नहीं सहन किया।
कालेज में आकर भी अन्याय का विरोध करने के बचपन के संस्कारों ने हमें व्यस्त रखा। कैंटीन वाले द्वारा समोसे में मिर्च ज्यादा डालने का मामला हो या चाय में चीनी कम होने का मामला, लाईब्रेरियन महोदय का लाईब्रेरी में चुपचाप बैठने की सलाह देना हो या किताबें समय से वापिस करने का आग्रह, अनचाही कन्याओं द्वारा लिफ़्ट देने का मामला हो या मनचाही कन्याओं द्वारा घास न डालने का मुद्दा, हम अपने कर्तव्यपथ से कभी नहीं चूके।
इतना गौरवशाली इतिहास होने के बावजूद, अगर आज हम अपने जूनियर्स के साथ होने वाले अन्याय को चुपचाप सहन कर लें तो हम खुद से कैसे नजरें मिलायेंगे? तो प्रथम पैराग्राफ़ में वर्णित छेड़छाड़क समुदाय के सदस्यों, खुद को अकेला मत समझना। हम और हमारे जैसे कई बुझते चिराग तुम्हारे साथ हैं। अच्छे काम में रुकावटें आती ही हैं, लेकिन ये रुकावटें जीवट वालों को और मजबूत करेंगी। अगर तुम में से कोई हमें पढ़ता हो तो अपना बायोडाटा हमें प्रेषित करे ताकि हम आपका मुद्दा सही तरीके से उठा सकें। बायोडाटा भेजते समय अपने धर्म, जाति आदि का उल्लेख जरूर करें ताकि आपका केस और मजबूत हो सके। कित्ता सेंसेशनल लगेगा जब लिखा होगा शीर्षक में, “अल्पसंख्यक युवाओं के मानवाधिकारों का हनन” या “अनु.जाति\जजा के उभरते युवाओं के साथ भेदभाव?” 
हम ये मामला मानवाधिकार आयोग तक जरूर पहुंचायेंगे, क्योंकि अगर खूबसूरत दिखना लड़कियों का अधिकार है तो उन्हें छेड़ना तुम्हारा भी तो मानवाधिकार है। बेइज्जती, मारपीट, बदनामी आदि सहकर भी आप लड़कियों के आत्मविश्वास को जो बूस्ट कर रहे हैं वो काबिले तारीफ़ है। तुम्हारी छेड़छाड़ के कारण ही कास्मेटिक आईटम्स की मांग बनी हुई है, नहीं तो लोग तो भूख से मर रहे हैं। पन्द्रह रुपये किलो आटा न खरीद सकने वाले लोगों के देश में चार सौ रुपये की रेवलॉन की लिपस्टिक, मस्कारा, रूज़, पाऊडर, अलाना, फ़लाना के बढ़ते बाजार में तुम्हारे योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। तुम्हारी छेड़छाड़ के चलते ही भारतीय उद्योग जगत अन्तर्राष्ट्रीय मंदी का मुकाबला कर सका है। और कोई इस बात को समझे  न समझे, हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जरूर वांछित विकास दर को बनाये रखने में तुम्हारी भूमिका को सराहेंगे। इसलिये हम पी.एम.ओ. तक भी इस मामले को पहुंचायेंगे कि ’छेड़छाड़ हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे हर हाल में हासिल करके रहेंगे।’
सरकार से मांग की जायेगी कि हर जिले हर गांव में ’छेड़छाड़ प्रशिक्षण केन्द्र’ की स्थापना की जाये, बीस सूत्रीय योजना में इसे शामिल किया जाये, हो सके तो इस काम के लिये नरेगा के माध्यम से  आर्थिक सहायता भी मुहैया करवाई जाये ताकि कोई अपनी धार्मिक, सामाजिक, जातीय या आर्थिक विषमताओं के कारण अपने इस अधिकार से वंचित न रह जाये।
मेरे उदीयमान साथियों, जरूरत पड़ने पर  हम कैंडल मार्च भी निकालेंगे और सरकार तक अपनी बात पहुंचा कर ही रहेंगे।

लेकिन यारों, एक बात है, कल को अगर कोई तुम्हारी बहन-बेटी को छेड़ेगा तो बुरा मत मानना,  ये मानवाधिकार उस छेड़ने वाले के भी तो हैं न?

:) फ़तू को भीड़ भरी बस में दरवाजे के सामने वाली ही सीट मिली हुई थी। एक बुढ़िया जिसके साथ तीन चार बच्चे थे और पांच छ थैले थे, बस में चढ़ी। फ़त्तू ने तरस खाकर एक थैला अपने पैरों के पास रख लिया और एक बच्चे को अपनी गोद में बैठा लिया। बुढ़िया ने मौके का फ़ट से फ़ायदा उठाया और फ़त्तू की गोद में एक और बच्चे को बिठा दिया। उस बच्चे की गोद में दूसरे को बिठा दिया और दो थैले उन बच्चों को पकड़ा दिये। 
फ़ारिग होकर बुढ़िया ने बड़े प्यार से फ़त्तू से कहा, “भाई, घणा समझदार सै तू,  नाम के सै थारा?”
फ़त्तू बोला, “ताई, मेरा नाम सै खूंटा, किमै और टांगणा हो तो ल्या उसने  भी टांग दे, मेरी तो देखी ज्यागी।”






रविवार, अगस्त 01, 2010

खाओ मनभाता, पहनो जगभाता और लिखो.......

पुरानी कहावत है कि इंसान को खाना वो चाहिये जो मनभाता हो, पहनना वो चाहिये जो जगभाता हो। सही कह गये थे जी पुराने लोग अपने टाईम के हिसाब से, लेकिन इसमें हमारा क्या योगदान है?  कई रातों की नींद इस सवाल के कारण उड़ी रही(ऐसा लिखने से बात का वजन बढ़ गया न?) और फ़िर भी अपनी समस्या का हल नहीं निकल रहा था। नहीं निकलता तो न निकले, हम कौन सा नोबल के लिये मरे जा रहे हैं।  जब देना होगा तो अपने आप दे देंगे नोबल कमेटी वाले ढूंढ ढांढ कर। शंका का समाधान तो नहीं निकला लेकिन अपनी एक पोस्ट का मैटीरियल जरूर निकल आया। हमारा प्रश्न बनता है जी ’अगर खाया मनभाता जाये, पहना जगभाता जाये तो लिखा क्या जाये?’
हम नये नये आये थे इस ब्लॉगजगत में, और चारों तरफ़ छपा ही छपा देखकर ऐसे कूद रहे थे, ऐसे ऊल रहे थे जैसे कि नया नया तैराक स्वीमिंग पूल में छपाछप –छपाछप कर रहा हो या फ़िर ..जाने दो  । कहां तो जब से पंजाब में आये हैं, हिन्दी पढ़ने को तरस गये थे और अब कुछ भी लिखकर ब्लॉगपास्ट.काम लिखो और सर्च करो और कुछ न कुछ निकल ही आता था। शुरू के कई दिन तो हिन्दी प्रेम को बांहों में लेकर झूमते और ब्लॉग ब्लॉग घूमते ही निकल गये। फ़िर जब थोड़ा बहुत पढ़ना शुरू किया तो आनन्द में और वृद्धि होने लगी। जल्दी ही दिख गया कि ये तो अपनी ही दुनिया है,  बिल्कुल अपनी। वही टांग खिंचाई,  घिसटा घिसटी, तेरा ब्लॉग मेरे ब्लॉग से ज्यादा पॉपुलर क्यों, तेरे को मिलने वाले कमेंट्स मेरे को मिलने वाले कमेंट्स से ज्यादा कैसे, हमारा धर्म ज्यादा महान। कोई टंकी पर चढ़ रहा है, कोई चढ़ने की धमकी दे रहा है। बस्स जी, हमने तो मान लिया कि पहले कभी रहा होगा कश्मीर धरती का स्वर्ग, अब तो जो है यहीं हैं, यही है और सिर्फ़ यहीं है।
अब तक लिखने के वायरस ने कब्जा कर लिया था हमारे दिलो दिमाग पर। दूसरों का लिखा देखते थे तो  वो कौन सा तो काम्पलेक्स होता है, बी-काम्प्लेक्स नहीं यार आई काम्प्लेक्स, हाँ इन्फ़ीरियरिटी काम्प्लेक्स। ब्लॉग सुधार से लेकर,गली, मुहल्ला, शहर से ascending order में ऊपर ऊपर चढ़ते हुये विश्व सुधार तक के आह्वान, आलोचना, वेदना, प्रार्थना  भरे लेख पढ़कर हम   descending mode  में आ गये थे।अब हमने सोचना शुरू किया कि क्या लिखें?  अपने को तो इन सब बातों का ज्ञान है ही नहीं, जो ज्ञान  हमें है वो तो सबके पास आलरेडी बहुतायत में है।  चढ़ती जवानी में एक बार कहीं पढ़ा था, ’when I drink, I think, and when I think, I drink.’ बड़ी फ़ैंतेसी करी थीं जी हमने भी इस बारे में। लेकिन मेरी बात रही मेरे मन में, मैं पी न सका उलझन में।  अब चढ़ते बुढ़ापे में ये थिंकने के लिये ड्रिंकना और ड्रिंकने के लिये थिंकना तो वैसे भी नहीं होना है। जो हमारे मन में है, कैसे कहें और जो नहीं कहा उसे कोई कैसे समझे? वैसे तो कहे को भी कौन समझता है, पर ऐसा कह दें तो यार लोग गुस्सा हो जायेंगे, इसलिये नहीं कहते।   तो ए दिले नादान, सार्थक चिंतन और लेखन भी हमीं कर देंगे तो फ़िर ऐसा लिखने वालों की कदर कौन करेगा?  अपन तो बेवज़ूल से आदमी हैं, फ़िलहाल तो ऐसा ही लिखेंगे।वैसे भी  जिसका काम उसी को साजे, हम तो बीरबल ने जो चतुराई दिखाई थी बिना काटे लाईन को छोटी करने की, उसी चतुराई का मुकाबला करेंगे दूसरों की खींची लाईन को बड़ी सिद्ध करके।        क्या करें, अपना तो स्वभाव ही ऐसा भुरभुरा सा है। भुरभुरा स्वभाव तो जानते ही होंगे सब?  कूद पड़े हम भी इस मैदान में।
ऐसे में कहीं पढ़ने को मिला कि ’बोल्डनेस आने ही वाली है।’ ये तो सोने पर सुहागा हो गया जी, ’ चुपड़ी और वो भी दो-दो।’  हम तो खुद बोर हो गये थे अब तक जी, जी लिख बोल कर। कित्ता मजा आयेगा जब देवनागरी में अपनी असली पंजाबी भाषा में लिखकर पोस्ट डालेंगे और भारी भारी कमेंट  करेंगे। ’ओये, भैन देया यारा,  कित्थों ल्या के ऐनी वदिया पोस्ट लिख दित्ती है तू’ या किसी के कमेंट के जवाब में हम भी उसकी मां बहन को याद करेंगे।  पर इत्ती भारी पोस्ट ये  ब्लॉगर संभाल भी लेगा? अभी तो ये सुविधा फ़्री में मिली हुई है, लेकिन हमें इन कंपनियों की हकीकत पता है। पहले तो फ़्री की चाय पिला पिला कर आदत डाल देते हैं और फ़िर अपनी मनमर्जी करते हैं। अब हमें पता है कि महीने का सात सौ रुपये का ये इंटरनेट का नया खर्चा पास करवाने में कितनी दिक्कत आई थी। इतनी परेशानी तो वित्तमंत्री को बजट पास करवाने में भी नहीं आती। और ये अस्थाई सहायता कोई धारा 370 या आरक्षण  विधेयक नहीं है जो ड्यूराप्लाई से ज्यादा  स्थाई हो। हमें मिलने वाली ये वित्तीय सहायता अमेरिकी अनुदान की तरह है, जिसके दम पर पाकिस्तान की तरह अपने हालात थोड़े समय के लिये भुलाये जरूर जा सकते हैं लेकिन इसके बदले में हमें कैसे अपना जमीर(जो भी है थोड़ा बहुत) गिरवी रखना पड़ता है। तो हम तो जी खुदी को बुलंद करके पलकें बिछाये हुये   किशोर कुमार की नकल करते हुये ’हुगली डू हुगली डू हुगली डू, मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू, चली आ, चली आ’  करते घूम रहे हैं पर ये साली बोल्डनेस दिखी नहीं अभी तक।
खैर, जब आने की खबर महक चुकी है तो बोल्डनेस को आना तो है ही, बेशक 5-7 साल और लग जायें। हमारी तो इतनी ही इल्तिज़ा है कि हमारे सामने ही आ जाये तो अच्छा है, वैसे भी ज्यादा टाईम है किसके पास?  एक बार जी भर के देख तो लेते उसको। फ़िर दिमाग दूसरी तरफ़ चलने लगता है कि सारी उम्र शराफ़त अली बनके बितादी,  अब आखिरी उम्र में ऐसा पंगा क्यों लें जी? जो हैं, जैसे हैं उसी आधार पर बिकें तो ठीक है वरना दीन से भी जायेंगे और दुनिया से भी। तो जी ’जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिये’ पर भरोसा रखते हुये लगभग आधा सफ़र तो तय हो गया, जब तक शिशुपाल के १०० अपराध पूरे नहीं होंगे तब तक का अभयदान तो है ही। फ़िर जो होगा, देखा जायेगा।
:) फ़त्तू को सफ़र में कहीं रात हो गई तो रात काटने के लिये उसने गांव के बाहरी किनारे पर बने एक घर का किवाड़ खटखटाया।  मालकिन आई और रात काटने के इजाजत भी मिल गई। गृह्स्वामिनी ने बातों बातों में बता दिया कि वह अकेली अपने बच्चों के साथ रहती है। जब फ़त्तू खाना खाने के लिये बैठा तो उसने गौर किया कि घर में कम से कम  बारह-चौदह बच्चे  चिल्ल-पौं मचाये हुये हैं। ऐसा लगता था कि हर साल का मेक और मॉडल वहाँ मौजूद है। हैरान होते हुये उसने पूछा, “यो इतने सारे बच्चे थारे ही सैं?”
जवाब आया, ’बात यूं सै जी, म्हारा घर सै गांव के बाहर जी.टी.रोड से सटा हुआ, रात बेरात  थारे जैसा  कोई न कोई आ ही जावे है  रात काटने की इजाजत मांगने। और म्हारा सै भुरभुरा सुभाव, हमसे मना करा ही नहीं जाता।”
तो जी हमारा सवाल अभी भी मुंह बाये खड़ा है हमारे आगे कि लिखा क्या जाये?  बाकी तो हमारा स्वभाव भी आप जान ही गये होंगे, भुरभुरा ही है। अगर कहीं से जवाब मिल जायेगा तो उसका भला और न मिलेगा जवाब तो उसका भी  भला।