रविवार, जनवरी 19, 2014

यक्ष प्रश्न

केन्द्रीय राज्यमंत्री डा. शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर थरूर की रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई मृत्यु ने फ़िर से महाभारत का यक्ष-युधिष्ठिर संवाद वाला प्रसंग याद दिला दिया और साथ में फ़िल्म नमकहराम में आलम(रजा मुराद) का बोला वह शेर भी कि -

’जीने की आरज़ू में रोज मर रहे हैं लोग,
मरने की जुस्तज़ू में जिये जा रहा हूँ मैं’

संभावनायें और परिस्थितियाँ इशारा कर रही हैं कि सुनंदा की मृत्यु स्वाभाविक नहीं है। ताजा ट्विटर-विवाद, आईपीएल जैसे प्रकरणों के चलते लगता तो यही है कि यह आत्महत्या या हत्या का मामला हो सकता है। इस रहस्य से पर्दा उठेगा कि नहीं, वीआईपी लोगों का इस प्रकरण से सीधे जुड़े होने के कारण फ़िलहाल तो यह भी एक रहस्य ही है। 

मृत्यु किसी भी रूप में आये, परिजनों के लिये क्षति रूप में आती है और मृत्यु का आत्महत्या या हत्या होना इस क्षति की मात्रा और प्रकार को कई तरीकों से बढ़ा देता  है। इतना जरूर है कि किसी आम नागरिक के साथ हुई ऐसी दुर्घटना अखबार में चंद लाईनों तक सिमट जाती है और किसी हाई-प्रोफ़ाईल के साथ ऐसा होने पर कई दिन की फ़ुटेज की उपलब्धता निश्चित हो जाती है। 

इस मामले में फ़ेसबुक पर लोगों की अलग अलग तरह की प्रतिक्रियायें देखीं।  हम हिन्दुस्तानियों को हर मामले में निर्णायक बनने का शौक\लत है सो प्रतिक्रियाओं से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। सेलिब्रिटी होने का एक पक्ष यह भी है कि आपका व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रहने दिया जाता। प्रेस\मीडिया\लोग तो किसी की खाँसी को भी व्यर्थ नहीं जाने देते, यहाँ तो एक जान गई थी तो चूकना असंभव था। प्रतिक्रियाओं से तो आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन इस बात से आश्चर्य जरूर हुआ कि यह नौबत क्यों आई होगी? किसी कमजोर द्वारा ऐसा कदम उठाना फ़िर समझ आता है लेकिन रूप, धन, पद, शक्ति जैसे भौतिक साधनों से संपन्न लोग जब ऐसा कदम उठाते हैं तो आश्चर्यचकित न होना मुझे अजीब लगेगा। 

जीवन कभी भी आसान नहीं रहता। प्राथमिक चिंता रोटी, कपड़ा और मकान की होती है और आर्थिक/सामाजिक स्तर सुधरने के साथ दूसरी चिंतायें इसमें जुड़ती रहती हैं। बहुधा तो हम लोग इन चिंताऒं से जीवन भर जूझते रहते हैं लेकिन सब इतने भाग्यवान भी नहीं होते।वैसे हममें से शायद ही कोई होगा जिसने कभी न कभी आत्महत्या के विकल्प पर विचार नहीं किया होगा। मुझे लगता है कि बहुत बार परिस्थितियाँ इस तरह से प्रतिकूल हो जाती होंगी कि उनसे जूझते हुये जीवन बिताने की अपेक्षा अपने जीवन के अध्याय को स्वयं बंद कर देना कहीं ज्यादा आसान लगने लगता होगा।

अधिकांश और हो सकता है लगभग सभी प्रचलित धर्मों में आत्महत्या को वर्ज्य माना गया है लेकिन मानव सभ्यता कभी भी इससे अछूती नहीं रही होगी। आत्महत्या समस्याओं से मुक्ति नहीं, सिर्फ़ पलायन है। बल्कि ऐसा करके लोग अपने परिजनों को बिल्कुल अकेला कर देते हैं।  कुछ लोग या कुछ घटनाओं को जरूरत से ज्यादा महत्व देना कहीं की समझदारी नहीं है। सकारात्मक विचारों और सकारात्मक सोच से इस आत्मघाती सोच से बचा जा सकता है। 

आज मैंने कुछ आंकड़े देखे तो पाया कि आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से बहुत ज्यादा है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि कई गुना ज्यादा है।


ज्ञात मामलों की तह में जाने के सीमित प्रयास किये तो पाया कि आत्महत्या करने वाले पुरुषों में अधिकांश संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्होंने 'आर्थिक कारणों' के चलते ऐसा कदम उठाया वहीं ऐसा कदम उठाने वाली स्त्रियों के लिये मुख्य वजह 'रिश्ते' रहे। 'आर्थिक कारणों' के चलते आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा होने की वजह तो यह मानी जा सकती है कि अभी तक इस क्षेत्र में आधिपत्य और जिम्मेदारी पुरुषों की ही ज्यादा रही है तो आत्महत्या करने वालों में भी पुरुष ही आगे रहे होंगे लेकिन ’रिश्ते’ वाला कारण तो दोनों के लिये समान महत्व वाला होना चाहिये न?

रिश्तों में तनाव के कारण आत्महत्या करने वालों में पुरुषों से स्त्रियाँ  कहीं आगे हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है?

क्या रिश्ते तोड़ने या टूटते रिश्तों से सामंजस्य बिठाने में पुरुष ज्यादा माहिर हैं, ज्यादा प्रैक्टिकल हैं? 

समय गुजरने के साथ क्या स्त्रियाँ रिश्ते में स्वयं को पुरुष पर निर्भर और कमजोर मान लेती है? या फ़िर आम धारणा के विपरीत पुरुष भावनात्मक रूप से ज्यादा मजबूत हैं?  

अगर किसी रिश्ते को लेकर पुरुष गंभीर नहीं है तो क्या स्त्री के लिये जान दे देना ही सर्वोत्तम उपाय रह जाता है? 



बात मृत्यु की और आश्चर्य की हो और मुझे अतिप्रिय प्रसंग का ज़िक्र न आये, बहुत मुश्किल है। और तो और, यहाँ तो लगता है इस श्लोक में पूछे गये चारों प्रश्न और उनके उत्तर आज भी प्रासंगिक हैं।




रविवार, जनवरी 05, 2014

टीवी-बीवी भाषण-राशन

"यार, पेरेंट्स ने वाईफ़ को यहाँ लाने की इजाजत तो दे दी है लेकिन अब हमें खुद को सोच विचार हो रही है।"
"क्यों, अब क्या चिंता है? मैं तो कहूँगा कि एक परंपरागत परिवार से होते हुये भी तुम्हारे पेरेंट्स ने काफ़ी एडवांस सोच रखी है ।"

"ये तो है, लेकिन मेरी वाईफ़ शुरू से ही गाँव में रही है और उसकी भाषा यहाँ की हिन्दी से बहुत अलग है। अड़ौस-पड़ौस में परिवार तो बहुत हैं लेकिन बातचीत ठीक से न हो पाये तो उसे बहुत अटपटा लगेगा।"

उस समय के हमारे राय मशविरे ब्लॉग बहस की तरह नहीं होते थे कि अपने ज्ञान और तर्क शक्ति की कैटवॉक करके दिखा दी, उसके बाद तुम अपनी जगह और हम अपनी जगह। वैसे भी संत तुलसीदास ’तिनहीं बिलोकत पातक भारी’ लिखकर धमकिया ही चुके थे तो हमने मित्र के रज समान दुख को मेरू समाना मानते हुये नई बीवी की आवभगत नये टीवी से करने की राय दी ताकि हमारी भाभीश्री को एकदम से अकेलापन न महसूस हो। उसी मकान में नीचे के हिस्से में एक पोर्शन राजा बाबू एवं उनकी श्रीमती की गृहस्थी के लिये  फ़ाईनल कर लिया गया। 

फ़ैसला होने के बाद मित्रमंडली में यह खुशखबरी बांट दी गई कि इस छड़ा महल में दूसरी तरह की चहल पहल आने वाली हैं -  टीवी और उसके कुछ दिन बाद ही राजा बाबू की बीवी। राजा का विचार था कि चूँकि इन चीजों से उसका वास्ता नहीं रहा है तो टीवी पहले खरीद लिया जाये। जब तक शादी होगी और बीवी को लाने का समय आयेगा, तब तक टीवी का सिस्टम समझ आ जायेगा वरना एक साथ दो नई चीजें साधने में कहीं दिक्कत न हो जाये। ये प्रस्ताव भी एकमत से पास हुआ क्योंकि इस मदों में जो खर्च होना था वो राजा का ही था तो शुभस्य शीघ्रम।  एकाध दिन में सब दोस्त राजा के साथ जाकर टीवी खरीदवा लाये। पुराने समय की बात है,  ऊंचे ऊंचे एंटीना लगे करते थे और सीमित समय के लिये गिने चुके दो चैनल आते थे एक दूरदर्शन राष्ट्रीय और शायद एक प्रादेशिक राजधानी से। पहले दिन राजा की गृहस्थी का सामान सेट करते और टीवी का एंटीना फ़िट करते कराते प्रसारण समय समाप्त हो चुका था, फ़िर भी टीवी को बार बार चलाकर देखा गया, ब्राईटनेस\कंट्रास्ट और शूँSSSSSS की आवाज करते वॉल्यूम के बटन को भी घुमा घुमाकर चैक किया गया।

वहाँ रहते हुये तब तक दो साल हो गये थे लेकिन कभी टीवी की कमी नहीं महसूस हुई थी, आपस में हँसते-बोलते, लड़ते-झगड़ते कैसे समय बीत जाता था इस बात का पता भी नहीं चलता था। आज टीवी आ गया था तो रह रहकर बात टीवी से शुरू होती थी। आज राजा को जबरदस्ती नीचे भेजा गया कि अब हमसे अलग दूसरे कमरे में सोने की आदत डाल। वो था कि जा नहीं रहा था, उसका कहना था कि जब बीवी आयेगी तो जाना ही होगा लेकिन अभी क्यों अपने से दूर कर रहे हो?  हम अपने इरादों के पक्के, देर रात उसे उसके कमरे में भेजकर ही माने। उसे समझाया गया कि बीवी के आने से पहले तू भी टीवी की आदत डाल लेगा तो दोनों का समय अच्छे से बीतेगा। बहरहाल राजा अच्छा लड़का रहा, मान जाता था। अगले दिन उससे पूछा कि कल रात टीवी चलाया था तो पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे उसने माना कि हाँ चलाया था, कुछ प्रसारण तो नहीं आ रहा था लेकिन सब बटन वटन चैक करता रहा ताकि सब मैकेनिज़्म समझ आ जाये। हम सबने हँसते हुये उसकी पीठ थपथपाई कि ऐसे ही गहरे पानी पैठता रहियो, सब मैकेनिज़्म समझ आ जायेंगे :)

अगले दिन दिनभर ऑफ़िस में भी बात-बेबात टीवी का चर्चा चलता रहा। शाम को ड्यूटी ऑफ़ का टाईम हुआ तो सब घर चलने को तैयार हुये जबकि पहले ड्यूटी के बाद वहीं ऑफ़िस में बैठकर कैरमबोर्ड पर ब्लैक एण्ड व्हाईट खेला करते थे। जल्दी-जल्दी घर पहुँचे और टीवी चलाया तो स्क्रीन ब्लैंक थी।  पता चला कि तीन या पांच दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया जा चुका था और नेपथ्य में शोक ध्वनि चल रही थी। बड़ा धोखा हुआ हमारे साथ।

आने वाले दिन भी यही कार्यक्रम दोहराया गया और उसके अगले दिन भी। अब लौटकर यंत्रवत एक बार टीवी चलाते थे, वही मातमी धुन सुनते थे और टीवी बंद कर देते थे। रिपीट मोड में यह कार्रवाई हर घंटे दो घंटे में दोहराई जाती हालाँकि नतीजा मालूम था। ऐसे ही एक बार टीवी चलाया तो मरहूम  का दूरदर्शन पर एक पुराना इंटरव्यू दिखाया जा रहा था। रेगिस्तान में पानी को तरसते मुसाफ़िर को पानी की थोड़ी सी भी मात्रा मिल जाये तो जो उसकी हालत होगी, वैसे ही कुछ हमें महसूस हुआ - इंटरव्यू ही सही, कुछ तो देखने को मिला। करीब आधे घंटे का वो इंटरव्यू देखने में हमें बहुत मजा आया। सारा इंटरव्यू न बताकर उसका सबसे मस्त पोर्शन आपको बताता हूँ -

साक्षात्कार ले रही महोदया ने पूछा, "सर, आपके भाषण बहुत पॉपुलर होते थे और लोग बहुत शौक से सुनते थे। आपने यह कला कहाँ से सीखी?"

जवाब मिला, "मैं मिडल(या हाई) स्कूल में पढ़ता था तो एक बार देश के बारे में स्टेज पर कुछ बोला। मेरे एक मास्टरजी थे, उन्हें मुझमें कुछ  संभावना दिखाई दी। फ़िर उन्होंने बाकी टिप्स के अलावा सबसे मुख्य टिप ये दी कि आजकल सर्दियों का समय है, सुबह जल्दी उठकर गाँव से बाहर खेतों की तरफ़ घूमने जाना चाहिये। आजकल किसानों ने खेतों में गोभी लगा रखी है। सुबह सुबह खेत में घुसकर गोभियों के बीच खड़े होकर भाषण देना शुरू कर दें। गोभियों के बीच खड़ा भाषण देता आदमी अजीब दिखेगा और शुरू में खुद उसे भी अजीब सा लगेगा लेकिन धीरे धीरे उसके दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि जब वो भाषण देता है तो उसके सामने मनुष्य नहीं, गोभी के फ़ूल हैं जिन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं देनी। इस अभ्यास से आत्मविश्वास आ जाता है और फ़िर जब वो स्टेज पर जाकर जनता के बीच कुछ कहना शुरू करता है तब भी इसके दिमाग में यही होता है कि सामने जो सिर दिख रहे हैं, वो गोभी के फ़ूल हैं।"

उस समय हम सब बहुत हँसे थे और उस इंटरव्यू को बहुत एंटरटेनिंग माना था लेकिन उन्होंने जो कहा वो हमारा एंटरटेनमेंट करने के लिये नहीं कहा था बल्कि सादगी से कही गई सच्चाई  थी। हम सब हैं गोभी के फ़ूल ही, लेकिन थोड़ा एडवांस टाईप के। कुछ भाषण सुनकर तालियाँ पीट लेते हैं, कुछ सिर पीट लेते हैं और कुछ अपने अपने मतलब की लकीर पीटते रहते हैं और भाषण देनेवाला किसी दूसरे खेत में गोभी के फ़ूलों को संबोधित करके कह रहा होता है - भाईयो और बहनों,............ 

मजेदार\विवादित भाषणों के अपने अनुभव शेयर करना चाहें तो ये गोभी का फ़ूल भी आपका स्वागत करता है। 

डिस्क्लेमर -  ये पोस्ट किसी की अवमानना के उद्देश्य से नहीं लिखी गई है।