रविवार, जून 21, 2015

संघी *%गी एक दो

हम छोटे ही थे, गली में एक भैया रहते थे जिनपर हर कोई आंख मूंदकर विश्वास करता था। उन्होंने ही हमें शाखा पर ले जाना शुरु किया था। बड़ा शौक तो खेलने का ही था, नये नये खेल खेलने को मिलते और साथ में अच्छी बातें भी सीखने को मिलतीं। राष्ट्र प्रथम - यही सिखाया जाता था। खेलकूद और बौद्धिक के रास्ते  देश, समाज को कुरीतियोंं से मुक्त करके स्वावलंबी और शक्तिशाली बनाने की बातें अच्छी लगती थीं। ये नहीं सिखाया जाता था कि हमारा अतीत स्वर्णिम था इसलिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं बल्कि स्वर्णिम अतीत की बातें लुप्तप्राय आत्मगौरव को जगाने के लिये की जाती थीं।  कोई व्यक्ति स्वार्थ, निंदा-स्तुति, प्रलोभन, पूर्वाग्रह से परे नहीं इसलिये केसरिया ध्वज ही सर्वोपरि माना जाता। कौन स्वयंसेवक किस जाति का है, इस बात का कोई अर्थ नहीं। किसके पिता धनवान हैं और कौन निर्धन परिवार से, वहाँ इस बात से कोई अंतर नहीं था। स्वय़ं को और स्वयं के माध्यम से अपने धर्म को भी पुष्ट करने की बातें तो सिखाई जाती थीं लेकिन किसी ने नहीं सिखाया कि दूसरे धर्म वाले हमारे शत्रु हैं और उन्हें कमजोर करना है। हम सब भारतमाता की संतान हैं और उसकी रक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य, जीवन में अनुशासन लाना, कर्तव्य करने के लिये तत्पर रहना जैसी शिक्षायें ही थीं जो वहाँ सीखने को मिलीं। कम से कम मुझे तो यही समझ आता था।
नहीं समझ आता था तो कुछ उन लोगों का व्यवहार जो शाखा में आने जाने के हमारे रास्ते में हमपर ताने कसते थे। ताने कसे जाते थे 
’संघी  *%गी   एक दो, 
संघ में जाना छोड़ दो’
हम छोटे थे, शुरू में तो समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जा रहा है और क्यों कहा जा रहा है। कई दिन तमाशा होता रहा तो हम बच्चों ने भैया से पूछा। जितना हमें समझ आ सकता था, उस दिन भैया ने बताया कि कैसे कुछ जातियों को कुछ लोग नीची जाति मानते हैं इसीलिये संघियों की तुलना उनसे करते हैं। "हम चुपचाप क्यों सुनते  रहते हैं?" इस प्रश्न के उत्तर में सुनने को मिला कि कहने वाले अपनी सोच के हिसाब से ऊंच नीच मानते हैं, हम अपनी सोच के हिसाब से एकीकरण कर रहे हैं। ये हमारे लिये ताना नहीं, हमारे काम की पहचान है। भैया ने सच बोला या झूठ लेकिन हमारी तसल्ली नहीं हुई। तसल्ली तो खैर दूसरी पार्टी की भी नहीं हुई, उनकी हिम्मत बढ़ती गई और बात शब्द बाणों से हाथापाई तक आई। जो हुआ, उधर से पूरी तैयारी से हुआ लेकिन हमारे लिये अप्रत्याशित था। हम बच्चे तो खरोंचों और छोटी मोटी चोटों में निबट गये, भैया के अच्छी खासी चोटें आईं और उनका हाथ भी  फ़्रेक्चर हुआ।  इमरजेंसी हटने के बाद आई जनता पार्टी की सरकार भी अपने आपसी झगड़ों की वजह से जा चुकी थी। दूसरी पार्टी(तब की पहली पार्टी) के हौंसले बुलंद थे, पुलिस और प्रशासन का झुकाव भी हमारे हक में नहीं था। कोई एक्शन नहीं हुआ। टीस उठी थी मन में कि राष्ट्र के लिये सोचने वालों की गलती क्या थी? वो क्या मंसूबे थे जिनमें शाखा पर जाने वाले अड़चन लगा रहे थे? कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, ड्र्ग्स डीलिंग सिखाई जाती थी क्या वहाँ?
भैया से मिलने हम लोग उनके घर गये तो उन्हें शरीर से अस्वस्थ पाया लेकिन हौंसले में कोई कमी नहीं थी। हमें अपराधबोध था कि हम छोटे हैं इसलिये भैया का पूरा साथ नहीं दे पाये और भैया हमें बता रहे थे कि उनकी ये तकलीफ़ कितनी कम है। इमरजेंसी के कुछ भुक्तभोगियों के किस्से उन्होंने बताये। जो भी हो, उस घटना के कारण शाखा में जाना हमने नहीं छोड़ा। वो तो कई साल बाद में छोड़ा।
बाद में अपने परिचय में आये कुछ लोगों के बारे में पता चला कि आपातकाल के दौरान कैसे सरकारी या अर्धसरकारी सेवकों को परेशान किया जाता था। लिखकर दो कि संघ से कोई वास्ता नहीं और आगे भी नहीं रखूँगा लेकिन कितनों ने ही ऐसा मानने की जगह नौकरी छोड़ना मंजूर किया। मजे की बात ये कि ऐसे किस्से सुनाने वाले उनके साथी होते थे या मकानमालिक, शायद उन्हें भी अपराधबोध रहा होगा कि उन स्वयंसेवकों जैसे नहीं बन पाये। मैं खुद इमरजेंसी के दिनों में जिस स्कूल में पढ़ता था, रातोंरात उसे बंद करना पड़ा था। सरकार का दृढ निर्णय था कि एक विचारधारा विशेष को कुचलना ही है। हम तो प्राईमरी कक्षा में ही थे, दूसरे स्कूल में डाल दिये गये थे और नये दोस्तों और नई पढ़ाई में मस्त हो गये   लेकिन उन स्कूलों में काम करने वाले आचार्य और अध्यापिकाओं(जिन्हें हम दीदी कहते थे) पर आये संकट को आज समझ सकता हूँ।      
प्रताड़ित होने वालों में सिर्फ़ कुछ लिख देने और नौकरी छोड़ देने वाले ही नहीं थे, बहुतों को जेल में डाल दिया गया और तरह तरह के अमानुषिक अत्याचार किये गये। अभिनेत्री प्रवीण बॉबी के बारे में कहते हैं कि उनका एक कान कटा हुआ था और इसीलिये वो हमेशा कानों पर बाल रखने के एक स्टायल में दिखती थीं। कभी मौका मिलने पर आज की तारीख का कोई केन्द्रीय मंत्री अक्सर जेबों में हाथ डाले दिखें तो समझ लीजियेगा कि ये भी एक स्टाईल ही है।
तब से अब जमाना बहुत बदल गया है। तकनीक उन्नत हो गई है, सेंसरशिप पहले जैसी संभव भी नहीं और सोशल मीडिया ने सबके हाथ में कलम दे दी है। पिछले एक साल से उसी विचारधारा वाली सरकार है, जिसने उन दिनों में कहर झेला था। स्पष्ट बहुमत वाली ऐसी सरकार देश के इतिहास में पहली बार आई है। स्वाभाविक है कि समर्थक उत्साहित हैं, कुछ अतिउत्साहित भी। अब घुड़की सुनकर बहाने से आँख इधर उधर नहीं बचाते, पलटकर जवाब दे देते हैं। सरकार भी अपनी है, नेटपैक भी अपना ही है। फ़िर भी इतना हमें मालूम है कि क्रिया की प्रतिक्रिया बेशक होती रहे लेकिन किस लेवल तक उतरना है, इतना बोध हमेशा रहेगा ही।
मोदी समर्थकों को ’भक्त’ कहकर संबोधित करने वालों की चिट्ठी को वैसे तो तार ही माना जाये। ये कतई व्यंग्यबाण नहीं है, खीझ है कि कैसे ये टुच्चे लोग सरकार के साथ स्वयं को जोड़ बैठे हैं। जो ’भक्त’ हैं, किसी और वजह से बेशक उनका मोहभंग हो जाये, इतना तो तय है कि  इन व्यंग्यबाणों से आतंकित होकर तो नहीं ही भागेंगे।

रविवार, जून 07, 2015

रिश्तेदारियाँ

एक स्टाफ़ के घर हमें जाना था, बैंक से लगभग 40 km का रास्ता था।  हमारे मैनेजर साहब ने सुझाव दिया कि उनकी कार में ही चला जाये।  जब हम चार जने तैयार हो गये तो उन्होंने अपनी बात पूरी की, "कॉंट्रीब्यूट कर लेंगे। बस और रिक्शा किराया जितना दोगे,  लगभग उतना ही इधर योगदान बनेगा।" कार में जाने की  हाँ तो खैर हम पहले ही भर चुके थे, योगदान की भी हामी भर दी। उनका मोटरसाईकिल चलाते हुये ३-४ बार एक्सीडेंट पहले हो चुका था। इसका पता हमें कैसे चला, इसकी भी अलग कहानी है। एक बार कद के बारे में उनके दावे को झुठलाने के लिये मुझे और उन्हें अगल-बगल में खड़ा किया गया तो देखने वालों ने बताया कि मैनेजर साहब मुझसे कम से कम २ इंच छोटे हैं। तब उन्होंने ३-४ एक्सीडेंट वाली बात बताई थी कि इत्ते एक्सीडेंट होने के बाद कम से कम ३-४ इंच तो वो डाक्टरों द्वारा छीले छांटे ही जा चुके हैं, इसलिये वो weightage भी लेते हुये उन्होंने खुद के मुझसे बड़े होने का निर्णय सुनाया था। खैर, जाने से पहले  मैंने उनसे पूछा कि क्या कार भी उसी मोटरसाईकिल वाले स्टाईल में चलाते हैं? उन्होंने बताया कि बिल्कुल नहीं, एकदम सेफ़ चलाते हैं। सबूत के तौर पर उन्होंने बताया कि मोटरसाईकिल से कई बार गिरे हैं लेकिन कार से आज तक नहीं गिरे। जैसे तैसे कारवां चल पड़ा।
चलने के तुरंत बाद ही उनकी ड्राईविंग देखकर हम बाकी तीन भक्त प्रह्लाद बन गये।  इस बात पर भी संतोष जताया गया कि हमारे कर्म चाहे जैसे भी रहे हों, ये अच्छा है कि मार्च का महीना चल रहा है। इस महीने में नौकरीपेशा लोगों की  LIC की कोई किस्त बकाया नहीं रहती है। मैनेजर साहब ने पूरे रास्ते हाईवे को अंटार्कटिका और अपनी कार को स्लेज गाड़ी समझ कर चलाया। आगे से और पीछे से आती हरियाणा रोडवेज़ की बसों को यमदूतों की तरह आते देखकर  पीछे बैठे दोनों मित्र चीखते चिल्लाते रहे और हम ये सोचकर मूंगफ़ली खाते रहे  कि मरना तो है ही खा पीकर मरें। कैसे न कैसे रास्ता कट ही गया।
अब वापिसी का सफ़र शुरु हुआ। अंधेरा छाने लगा था और सरजी की बैट्री चार्ज थी, पोज़ीशन हो गई पहले से भी ज्यादा शानदार। एक टाटा 407 से छोटी सी प्यार भरी पप्पी ली/दी लेकिन वो पूरी टक्कर दे नहीं पाया और उसका रोडपतन हो गया। वो साईड में गाड़ी रोककर अपना डैमेज चैक करने लगा और हमारे सरजी ने गाड़ी भगा दी। पीछे वाले साथी अब लिहाज छोड़कर गुस्से में जोर जोर से बोलने लगे। इसके बाद हुआ वो, जिसके लिये आपको ये सब कहानी बताई।
पुलिस का नाका लगा हुआ था, गाड़ी साईड में लगवा ली गई।
"कागज़? इंश्योरेंस?"
"कागज़ तो जी बैंक में रह गये।"
"गाड्डी के कागज़ बैंक में के करें थे?"
"हवलदार साहब, मैं  .......... बैंक में मैनेजर हूँ। जल्दी में कहीं जाना पड़ा तो गलती से कागज वहीं रह गये।"
"लाईसेंस द्खा दयो"
"भाई साब वो भी दराज में ही रखा रह गया।"
"बैंक का आई कार्ड तो होयेगा?"
"वो भी न है जी, अभी तो"
"नीचे उतर आओ, साहब बैठे हैं उनसे ही बात कर लो।"
वो ले गया जी अपने इंचार्ज के पास और जाकर सारी बात बता दी। इंचार्ज साहब शक्ल से ही खूंखार लग रहे थे या फ़िर हमारे बहुत सारे फ़ाल्ट थे इसलिये हमें ऐसे लगे हों। मैनेजर साहब उन इंचार्ज साहब से बात करने लगे और हम तीन ये चर्चा करने लगे कि हमारे कांट्रिब्यूशन में यो खर्चा भी जुडेगा या नहीं। इतने में इंचार्ज साहब की आवाज सुनाई दी, "दारू थमने पी रखी है। गाड्डी का एक कागज़  धोरे कोणया। लाईसेंस भी कोणी। हमने कहो हो कि बैंक मुलाजिम हो, थोड़ा लिहाज करें। करण लाग रहे हां लिहाज मैनेजर साहब, कम ते कम आईकार्ड तो दिखा दे?" 
अब मैनेजर साहब क्या रिक्वेस्ट करते? हमने भी सोचा कि अब तो कम से कम हजार का फ़टका लग गया। मैनेजर साहब फ़िर बोले, "जी, बलबीर सिंह मेरा रिश्तेदार है। इसी थाने में लग रहा है।"
"बलबीर दो सैं म्हारे धोरे, एक जाट सै अर दूसरा ......।  कुण सा बलबीर है थारा रिश्तेदार?"
"जी दूसरे वाला, मुंशी है जो।"
"जाण दे भाई इन्हांने। ध्यान रख्या करो भाई, कागज पत्तर पूरे रख्या करो साथ।"
फ़ोकट में छूटने की हमें बड़ी खुशी हुई लेकिन ऐसा लगा कि उससे ज्यादा हैरानी उस हवलदार को हुई होगी।  इतनी कमियाँ और फ़ोकट में छोड़ देने का इन कड़क साहब का फ़ैसला, उसने थोड़ा झिझकते हुये पूछा, "जाण दूँ साहब?"
"जा लेण दे भाई। पैली बार कोई फ़ेटया(मिला) है जिसने मुंशी को रिश्तेदार बताया है वरना कोई सा छोरी@# डीएसपी से तले की रिस्तेदारी न बताता है। जा लेण दे इन्हांने।"  

थानेदार साहब ने जो कहा, वो सही था या नहीं?  
रेल में, बस में, भीड़ में, मेले में जब कहीं किसी से  थोड़ी लंबी बात हुई तो पता चलता है कि सामने वाले का कोई न कोई अंकल हमारे बैंक में बड़ी ऊंची पोस्ट पर है। आप भी याद करके देखियेगा, आपको पिछली बार कब कोई ऐसा मिला था जो आपके ऑफ़िस के किसी क्लर्क या चपरासी का रिश्तेदार था? गारंटी देता हूँ कोई न मिला होगा। 
नौकरी और ट्रांसफ़र का चोली दामन का साथ है। नौकरी चल रही है, ट्रांसफ़र होते रहते हैं। लोग मिलते रहते हैं, बिछुड़ते रहते हैं। कुछ किस्से हमें याद आते रहते हैं, कभी हमारे किस्से कोई और लिखेगा।  अपना ट्रांसफ़र फ़िर से दिल्ली में हो गया है।  सोचा आपको बता भी दिया जाये और इस बहाने ब्लॉग पर हाजिरी भी लग जायेगी। नोटिस कर लिया न कि अब हम दिल्ली में आ गये हैं? अच्छा किया, वरना आप जान लीजिये कि हमारे एक अंकल ...................................................