रविवार, अप्रैल 26, 2015

KCC - किसान क्रेडिट कार्ड (2)

पिछली पोस्ट  में आपको बैंकोंं द्वारा कृषि ऋण दिये जाने की प्रक्रिया की कुछ जानकारी देने का  प्रयास किया था, बात को थोड़ा और बढ़ाया जाये।  हालाँकि इस बीच किसानों के मामले  में काफ़ी कुछ हो चुका लेकिन अधूरी बात छोड़ने में मजा नहीं।
सरकार के सख्त दिशानिर्देश, कम ब्याज दर, मासिक की जगह छमाही  पुनर्भुगतान सुविधा आदि जैसे पोज़िटिव फ़ैक्टर्स के बावजूद क्या कारण हो सकते हैं कि  कृषि संबंधित ऋण उतने प्रचलित नहीं हो पाये?
आज ही फ़ेसबुक पर विवेक रस्तोगी जी का स्टेटस देखा कि किसान कार्ड बनवाने मेैंं छह महीने लग गये। पब्लिक की दृष्टि से आप लोग  समझिये, बैंकर के दृष्टिकोण से मैं बताने की कोशिश करता हूँ।
बैंकिंग मेरा मनपसंद प्रोफ़ेशन नहीं था लेकिन  अब यहाँ कुछ मजेदार निष्कर्ष निकाले हैं। ऐसा ही एक निष्कर्ष है - "ऋण बाँटने के लिये बैंकवालों के सामने टार्गेट होते हैं, बैंक के पैसे की रिकवरी न होने पर टार्गेट बैंकवाले होते हैं।" अब रिकवरी न होने के कुछ कारण -
- लोन के पैसे का खेती की जगह किसी और उद्देश्य के लिये या किसी अन्य के द्वारा प्रयोग करना,
- ऋण माफ़ी की सरकारी योजनायें  जो आती तो प्रायं चुनावी वर्ष में हैं लेकिन उनका प्रभाव दीर्घगामी,
-  लोगों में वित्तीय अनुशासन की कमी,
-   लोन राशि और बंधक रखी गई जमीन को लेकर लोगों का माईंडसेट। आम धारणा ये है कि पचास लाख की          जमीन बंधक रखकर तीन लाख ही तो लिये हैं, भाग थोड़े ही जायेंगे
- एक अन्य बात है लोक मानासिकता जो क्षेत्रानुसार अलग अलग हो सकती हैं, इस पर बाद में लिखता हूँ।
रिकवरी से जुड़ी एक बहुत बड़ी बात जोकि है तो ग्राहक के हित की लेकिन उसका वांछित लाभ नहीं मिल पाता। अन्य ऋण जहाँ सामान्यतया तीन मासिक किस्तें न चुकाने पर NPA(Non Performing Asset या अनुत्पादक ऋण/Bad debts) हो जाता है, कृषि ऋण में यह समय सीमा मोटे तौर पर तीन छमाही किस्तों तक होती है लेकिन फ़िर भी इस रिकवरी में बैंक वालों के पसीने छूट जाते हैं। अभी जिस क्षेत्र में मैं हूँ, मुश्किल से दस प्रतिशत कृषक ऋणार्थी ऐसे हैं जो बिना याद दिलाये हर छमाही अपने पैसे जमा करवाते होंगे। बाकी सिर्फ़ ब्याज के पैसे जमा करवाते हैं वो भी कई बार संपर्क करने के बाद और वो भी कई बार साल में एक बार। एकाऊंट को ठीक रखने के लिये उस ब्याज राशि में कुल ऋण की राशि जोड़कर जमा दिखाना पड़ता है और फ़िर कुल ऋण राशि की पेमेंट हाथों हाथ दिखानी पड़ती है। ऐसा न करें तो बैंकर कहलायेगा unbecoming of an officer और ऐसा करने पर एक ही दिन में जमा और निकासी के चलते ऑडिटर बताते हैं unfair practices by the encumbant.
छमाही किस्त होने के कारण शायद किसान और बैंकर के बीच वैसे संपर्क और संबंध भी न पनप पाते हों। डेढ साल इस शाखा में हो गया लेकिन मुश्किल से आधे किसान क्रेडिट कार्ड वाले ग्राहक ऐसे होंगे जो राह चलते मुझे या मैं उन्हें पहचान पाऊँ। जब तक सबसे पहचान होगी, वो मेरे मुताबिक ढलेंगे या मैं उनके मुताबिक ढलूंगा तब तक चलाचली की वेला आ चुकी होगी।
थोड़ा स्थिर होकर सोचिये, आज लिये गये ३ लाख तक के कृषि ऋण को यदि आप डेढ़ साल में भी चुका देते हैं तो आप चुकायेंगे ७% वार्षिक की दर से ब्याज और यदि हर छह महीने में सिर्फ़ एक दिन के लिये भी पूरी राशि खाते में जमा करके अगले दिन भी निकाल लें तो आपको ब्याज लगेगा ४% वार्षिक की दर से। बैंक में FD पर ब्याज दर लगभग ९% है।  समझ रहे हैं न? साईं बुल्ले शाह ने शाह इनायत से रब्ब को पाने की विधि पूछी थी तो इनायत शाह उस समय धान के खेत में काम कर रहे थे। उन्होंने सवाल पूछा और धान की जीरी उखाड़ते लगाते ही जवाब दिया, "बुल्लेया रब्ब दा की पाना, एथों पुटना ते उत्थे लाणा’(बुल्ले, खुदा को क्या पाना, ध्यान को इस दुनिया से हटाना और उधर लगाना, मिल गया खुदा) 
इतना ही पर्याप्त नहीं, खाते में संतोषजनक लेनदेन होने पर हर साल आपकी ऋण राशि १०% बढ़ाने की सुविधा है। १००/- पर ब्याज हुआ ७/- या ४/- और आपकी क्रेडिट लिमिट हो गई ११०/-   बुरी डील है?
कृषि ऋण के मामले में आने वाली एक बहुत बड़ी दिक्कत राजस्व रिकार्ड का अतिजटिल होना है। जमीन जिसके नाम थी, उसकी मृत्यु होने के बहुत बाद तक भी जमीन उत्तराधिकारियों के नाम  नहीं होती।  अधिकतर जमीन साझे खातों में होती है। एक ही आदमी राजस्व रिकार्ड में किसी और नाम से दर्ज है और उसके पहचान के दस्तावेज किसी दूसरे नाम से।
ऑडिट और खाते के NPA होने की दशा में ये सब चीजें बैंकर्स के खिलाफ़ जाती हैं।
बैंक शाखाओं में  पर्याप्त कर्मचारियों का न होना भी एक बड़ी वजह है।

कारणों की  इस लिस्ट  के संपूर्ण  और त्रुटिहीन होने का मैं कोई दावा नहीं कर रहा। ये मेरे अपने अनुभव हैं और इनमें मेरे पूर्वाग्रह भी शामिल हो सकते हैं।

क्षेत्रानुसार मानसिकता की ऊपर बात की थी, इस बारे में शेयर करना चाहूँगा कि पंजाब के मेरे अनुभव बेहद अच्छे रहे। लोगों में आज भी आपस में एक दूसरे के सहयोग की भावना अधिक देखने को मिली। ऐसा होता था कि फ़सल के दिनों में ग्राहक आता था और ब्याज सहित सारे पैसे जमा करवाकर सत श्री अकाल बुलाई और चला गया। अगले दिन वो आयेगा, अपने खाते से लिमिट के पैसे निकालेगा और अपने किसी दूसरे साथी के खाते में जमा करवा देगा। अगले दिन दूसरा आयेगा, पैसे निकाले और वही पैसे तीसरे के खाते में जमा। चक्र चलता रहता है। सबके ऋण खाते भी  रेगुलर हो गये, बैंकर  की भी रिकवरी न होने की चिंता खत्म।
मानसिकता के बारे में बात करना अब मेरा भी मनपसंद शुगल हो गया है। लड़कियों के साथ कुछ हो तो मैं भी अब कह देता हूँ, ’मानसिकता बदलनी चाहिये।’   अब किसानों की बात चली तो फ़िर वही कह रहा हूँ, ’मानसिकता बदलनी चाहिये।’ लेकिन इस बार न किसी को हँसाने के लिये और न किसी को सताने के लिये कह रहा हूँ। गंभीरता से कह रहा हूँ, अपनी सुविधा के लिये मात्र सरकार को या दूसरों को दोष न देकर हम अपने क्रिया-कलाप में अनुशासन ले आयें तो  ऐसा कोई कारण नहीं कि हम सम्मान और स्वाभिमान से अपना जीवन न व्यतीत कर सकें।

विषय मुझे भी बहुत रोचक नही  लगता लेकिन  रुचिकर होना ही  तो सबकुछ नहीं, कभी कभी  समसामयिक चर्चा भी कर लेनी चाहिये।  किसानों की बात हो गई, सब्सिडी को लेकर भी कभी आपका समय लिया जायेगा। बचाकर रखियेगा वरना जबरदस्ती करनी भी हमें आती है :)

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

KCC - किसान क्रेडिट कार्ड

भारत सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक के नियमों के अनुसार हर भारतीय बैंक को अपने द्वारा दिये जा रहे ऋणों में से कम से कम १८% ऋण कृषि कार्यों के लिये दिये जाने आवश्यक हैं। यह लक्ष्य पूरा न हो पाने की स्थिति में बैंक रिज़र्व बैंक और भारत सरकार के सम्मुख जवाबदेह भी होते हैं और गैप राशि का निवेश उन्हें Rural Infrastructure bonds(जिसपर रिटर्न या कहिये ब्याज दर लगभग नगण्य होती है) में करना होता है। कोई भी जिम्मेदार बैंक ऐसी स्थिति से बचना चाहेगा इसलिये बैंकों की ग्रामीण और अर्धशहरी शाखाओं से उच्चाधिकारियों की इस बारे में विशेष अपेक्षा भी रहती है। इसके बावजूद अनेक बैंक इस न्यूनतम लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाते हैं।
कृषि ऋण में सर्वाधिक प्रचलित ऋण को ’किसान क्रेडिट कार्ड’ या संक्षेप में KCC कहा जाता है। कृषि व संबंधित गतिविधियों के लिये यह ऋण स्वीकृत किया जाता है और यह ओवरड्राफ़्ट की सुविधा होती है। यानि कृषक के द्वारा जोती जाने वाली भूमि के आधार पर ऋणसीमा निर्धारित कर दी जाती है जिसे किसान एक साथ या  आवश्यकतानुसार टुकड़ों में निकाल सकता है। हर जिले के लिये प्रशासन, नाबार्ड व लीडबैंक की एक समिति उस क्षेत्र में उगाई जाने वाली फ़सलों का प्रति एकड़ अनुमानित व्यय तय करती हैं, जिसे ऋण सीमा निर्धारण करने के लिए एक आधार माना जाता है। गौर करने की बात यह है कि यह व्यय राशि ऋण सीमा नहीं है बल्कि उसका आधार है, इसमें और भी कई फ़ैक्टर जोड़कर ऋण सीमा तय की जाती है। पुनर्भुगतान भी फ़सल बिकने के बाद, मोटे तौर पर कहें तो आज लिमिट लेने के बाद लगभग छह महीने में आपको राशि ब्याज सहित चुकानी होती है। और आज जमा करने के बाद अगले दिन फ़िर आप समस्त राशि अपने लिमिट खाते से लगभग बिना किसी औपचारिकता के उठा सकते हैं। अपने अनुभव के आधार पर बता सकता हूँ कि जिस कार्य के लिये यह ऋण योजना बनी है, उसके लिये यह राशि अपर्याप्त नहीं होती। छोटे व सीमांत किसानों के लिये सरकार/RBI अनुदान देती हैं जिससे ३ लाख तक की KCC लिमिट कृषक को 7% वार्षिक की दर से उपलब्ध हो जाती है।         यही नहीं, रेगुलर भुगतान करने वाले कृषकों को सरकार प्रतिवर्ष अतिरिक्त अनुदान देती है। पिछले दो साल से मुझे ध्यान आता है कि यह अतिरिक्त अनुदान 3% था यानि कृषक को अपनी फ़सल उगाने के लिये 4% सालाना की दर से ऋण उपलब्ध हो सकता है। इतनी सस्ती ब्याज पर बैंक के स्टाफ़ को भी ऋण नहीं मिलता है। और याद दिला दूँ कि बैंक आपके बचत खाते में जमा राशि पर जो ब्याज देते हैं, उसकी दर भी 4% वार्षिक ही है।
यह सब बताने का एक उद्देश्य यह है कि सरकार कृषि क्षेत्र को एकदम उपेक्षित मानती है, ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि ये सब अभी की सरकार ने किया है, यह स्कीम काफ़ी पहले से ही है। फ़िर क्या वजह हो सकती है कि यह लक्ष्य पूरे नहीं हो पाते?
सरकार का डंडा बैंकों पर, बैंक उच्चाधिकारियों का डंडा शाखाओं पर, ब्याज की दर इतनी कम, एक बार लिमिट बनाने की औपचारिकतायें होने के बाद अगले पांच साल तक कोई अतिरिक्त औपचारिकतायें नहीं, पैसा कभी भी निकालने की सुविधा  और जमा करने के लिये अधिकतम फ़सल बिक्री तक का समय। इतनी सुविधाओं के बावजूद प्रचलन में ये है कि अधिकतर कार्डहोल्डर साल में एक बार सिर्फ़ ब्याज चुकाते  हैं, एक दिन के लिये भी पूरी राशि जमा नहीं करते। और ये सब करने के बाद भी नतीजा ये निकलता है कि अधिकतर जगह कृषि ऋण के टार्गेट पूरे नहीं होते।
क्या कारण हो सकते हैं कि यह लक्ष्य पूरे नहीं हो पाते? किसकी मानसिकता इस सबके लिये जिम्मेदार है, बैंक वालों की या ग्राहकों की?
विस्तार आप देंगे तो अच्छा है, मुझे राय बनाने में सुविधा होगी नहीं तो हम तो अपनी बात कहेंगे ही। जारी रहेगा अगली कड़ी में भी।
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अगली कड़ी में पंजाब का अपना संबंधित अनुभव बताता हूँ। पहले भी कई बार सोचा था लेकिन बात आई गई हो जाती थी। कुछ दिन पहले सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी जी के एक फ़ेसबुक स्टेटस पर कुछ बात निकली तो सोचा कि इस बारे में शेयर किया जा सकता है।

रविवार, अप्रैल 05, 2015

दीवार

टीवी पर मैडम जी ने सिखलाया था,
एक होती है अच्छी दीवार
और एक होती है बुरी दीवार।
और ये भी, कि
तोड़ देनी चाहिये हर बुरी दीवार।
जो आज्ञा सरकार,
अब हमने ठान लिया है
कि आपकी ये बात भी मानेंगे।
दीवार टूटेगी, और 
तय है कि जब भी टूटेगी
बुरी दीवार ही टूटेगी।
क्योंकि जो नालायक 
अपनी दीवार न बचा पाया
वो क्या खाकर सिद्ध करेगा कि
उसकी दीवार अच्छी थी?

पड़ौसी देश के लीडर ने  बयान दिया
कि गुड तालिबान और बैड तालिबान
में कोई फ़र्क नहीं होता।
ये अलग बात है कि ये इलहाम 
लीडर को देर से हुआ। 
तब हुआ, जब अपने चिराग से
घर रोशन हुआ लेकिन जलकर।
हमने तालियाँ बजाईं, 
देखा, बजा फ़रमाया हुज़ूर ने।

फ़िर आया दौर ’माय च्वॉयस’ का,
कपड़े पहनने न पहनने की च्वॉयस
से लेकर बिंदी लगाने न लगाने की च्वॉयस
बच्चा पैदा करने या न करने की च्वॉयस
से लेकर सेक्स शादी से पहले, बाद
या बाहर करने की च्वॉयस।
कहते हैं कि इससे आधी आबादी
जो अब तक दबी कुचली थी,
मजबूत हो जायेगी।
औरत और मर्द के बीच की
दीवार टूटेगी।

इतनी बड़ी अभिनेत्री
करोड़ों में फ़ीस लेने वाली
जो ब्रांडेड कपड़ों और मेकअप
से हरदम लकदक करती हो,
झूठ थोड़े ही  कहती होगी?

तय है कि दीवार फ़िर टूटेगी
और ये भी तय है कि 
बुरी दीवार ही टूटेगी।
हम नालायक, जो अपनी दीवार न बचा सके
क्या खाकर सिद्ध करेंगे कि
हमारी दीवार बुरी नहीं थी?
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