बुधवार, दिसंबर 29, 2010

हमको खबर भी नहीं......

इस बार क्रिसमस का त्यौहार बहुत बढ़िया दिन था। आप कह सकते हो कि हर बार ही २५ दिसंबर को होता है, इस बार बहुत बढ़िया दिन कैसे हो गया? बात ये है कि इस बार पच्चीस दिसंबर शनिवार को था। दो दिन की छुट्टी एक साथ मिल जाये तो हमारे लिये तो जैसे जैकपॉट लग गया हो। बच्चों के स्कूल वालों ने इस बार छुट्टियों और परीक्षाओं का ऐसा घालमेल किया कि सर्दी की छुट्टियों में हमारा पेरेंट्स के पास जाना संभव नहीं हो पाया। अपने दो दिन की छुट्टी का जब पता चला तो हमने बहुत दिनों से थमी अपनी आवारगी को फ़िर से जिन्दा करने का फ़ैसला किया। सर्दी इतनी ज्यादा थी कि रजाई छोड़कर जाने का मन नहीं किया। वैसे भी अब हम कोई ऐंवे से बंदे नहीं रहे अब, हम हो गये हैं ब्लॉगर। अपनी बिरादरी के अकेले ब्लॉगर, अपने ऑफ़िस के अकेले ब्लॉगर, अपनी गली मुहल्ले शहर के भी संभवत: अकेले ब्लॉगर। तो सोचा कि चलो वैसी आवारगी न सही, आज वर्चुअल आवारगी ही सही।  जानी पहचानी साईट्स को छोड़कर नई राहों पर चला जाये। लेकर ऊपर वाले का नाम, गूगल सर्च पर पता नहीं क्या डाला था,  भूल गये अब और  खुल गया एक नया रास्ता, एक नई डगर।  पहला ही कदम और वो मुहावरा सच होता दिखा कि ’जहँ-जहँ पड़े पैर संतन के, तहँ-तहँ बंटाधार।’  अपनी तो  आँखें और मुँह खुले के खुले रह गये। आश्चर्य भी हो रहा था और कभी खुशी कभी गम भी। आप भी देखें जरा, ।

सम्मान योग्य पुजा देवी उर्फ़ पुजा देबी अलियास puja jha,  यही पोस्ट मय फ़त्तू फ़ीचर, मेरे ब्लॉग पर  17 जून 2010 को छप चुकी है।  जो मैंने लिखा था, वो किसी और को भी पसंद आया और इतना पसंद कि उसे अपने ब्लॉग पर छाप डाला, सही मायने में तो खुशी हुई अपने को।  आखिर किसी को तो हमारा उंगलियां तोड़ना भाया:)  धन्यवाद पुजा देबी जी।  फ़िर हमें तो वैसे भी चोरी की आदत हो चुकी है। कभी दिल चुरा लिया किसी ने, कभी चैन। किसी ने ख्वाब चुरा लिये तो किसी ने नींद ही चुरा ली। फ़िर हमने भी तो ये प्लॉट कहीं से चुराया ही था। यूँ समझ लेंगे कि चोरों को मोर पड़ गये।  बस थोड़ा सा अफ़सोस है कि खबर न हुई हमें। 

इसी बहाने आपका सारा ब्लॉग देखा। धर्म, व्रत, त्यौहार जैसी चीजों से अटा पड़ा है आपका ब्लॉग।   फ़िर ये पोस्ट, बात कुछ हजम सी नहीं हुई।

हमारे पड़ौस में एक बुढि़या एक दिन सुबह सुबह घर के बाहर झाड़ू बुहारी कर रही थी और गुनगुना रही थी ’तेरे मन की गंगा और मेरे मन की जमुना का, बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं, बोल राधा बोल….’   लड़कों ने पूछा, “चाची,  सुबह सुबह ये क्या गा रही हो, फ़िल्मी गाना?”  चाची ने तमक कर झाडू हाथ में ऐसे उठाया जैसे यल्गार कहकर क्राँति ज्वाला में कूदने ही वाली हो। “शर्म नहीं आती तुम्हें, फ़िल्मी गाने का नाम लेकर मुझे बदनाम करते? भजन भी नहीं बोलने देते।” लड़कों ने हैरान होकर पूछा, “भजन?”    “तो और क्या नासपीटों?   राधा, गंगा, जमना, संगम जैसे पवित्तर नाम तुम्हें सुनाई नहीं देते?”  भोली-भाली चाची गच्चा खा गई थी इन नामों को सुनकर।     ये कहानी सुनाने का मतलब ये है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि चांद, पूर्णिमा, शांति दूत जैसे शब्द पढ़कर आपने भी इस पोस्ट को कोई धार्मिक पोस्ट समझ लिया हो? हा हा हा।

खैर अपने तो पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं, फ़िर से शुक्रिया।  अब आपने तो मुझे जाने अनजाने खुशी दे दी है, मेरा भी फ़र्ज बनता है कि अपको थोड़ा सा आगाह कर दूँ।  मेरी वैफ़(गिरिजेश जी, वैफ़ ही लिखा जायेगा यहाँ पर, काहे कि जब   हम अंदर से खुश हों और ऊपर ऊपर से गुस्सा दिखाने का प्रयत्न  करते हैं तो वाईफ़ को वैफ़ कहकर बुलाते हैं), हां तो पुजा देबी जी, अगर मेरी   वैफ़ को ये सब प्रकरण पता चल गया तो मेरा तो जो हाल वो शक और हालात के  मद्देनजर करेगी सो करेगी, आप को दिक्कत आ सकती है।

मेरे से इतना प्यार करती है मेरी वैफ़  कि मेरी तरफ़ आने वाली हवा, धूप, टिप्पणी गरज ये कि स्त्रीलिंग वाली कोई  भी कुदरती या मानव निर्मित चीज उसे अपने लिये खतरा लगती है। इज्जत  भी पूरी करती है वैसे तो मेरी, करती है तभी तो उतारती है:)    उसका सबसे पहला डायलाग ये होना है, “मैं उसकी गुत काटकर उसके हाथ में दे दूंगी(और आपका गला) ”     दूसरा, “आ गई एक और मेरी जान की दुश्मन(एक को भगाओ तो दूजी चली आती है)”   तीसरा, “पता नहीं सारे मेरी जान के पीछे ही क्यों पड़ी हुई हैं(जैसे जान नहीं रसगुल्ला है)?”   चौथा, “जरूर पहले से कुछ गड़बड़ चल रही होगी, आप तो हो ही ऐसे शुरू से ही (गुडविल\बैडविल  बहुत है अपनी)”  पांचवा, “मुझे पता था, एक न एक दिन ये होना ही है(अब तक कैसे नहीं पकड़े गये?)” और मैं,  थोड़ा उसके प्यार को समझते हुये और ज्यादा अपनी इज्जत  की परवाह करते हुये कुछ कह नहीं पाऊँगा।  वैसे भी ये वाली पोस्ट मेरी ’ओ जी’  की  बड़ी फ़ैवरेट पोस्ट है। अरे देबी जी, आपको लेकर ही जानी थी तो कोई और पोस्ट ले जातीं, या फ़िर ले जाने से पहले या बाद में एक सूचना भर दे देतीं तो इससे आपकी इज्जत कोई कम नहीं हो जानी थी और मेरी थोड़ी सी  इज्जत अफ़जाई हो  जाती।

सच में आपको इस बात की खैरियत मनानी चाहिये कि अभी मेरी बेचारी  पत्नी(मेरी पत्नी है, ये ही अपने आप में उसकी बेचारगी का सुबूत है) अपने स्वास्थ्य आदि व्यक्तिगत समस्याओं के कारण मसरूफ़ है और इस तरफ़ उसका ध्यान गया नहीं है, नहीं तो बस हो जानी थी दो पडौसी राज्यों की  टक्कर।

आगे से ध्यान रखियेगा, गलती हम सबसे होती है लेकिन आगे के लिये हम सबक सीख लें तो बेहतर ही है। मानें आप तो अच्छा है नहीं तो हमारी तो देखी जायेगी..!!

:) फ़त्तू शादी के बाद बहू को लिवा कर घर आ रहा था। दोनों पैदल ही लौट रहे थे। रास्ते में एक छोटा सा नाला आया। फ़त्तू ने तो लगाई छलाँग और हो गया पार, बहू अटक गई।   
हारकर बोली, “ए जी, मुझे भी नाला पार करवाओ न”
फ़ेरों और जयमाला  के दौरान फ़त्तू उसके बहुत नखरे झेल चुका था, बोला, “इब आई ना ऊँटनी पहाड़ के तले?    पार तो करवा दूंगा पर पहल्यां तीन बार काका बोल मन्ने।”

 

सोमवार, दिसंबर 27, 2010

एक चादर फ़ैली सी

सरदार राजेन्द्र सिंह बेदी जी की लिखी कहानी पर बनी एक संवेदनशील फ़िल्म ’एक चादर मैली सी’  का एक सीन याद कीजिये -

हेमा मालिनी चौके में बैठकर खाना बना रही है और जब अपने देवर ऋषि कपूर को खाना परोसती है तो वो शरारत से ’थोड़ा सा प्यार’ भी माँगता है। आंखें तरेरती भाभी जब हाथ में पकड़े चिमटे\बेलन या कड़छी से उसे मारने का उपक्रम करती है तो वो हँसते हुये स्पष्ट करता है कि ’थोड़ा सा प्याज़’ ही तो माँगा है।

रिमिक्सिंग का टाईम चल रहा है, आज की तारीख में यह सीन कुछ इस तरह का होता -

हेमा मालिनी चौके में बैठकर खाना बना रही है और जब अपने देवर ऋषि कपूर को खाना परोसती है तो वो शरारत से ’थोड़ा सा प्याज़’  भी मांगता है। खुद को लाचार, बेबस और मजबूर महसूस करती  भाभी खीझ उतारने के लिये   जब हाथ में पकड़े चिमटे\बेलन या कड़छी से उसे मारने लगती है तो वो हँसते हुये स्पष्ट करता है कि ’थोड़ा सा प्यार’ ही तो माँगा है, क्या गुनाह किया है?

बेट्टे, तुझे नहीं पता कि तूने कैसे गुनाह  किया है?  साठ रुपये किलो वाला प्याज़ माँग रहा है, आठ रुपये किलो वाले प्यार की  कोई कदर नहीं तुझे? प्यार सस्ता है और प्याज़ महंगा, फ़िर भी गरीब होकर प्याज़ मांगता है? वैसे हम मध्यमवर्ग वाले हैं बहुत खराब, ड्रामा पूरा करते हैं समाज का हिस्सा होने का लेकिन हमारी कथनी और करनी में कितना फ़र्क है?  होगा प्याज़ हम लोगों की रसोई का एक अहम किरदार, जरा सा महंगा क्या हो गया बस शुरू हो गये सारे सरदारजी सॉरी सरकार जी को कोसने में, जैसे  प्याज़ का रेट उन्होंने ही बढ़ाया हो। प्याज़ के बढ़े रेट दिख गये सबको,  सरकार की नीयत नहीं देखते। ये तो छुपे रास्ते से प्यार का प्रचार-प्रसार करने का फ़ार्मूला निकाला है हमारे कर्णधारों ने।

हम जैसों को तो ये बात अपील कर गई कि प्याज़ महंगा हो गया है तो उसके सस्ते विकल्प ’प्यार’ की तरफ़ ध्यान देना चाहिये।  सब्ज़ी-मंडी में, रेहड़ी-ठेलों में, हाट-बाजार में,  मॉल्स वगैरह में सिर्फ़ प्याज़ की जगह प्यार शब्द को रिप्लेस करके देखिये, कैसा मजा आ जायेगा। ट्रकों में लदकर नासिक का प्यार सारे भारत में सप्लाई हो रहा है, बोरियाँ कंधों पर लादकर जब पल्लेदार लोग प्यार की लोडिंग-अनलोडिंग करेंगे तो कैसे उसकी खुशबू से सरोबार होंगे? ढेरियाँ लगी हैं प्यार की, आवाजें लगा लगाकर बिक रहा है प्यार, ले जाओ बीबीजी –इस भाव में कहीं नहीं मिलेगा, छांट लो अपनी पसंद का प्यार।  आठ रुपये किलो का प्यार खरीदकर थैले में भरकर घर लायेंगे।

 सरकार जी, हम तुम्हारी सपोर्ट में हैं। बायें-दायें(पंथियों) की परवाह नहीं करनी है। जमाखोरों, सटोरियों को भी खाने-कमाने का मौका मिलना ही चाहिये। इनसे  क्यों घृणा की जाये,  वैसे भी बापू ने कहा था कि ’पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ हम तो कहते हैं कि पाप से भी नहीं करनी चाहिये।  मूल में भावना देखनी चाहिये।  देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ जाये तो कोई नुकसान है क्या? कितनी अच्छी छवि बनेगी भारत की, जब छपेगा ’फ़ार्च्युन’  जैसी पत्रिकाओं में कि पिछले दस सालों में करोड़पतियों की संख्या में कितना इजाफ़ा हो गया है। गरीबों का क्या है,  कौन से युग में नहीं थे? गरीब की चादर तो पहले भी मैली थी, आगे भी मैली ही रहनी है बल्कि अब तो फ़ैली  भी रहती है, और यही तो चाहते हो आप।    

 तो सरकार जी,  लगभग पचास दिन का टैम है तुम्हारे पास ’अंतराष्ट्रीय प्यार-दिवस’ के आने में।  रोज के रोज  दो-ढाई रुपये किलो की दर से प्याज़ के ’फ़ट्टे चक्क दो’, अपने आप डेढ-दो सौ रु. किलो की रेंज में पहुंच जायेगा ’चौदह फ़रवरी’ तक आते-आते। जितने नैतिकता-फ़ैतिकता के झंदाबरदार है, झक्क मारकर खुद ही प्याज़ की जगह प्यार को इस्तेमाल करने की बातें करते मिलेंगे।  गुलाबी चड्डियों का तो पिछला कलेक्शन ही रखा होगा अब तक उनके पास, फ़िर कभी देख लेंगे विरोध वगैरह।  समाज में स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को कोई खतरा नहीं होगा,  सरकार का राज भी रह जायेगा और ताज भी, प्याज़ की देखी जायेगी।

वैसे सही मायने में हम खुद भी  प्याज़ जैसे ही नहीं है क्या? परत के नीचे परत, अंत तक पहुंच भी जायें तो निकलता कुछ नहीं। कितनी परतें डाल रखी हैं, क्या है जिसे इतना छुपाते हैं? रूप की परत, रंग की परत,  देश, कौम, मजहब और फ़िर वर्ग की परत। परत-दर-परत छीला जाये तो अंत में दिखता  कुछ नहीं सिर्फ़ गंध सी महसूस होती  है। आत्मा भी कहाँ दिखती है, लेकिन जैसे गंध है उसका भी तो अस्तित्व है या यूँ कहें कि उसका ही अस्तित्व है।   जब तक सुलभ है, कोने में उपेक्षित से पड़े रहते हैं, जहाँ कुछ भाव बढ़े  तो आंख का तारा बन गये। कोई परतें छीले तो आंखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन छिले बिना और छीले बिना कोई गति भी नहीं है।

:) फ़त्तू ने सब्ज़ी की रेहड़ी लगाई। 
ग्राहक ने टमाटर का  भाव पूछा,  “रै टमाटर का के भाव सैं?”
फ़त्तू ने बताया,                           “तीस रुपये किलो”
ग्राहक:                                      “जीज्जी के यार, तीस रुपये किलो?”  फ़िर पूछा, “और  प्याज़ का के ढंग सै?”
फ़त्तू:                                          “तेरी जीज्जी के दो यार” 

भाई फ़त्तू, तुझसे तो रिक्वेस्ट कर ही सकते हैं हम, भाईचारा रहा है हमारा। इसकी जीज्जी के यार इससे ज्यादा मत होने दियो।

सॉरी जी, हम गलती से अकाऊंट्स की लाईन में घुस गये थे, एंट्री बराबर करने की सनक सी रहती है तो ऊपर प्याज़ की जगह प्यार को रिप्लेस करने का रिकमेंड किया था। अब गाने में प्यार की जगह प्याज़ को रिप्लेस करके सोचिये और सुनिये , एंट्री बराबर हो जायेगी:)

बुधवार, दिसंबर 22, 2010

यारी-दोस्ती

दसवीं के बोर्ड की परीक्षायें थीं और परीक्षा केन्द्र मेरे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर था। परीक्षा-केन्द्र पर छोड़कर आने की जिम्मेदारी मेरे छोटे मामाजी की लगाई गई, जो लगभग उसी समय अपनी दुकान पर जाया करते थे। अंग्रेजी का पेपर था,  थोड़ी सी टेंशन थी लेकिन जैसा हमारी सरकार हमेशा कहती है कि स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है, वैसे ही अपन भी नियंत्रण में थे। 

उस दिन घर से निकलते निकलते हम लोगों को कुछ देर हो गई, और परीक्षा केन्द्र तक पहुंचे तो शायद दस मिनट लेट तो हो ही गया था। जब मेन रोड से स्कूल की तरफ़ स्कूटर मुड़ा तो मैंने देखा सामने से धनंजय बाहर की तरफ़  आ रहा था। उसने मुझे नहीं देखा और समय की आपाधापी में मैं उसे आवाज भी नहीं लगा सका। स्कूटर से उतर कर लगभग दौड़ता हुआ मैं अपने रूम की तरफ़ भागा। ऐसे समय में वही दूरी मीलों की लग रही थी। तब नहीं समझा था लेकिन बाद में न्यूटन की, सॉरी आईंन्स्टीन(धन्यवाद गिरिजेश जी) की Law of Relaitivity वाली थ्योरी अच्छे से समझी और भुगत रखी है। उतनी ही दूरी, उतना ही समय कभी तो लगता है जैसे कितने ही युग और कितने ही मील और कभी लगता है कि दो कदम की दूरी और एक पल का साथ, होता है न? 

बहरहाल, एग्ज़ामिनेशन हाल में प्रवेश किया तो सांसें उखड़ रही थीं और ड्यूटी पर तैनात मैडम ने ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर भी देर से पहुंचने के लिये उखड़ते हुये ताल से ताल मिलाई। मैडमों के आगे शुरू से ही हम हत्थे से जुड़े  रहते थे, सो पूरी इज्जत बरतते हुये(और चारा भी क्या हो सकता था?) आंसर शीट ली और सीट पर बैठकर कागज काले करने शुरू कर ही रहा था कि अचानक ध्यान गया कि जब  एग्ज़ाम शुरू हो चुका है, उस समय धनंजय बाहर क्या करने गया है?  देखा तो अब भी उसकी सीट खाली थी, मुझे लगा कि लापरवाह सा है, हो सकता है पेन वगैरह घर भूल आया हो और इन साथ के लड़कों-लड़कियों से ऐसी उम्मीद करना कि स्पेयर पेन दे देंगे, वो भी बोर्ड के एग्ज़ाम में, ऐसे बुडबक हम भी नहीं थे।

लेकिन मेरा तो दोस्त था वो, सुख दुख का साथी। क्या मैं भी उसकी इतनी मदद नहीं कर सकता? कितने तो लम्हे हमने आपस में बांटे हैं और आज मेरा यार एक पेन के लिये पता नहीं कहां कहां भटक रहा होगा? मेरा दिमाग एकदम से सनक गया और मैं पेपर वहीं छोड़कर बाहर को लपक लिया। मैडम फ़िर से बहकती रही, दहकती रही “कैसा लापरवाह ल़ड़का है? पहले पन्द्रह मिनट देर से आया और अब फ़िर पता नहीं कहाँ……?” फ़ुर्सत किसे थी पूरी बात सुनने की? 

मैं फ़िर से भागता हुआ मेन रोड की तरफ़ आया। बाहर बस-स्टैंड पर देखा तो धनंजय खड़ा हुआ जैसे बस का इंतजार कर रहा था। मैंने दूर से ही उसे आवाज लगाई और वो कमर पर हाथ रखे हुये मुझे अजीब नजरों से देख रहा था। पास जाकर  मैंने पूछा, “यहाँ क्या कर रहा है, पेपर शुरू हुये बीस मिनट हो गये हैं?”  वो कहने लगा, “बस का इंतजार कर रहा था, पेपर शुरू हो गया था और आंसर शीट्स बंट चुके थे और तू अभी तक आया नहीं था। मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है, इसलिये मैं अब तेरे घर जा रहा था। दस मिनट हो गये, तेरी तरफ़ जाने वाली बस ही नहीं आई है। क्यों लेट हो गया आज इतना?”  ऐसे समय में ऐसे सवालों का जवाब औरों को बेशक सूझ जाये, मैं तो अवाक ही था। उस समय तक शायद रो-धो भी लिया करता था, आंखें गीली भी जरूर हुई होंगी। 

खुशी, अफ़सोस, गर्व, संतुष्टि जाने क्या-क्या मेरे ऊपर से गुजर रहा था। खुश था कि मुझे कुछ देर से ही सही, धनंजय को ढूंढ लाने की सूझी तो सही। पछता रहा था कि मैं कैसे पांच मिनट तक बैठा रहा एग्ज़ामिनेशन हाल में? गर्व हो रहा था कि मेरा ऐसा दोस्त है और संतुष्ट था कि शायद पेपर में नंबर कुछ कट जायेंगे लेकिन अपनी आंखों में कद नहीं गिरा मेरा। बोला कुछ नहीं मैं, बस गले लग गया था अपने यार के और फ़िर एक दूसरे का  हाथ पकड़कर फ़िर से वही  हम दौड़ते हुये उखड़ी सांसे लेकर  उन्हीं सिरे से  उखड़ी मैडम की शरण में। पहले तो प्रिंसीपल के आगे हमारी शिकायत लगाने की और परीक्षा में न बैठने देने की धमकी, फ़िर धनंजय के द्वारा स्पष्टीकरण दिये जाने पर हम दोनों को एक से बढ़कर एक पागल की उपाधि देने में मैडम ने दरियादिली खूब दिखाई। इस सब में आधा घंटा नष्ट हो गया।   मेरे अंग्रेजी में बाकी सब विषयों से कम नंबर आये लेकिन फ़िर भी मुझे वो नंबर बहुत ज्यादा लगते रहे।  इस बात पर हम दोनों में बाद में बहुत झगड़ा हुआ और दोनों एक दूसरे पर एक ही आरोप लगाते थे और एक ही स्पष्टीकरण देते थे। बड़ा लुत्फ़ था जब…..।

दसवीं के बाद स्कूल बदला, राहें बदलीं और देखते देखते हम दोनों भी एक दूसरे से बहुत दूर हो गये। मोबाईल बहुत दूर की बात है, तब तो लैंडलाईन फ़ोन भी कहाँ इतने सुलभ थे?  तीन चार साल पहले एक दिन किसी झोंक में आकर उसके घर चला गया मिलने, मुलाकात ही नहीं हो पाई। उसकी पत्नी थीं, पूछने लगी कि क्या बताऊँ?   मुझे जवाब नहीं सूझा, पता नहीं उसे मेरी याद है भी या नहीं? कह दिया कि फ़िर दोबारा आऊँगा मैं खुद, और लौट आया था।  और सोच रखा है, एक बार  फ़िर से मिलने जरूर जाऊँगा, किसी मतलब से नहीं, सिर्फ़ पुराना वक्त याद करने।   कोई बड़ी बात नहीं कि उसे मेरी या उस बात की याद भी न हो, लेकिन मैं नहीं भूल पाया।  वो तो ऐसा ही था, ये कोई बड़ी बात नहीं थी उसके लिये। जब भी मैं याद दिलाता तो कहता, यार, दोस्ती की है तो ये कोई बात है ही नहीं।  मैं इसके बाद शायद इसीलिये दोस्ती से डर गया, कि यार ये दोस्ती तो बहुत खतरनाक चीज है:)   तीसरी कसम के गाड़ीवान की तरह कसम खा ली कि  किसी से दोस्ती नहीं करनी अब, लेकिन पुराने शराबी की खाई कसमों की तरह कितनी ही बार ये कसम टूटी, अब तो याद भी नहीं। दोस्त  आते ही रहे, छाते ही रहे जीवन में।

अब थोड़ी सी ड्रिबलिंग कर लें?  समय बदल गया है, हवा पानी बदल गये, जीवन के मूल्य बदल गये। आज के टाईम में अपन दोस्ती भी करते हैं तो ये सोचकर कि ये मेरे किस काम आ सकता है? मैंने इसके लिये ये काम किया तो अब कहाँ और कैसे इस अहसान का बदला ले सकता हूँ? नये जमाने के दोस्ती के पैमाने भी बाकी सब चीजों की तरह बदल गये हैं। अपन हमेशा की तरह वही असमंजस  में, मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ? आदमी पुराने जमाने के, रहना नये जमाने में, वास्ता नये पुरानों सब के साथ तो क्या नीति निर्धारण किया जाये। फ़िलवक्त तो पिछले कई साल से अपनी पालिसी यही रही है कि अपनी तरफ़ से न दोस्ती की शुरुआत न दुश्मनी की शुरुआत। न हम भगवान और न शैतान, कोशिश इंसान बनने की है, जितने हैं कम से कम उतने तो रह ही सकें।   जो आये उसका स्वागत और जो जाये उसे गुडलक। कभी लौटो तो वहीं खड़े मिलेंगे जहाँ छोड़ा था।

आज की पोस्ट कुछ ज्यादा ही आत्मकेंद्रित लग रही होगी।    हाँ, आत्मकेंद्रित ही है, वो कहते हैं न safe driving is sane driving:)   किसी और को लपेटूँ तो मुझे बचाने यहाँ धनंजय भी नहीं है:)  हा हा हा। हिंदी ब्लॉगिंग तो जैसे  बारूद का ढेर बनी हुए है।  खुद पर कुछ ध्यान देने की बात का श्रेय akaltara.blogspot.com  वाले श्री राहुल सिंह जी को, कुछ टिप्स दिये थे उन्होंने, याद है न राहुल सर? मुझपर स्नेह रखते हैं और मैं सही तरीके से आभार भी नहीं कर पाता। पहले से ही बहुतों का  कर्ज है मुझपर, किस किस का नाम लूँ मैं, मुझे बहुत सारे मित्रों ने संवारा। 

:) फ़त्तू  को सेठ ने ईसी तीसी वाली घटना के बाद निकाल बाहर किया। फ़त्तू को नई नौकरी मिली एक डिपार्टमेंटल स्टोर में। पहले ही ग्राहक ने सिबाका पेस्ट मांगी।  स्टॉक में नहीं थी तो फ़त्तू ने मना कर दिया। फ़्लोर मैनेजर ने समझाया कि ऐसे मना नहीं करना चाहिये था। उसे कह्ते कि सिबाका तो नहीं है  लेकिन कालगेट है, पेप्सोडेंट है, मेसवाक है। कहिये कौन सी दे दूँ?  डिमांड बनाई जाती है, पैदा की जाती है।      फ़त्तू ने सिर हिला दिया।     कुछ देर में एक हाई प्रोफ़ईल ग्राहक वहाँ पहुंची और  टिश्यू पेपर माँगा। फ़त्तू ने इधर उधर देखा, ओफ़्फ़, टिश्यू पेपर भी नहीं है। बड़े अदब से पूछा, “सॉरी मैडम, टिश्यू पेपर तो नहीं है, रेगमार है – कहिये, कौन से नंबर का दे दूँ।”

ब्लॉगजगत भी बहुत कुछ फ़्लोर मैनेजर के कहे के हिसाब से चलता है, डिमांड पैदा की जाती है, बनाई जाती है। या मेरा आईडिया गलत है, हमेशा की तरह?  एग्रीगेटर का पता नहीं क्या हुआ?

सोमवार, दिसंबर 13, 2010

नाम से क्या लेना, काम देखो यारों...

नाम में क्या रखा है, इस बारे में अलग अलग पोस्ट आ चुके हैं। इस विषय पर हमने यह अनुभव किया है कि  नाम में कुछ रखा है या नहीं, ये सब निर्भर करता है उस समय के हमारे ऑन-मोड पर। विद्युत सप्लाई के जैसे ए.सी\डी.सी. दो मोड होते हैं, हमारे इसी तरह के दस बीस पचास मोड हैं। जो स्विच चालू है, हमारे फ़ैसले उसी आधार पर होते हैं। जब अपना देशी मोड चालू होता है, उस समय हम काका हाथरसी से सहमत होते हैं और  जिस समय ग्लोबल मोड काम कर रहा हो,  उस समय शेक्सपीयर जी को ऑब्लाईज कर देते हैं। लो जी, तुसी हो जाओ खुश, साड्डा की है?   यू सैड इट वैरी रैटली – वाट्स देयर इन अ नेम।

शीला-मुन्नी  से शुरू हुई बातों पर   तर्क वगैरह तो बहुत देख लिये, हम तो आपको एक दो वाकये बताते हैं, नाम से संबंधित। एक हमारे अधिकारी हुआ करते थे – सिंघल साहब, निहायत ही शरीफ़, ईमानदार, कर्मठ अलाना फ़लाना। अब भाई लोगों, ये अलाना फ़लाना को लेकर इशू मत बना देना, ये पता नहीं कैसे आजकल हमारा तकिया कलाम बन गया है, हर जगह अपने नाम के साथ चेप देते हैं कि हम बड़े अलाना फ़लाना हैं।  तो हमारे सिंघल साहब सब मानवीय गुणों से भरपूर थे, लेकिन कुछ घटनायें उनके साथ ऐसी घट जाती थीं कि पूछिये मत।  ये तो भगवान भला करे,  प्रियदर्शन जैसों ने सिच्युएशनल कामेडी की थोड़ी सी आदत डाल दी, न तो हमारी बातें बिल्कुल ही  बेसिरपैर की मान ली जातीं।

एक दिन एक बुजुर्ग बैंक में आये, साथ में एक महिला थी जो उनकी पुत्री थी। आकर बोले कि इसका खाता खोलना है। हमारे सीनियर बोले, “हां  बोल, नाम के सै बेबे का(हरियाणा में बेबे = बहन\बेटी के लिये आदरसूचक शब्द)।
बाबा,    :     ”जी, नाम सै इसका गदरो।”
सिंघल जी: “आयं, गदरो? यो के नाम होया भला?”
बाबा,    :   “जी, जद गदर होया था तब होई थी ये, इस खातिर नाम गदरो सै।”
सिंघल जी:  “ओ बाबा, गदर कद होया था?”
बाबा,    :     “जी, जद यो होई थी, तब होया था।”
और उसका खाता इसी नाम से खोला गया।

ऐसे ही एक बार एक और बंदा आया। साहब ने उससे पूछा, “हां, नाम बता।”
वो बोला,          “जी, बाणिया।”
सिंघल जी:       “आयं, बाणिया? भाई बाणिया क्यूंकर लिखावे सै?”
वो बोला,          “जी, बाणिया ही सूं मैं।”
सिंघल जी:       “रै, बाणिया तो मैं भी सूँ। नाम बता।”
वो बोला,          “जी,  मन्नै तो सारे बाणिया ही कहके बुलावे सैं।”
सिंघल जी:      “अचछा, जिस नाम से नहीं बुलावे हैं, वा बता।”
वो बोला,         “जी, सुरेश।”
सिंघल जी:     “हां, इब ठीक सै।” और फ़िर मेरी तरफ़ देखकर कहने लगे, “देख्या, पूछ लिया न सही नाम?”

कई साल पहले सिख धर्म के एक प्रकांड विद्वान का एक लेख पढ़ा था, जिसमें उन्होंने दशम गुरू श्री गोबिंद सिंह जी का तत्कालीन समाज पर प्रभाव का जिक्र करते हुये एक तथ्य बताया था कि उस काल में  फ़कीरा, घसीटा, गरीबा जैसे नाम बहुत प्रचलन में थे और देश, कौम में जिन्दादिली भरने के लिये उन्होंने अपने अनुयाईयों को दिलेर सिंह, नाहर सिंह, बलवान सिंह जैसे ओजपूर्ण नाम देने शुरू कर दिये थे। उनका अपना व्यक्तित्व, करनी, उद्देश्य बिना शक प्रेरणा के सबसे बड़े कारक थे, लेकिन इस नाम परिवर्तन की मुहिम का भी लोगों में उत्साहवर्धन करने में, आत्मबल बढ़ाने में बहुत योगदान था। इतिहास गवाह है कि मुट्ठी भर खालसाओं की फ़ौज क्या कुछ कर गुजरी थी।

उदय प्रकाश जी की कहानी ’वारेन हेस्टिंग्ज़ का सांड’ में वारेन बहुत हैरानी से अपनी डायरी में लिखते हैं, “कितनी हैरानी की बात है कि भारत में गाय भैंस तक का एक प्रॉपर नाऊन होता है और जब उनका मालिक या चरवाहा गौरी, श्यामा या कजरी या ऐसे ही किसी नाम से किसी गाय को बुलाता है तो झुंड में से वही गाय निकलकर बाहर आ जाती है।

समय बदलता गया और आज के समय में नाम में ही नहीं, स्पेलिंग में भी बहुत कुछ रखा है। कितने ही प्रात:स्मरणीय\रात्रिस्मरणीय प्रोड्यूसर\प्रोड्यूसराओं को अपनी क्रियेशन्स का नाम कितना ही तोड़ना मरोड़ना पड़े, लेकिन आरंभ करते हैं किसी खास अक्षर से। तो जी अंत में तय यह हुआ कि धरती गोल है, हम जहाँ से चले थे अभी भी वहीं के वहीं हैं। जिसे जैसा लगे, वैसा माने – हमारे भरोसे न रहे कोई कि हम कोई हल बतायेंगे। हम तो खुद ही कन्फ़यूज़्ड हैं।

छेड़ाखानी करने वाले तो सही मायने में धुन के पक्के होते हैं।  आज  शीला मुन्नी जैसे नामों को लेकर छेड़ाखानी कर रहे हैं,  ये सब न होता तो भी उन्होंने किसी और बहाने से यही काम करना था। सबके अपने अपने संस्कार हैं। अपने हाथ में अगर कुछ है तो, खुद को नियंत्रण में रखने की कोशिश करना। हम खुद को और अपने आसपास वालों को समझा सकें कि आजादी और उच्छृंखलता में अंतर है,  तो उससे अच्छा समाधान कोई नहीं।

:) फ़त्तू ऑन जॉब -
कंगाली के दौरान फ़त्तू एक सेठ के यहाँ नौकरी पर लगा। पहला ही दिन था। जाड़ा जोरों पर था, ग्राहक घरों के भीतर दुबके बैठे थे । ऐसे में  कोई पेमेंट लेने वाला आया तो सेठजी बोले, “भाई, फ़िर ले जाईयो, आज तो मौसम ने ईसी-तीसी करवा राखी सै।” दूसरा बंदा आया तो उसे भी यही जवाब, ठीकरा मौसम के सर। अब फ़त्तू को बहुत बुरा लग रहा था, बेकार में दूसरे को क्यों बदनाम कर रहा है सेठ, लेकिन बेचारा करता भी क्या?  फ़िर से कोई व्यापारी अपने पैसे लेने आया तो सेठजी ने वही डायलाग दोहराते हुये अबकी बार फ़त्तू से कहा, “रे, बाहर चक्कर तो काट के आ जरा, देख तो बाकियों का के हाल सै? आड़े तो मौसम ने ईसी तीसी करवा राखी सै।”  फ़त्तू के मौका थ्या गया, भागकर बाहर गया और दौड़ता हुआ वापिस आया, चमकते दमकते मुख से बोला, “सेठ जी, मौसम ने  एकल्ले  आप की ही नहीं, सारी मार्किट की ईसी-तीसी कर राखी सै।”

गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

कोई चेहरा भूला सा....

उसने घड़ी देखी, साढे छह बजे थे अभी। खूब आराम से भी चले तो छह पचास वाली मैट्रो तो मिल ही जायेगी। चालीस मिनट का रास्ता इस स्टेशन से उसके  स्टेशन, दस मिनट आगे पैदल, यानि पौने आठ बजते न बजते घर पहुंच जायेगा। फ़िर छिन जायेगा अकेलापन उसका।

वो मैट्रो में चुपचाप आकर सीट पर बैठ गया। वही रोज का रूटीन, इंगलिश के अखबार से सुडोकू, हिंदी के अखबार से वर्ग-पहेली, ये हल करते करते रोज उसका स्टेशन आ जाता था  और वो जहमत से बच जाता था लोगों से औपचारिकता निभाने से। उसे बहुत अजीब लगते थे रोज रोज वही सवाल और वही जवाब।  बल्कि सवाल-जवाब ही उसे अजीब लगते थे, बहुत अजीब। कुछ सवाल थे जिनके जवाब नहीं और कुछ ऐसे जवाब थे जिनका कोई सवाल हो ही नहीं सकता था।

आज की सुडोकू 5 स्टार्स वाली थी, खासी मुश्किल लेकिन इसीमें मजा आता है उसे, मुश्किल काम करने में ही, सो पूरी तन्मयता से लगा हुआ था कागजी सुडोकू हल करने में। “एक्सक्यूज़ मी, अंकल आप का नाम सुशांत है न?”  चौंक कर उसने चेहरा अखबार से ऊपर उठाया तो एक आठ नौ साल की लड़की अपनी आंखों में एक मासूम सवाल लिये खड़ी थी। बच्ची के चेहरे पर नजरें जम ही गई थीं जैसे उसकी। कहाँ देखे हैं ऐसे नैन-नक्श इतने करीब से, कहाँ? शायद जब भी आईना देखा हो उसने, ऐसा ही अक्स दिखता हो।  खुद पर गुस्सा भी आ रहा था उसे कि ऐसा भी क्या अनमनापन कि अपनी सूरत  भी कभी अनजानी सी लगती है उसे और आज इस बच्ची की शक्ल में अपनी सूरत ही तो नहीं दिख रही कहीं?   जब बच्ची ने दोबारा वही पूछा तो उसने आसपास बैठी सवारियों की तरफ़ देखा, कौन है इस खूबसूरत बच्ची के साथ?

उसे लगा जैसे एक जोड़ी आंखें उसके चेहरे पर नजर जमाये हैं, सामने वाली सीट पर उसकी नजर गई तो फ़िर वहाँ से हटी नहीं। वही दिलफ़रेब चेहरा,   वही सितमगर आंखे और चेहरे पर पसरा वही तिलिस्मी सूनापन जो खामोश आवाजें लगाकर उसे खींचता रहा था अपनी ओर।  नौ साल के समय ने उसके अपने चेहरे का भूगोल बेशक बदल दिया था लेकिन शायद उस तिलिस्म में घुसने की हिम्मत वक्त भी नहीं कर सका था। अबकी बार बच्ची ने मानो उसे झकझोरते हुये  फ़िर पूछा, “अंकल. बताईये न आप का नाम सुशांत ही है न? मम्मी ने पूछा है।” वो जैसे नीम बेहोशी की हालत में था, “बेटा, मम्मी को कह देना कि सुशांत को खोये हुये नौ साल बीत चुके हैं। मुझे भी उसकी तलाश है, लेकिन वो शायद अब नहीं मिलेगा।”

बाहर देखा तो उसके स्टेशन से पहला स्टेशन आ गया था। घर की दूरी यहाँ से तीन किलोमीटर थी, गनीमत है कि रास्ता ज्यादा रोशन. ज्यादा चलता हुआ नहीं था।   एक झटके से सीट छोड़ दी थी  उसने। गाड़ी रुकने से पहले वो पलटा, बच्ची के माथे को चूमा और उसके सर पर हाथ फ़ेरा, भगवान से शायद सब खुशियाँ उस बच्ची के लिये मांगी और बाहर निकल गया।

सर्दियों की पहली बारिश, लोग रुकने का इंतज़ार कर रहे थे और वो स्टेशन से बाहर निकल आया। कितना डरते हैं लोग भीगने से, बीमार होने से, जैसे भीगने से बचना ही जिंदगी का सबसे बड़ा काम हो। बीच बीच में बालों में हाथ फ़ेर रहा था और ऊपर बादलों को देख रहा था बहुत हसरत से, कि कहीं रास्ता तय करने से पहले उनका  पानी खत्म न हो जाए।

घर में घुसा तो माँ उसे देखकर चौंक गई, “क्यों भीगा सर्दी में, घर ही तो आना था तो बारिश रुकने का इंतजार कर लेता। और तेरी आंखें कैसे लाल हो रही हैं जैसे रोकर हटा हो अभी?”  वो हंस रहा था, “मैं और रोया होऊँ? क्या माँ, तुम भी बस्स। आंख में कुछ गिर गया है शायद।” और फ़िर से हँस दिया था वो हमेशा की तरह, वादा भी आखिर कोई चीज होता है।

शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

ये ज़िंदगी के मेले....

जैसे जैसे उम्र निकल रही है, एक एक करके मन के सारे वहम धुलने लगे हैं। कितना यकीन था अपने ऊपर कि हमारे बिना यह काम रुक जायेगा, वह काम रुक जायेगा। मिन्नत करेंगे लोगबाग कि श्रीमान, आओ, तुम्हारे बिना  सब ठप्प हो गया है। और हम बारात में रूठे हुये फ़ूफ़ा या जीजा की तरह पहले मान-मनव्वल करवायेंगे और फ़िर निहाल कर देंगे  दुनिया वालों को । मगर न किसी ने मिन्नत की और न ही किसी ने य पूछा कि भाई क्यों नहीं दर्शन दिये आपने? बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले।

दिल्ली का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला संपन्न हो गया है।  इसमें क्या नई बात है?  हर साल लगता है,  चौदह नवंबर से और दो सप्ताह तक प्रगति मैदान और आस पास के कई किलोमीटर के दायरे में  कंधे से कंधा टकराती भीड़ का समन्दर लहलहाता रहता है। वैसे तो महीना भर पहले ही कम-ऑन वैल्थ खेल भी संपन्न होकर चुके हैं, लेकिन उनके साथ हमारा कोई इमोशनल अटैचमेंट नहीं था। लेकिन इस बेवफ़ा ट्रेड फ़ेयर को तो हमने अपने खूने-जिगर से पाला पोसा था, इसने इतनी बेमुरव्वत क्यों दिखाई? बिना हमारे गये भी ठीक-ठाक संपन्न हो गया?

ट्रेड फ़ेयर एक ऐसा सब्जैक्ट है हमारे लिये, कि उस पर पूरा महाकाव्य लिख सकते हैं। बहुत छोटे थे तो पिताजी हमें  घुमाने ले जाते थे, उसका अपना अलग चार्म था। कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक्र नहीं। देखे जाओ और आनंदित होते रहो। फ़रमाईश करना ही काम होता था, बहुत मजा आता था उस समय। एक दिन एक प्रवचन में ऐसे ही मेले का वर्णन सुनते हुये फ़िर से अपने बचपन में पहुंच गये और एक नया नजरिया पाया। जब हम पिता की  उंगली पकड़कर   मेले में घूम रहे होते हैं, कितनी चीजें हमारा मन मोहती हैं। सजे सजाये पैवेलियन, महंगे और अनदेखे सामान, फ़व्वारे, खाने-पीने का सामान, आकर्षक साज-सज्जा तो मजा तो हमें यही सब देखकर महसूस करके आता लगता है कि इन रंगीनियों, साजो-सामान  में ही जिन्दगी का उल्लास है। ऐसे में अचानक पिता की उंगली छूट जाये तो फ़िर? सब साजो सामान वहीं और वैसे ही, लेकिन आनंद की जगह डर, निराशा, खौफ़ हावी हो जाते हैं। तो असली आनंद जिस चीज में है, उसका महत्व  हम तभी समझते हैं जब वो चीज हमसे छूट जाये।

फ़िर हम हो गये जी जवान।  अपने फ़ैसले खुद लेने लगे।  ग्यारहवीं और बारहवीं में हमारे साथ बहुत अन्याय हुआ था। नखलिस्तान से उठाकर हमें रेगिस्तान में छोड़ दिया गया। कोई फ़ूल नहीं, जिधर देखो कांटे ही कांटे। हम भी हम ही निकले, मिले न फ़ूल तो कांटों से ही दोस्ती कर ली। कायदे के चक्कर में ऐसे बेकायदा हुये कि डीटीसी को आधा घाटा तो हमारे जैसों के कारण ही हुआ। हमारे बापू की मेहनत से कमाई गई रकम में से साढे बारह रुपये ऐडवांस में ले लेते थे डीटीसी वाले, तब जाकर आल रूट पास जारी करते थे। हमने भी कमर कस ली कि पैसे वसूल करके ही छोड़ेंगे। सुबह घर से निकलने की  भी ऐसी हड़बड़ी रहती थी कि पेरेंट्स निहाल होते थे कि देख लो स्कूल जाने का कितना शौक है हमारे लाडले को। लाडला दूसरे कैक्टसों के साथ सारा दिन दिल्ली दर्शन में व्यस्त रहता था, बापू के साढे बारह रुपये जो वसूल करने होते थे।

कोई पार्क, कोई सिनेमा, कोई बाजार, कोई रोड, कोई कालोनी नहीं छोड़ी हमने जिसपर हमारे कदमों की छाप न पड़ी हो। लेकिन थे हम वैजीटेरियन शुरू से ही, फ़ूलों की खुशबू ले लेते थे लेकिन तोड़ते मरोड़ते नहीं थे। ऐसे में पहली बार दोस्तों के साथ  ट्रेड फ़ेयर में गये।

घूमते रहे इरादतन, गैर-इरादतन। जब थक गये तो बैठने  की जगह देखने लगे।   एक पैवेलियन के निकास द्वार के पास  फ़र्श में एक फ़ाल्स स्टेप था, होगा सिर्फ़ दो इंच का। एक लंबा सपाट गलियारा, एक्दम समतल और उसके बाद अचानक ही फ़र्श में थोड़ा सा गैप था। अपनी निगाह तब  ऐसी जगह पर बहुत पड़ती थी, जहां  something happening होने के चांस हों। वहीं अड्डा जमा लिया। यार दोस्तों ने बहुत कहा कि किसी लान में बैठेंगे लेकिन हमने तो वहीं साईड में एक रेलिंग पर बैठने की जिद की और सिर्फ़ पन्द्रह मिनट का समय मांगा कि अगर यहाँ बैठने में मजा न आया तो सबको पार्टी पक्की।

हमारी पिछली इलैक्शन ड्यूटी के दौरान एक साहब आये, आकर रौब से परिचय दिया ’I am observer’      बताओ जी, कैसी बीती होगी हमपर?  हम बचपन से ऑब्जर्वर चले आ रहे हैं और यहाँ हमें ही हूल दे रहे हैं साहब अपने ऑब्जर्वर होने की।    तो साहब, उस दिन रेलिंग पर बैठे बैठे अपनी मंडली  के साथ ऐसी ओब्जर्वेशन कीं कि इसरो वाले भी क्या करते होंगे। पेश है कुछ नमूने-

- जो बुजुर्ग या अनुभवी टाईप के थे, उनमें से एक भी उस जगह पर नहीं लड़खड़ाया। धीरे धीरे सधी चाल से ऊपर नीचे देखकर चलने वाले लोग छोटी मोटी मुसीबतों को पहले ही भाँप लेते हैं।

- जो उच्छृंखल टाईप के नौजवान थे, चलते किधर और देखते किधर थे, उनमें से आधे से ज्यादा वहाँ आकर डगमगा जाते थे – फ़िर अपनी झेंप मिटाने के लिये साथी के साथ धौल धप्पा करने लगते कि तूने धक्का दिया है।

- नौजवानियाँ(गलती शल्ती हो तो झेल लेना जी, भाषा-ज्ञान  हमारा ऐंवे सा ही है) जो अपने स्वाभाविक वेशभूषा में थीं, वे सहज रहीं और जो फ़ैशन के चक्कर में चोला बदलने की कोशिश में थी उनमें से अस्सी प्रतिशत वहाँ आकर झटका खा गईं। इतना जरूर है कि उन्हें संभालने वालों की कोई कमी नहीं थी, मिजाजपुर्सी करने वालों की कोई कमी नहीं थी। क्या बालक, क्या बूढ़े, क्या जवान, क्या कुंवारे और क्या उम्रकैदी – जरा सा स्कोप देखते ही सहारा देने को, संभालने को, मदद करने को तत्पर। और जितने ज्यादा पूछने वाले हों, उतनी ही हाय-हाय ज्यादा।

- जूनियर ब्लॉगर्स की तर्ज पर जो बच्चा दिल वाले गिरू फ़िसलू थे, वे लड़खड़ाते थे तो अगले ही पल सब भूलभालकर फ़िर रंगीनियों में, आपाधापी में खो जाते थे, यथास्थिति फ़ौरन बहाल हो जाती थी उनकी।

लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता आपको कि  ये सब चीजें हमारी लाईफ़ में भी घटित होती रहती हैं।  हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये। जिन्दगी के सभी सुख मौजूद रहते हुये भी मन उचाट रहता है, फ़िर मालूम चलता है कि असली सुख तो उस सहारे में था न कि इस दुनिया की रंगीनियों में। और  कभी बहुत समय तक समतल रास्ते पर जिन्दगी चलती रहे तो हम लापरवाह हो जाते हैं, थोड़ी सी भी परेशानी आई जैसे फ़र्श में डेढ-दो इंच का गैप, तो लड़खड़ा जाते हैं। अपनी मानसिक स्थिति के अनुसार ही हमारी प्रतिक्रिया होती है। मैंने देखे हैं ऐसे उदाहरण भी कि कोई बड़ी से बड़ी मुसीबत भी हंसकर झेल जाता है और हम जैसे भी हैं कि थोड़ी सी परेशानी भी भारी लगती है। कोई अपनी दूरदृष्टि के चलते आने वाली मुसीबत से बचने का उपाय कर लेता है, कोई गप्पबाजी और बेकार की बातों में व्यस्त रहकर जमीनी सच्चाई को भूले रहता है और फ़िर चोट खा जाता है। कोई बात का बतंगड़ बना लेता है(हम हूँ ना?)    और कई बच्चों की तरह दिमाग की स्लेट से सब पोंछ-पांछ कर फ़िर से तैयार, नये झटके झेलने के लिये।

अब ज्यादा बोर आज ही कर दूंगा तो फ़िर कौन आयेगा जी यहाँ?  ऐसे ही कभी एक रिपोर्ट आपके सामने एक कस्बे की नुमाईश की दी जायेगी, कुछ हमारी सेल्फ़ डेराईव्ड ओबजर्वेशन्स के साथ। फ़िर करियेगा फ़ैसला, बड़े शहर के मेले मस्त होते हैं या छोटी जगह पर होने वाले ऐसे आयोजन ज्यादा अच्छे होते हैं। लेकिन अब पेंडिंग काम बढ़ते जा रहे हैं, इसका भी बोझ दिमाग  पर रहने लगा है। एक नन्हीं सी जान और कितने बोझ, अल्लाह जाने क्या होगा आगे?      अपना तो जी फ़िर वही आखिरी जवाब  है,  देखी जायेगी…..

:) फ़त्तू का छोरा पढ़न खातिर चंडीगढ़ में रहने लगा था। फ़त्तू पहले बार मिलने गया तो छोरा उसे सैक्टर सत्रह की मार्केट में ले गया। वहां जब फ़त्तू ने देखे चलते फ़िरते बुत, रूप के खजाने, हुस्न के लाखों रंग,  तो उसके दीदे फ़टे के फ़टे रह गये।
फ़त्तू छोरे से पूछने लगा, “रे, यो के सैं?”
छोरा,   “लुगाई सैं, और के होंगी?”
फ़त्तू, “यो सारी लुगाई सैं?”
छोरा, “हां बाबू, लुगाई सैं”
फ़त्तू ठंडी सांस भर के बोला, “वाह री म्हारी किस्मत, आज बेरा पटया कि लुगाई ईसी होया करें, म्हारी तो सारी उमर भैंस गेल ही कट गई।”

फ़त्तू गांव लौटकर रूखी सूखी खायेगा और ठंडा पानी पीयेगा।

बुधवार, नवंबर 24, 2010

चींटी, चिड़िया, बिल्ली और ........

आजकल एक चींटी ने बहुत परेशान कर रखा है। हो सकता है कि एक चींटी न होकर कई हों, लेकिन काटती एक ही जगह पर है, बायें पैर पर, तो मैं यही मानता हूं कि एक ही चींटी है। वो काटती है, और मैं एकाएक मसल देता हूँ। अगले दिन फ़िर से वही करण-अर्जुन वाली, कर्ज वाली पुनर्जन्म की कहानी………..

सुबह के समय अखबार पढ़ने का समय, जगह और अंदाज एक ही है अपना।  अनार का पेड़ है एक, उसके नीचे कुर्सी बिछाई और पढ़ना शुरू। चिड़िया है एक, कई दिन से ऐन ऊपर वाली टहनी पर बैठ जाती है और चूं, चूं, चूं, चूं उसकी चलती रहती है जैसे समाचार वादन कर रही हो। दो तीन बार भगाया भी तो उड़ जाती है और दो ही मिनट में फ़िर से आकर निशाना बांधकर गोली सी मारती है, पोंछते रहो और बोलते रहो ’दाग अच्छे हैं।’   आ जाता हूँ अखबार समेटकर अंदर। उस दिन निकाली एयरगन, और निशाने से कम से कम डेढ़ फ़ुट दूर का टार्गेट बनाकर दाग दी, तो सीधे जमीन पर गिरी। हम जैसे टपंचों का निशाना लगाने का तरीका ऐसा ही होता है, slightly deviated from target to hit the aim. 

एक बिल्ली भी है, वो कौन सा कम है? जब बाईक उठाकर बाहर निकलने को होता हूँ, सामने से जरूर निकलेगी, शगुन जो करना होता है। एक बार अवायड किया, दो बार अवायड किया – एक दिन पकड़ कर जमकर भिगोना, निचोड़ना किया,  तब से दिखाई नहीं दी।

भैयो, हूँ तो ज्यादा  सताया हुआ इन चींटी, बिल्ली, चिड़िया का ही, लेकिन जिनसे कहीं न कहीं  कुछ लैंगिक  समानता समझता हूँ, पीछे वो भी नहीं हैं।   कुत्ते  भी अब इन्सान होते जा रहे हैं, जमाना खराब आ गया है।     एक कुत्ते ने  पहले एक बार टेस्ट किया था मुझे, खून तो खैर मीठा है ही मेरा, जरूर लिंक डाल दिया होगा उसने बिरादरी में। अब   एक और है झबरा सा, आजकल उसकी नजरें इनायत हैं मुझपर। दूर से देख लेता है, आंखों में चमक आ जाती है उसकी,  दांतों में नमक वाली पेस्ट की मुस्कान दिखने लगती है और स्साला टेढ़ी पूंछ वाला  दूर से ही यल्गार के ललकारे लगाता हुआ बढ़ा आता है। हरदम हाथ में ईंट रखनी पड़ती है मुझे, किसी दिन कर ही देना है उसका हैप्पी बड्डे।

एक पड़ौसी है हमारा। ऐसे पडौसियों के कारण ही लोग कहा करते हैं कि ’अफ़सोस, इतिहास को बदला जा सकता है लेकिन भूगोल को नहीं।’  घर में ही कैसीनो टाईप कुटीर उद्योग चलाता है, काऊ ब्वाय्ज़ की तरह बाईक्स पर शहर भर की क्रीम आती है जाती है, आपसी वार्तालाप में मातृभाषा का जमकर प्रचार-प्रसार करते हैं, wwf  बिग बॉस टाईप के रियैलिटी शोज़ गाहे बगाहे देखने को मिलते रहते हैं। पानी सर से ऊपर जाता है तो फ़िर जो होता है, उसे इतिहास में दर्ज करें तो पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाईओं वाली गिनती बहुत कम रह जायेगी। उस दिन एक दूसरा पड़ौसी कह रहा था सच में किसी दिन गोली मार देनी है इसके। मैंने कहा फ़िर तू बच जायेगा?   कहने लगा, आप रोज चींटी, चिडि़या, बिल्ली, कुत्ते को ......।  मैं सिर खुजाने लगा, अपना यार,  और किसका खुजाता?  क्या तर्क दिया है बंदे ने, मान गये।

बहुत हो गया जी दुख-दर्द मेरा, बात करते हैं ब्लॉग-जगत की। ताजा हालात में जिधर देखो, जो चर्चा देखो, एक चीज कामन है, मीट।    ब्लॉगर मीट छाई हुई हैं आजकल     और      दूसरे मीट की चर्चा भी यानि शाकाहार और मांसाहार। हर कोई इस चर्चा में या उस चर्चा में योगदान दे रहा है, जो ज्यादा कर्मठ हैं वो दोनों तरफ़ बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। हम भी करेंगे जी, जितनी समझ हममें है, सारी उंडेल देंगे।

गौर से देखेंगे तो मैंने ऊपर पांच पैरा लिखे हैं और पांचों में मैंने हिंसा की है, हिंसा की बात की है।  हम मानते हैं कि मानव शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। वनस्पति से शुरू होकर(जल तत्व), आरोह क्रम में कीट जगत, पक्षी, पशु वर्ग से मानव श्रेणी तक आते आते तत्व-संख्या बढ़ती रहती है और उसीके अनुसार की जाने वाली या होने वाली हिंसा का परिणाम भी। फ़िर जीने के लिये न्यूनतम साधन अपनाना, और केवल स्वाद के लिये  हिंसा का अपनाना, इन दो बातों में तो अंतर होना ही चाहिये। कहाँ हिंसा बाध्यता है और कहाँ वैकल्पिक, इस बात को हम अपने सबसे विशिष्ट तत्व विवेक का इस्तेमाल करके देखें तो हो सकता है कि कुछ ……..। खैर हरेक का सोचने का अपना नजरिया है। जुटे हैं विद्वान, आलिम-फ़ाजिल - लगता है कुछ न कुछ फ़ैसला हो ही जायेगा।

मेरी नजर में तो ये दोनों व्यक्तिगत विषय हैं, हाँ महिमा मंडन नहीं समझ में आता। मैं खुद जनरल सेंस में शाकाहारी हूँ, लेकिन मेरे बहुत से मित्र मांस खाते हैं। न वो मुझे मजबूर करते हैं खुद को बदलने के लिये और न ही मैंने आजतक किसी को कहा है बदलने के लिये, सिवाय एक के। और फ़िर जब कुछ दिन के बाद उसने बताया कि उसने भी नॉन-वेज खाना बंद कर दिया है तो मुझे अफ़सोस हुआ कि मैं कहाँ का जज या ऐडवाईज़र हूँ जो फ़ैसले सुनाता फ़िरूँ या सलाह देता फ़िरूँ? उसका अहसानमंद हुआ और उसे भी छूट दे दी कि अपने विवेक से निर्णय ले।

तो बन्धुओं, ज्यादा  नहीं भाषण देना है अब, नहीं तो साम्प्रदायिकता और पता नहीं कौन कौन सी ता का आरोप लग जाये। कुछ हो गया न तो सारे पल्ला छुड़ाकर भाग जाओगे, पता है मुझे। पहले नहीं डरता था किसी बात से, अब डरने लगा हूँ, जब से  चार लोग जानने लगे हैं, जिम्मेदारी बढ़ जाती है जी।  विचारशून्य बन्धु की भाषा में बोले तो ’नालायक का बस्ता और भारी हो जाता है।    वो गज़ल है न जगजीत साहब की गाई हुई, ’मैं तनहा था मगर इतना नहीं था।’  सामान जितना ज्यादा हो, सफ़र में टेंशन भी उतनी ही होती है मुझे तो। खाली हाथ झुलाते, भीड़ के बीच अकेला, मजा आता है सोचकर भी, वो दिन भी क्या दिन थे सनम, बिंदास।’ लौटेगा जरूर वो गुजरा जमाना, तब देखेंगे सबको, एक एक करके, हा हा हा।

:) फ़त्तू चारपाई पर लोटा हुआ था और गा रहा था, “सीसी भरी गुलाब की, पत्थर से फ़ोड़ दूँ….।”   
बापू बोल्या, “ओ बौअली बूच!       सीसी लेगा, गुलाब इकट्ठे करेगा, रस काढेगा उनका, सीसी में भरेगा फ़िर उसने पत्थर मारके फ़ोड़ेगा।  मेरे यार, इससे तो  अपनी भैंस के चीचड़ काड लै,  कुछ तो सुख पायेगी वो बेचारी।

आदरणीय, माननीय, परम श्रद्धेय प्रचारकों, उपदेशकों आदि आदि,   ये इधर उधर जाकर कापी पेस्ट भड़काऊ टिप्पणियां करने की बजाय आप भी अपनी अपनी भैंस के चीचड़ निकाल लो न यारों, वो भी थोड़ा चैन पा लेगी। दूसरे धर्म की कोई अच्छी चीज भी दिखती है तुम्हें क्या?

गाना सुनवा देता हूं  तलत महमूद का, मुझे बहुत अच्छा लगता है ये गाना भी और तलत महमूद की आवाज 
भी। उम्मीद है अभी तक ऐसे लोगों की पहचान फ़नकार के रूप में ही होती है, न कि किसी धर्म विशेष के अनुयायी होने से। गाने का गाना हो जायेगा और हम भी सैक्यूलर समझ लिये जायेंगे। दोनों हाथों में लड्डू हैं आज तो, हा हा हा।
p.s. - सुबह नैट और ब्लॉगर ने मिलीभगत करके मेरी बेइज्जती की इज्जत खराब कर दी। क्या करें, बड़े लोग हैं ये गूगल और रिलायंस वाले, इनकी तो...:)


शनिवार, नवंबर 20, 2010

वाईन है तो फ़ाईन है....आंय..

आज जाकर मूड कुछ ठीक हुआ है जी हमारा। उस दिन शायद महीने भर के बाद अखबार पढ़ी तो लेख देखा, ’जवानी में वाईन तो बुढ़ापा फ़ाईन।’। वैरी गुड, बचपन और जवानी तो जैसे तैसे निकाल दी, कभी बहक कर और कभी ठिठक कर, एक बुढ़ापे का सहारा था कि आराम से कट जायेगा, इस पर भी पानी फ़ेर दिया विद्वान लोगों ने।
अमां जो पीते हैं, वो जवानी भी फ़ाईन गुजारें और बुढ़ापा भी, और हम जैसे बहार में भी सूखे रहे और जब चैन से बैठने का समय आये, उस समय भी बेचैन रहें। सही है तुम्हारा इंसाफ़।
आप कह सकते हैं कि हमें किसने रोका है, हम भी तो ये सब कर सकते थे और वैसे भी मलिका पुखराज का गाना ’अभी तो मैं जवान हूँ’  मुफ़ीद बैठता है हम पर तो अभी क्यों न कर लें यह शुभ काम? फ़ायदा ही फ़ायदा, जो मन में आये वो कर सकेंगे। किसी से प्यार का इजहार,  किसी को गाली-गुफ़्तार, किसी की च्ररण-वंदना और किसी की इज्जत का फ़लूदा, कुछ भी कर देंगे और अगर बाद में बात बिगड़ गई तो माँग लेंगे माफ़ी कि यार खा-पी रखा था, कह दिया होगा कुछ, जाने दो। वैसे भी यहाँ जबसे पधारे हैं हम,  टिप्पणी, सलाह, मार्गदर्शन, माफ़ी, कॉफ़ी कुछ भी माँगने में शर्म नहीं आती। और फ़िर हमें शर्म आई तो कोई तो होगा कहीं मसीहा, जो हमारे लिये सफ़ाई दे देगा?  इत्ते सारे बड़े भाई, छोटे भाई, उस्ताद जी, वस्ताद जी, यार-दोस्त, मित्र-बन्धु बनाये हैं, हमारे गाढ़े हल्के में काम न आये तो फ़िर क्या फ़ायदा इतना वजन उठाने का हमारा?
अब करें क्या, शुरुआत खराब हो गई थी अपनी। बचपन से ही पहले तो टीचर ऐसे मिले, जिनकी किताबें पढ़ीं शुरू में वो लेखक ऐसे मिले, फ़िल्में पसंद आईं तो ऐसे निर्देशकों की जिन्होने हमें बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।  शराफ़त, नैतिकता, ईमानदारी, शालीनता जैसी विलुप्त प्रजाति की चिडि़याओं का बसेरा करवा दिया हमारी खोपड़ी में। इन्हें जेहन में बसाकर उम्र भर के लिये बरबाद कर दिया हमें। ये सब चीजें न ओढने की, न बिछाने की। न इधर के रहे न उधर के। न खुदा ही मिला न विसाले सनम। जमाने को देखें तो सरपट भागता दिखता है और हम ताल से ताल मिलाने की असफ़ल सी कोशिश करते हुये। हमने बिगड़ने और बिगाड़ने का फ़ैसला कर लिया है, मसौदा बना रहे हैं और जल्दी ही पेश करेंगे।
अब मूड ठीक कैसे हुआ, ये बकवास सुनो।   सुबह  सुबह यह पोस्ट   देखी और कमेंट्स पढ़े। किसी को उल्टी आ रही है, किसी के साथ कुछ हो रहा है, कोई उसे जायज ठहरा रहा है तो कोई और बाल की खाल निकाल रहा है। हमने तो देखे जी दोनों वीडियो कई बार, दोनों के लिये धर्मनिरपेक्ष होकर कह रहे हैं कि प्रेम, करुणा, सौहार्द, अलाना, फ़लाना  आदि का सागर और जोरों से ठाठें मारने लगा है।
इतने लोगों को पुण्य-सबाब  मिलेगा, ये सोचकर मूड सही हो गया। इन बेजुबान बेचारों ने तो मरना ही था और फ़िर तुम ताकतवर हो इनसे, तो तुम्हारा हक भी है। वैसे शायद तुम से ताकतवर कोई और भी हो कहीं.......    तुम ले लो यारों पुण्य-सबाब, वहाँ जाकर पीने को मिल जायेगी तुम्हें और तुम हो लेना खुश उसमें, हमारी और हम जैसों की  जवानी जैसी गुजरी, गुजर गई और बुढ़ापा फ़ाईन न गुजरेगा तो न गुजरे, वो भी देखी जायेगी। 
हम तो यहीं गा गुनगुना लेंगे – ये आठ के ठाठ है बंधु…..
:) फ़त्तू के बाल वाल रूखे से बिखरे से थे, वरिष्ठ….  ने समझाया, “रै, बालों में तेल गेर लया कर माड़ा सा।”  
फ़त्तू बोल्या, “जी तो म्हारा भी बोत करे सै जी, पर आड़े तो हाल इसे हैं कि छौंक लगाती हाण भी पानी का इस्तेमाल करना पड़  रया सै, आप बात करो सो बालां में तेल गेरन की।”
आयेगा सही टाईम भी फ़त्तू का, देख लेना

सोमवार, नवंबर 15, 2010

हार की जीत

शाम ऑफ़िस से घर के लिये निकला तो छिटपुट अंधेरा शुरू हो गया था। वैसे तो बाईक पर हम दो साथी इकट्ठे जाते हैं, लेकिन उस दिन मैं अकेला था। कुलीग का घर  मेरे मकान के पास ही है। इकट्ठे जाने के और फ़ायदों के साथ एक फ़ायदा यह भी हो जाता है कि रास्ते में कुछ प्लानिंग कर लेते हैं कि आज फ़लां काम को निबटाना है या आज डाक की पेंडेंसी देखनी है। मेरे यह कुलीग मेरे से हर लिहाज में सीनियर हैं। न सिर्फ़ उम्र के लिहाज से,  बल्कि ज्ञान, दुनियादारी वगैरह हर मामले में मुझसे इक्कीस नहीं, इकतीस बल्कि इकतालीस हैं। आजकल उन्हें शाम को  किसी काम से दूसरी तरफ़ जाना होता है, सो हम दोनों अपनी अपनी बाईक से जाते हैं।
थोड़ी दूर ही आया था कि दो सज्जन खड़े दिखाई दिये और मुझे रुकने का इशारा किया। चलने के लिये तो फ़िर भी हमें प्रेरित करना पड़ता है, लेकिन रुकने का तो जी बहाना चाहिये होता है। रुक गया तो एक महाशय आकर पीछे बैठ गये और कहने लगे. “चलो जी।” चल दिये जी हम। असल में सीधा सा ही रास्ता है तो सबको मालूम है कि कोई इस तरफ़ जा रहा है तो कम से कम मेन रोड तक तो जायेगा ही। इसलिये कोई औपचारिकता नहीं, ऐसा नहीं कि दिल्ली की तरह अँगूठे दिखा दिखाकर लिफ़्ट मांगी जाये। यहाँ तो सामने वाला रुक भर जाये, फ़िर तो खुद ही बैठ जाते हैं भाई लोग।
मेन रोड पर आकर मैंने बाईक रोकी और उनसे कहा कि मैं इधर गांव वाले रास्ते से जाऊँगा। वो उतर गये। रोड पार ही की थी कि प्रौढ़ उम्र के आदमी औरत खड़े थे, अब उन्होंने रोक लिया। महिला आकर बैठ गईं और हम चल दिये। आगे गाँव में जाकर उन्हें उतारा और मन भर आशीर्वाद अपने सर पर चढ़ाकर मैं आगे निकल पड़ा।
बहुत समय हो गया है जब मैं किसी के साथ होता हूँ,  तब मैं खो जाता हूँ कहीं। हैरान होकर, चकित होकर लोगों को बातें करता देखता रहता हूँ। यार, कैसे ये लोग इतनी बातें और इतनी अच्छी तरह से कर लेते हैं? अपने से तो एक वाक्य बोलना पड़े तो तेरह व्याकरण की गलती, पन्द्रह उच्चारण की गलती हो जाती हैं। हाँ, जब अकेला होता हूँ, तब बहुत बोलता हूँ। सोचता रहता हूँ, खुद से ही सवाल जवाब करता रहता हूँ।
ख्याल भी बहुत बेतरतीब से और अजीब से आते हैं। एक दिन सोच रहा था, एक महानगर में पैदा होकर वहीं डिग्री विग्री ली(पढ़ा लिखा कुछ नहीं और न ही उसका मोल है कुछ – शिक्षा म्यान है और डिग्री तलवार जो बेरोजगारी रूपी कैद को काटने के काम आती है),  नौकरी के सिलसिले में एक जिला केन्द्र   पर पहुंचा। अगला कदम एक कस्बे में रखा और फ़िलहाल एक गांव में हूँ। लोग अपना विस्तार करते हैं ऊपर उठते हैं, मैं वृहत से लघु की ओर जा रहा हूँ। अब अगला पड़ाव क्या होगा?   ट्रेंड के हिसाब से तो अगला मुकाम कोई रेगिस्तान या पहाड़ लगता है, जहाँ चारों तरफ़ वीराना पसरा हो। न कोई आने वाला हो, न कोई जाने वाला। मिलने की खुशी न मिलने का गम, खत्म ये झगड़े हो जायें – देखें क्या होता है। लेकिन ऐसा हो तो शायद मेरे मन को सुकून ही मिलेगा। लोगबाग जहाँ इंच-इंच जगह के लिये लड़ रहे हैं, मैं अकेला मीलों सरजमीन का उपयोगकर्ता।  क्या कहा जाये, हाऊ रोमांटिक या पागलपन?
खैर, उन महिला को उतार कर चला तो दिमाग में ये आ रहा था कि मैंने ऐसा क्या विशेष कर दिया कि वो बेचारी अपनी तरफ़ से इतने आशीर्वाद दे गई। ’जुग जुग जी मेरे पुत्तर, ज्यूंदा रह ते तरक्की कर और ये और वो’। मेरा दिमाग बहुत जल्दी सनक जाता है जब कोई मुझे ऐसी बातें बोलता है। मैं क्या उसे अपने कंधे पर बिठाकर लाया या मुझे उसके कारण कोई ज्यादा सफ़र करना पड़ा? मैं बाईक पर इस तरफ़ ही आ रहा था तो उनके कहने पर उन्हें भी साथ ले आया, इसमें क्या बड़ी बात हुई?
मेरे जिन कुलीग की बात मैंने पहले की है,  वो किसी के रोकने पर अपनी बाईक नहीं रोकते। पहले दो तीन बार ऐसा हो चुका है, और मुझे भी हर बार यही समझाया उन्होंने कि मैं भी एवायड किया करूँ। उनके अपने अनुभव रहे होंगे, और मैं उनकी अधिकतर बातें आँख बन्द करके मान लेता हूँ क्योंकि उनके अनुभव का मैं प्रशंसक हूँ। लेकिन इस बात पर मुझसे उनकी बात नहीं मानी जाती। अभी कुछ दिन पहले ऐसी ही एक घटना हुई कि हम दोनों अपनी अपनी बाईक पर लौट रहे थे, वो आगे थे और मैं पीछे। एक मोड़ पार करने पर एक बीस बाईस साल का लड़का था, उसने हाथ देकर शहर तक छोड़ने की रिक्वेस्ट की, मैंने मान ली। बताने लगा कि ट्रेन पकड़नी थी, टैम्पो वगैरह कोई आया नहीं, लेट हो गया तो ट्रेन मिस हो जायेगी।
अगले दिन ऑफ़िस में लंच के बाद बैठे हुये थे कि वही बात उन्होंने छेड़ दी, “कल मैंने तो उस लड़के को मना कर दिया था लेकिन आपने उसे लिफ़्ट दे दी। आजकल जमाना खराब है, जिसे आप जानते नहीं उसके साथ भलाई करने का भी जमाना नहीं है। बाई चान्स, आगे चैकिंग हो और उस लड़के के पास कोई हथियार या कोई नशीला पदार्थ निकल आये तो आप साथ में नप जायेंगे”      सबने उनकी हाँ में हाँ मिलाई, बात गलत थी भी नहीं। मैं भी उन्हें मेरा शुभचिंतक ही मानता हूँ लेकिन मैं कन्विंस नहीं हो पाता,  मैंने सुदर्शन पंडित की लिखी कहानी ’हार की जीत’ सुनाई, जो हमारे गार्ड साहब को बहुत पसंद आई।
लेकिन सच ये है कि आज के समय में बाबा भारती कोई आदर्श नहीं।  आदर्श है ’बंटी और बबली’  जैसे या ’धूम’ के हाई प्रोफ़ाईल बाईकर लुटेरे। नई पीढ़ी को दोष नहीं देता मैं, उन्हें ये सब देखने पढ़ने को ही मिल रहा  है। लेकिन हम  जैसे क्या करें? 
बड़े शहरों में मुझे भी मालूम है कि लिफ़्ट लेने देने के खेल में बहुत कुछ होता है, सौदे से लेकर ब्लैक्मेलिंग तक, रिश्तों के कई आयाम हैं इस लिफ़्ट लेने-देने में जिसकी परिणति कई बार पैसे के लेनदेन से लेकर हत्या जैसे जघन्य अपराध तक में देखने को मिलती है।
कितना बदल गये हैं हम लोग कि आज से बीस तीस साल पहले जो बातें  हमें सिखाई जाती थीं कि औरों की मदद करो, दयालु बनो, मित्रवत व्यवहार करो आदि, आज इससे उलट शिक्षा हमें दी जा रही है।मेट्रो में और रेलवे स्टेशनों पर बाकायदा घोषणा की जाती है कि अजनबियों से सावधान रहें। और तो  और, अखबारों में ऐसी वारदातें पढ़ी हैं कि पानी पीने के बहाने घर में घुसकर  लूटपाट हो गई।  
ओबामा क्या दे गया और क्या ले गया, इससे ज्यादा मेरे लिये ये जानना जरूरी है कि हमें अविश्वासी होकर जीना चाहिये ताकि किसी मुसीबत में न फ़ंस जायें     या      सहज विश्वास करना चाहिये दूसरों पर कि हो सकता है वाकई इसे मदद की जरूरत है? आखिर हम जो करेंगे वही तो हमारे बच्चे सीखेंगे।  मैं तो अभी तक विश्वास करता रहा हूँ, हाँ, थोड़ा सा सावधान रहने में कोई हर्ज नहीं।  अविश्वास किसी पर नहीं करता लेकिन अंधविश्वास भी हर किसी पर नहीं करता। 
है किसी के पास ऐसा पैमाना जो बता सके कि सामने वाला सच बोल रहा है या झूठ?  
आज ढाई साल पूरे हो गये हैं जी हमें घर छोड़े।  अब जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं,  ये जगह, यहाँ के लोग और अच्छे लगने लगे हैं। ऐसा शायद सबके साथ ही होता होगा  कि जिस से जुदा होने का समय करीब आये, उसमें अच्छाईयां दिखने लगती हैं  या फ़िर मुझे ही ऐसा लगता है?
सवाल बहुत हैं, ऐसा जवाब कोई नहीं मिलता जो सवालों को संतुष्ट कर दे। और कुछ न सही, सवालों के ढेर तो इकट्ठे हो ही रहे हैं।
छोड़ो जी, आज बस इतना ही, गाना सुनो, एक कम पॉपुलर गीत लेकिन मेरा पसंदीदा, बहुत ज्यादा,  पता नहीं क्यों? ये     ’पता नहीं’    भी स्साला लाल रंग की तरह कब मुझे छोड़ेगा। खैर, देखी जायेगी.....

गुरुवार, नवंबर 11, 2010

मजा नहीं आया यार.....

उस दिन एक दोस्त से बात चल रही थी, कहने लगा कि यार इस बार तुम्हारी पोस्ट में मजा नहीं आया। शिकायत सुनकर अपने को मजा आ गया। जब तारीफ़ में उससे ये बात कही तो  उसे भी  मजा आ गया। अब साहब, क्या बतायें, इस मजे की कहानी?   इसकी थाह नहीं पायी किसी ने।
एक बार कालेज में अपने दोस्तों को अंग्रेजी फ़िल्मों के अपने अनुभव सुना रहे थे(ये पहले ही किलियर करे दे रिया हूं कि अपना अनुभव सिरिफ़ देखने तक का है कहीं बाद में कहो कि अनुभव तो ऐसे लिखा है जैसे बड़े वो कौन सा वाशिंगटन है डैज्ली या बैज्ली हों),  तो यारों ने चढ़ा दिया कि अबकी बारी इंगलिश फ़िल्म देखी जाये। प्रोग्राम बनाने की जिम्मेदारी हमपर ही डाल दी गई। नेकी और पूछ पूछ, हमने अपनी टोली को लिया और चल  दिये अपने फ़ेवरेट  सिनेमा की ओर।  खुद से ज्यादा उस सिनेमा पर भरोसा था, न अखबार देखी न कुछ और, कौन सी फ़िल्म है, कुछ नहीं मालूम किया। तीन चार बसें बदल कर पहुंचे तो शो शुरू हो चुका था। हमारे दोस्तों को तो फ़िल्म का नाम ही समझ नहीं आया omar mokhtar  ऐसा ही था कुछ। एक दो ने उसे बांग्ला मूवी समझा और दो तीन ने कोई चैक मूवी। जाकर बैठे तो थोड़ी देर के बाद पता चला कि फ़िल्म के हीरो का नाम है उमर मुख्तार, अरब की कोई कहानी थी। कहां तो यार लोग ऊह आह आऊच टाईप कुछ सुनने देखने गये थे, वहां तो सारी फ़िल्म में लड़ाई होती रही। बस तलवारों की आवाज और हिनहिनाहट, वो भी ऊँट-घोड़ों की। सारी फ़िल्म खत्म हो गई, नायिका तो क्या कोई घोड़ी भी नहीं आई पर्दे पर। लौटते में सारे रास्ते वही सुनते रहे कि जरा सा भी मजा नहीं आया, दि खराब कर दिया, पैसे खराब कर दिये। हमने तो कभी किसी से नहीं कहा कि हमारी जिंदगी खराब कर दी, कैरियर खराब कर दिया। देख लो जी, कैसे  दोस्त थे हमारे... एक तो उनका चरित्र एकदम  ठीक रखते थे हम, ऊपर से बातें सुनते थे। कितने तो डालर पौंड लग गये होंगे, कितने घोड़े जख्मी हलाक हुये होंगे, पूरी यूनिट ने कितनी मेहनत की होगी और हमारे दोस्तों ने फ़टाक से सर्टिफ़िकेट दे दिया कि मजा नहीं आया।
तो बात चल रही थी उस दोस्त से मजे के बारे में। हमने बताया कि हमारा मजा तो बड़े और मशहूर लोगों ने लूट लिया है, आईडिया हमारे होते थे और चुरा लेता था कोई और। और ये जबरदस्ती हमारे साथ हमेशा से होती रही है।  पहले मैमोरी लॉस वाली कहानी हो गई, अब लेटेस्ट किस्सा ’मूत्र विसर्जन’ से संबंधित है।  थ्री ईडियट्स में इस सिच्युऐशन में बहुत मजे ले रहे हैं सब, हमने ये मजे लेकर छोड़ दिये।
लगभग दो दशक पहले की बात है, बैचलर लाईफ़ चल रही थी अपनी। मैं, जीतू, राजीव, राजा और जैन साहब इकट्ठे रहा करते थे। जीतू, राजीव और राजा का जिक्र तो सिल्वर स्पीच वाली पोस्ट में कर ही चुका हूँ, बचे जैन साहब, तो  उम्र में हम सबसे बड़े थे जनाब। एक अदद बीबी और एक बालक के पिता थे, नौकरी नई नई होने के कारण फ़िलवक्त फ़ोर्स्ड बैचलर बनकर हमारे साथ रहते थे। एकदम शरीफ़ इंसान,  हमारी हरकतें देखकर मुस्कुराते रहते, खुलकर हंसते भी नहीं थे। पांच साल हम इकट्ठे रहे, उनकी आंखों में चमक सिर्फ़ तब देखी जब बेटा फ़िल्म में  माधुरी को धक धक करते हुये देखा उन्होंने। अकेली फ़िल्म थी जो उन्हें पसंद आई, वो भी सिर्फ़ सात आठ मिनट की।  साथ कभी नहीं छोड़ते थे हमारा, फ़िल्म देखने जाना हो या नुमाईश देखने जाना हो। बड़े  होने के नाते  एक बार हतोत्साहित करते थे जरूर, हम उनका बड़े होने का फ़र्ज मान लेते थे और उनकी नाफ़रमानी करके खुद को चे-ग्वेरा से कम नहीं समझते थे।
अब जो हमें जानते हैं तो इतना इतिहास उन्हें पता है कि रात को सोने की हमें कभी जल्दी नहीं रही। अब तो     वैसे एक जगह पढ़ा था कि राक्षसों को निशाचर भी कहा जाता है, तो क्या हम भी…?  तो जी हमारा रूटीन रहता था रात देर से  मकान पर लौटने का। मकान ले रखा था शहर से दूर, antisocial (जो सामाजिक न हो, उसे अंग्रेजी में यही कहते हैं न?) थे शुरू से ही। स्टेशन के एक तरफ़ शहर था और दूसरी तरफ़ थी वो कालोनी जिसे हमने गुलजार कर रखा था। स्टेशन और कालोनी के बीच एक लंबा सा, सुनसान सा, वीरान सा गलियारा था जिसके एक तरफ़ पेड़ लगे थे और एक तरफ़ थी रेलिंग जो एक मैदान के किनारे लगी थी। जिन दिनों की बात बताने जा रहा हूँ उन दिनों में हम तीन जने ही थे - मैं जीतू और जैन साहब। अब जैन साहब निखालिस शरीफ़ आदमी, ताश वो न खेलें, दम वो न लगायें, ताकझांक वो नहीं करते थे कहीं तो शुरू में तो हमें उलझन होती थी कि यार ये कमरे में ही क्यों नहीं बैठते? फ़िर धीरे धीरे समझ आई कि अकेलेपन से डरते थे सो मन मसोसकर भी हमारे साथ घूमते रहना उनकी मजबूरी थी। एकाध बार कहा भी उन्होंने कि मजा नहीं आता लेकिन क्या करें, साथ नहीं छोड़ा जाता। मजा, मजा इतनी बार सुन चुके थे कि जीतू तो कई बार झल्ला ही जाता कि अबे, हम क्या मजे लेने की चीज रह गये हैं तेरे लिये? फ़िर सब हंस देते थे।
उस दिन लौटते समय ठंड बढ़ गई थी मौसम में भी और कुछ आपसी रिश्तों में भी। किसी बात पर जीतू और जैन साहब की बहस हो गई थी। जैन साहब जिद पर थे कि लौटॊ जल्दी कमरे पर सो वापसी हो रही थी। रेलिंग के पास से गुजर रहे थे कि जीतू ने हाँक लगाई, “रुको यार, एक मिनट, सू-सू कर लूँ।” जैन साहब भड़क गये, “घर जाकर कर लेता! जानबूझकर देर कर रहा है।” जीतू के शायद जोर से लगी हुई थी, कहने लगा कि “तू जा फ़िर, तेरे को ज्यादा जल्दी है तो।” अब जैन साहब अकेले कैसे जायें, कहने लगे, “चल जल्दी कर।” और जीतू भी कभी टांग को किसी मुद्रा में ले जाये और कभी किसी मुद्रा में, ताकि प्रैशर पर काबू पा सके और जानबूझकर बहस किये गया। मैं कभी इसे समझाता कभी उसे, और हंसी थी कि रुकती नहीं थी। आखिर जैन साहब ने बड़प्पन दिखाते हुये समझाया कि असल में रात के समय ऐसे खुले में MV(चलेगा न?) करना बहुत खतरनाक होता है, ऊपरी हवा, आदि आदि का डर दिखाया। बात हो गई अब प्रेस्टीज की। दोनों बहस किये जा रहे थे और आखिर में हार जीत तय करने की जिम्मेदारी आई इस गैर जिम्मेदार पर।
महात्मा गांधी ने कहा था कि कोई काम भी करने से पहले यह सोचो कि लघुत्तम इकाई पर आपकी क्रिया का क्या असर होगा? अपन अपने मतलब की बात पकड़ते हैं बस, देखा कि इन दोनों में छोटा कौन है? जीतू!!    हमारा वोट जीतू की तरफ़। अगल बगल में खड़े होकर दोनों ने MV करना शुरू किया। बाद में जो झुरझुरी सी छूटी दोनों की, दोनों के मुंह से एकसाथ ये शब्द निकले, “मजा आ गया।” जैन साहब गुस्साये रहे। उस रात के बाद हमारा रोज एक काम और बढ़ गया, जब नाईट पैट्रोलिंग करके उस स्थान के पास से निकलते, MV जरूर करते। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि बातें करते करते उस जगह से आगे निकल आये, फ़िर ध्यान आने पर लौटकर वहीं जाते और जैन साहब, मजबूरी में ही सही हमारे साथ घिसटते हुये to & fro होते रहते। फ़िर तो उन्हें भी मजा आने लगा। एक दिन बोल ही पड़े, “जितना मजा तुम्हारी हरकतों में आता है, उतना तो माधुरी की धक धक में भी नहीं आता।” सही फ़ार्मूला था जैन साहब का, बस न चले तो नजरिया बदल लो।
बात पते की है जी, मजे का कुछ तय नहीं है कि किसे, कब और क्यों  आ जाये। आना हो तो MV में ही आ जाये और न आना हो तो एंजेलिना के साथ डेट पर जाकर भी न आये। मजा आना हो तो मिट्टी के खिलौने को पाकर ही आ जाये, न आना हो तो कोहिनूर पाकर भी न आये। आना हो मजा तो तसव्वुर में ही आ जाये, न आना हो तो ताउम्र के लिये हासिल कर लेने में भी न आये। किसी को जलने में मजा आ जाये है तो किसी को जलाने में मजा आ जाये। किसी को आ जाता है मजा दूसरों को सताने में तो ऐसे भी हैं जिन्हें अपनों के द्वारा सताये जाने में मजा आ जाये। किसी को दूसरे के हिस्से की रोटी भी छीनने में मजा आ जाता है और संत नामदेव जैसे ऐसे भी हुये हैं जिनकी रोटी छीनकर कुत्ता भागा तो उसके पीछे वे भी भागने लगे कि दोस्त, ये घी तो ले ले, रूखी रोटी में तुझे मजा नहीं आयेगा? कभी चढ़ाई पर ठेला खींचते किसी मजदूर के बिना कहे भी ठेली को पीछे से धकेलने में भी मजा आता है, लिया है कभी?  औरों को मजा आता होगा वाटर रिसोर्ट में जाकर, कुछ को साधारण बारिश में भीगने में मजा आ जाता है। बड़े महंगे डियो सर में चढ़ जाते हैं, लेकिन मिट्टी की सोंधी खुशबू में, गर्मियों में कोरी सुराही या मटके से जो महक आती है, उसमें भी मजा आ जाता है किसी को। ऐसे ऐसे आतताई हुये जिन्हें नवजात बच्चों को नेजे पर टांगने में मजा आता था, ऐसे शौदाई भी हैं जिन्हें किसी गरीब, बिना नहाये  बच्चे  के घुंघराले बालों में हाथ फ़ेरने में ही मजा आ जाये। विलक्षण दुनिया है जी, छोटी सी जिन्दगी, जिसे मजा जिस चीज में आये और जैसे आये ले ले, अपन भी अभी तो फ़ुल्ल मजा ले रहे हैं, आगे जो होगा देखी जायेगी।
:) फ़त्तू ने सड़क किनारे बिकते जामुन देखे तो पाव भर खरीद लिये। चल दिया मस्ती में। लिफ़ाफ़े से निकालकर मुंह में डाले जाता था जामुन और चुभलाता जाता। ऐसे ही एक बार मुंह में जामुन डाला तो साथ में एक भौंरा
भी, जो जामुनों की चमक, महक, रूप-रंग  से मोहित-मस्त था, मुंह में चला गया। जब उसने संकट में देखकर भिन भिन करनी शुरू की तो फ़त्तू महाराज बोले, “बेट्टे, कितनी ही कर ले भिन भिन, अस्सी रुपये किलो में तुलकर आया है। इब आया सै जाढ़ तले, छोड्डू कोनी तन्नै”
फ़त्तू बेचारा ये नहीं जानता कि हम सब बेभाव में तुलकर आये हैं, आखिर में तो जबाड़े तले आना ही है। जब तक  बचे हुये हैं,  जैसे हैं और जिस हाल में हैं, मजा मानकर रहें तो वक्त बढि़या कट जायेगा।

रविवार, नवंबर 07, 2010

वो मेरा खोया हुआ सामान..

बात ये है जी कि हम करना कुछ चाहते हैं और हो कुछ जाता है। पिछली पोस्ट में एक डायरी का जिक्र कर बैठा था। कई साल पहले एक सेठ दिवाली के मौके पर गिफ़्ट दे गया था। उस डायरी में शुरू में एक कोई रचना, कविता, गज़ल, नज़्म या पता नहीं क्या थी, थी कोई स्त्रीलिग वाली ही चीज, बहुत पसंद आई थी हमें।    सबके लिये  सुख की कामना इतने अच्छे शब्दों में की गई थी कि पूछिये मत।   यही वजह थी कि उसे घर तक ले आये थे।  नहीं तो दीवाली  जैसे मौकों पर   रास्ते में ही कोई न कोई यारा-प्यारा टोक दिया करता था और वैसे भी डायरी वगैरह लिखने लायक किस्से थे ही नहीं अपने पास तो हम ये गिफ़्टेड चीजें आगे ठेलकर मुफ़्त की वाहवाही लूट लेते थे और भार उठाने से बच जाया करते थे।  अब जब  ब्लॉगर(बोत वड्डे वाले)  बन ही गये हैं  तो सोचा था कि दिवाली वाले दिन वो जो भी थी गज़ल टाईप की चीज, उसे लिख देंगे अपनी पोस्ट में। काम का काम हो जायेगा और नाम का नाम। दाम कुछ लगेगा नहीं और हमारा भी शुमार होने लगेगा शायरों, कवियों, गीतकारों में। पहले तो कोई ध्यान से पढ़ता ही नहीं फ़त्तू के अलावा, पढ़ता तो पहचानता नहीं कि चोरी का माल है, पहचान लेता तो मुरव्वत में टोकता नहीं हमें(टोकाटाकी करने का एकाधिकार सिर्फ़ हमारा है) और फ़िर भी कोई टोक देता तो हम खेद प्रकट कर देते, येल्लो बात खत्म थी।
लेकिन ऐन मौके पर वो कमबख्त डायरी खो गई। मेरी बात रही मेरे मन में।  दीवाली की रात  पूजा, सन्ध्या वगैरह करने के बाद फ़िर एक राऊंड लगाया गया उस तलाश-ए-डायरी में, लेकिन हम कौन सा ओबामा के स्निफ़र्स ठहरे?  हैं तो हिंदुस्तानी मध्यमवर्ग के मानुष, बस्स ’वैल ट्राई पर काम न आई’ करके रह गये। खो गई चीजें, वो भी हमारी, ऐसे नहीं मिला करतीं। इनामी राशि भी घोषित की गई, संजय कुमार MBBS जुट गये तलाश में। ईनाम की आधी राशि तो काम होने से पहले ही अर्पित कर दी थी, डायरी नहीं मिली लेकिन सर्चिंग पार्टी का तर्क था कि हमने तो मेहनत की है न? शेष आधी राशि भी सौंप दी शराफ़त से।
कोई अजीज चीज या इंसान खो जाये तो ये गम ही बहुत बड़ा होता है, फ़िर हमसे दूसरी गलती ये हो गई कि सारी बात लिख दी पोस्ट में। अब जब इंटरनेट वाले अनलिमिटेड पैक के नाम पर जेब काट ही रहे हैं, हम भी टाईप कर ही रहे हैं तो काहे को कुछ छुपायेंगे? और हमारे खैरख्वाह भी ऐसे हैं कि ये सलाह नहीं देते कि जो खो गई उसे भूल जाओ और नई पर नजर डालो, जिसे देखो वही सलाह दे रहा है उसे ही ढूंढो।  बहुत अच्छे, हम तो लगे रहें उसी खोई हुई की तलाश में, नई नई तुम सब हड़प लो:)  सब समझते हैं हम, ये फ़ार्मूले हमने भी बहुत चलाये हैं कभी।  नहीं ढूंढेंगे उसे, जाओ कल्लो क्या करोगे हमारा? उसे अगर रहना ही होता मेरे पास तो खो क्यों जाती?
वैसे फ़ार्मूला तो उसे ढूंढने का भी मालूम है। कोई और कीमती चीज जानबूझकर गुम कर देता हूं, फ़िर जब उसे खोजने लगेंगे तो वो नहीं मिलेगी, ये मिल जायेगी। और ये सिलसिला ऐसी ही चलता रहेगा तो फ़िर क्यों न इस डायरी के खो जाने पर ही सब्र कर लूं?  अपना अनुभव है कि कुदरत खाली स्थान नहीं रहने देती। इससे अच्छी वाली, इससे बेहतर वाली डायरी मिलेगी।  इस नजरिये से तो कुछ पाने के लिये पहले कुछ खोना जरूरी है।  और तो और, ’हरि’ को पाने के लिये  ’मैं’  को खोना पड़ता है। डायरी का गम तो बर्दाश्त कर लेंगे, लेकिन मेरी  ’मैं’   चली जाये, ऐसा कब होगा? ऐसा चाहता भी बहुत हूँ और कसकर पकड़ भी रखा है इस ’मैं’ को।
एक  सौ प्रतिशत शर्तिया गारंटी और कामयाबी वाला फ़ार्मूला भी है, एक बार ये शोशा भर उछाल देना है कि उस डायरी में अपने लिखे कोई नितांत व्यक्तिगत पत्र हैं, घर के जिस सदस्य को वो डायरी मिले तो उसे बिना खोले ही मुझे लौटा दे। फ़िर तो जनाब चाहें सातवें पाताल में क्यों न हो, डायरी बरामद हो जानी है। ये अलग बात है कि उसके बाद क्या होगा? हमारी तो देखी जायेगी वाली बात हर जगह नहीं चलती है।
वैसे भी कौन सा ये हवाला वाली डायरी है जिसके कारण सियासत में भूकंप आ गया था, निजाम बदल गये थे। अंजाम उसका भी यही निकला  था ’सिफ़िर’, सारे बाइज्जत बरी, हमारे वाली खोई हुई मिल भी गई तो थोड़ा सा होहल्ला हो लेगा और फ़िर तो बरी हो ही जाना है हमने। हम कौन सा उस डायरी के विछोह में  पोस्ट लिखने से रह गये? बल्कि एक पोस्ट और लिख मारी। भारी  भरकम और गंभीर टाईप की एक दो पोस्ट लिख दी थीं, इस खोने पाने से  मूड चेंज होना शुरू हो गया है, फ़िर से मजा आने लगा है जीने में। एक निर्जीव डायरी के खो जाने के बदले आप जैसों का आभार जताने का मौका मिलता है, ये थोड़ी नियामत है क्या? 
कई बार अपनी उम्र को और अपने लिखे को  देखता हूँ तो दिमाग पूछता है  कि कब बड़ा होऊंगा मैं?  दूसरी ओर दिल कहता है कि सारी उम्र बच्चे बने रह सको तो ज्यादा अच्छा होगा। द्वैध में फ़ंसा ये फ़ैसला ही करता रहता हूं कि मैं इधर जाऊँ  या उधर जाऊँ? आखिर में दिल ही जीतता है।   इतना गम और  इतनी आपाधापी फ़ैली हुई है हर तरफ़ कि जिसकी  कोई थाह नहीं।  कोई आये गमों से घबराकर, उकताकर और मेरे दर पर दो घड़ी सुस्ता ले। ताजादम होकर  बिना बोझ लिये फ़िर से चल दे अपने सफ़र पर, तो अपना लिखा वसूल है।
:) फ़त्तू के पडौस में नई नई शादी हुई थी। रोज दोपहर में फ़त्तू पहुंच जाता पडौस में, बाहर बुढ़िया बैठी रहती। फ़त्तू  आग के बहाने चूल्हे पर रोटी बनाती भाभी के पास जाकर बतलाया करता। एक दिन नई दुल्हन का भाई आया और उसे कुछ दिन के लिये अपने साथ ले गया। रूटीन के हिसाब से फ़त्तू आया और बुढ़िया से पूछा, “ताई आग सै?” ताई बोली, “छोरे, तेरी आग तो ज्या ली आज बारह वाली रेल में।”
फ़त्तू के मुंह पर तबसे बारह बजे रहते हैं,  हमें भी बारह वाली रेल बहुत बुरी लगने लगी है।
भीगना है क्या बेमौसम की बारिश में? रेडियो पर ये बजता था तो कमरे का दरवाजा बंद करके हम भी माईकल जैक्सन बन जाते थे कभी,  रोज वाली मैट्रो(सवारियाँ) मिस करनी पड़ती थी। देखा मैंने भी पहली बार ही है, आभार यूट्यूब:)

शुक्रवार, नवंबर 05, 2010

दिये जलते हैं, फ़ूल खिलते हैं.............

तमस पर प्रकाश की विजय के इस शुभ पर्व पर सभी ब्लॉग मित्रों को हार्दिक शुभकामनायें। आप सबकी प्राप्त और अप्राप्त शुभकामनाओं के लिये बहुत धन्यवाद। पिछले कुछ महीनों में आप सबसे हुये परिचय ने बहुत कुछ दिया है, जिसका प्रत्युत्तर देना अपने वश का नहीं। अपने अंदर का अंधेरा कुछ कम कर सका तो मेरी तो दीवाली वही होगी, और मुझे यकीन है कि मैं कर लूंगा - इतने शुभचिंतक जो हैं मेरे।
ईश्वर से यही कामना है कि आप सबको, आपके परिवार को, इष्ट मित्रों को  हर प्रकार से सुख, सम्रुद्धि और स्वास्थ्य दे। आने वाला समय आप सबके लिये शुभ हो।

p.s. १. एक डायरी में एक रचना पढ़ी थी, आज के मौके के मतलब की। सोचा था वही लिख कर इम्प्रैस करूंगा आप सबको। सुबह से वो डायरी नहीं मिली।
       २. एक घंटे से तस्वीर टांगने की कोशिश कर रहा हूँ, वो नहीं लगी।
तो जी, फ़त्तू ऐंड फ़्रैंड्स की तरफ़ से सीधे सादे शब्दों में ’हैप्पी दीवाली’ स्वीकार करें। गाना सुन लें, जब भी टाईम लगे।




सोमवार, नवंबर 01, 2010

काँपी थी ये जमीन जब.....

"वन इलैवन ऐटी फ़ोर", यही कहा था उनमें से किसी एक ने और वो जो हरदम हँसता रहता था उसके चेहरे के रंग बदलने लगे थे। चेहरा लाल हो गया था, उत्तेजना के कारण मुँह से गालियों के साथ थूक निकलने लगे थे। सर पर पगड़ी तो हमेशा ही अस्त-व्यस्त रहती थी, अब वो बार-बार उसे खोल लपेट रहा था। आसपास खड़े आठ दस लोग तमाशा देख रहे थे। हमारे पैर वहीं जम से गये थे।   उसका स्टेशन पर होना ऐसा ही स्थाई था, जैसे प्लेटफ़ार्म और रेलवे लाईन का हिस्सा ही हो वो। पिछले छ:सात साल से तो हम ही उसे देख रहे थे, किसी भी समय स्टेशन पर आना हो, ऐसा कभी नहीं हुआ कि वो न दिखता हो। शायद इतना स्थाई हिस्सा होने के कारण ही अपना इंटरेस्ट उसमें कभी हुआ नहीं, जबकि दूसरे लोग बहुत आनंद लेते थे उसके पागलपन में। हमें आनंद मिलता था ताश खेलने में, मंडली के चार स्थायी सदस्यों में से एक थे(वीटो पावर सहित), तो उधर ही मगन रहते थे। अपने स्थाई ठिकाने पर ही जा रहे थे। आज की ही तारीख थी उस दिन, और सिर्फ़ ’वन इलैवन ऐटी फ़ोर’ सुनते ही उसकी प्रतिक्रिया देखकर हम हिल नहीं पा रहे थे वहाँ से।
दो दोस्त थे हम,  मनोज और मैं। जाकर उसी छेड़ने वाले से बात शुरू की, "सही तमाशा है।" प्रोत्साहन पाकर वो  बताने लगा कि कैसे चौरासी में इसके परिवार को जलाकर मार दिया गया था, घर लूट लिया गया था और इसके केश कत्ल कर दिये गये थे लेकिन इसकी किस्मत ऐसी थी कि बच गया। दिमाग हिल गया है उस दिन से इसका। रेलवे में ही नौकर था, फ़िर नौकरी कर नहीं पाया। फ़िर भी सारा दिन वहीं घूमता रहता है, स्टाफ़ में कोई भी कुछ काम कह देता है तो ये मना नहीं करता। जैसे हो, जितना हो उससे,  कर देता है। बदले में रोटी चाय जो मिल जाये, खा लेता है और मस्त रहता है।  बोलता ऊलजलूल है तो सबका मनोरंजन होता रहता है, बिना टिकट। हाँ, उस हादसे की याद दिलाओ तो इसके तेवर देखने वाले होते हैं, मजा आ जाता है।"  
"साल्ले, मादर...,   जो इसके साथ हुआ है उसका दस प्रतिशत भी तेरे साथ हो लेता और दुनिया तेरे मजे लेती, कैसा लगता?" मनोज ने गिरेबान पकड़ ली थी उसकी। एक बार तो उखड़ा वो बंदा भी, "तुम्हें तो मैंने कुछ नहीं कहा, फ़िर तुम क्यों बीच में आते हो? अपना काम करो।" फ़िर समझाया उसे हिन्दी में कि देख अभी तेरी छित्तर परेड होने वाली है और क्योंकि बाकी सबको हम कुछ नहीं कह रहे तो कोई बीच में नहीं आयेगा।  उसके बचाते बचाते भी एक दो तो लग ही गये थे उसके, लेकिन समझ गया वो और गलती मान ली उसने।
आज छब्बीस साल हो गये हैं 01.11.1984 को थी। देश की राजधानी में जो कुछ हुआ, देखा बहुत कम उसका लेकिन सुना बहुत। हमारी गली में दस बारह सिख परिवार रहते थे, हमें गर्व है कि उन घरों में किसी का एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ। आसपास की जो खबरें मिल रही थी, उसके चलते हम खुद रातों में नाके लगाकर ड्यूटी देते थे। दस बारह साल से लेकर साठ साल तक के लोगो ने जरा सी कोताही नहीं की। दिन के समय एक बार भीड़ आई भी, लेकिन जल्दी हो समझ आ गया उन भेड़ों को कि यहाँ कुछ नहीं कर पायेंगे। हमसे बड़े लड़के, उस कर्फ़्यू में इस मोहल्ले की दूसरी कालोनियों में ब्याहता लड़कियों, बहनों के घर जाकर कैसे कैसे उन्हें, उनके बच्चों को  लेकर आये थे, सुनकर रोमांच होता था। लेकिन सच ये भी है कि सब ऐसे खुशनसीब नहीं थे। एक दो नहीं, सैंकड़ों हजारों की तादाद में ऐसे ऐसे हादसे हुये थे कि एक एक पर सिर धुना जा सकता है। और फ़िर जब बाद में एक जिम्मेदार शख्सियत का यह व्यक्तव्य आया कि ’जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास की धरती कुछ काँपती ही है’ तो एक बार तो ईश्वर से पूछने को मन कर आया था कि ऐसा ही होना है तो बड़े पेड़ बनाता ही क्यों है? 
वो भीड़ किसके इशारों पर काम कर रही थी, कौन लीड कर रहा था उन्हें, ट्रकों में भरभर कर उन्हें कहाँ से लाया जा रहा था, प्रशासन क्या कर रहा था उस समय - इन सवालों पर कई एफ़.आई.आर., जांच, मुकदमे चल चुके हैं। कई बार आरोपी अपराधी घोषित हो चुके हैं और कई बार बाईज्जत बरी भी हो चुके हैं। कानून अपना काम कर रहा है।
काँपी थी ये ज़मीन जब, वो दिन आज का ही था
इंसाँ का क्या मरे या जिये, मुद्दा  ताज का ही था।
कौन सी तो किताब थी वो, ऐनिमल फ़ार्म या ऐसी ही कोई, एक डायलाग था उसमें - all are equal, but some are more equals.  ये लिखने वाले तो लिख विख कर निकल लेते हैं अपनी राह पर, हमें छोड़ देते हैं टोबा टेकसिंह बनने के लिये। जितने मुकदमे, कार्रवाईयां, अदालतों द्वारा स्वविवेक से मुकदमे खोलने जैसी बातें दूसरे मौकों पर हुई हैं वो चौरासी दंगों पर ऐसी कार्रवाईयों के मुकाबिल कम थी या ज्यादा, सब जानते हैं। शायद more equals among all equals वाला सिद्धांत प्रगतिशीलता का भी द्योतक है।
कोशिश रहती है जहाँ रहना हो, वहाँ की स्थानीय भाषा में सोचा जाये। आज ऑफ़िस में जाकर काम शुरू किया ही था कि एक फ़ार्म में पहला कालम तारीख का था। पता नहीं क्यों मन ही मन बोलना शुरू किया तो वन लैवन के बाद टैन की जगह ऐटी फ़ोर बोला भी गया और लिखा भी गया। तबसे दिमाग में फ़ितूर बैठा है। जो बातें भूलनी चाहियें, वो याद रह जाती हैं और जिनका याद रखना श्रेयस्कर है वो हाथ में से रेत की तरह फ़िसल जाती हैं। 
लेकिन अब नजरिया बदलने लगा हूँ धीरे धीरे अपना - बजाय इसके कि दुखी होकर भड़काऊ सा कोई टाईटिल देकर अपना दुख जाहिर करूँ,  गनीमत मना रहा  हूँ कि हमारी आम जनता अभी इतनी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष. प्रगतिशील नहीं हुई और वैलेंटाईन डे, फ़्रेंडशिप डे, अलाना डे फ़लाना डे की तर्ज पर आज  हैप्पी अर्थ वाईब्रेटिंग डे नहीं मना रही, वरना ...। 
आज फ़त्तू के लिये माफ़ी चाहता हूँ,  वैसे ही हंस लेना मेरी तरह।
कहाँ तो गाना लगाना चाहिये था ’दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है, हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है’ नहीं लगाया जी, दूसरा लगा दिया है, अब ठीक है न नजरिया अपना?

रविवार, अक्तूबर 31, 2010

A trial post - ट्राई करने में क्या हर्ज है?

यह एक ट्रायल पोस्ट है,  देखते हैं प्रयोग  कैसा रहता है...
आवाज है मोहम्मद सिद्दीक की, गाना है बहुत पुराना और प्रयोग करने वाला एकदम नया।
कामयाब हो तब भी, और न हो तब भी - अर्चना चावजी का बहुत बहुत धन्यवाद। आपकी मदद से ही यह कोशिश करने की हिम्मत की है। कुछ ऐसे गाने हैं जो आडियो फ़ार्मेट में तो उपलब्ध हैं लेकिन यूट्यूब और दूसरी शेयरिंग साईट्स पर नहीं मिलते।  मैंने दो साल पहले तक ये गाना नहीं सुना था, लेकिन मुझे पसंद आया। साजों की आवाज मधुर और कम, आज के गानों की तरह कानफ़ोड़ू नहीं।  हो सकता है कोई और भी ऐसा हो जो इन्हें पहली बार सुने और पसंद भी कर ले।
हम गा नहीं सकते तो अपना शौक सुनकर और सुनवाकर पूरा करेंगे।



p.s. - जब ये पोस्ट लिखी थी, उस समय सच में आशा नहीं थी कि प्लेयर ठीक से लग जायेगा। इसी आशंका के चलते गीत के बारे में कुछ नहीं लिखा था। कमेंट्स से स्पष्ट है कि आप सब प्यार तो करते हैं मुझसे, यहाँ तक कहा मेरे एक दोस्त ने कि आप की पसंद है तो अच्छा तो होगा ही। मेरी अपनी सोच को दिखाती है  ’सम्वेदना के स्वर’ वाली टिप्पणी - संगीत की कोई भाषा नहीं। शायद ’द ग्रेट गैंबलर’ का गाना है जिसमें कश्ती वाला अपनी भाषा में गाना गाता है और उसका एक  शब्द भी समझ नहीं आता, छलकता है तो सिर्फ़ दर्द, जो कि भाषा का मोहताज नहीं।
इस गाने के बारे में जो थोड़ा बहुत मैं समझ पाया, बताने की कोशिश करता हूँ। ये बहुत पुराने समय की बात है, शायद प्री पार्टीशन की। एक समर्थ स्त्री ने अपने देवर का रिश्ता तुड़वाकर उसी लड़की से अपने लड़के का रिश्ता कर दिया।  वो समय वैसा था, जब जुबान की कदर थी, जीना मरना  छोटी बात समझी जाती थी और आन -बान ज्यादा बड़ी चीज। रिश्ता टूटने पर जो  फ़ीलिंग्स थी, अपमान की और बदला लेने की, उन्हीं को इस गीत में प्रकट किया गया है। वो समझा भी रहा है, धमका भी रहा है, अपने इरादे भी बता रहा है कि अगर दूसरी बारात आई तो खून की होलियाँ खेली जायेंगी और अंत में यह कि दुल्हन को तो वो ही लेकर जायेगा। छुप छुपकर वार करने की बजाय चैलेंज देकर कुछ करना तब का चलन था।
अब हमें तो आप जानते ही हैं, नाम मो सम और काम बेमौसमी, मुझे भी पसंद है ये गाना और मेरे ग्यारह साल के लड़के को भी। समझ पूरी तरह हमें भी नहीं आया लेकिन पसंद है, बस्स। कुछ बैकग्राऊंड आपको बता दी, अगर अब सुनेंगे तो शायद थोड़ा सा और और स्पष्ट हो सके। इस आलोक में अब कुछ लाईनों को सुनेंगे तो देखिये मतलब कैसे साफ़ हो उठेगा -   जे न तेरी मकड़ जई भन्नी, मैन्नूं प्यो दा पुत्तर नहीं मन्नीं(अगर मैंने तेरी अकड़ न तोड़ी तो मुझे मेरे बाप का बेटा मन मानना)       केड़ा जाऊ खेड गुलाली, आ गये जदों बाग दे माली(जब बाग के रखवाले आ गये तो भला कौन है जो गुलेल वगैरह से नुकसान पहुंचा जाये)        मेरा सौ सौ कोह ते टोरा, नींवा किंवे मैं कल(गब्बर की तर्ज प्र कहता है कि मेरा सौ कोस तक रौब है, मैं नीचा कैसे देख लूं) आदि आदि और लास्ट में फ़ाईनल जजमेंट कि अंत में तो दुल्हन उसी ने लेकर जानी है)। मेरी क्षमता कम है, आप सबका प्यार, अपनापर, समझ बड़ी है।  मुझसे बेहतर समझ लेंगे।
असली मकसद अपना उन चीजों को अपनी क्षमतानुसार थोड़ी सी लाईमलाईट में लाना है, जो बदलते समय में प्रोत्साहन के अभाव में दम तोड़ रही हैं। आज से ढाई साल पहले तक मैंने भी इस गायक को और इन गानों को नहीं सुना था, सुना तभी मालूम चला ना?  टैक्सपेयर्स के करोड़ों खर्चकर जैसे गीत बने, उन्हें सुनने की बजाय बैलगाडि़यों को जोड़कर किसी लोकल कलाकार द्वारा गाया गया गीत मुझे तो ज्यादा पसंद आता है। सबकी पसंद अपनी अपनी।       इसे अपने मोबाईल में भी डाल रखा है और यकीन मानिये, कई बार ट्रेन में आते जाते हुये ऐसा हुआ है कि कोई कोई सिरफ़िरा आकर बैठ जाता है और फ़रमाईश करके सुनता भी है।          
गिलहरी से जो हो पायेगा, करेगी।  सेतु तो बनेगा ही, अपनी आहूति तो डाल ही देंगे।
हो गई पूंछ लोमड़ी से भी लंबी, पर आप सबके भरोसे कर लेता हूँ कुछ भी और फ़िर कह देता हूँ,,,देखी जायेगी......
आभार अकेली अर्चना जी का नहीं है, आप सबका है जो मुझे झेल लेते हो। नहीं तो मैं बहुत अझेल हूँ, सच में....

मंगलवार, अक्तूबर 26, 2010

आह चाँद, वाह चाँद

कहते हैं आज के दिन चाँद को देखें तो चोरी का दाग लगता है।  जिस चाँद ने इतना दूर होकर भी अपना माना, उसे इस डर से न देखूँ कि मुझ पर चोरी का दाग लगेगा? हा हा हा........।  इल्ज़ाम कुछ छोटा नहीं लग रहा है यारों, कोई भारी सा इल्ज़ाम सोचना था?     आज तो जरूर देखूँगा कि आज और बहुत सारों से मुकाबला नहीं करना होगा मुझे।  सिर्फ़ मैं और मेरा चाँद होंगे, बहुत दूर लेकिन बहुत पास।  
और धर्म और समाज के ठेकेदारों, मुझ जैसे को  बरजना था तो यह कहा होता कि आज चाँद को देखोगे तो चाँद को छींक आ जायेगी, फ़िर नहीं देखता मैं।
ये लिखा था आज से डेढ़ महीना पहले, जाने क्यों पोस्ट नहीं किया था उस दिन। आज कर रहा हूँ, है न भरी बरसात में दीपक राग वाली बात, झूठ नहीं बोलता मैं।  तीन पखवाड़े में ही कितना अंतर आ गया है? उस दिन चाँद को कोई नहीं देखना चाहता था और आज वही चाँद जाने कितनी सुहागिनों और उनके सुहाग के अमिट और अटूट बंधन का गवाह भी है और साझीदार भी। कितनी शिद्दत से इंतज़ार हुआ आज चाँद का?
:) फ़त्तू ऒफ़िस से आया तो आज चाय नहीं मिली।   रोटी के समय रोटी नहीं आई। गुस्से में फ़त्तू अपनी श्रीमती से कुछ कहने लगा तो आ गई अपने असली रंग में, "मर जाने, एक दिन चाय रोटी नहीं मिली तो क्या हो गया?  आज तेरे ही स्यापे(मरने पर होने वाला रोना पीटना) में लगी हुई हूँ, पता है न आज क्या है?"
चाँद को देखकर आहें तो बहुत भरते हैं लेकिन कभी चाँद भी आहें भरता होगा, किसी और चाँद को देखकर, क्या ख्याल है?

रविवार, अक्तूबर 24, 2010

अब मेरी बारी.....

वो गोल्डन कव्वाली तो सबने सुन ही रखी होगी,
“नाजो अंदाज़ से कहते हैं कि जीना होगा
जहर भी देते हैं तो कहते हैं कि पीना होगा
जब मैं पीता हूँ तो कहते हैं कि मरता भी नहीं
जब मैं मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा"
इस दुनिया ने मेरी रेल बना रखी है। किसी जमाने में मैं चीख चीखकर कहता था कि मैं बहुत शरीफ़ हूँ, तब सब कहते थे,  नहीं बदमाश हो। फ़िर मैंने दुनिया की मान ली और जब ब्लॉग बनाया तो ब्लॉग के नाम के माध्यम से कहना चाहा कि मुझसे बुरा कोई नहीं, अब लोग कहने लगे कि नहीं, आप बुरे नहीं हो। लोग तो मो सम को मौसम से कन्फ़्यूज़ करने लगे थे। सदा का कन्फ़्यूज़्ड मैं और ज्यादा कन्फ़्यूज़ हो गया कि मैं हूँ क्या?  अकेले में बैठकर जब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि लोगों की टाईमिंग अच्छी होती है, मेरी मिसटाईमिंग(मिसेज़टाईमिंग भी कह सकते हैं, आबाद आदमी हैं आखिर) बहुत अच्छी है। लोग दीपक राग गा रहे होते हैं, मुझे उस समय राग मल्हार याद आता है। लोग हँस रहे होते हैं तो मुझपर उदासी छा जाती है और जब लोग बाग उदास होते हैं उस समय मुझे ठिठोली सूझती है। बाकी सबकुछ सामान्य है, आदमी अच्छा ही हूँ मैं। वैसे भी आदमी बुरा नहीं होता, बुरी तो आदतें होती हैं। अब आठ दस बुरी आदतों के चलते खुद को बुरा तो नहीं मानना चाहिये ना? तो जी इस गलतफ़हमी का ठीकरा न हम पर और न दुनिया पर, मिसेज़ टाईमिंग पर फ़ोड़ते हैं।  हा हा हा..
मेरे एक एक्स-बॉस हुआ करते थे, बड़ी अच्छी ट्यूनिंग(मिस) थी हमारी। शुरू में मुझसे कहा करते, “ कुछ बोला करो।” मैं कहता, “क्या बोला करूं?” उन्होंने कहा, “कुछ भी।”  मैंने कहा, “मैं शुरू हुआ तो आप कहेंगे कि आप बोला मत करो।” ये वाकया एक बार अकेले में हुआ, मैंने अपने मित्रों को बताया तो कोई नहीं माना। इतने धाकड़ एग्ज़िक्यूटिव के सामने ऐसा बोल दिया? हो ही नहीं सकता।  दो दिन बाद सबके सामने अक्षरश: ये बात हुई, तब माने मेरी बात। खैर, मैं शुरू हो गया और फ़िर मेरे बॉस आमतौर पर कहा करते, “जब मैं किसी स्टाफ़ से कुछ कह रहा होऊँ, उस समय आप बीच में आ जाते हो, मत बोला करो।” मैं हँसता और वो भी हँस देते। पीठ पीछे कहता हूँ, मुझे प्रैक्टिकल बनाने के लिये उन्होंने मुझे बहुत समझाया, हानि लाभ समझाया लेकिन  कितनी भी बरसात हो, औंधे बरतन में  एक बूँद पानी भी नहीं टिकता। सामने रहा तो मैंने हमेशा उनका विरोध किया और उन्होंने फ़िर भी बड़प्पन ही दिखाया और मैंने सब जानबूझकर भी उनके सामने कभी आभार प्रकट नहीं किया। इसे ही मिसटाईमिंग कहते हैं। सामने झुकता तो फ़ायदा बहुत होता  बस अपनी क्लास से कटने का थोड़ा सा दर्द दिल को सालता। मैं इस दर्द से डर गया।       हा हा….
कल का दिन कुछ ऐसा था कि सब गड़बड़ ही हो रही थी। सुबह सुबह एक ब्लॉग देखा,  यहाँ जो कुछ हुआ आप चैक कर लें। इसके बाद देखा सतीश सक्सैना जी की पोस्ट  - ब्लॉग पाठकों से अनुरोध -  हम भी चले गये।  पढ़ा भी और देखा भी।  पिछले कई दिन से ब्लॉग जगत पर एक सस्पेंस सा छाया दिखता है मुझे। दूसरे आधारों के अलावा  यहाँ भी एलीट और नॉन एलीट ब्लॉगर्स के आधार पर बंटवारे झलकते हैं।  एलीट  ब्लॉगर्स पोस्ट लिखते हैं और पाठकों से राय, मत, अभिमत, दुआ, सलाह बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन असली बात गोल कर जाते हैं। किस बारे में बात कर रहे हैं, कौन, किसके साथ, क्या  कर गया, इसका कोई जिक्र नहीं,  बस्स ये बताओ कि मैं ब्लॉग बंद कर दूँ, ब्लॉगिंग बंद कर दूँ,  अपनों ने ही ये किया और भी बहुत कुछ।  मुझे तो सक्सेना साहब की पोस्ट भी उसी लय की लगी,  पुराने ब्लॉगर्स से तो नहीं लेकिन नये ब्लॉगर्स से दुख हुआ था उन्हें।
अब अपनी अल्प बुद्धि के हिसाब से हम भी नये और युवाओं में ही आते हैं। बाल उड़ने लगे हैं, सफ़ेदी झलकने लगी है तो क्या हम युवा नहीं रहे? जिन्होंने कभी हाकी या फ़ुटबाल खेली हो, वो जानते होंगे कि प्रैक्टिस को अलग रख दीजिये और एक-डेढ़ घंटे के खेल में भी जो पसीने आ जाते हैं वो बहुत से बहुपापुलर खेलों में पूरे दिन में नहीं आ सकते। जब तिरासी वर्षीया विद्या स्टोक्स को हाकी संघ का अध्यक्ष बनाया जा सकता है तो हम चालीस साल की उम्र में खुद को बूढ़े कैसे मान लें? फ़िर अभी साल भर भी नहीं हुआ ब्लॉगिंग में आये, आज तक किसी ब्लॉगर से मुलाकात नहीं हुई, तो कह सकते हैं कि हम युवा भी हैं और नये भी। वैसे भी पड़ी कुल्हाड़ी में जाकर पैर मारने की आदत के चलते और ऊपरी पैरे में वर्णित बातों के चलते और ’बाई  वर्च्यू ऑफ़ बीईंग ए प्राऊड नॉन-एलीट ब्लॉगर’  एक कमेंट मार दिया कि लो  भाईसाहब, तुम अपनी ये एलीट मानसिकता अपने पास रखो। ये गोलमोल बातें अगर आम ब्लॉगर नहीं पचा सकते तो क्यों नहीं ऐसी पोस्ट्स  केवल आमंत्रित ब्लॉगर्स के लिये नियत ब्लॉग पर ही डालते?   हम भले और हमारी पिछड़ी मानसिकता भली।
कुछ देर बाद देखा तो सक्सेना साहब ने शहद से ही मारने का जुगाड़ कर दिया है। जब हम खुद ही अपनी कमियाँ मानने को तैयार हैं तो हमें समझदार और हमीं से उम्मीद बता गये। बाद में सादर भी लिख दिया। ले बेटा संजय, अब पढ़ो वो कव्वाली। बाद में दीपक मशाल के कमेंट्स, अंशुमाला जी के कमेंट्स, दूसरे बड़े धुरंधरों  के कमेंट्स  और उन पर सक्सेना साहब के जवाब से फ़िर अपनी नासमझी उजागर हो गई। अमिताभ बच्चन की कोई फ़िल्म थी, शायद ’ईमान धरम’, जिसमें अदालत में गवाही देते समय हाथ के इशारे से मकतूल का कद बताते हैं बिग बी, और ये पता चलने पर कि मकतूल एक मुर्गा है उल्टे वकील साहब को ही कह्ते हैं कि आप जल्दी बहुत करते हैं, दूसरा हाथ तो अभी देखा ही नहीं आपने। हम भी बहुत बार यहाँ मुँह बाये दूसरा हाथ देखते ही रहते हैं
जानता हूँ कि मेरे कहे पर यकीन नहीं करेंगे आप लोग, लेकिन इस डिप्लोमैटिक भाषा के हम हैं तो फ़ैन,  किसी  बात को इस अंदाज में कहना कि अलग अलग समय पर अलग अलग लोगों के सामने उसके अलग अलग मतलब निकल सकें। लेकिन हमारे फ़ैन होने के बावजूद जहाँ हमारा वास्ता हो, ये फ़िट नहीं  लगती। हमें तो सीधे से कुछ कह दो, चाहे उम्र कैद ही दे दे कोई, लेकिन कहे सीधी भाषा में। नहीं तो हमें छूट है कि हम किसी भी बात को अपने ऊपर ओढ़ें या बिछायें।  एक मजे की बात ये है कि मेरा एक दोस्त भी मुझ पर ऐसी भाषा बोलने का आरोप लगा चुका है। आदमी को कहता है, आदमी जो सुनता है,  हा हा हा।  मैच्योर होने में मुझे बहुत समय लगेगा फ़िर भी कोई गारंटी नहीं क्योंकि मैं खुद मैच्योर नहीं होना चाहता।  इतने समय के बाद तो नासमझी दिखाने का मौका मिला है, अब भी चूक जाऊँ?
सक्सेना साहब, आपका  सम्मान करता हूँ, किसी बात पर अपनी राय देने का यह अर्थ मत निकालियेगा कि मेरे मन में आपके लिये या किसी के लिये भी कुछ वैमनस्य है। अगर आप यह पढ़ें तो इतना अनुरोध अवश्य मानियेगा कि छोटा हूँ आपसे, अपने से ज्यादा समझदार और सादर जैसे शब्दों से मत मारियेगा। पत्थरों से डर नहीं लगता, फ़ूल ज्यादा चोट दे जाते हैं।
लेकिन अपना सवाल अब भी वही है, अगर कोई बात किसी को उद्वेलित कर रही है, वो ब्लॉगजगत को अपना परिवार भी मानता है तो फ़िर अंदर की बात बताने में दिक्कत क्या है? और अगर ऐसा लगता है कि सब नहीं पचा पायेंगे तो फ़िर पब्लिक स्पेस और प्लेस पर इन बातों का हाईप क्यों क्रियेट किया जाये? अपने अपने सैलेक्टेड गुट या ग्रुप बनायें सब, खुलकर विचार विमर्श करें आपस में,  ताकि हमारे जैसे अवांछित तत्व उत्पात न कर सकें और किसी के भावुक हृदय को हमारे कारण ठेस न लगे।(आखिरी पांच पैराग्राफ़ के लिये सिर्फ़ हा…)    हा हा हा…
वैसे हो सकता है कि ये पोस्ट कुछ लोगों को नागवार लगे,  कोई बात नहीं।  वैसे भी अपन यहाँ नामी होने के लिये नहीं आये थे न ये स्थायी मुकाम है जितना कुछ पा लिया यहाँ से, अगर उसी का मान रख सके तो बहुत होगा। जिस किसी को हमारे साथ खड़े होने के कारण शर्मिंदगी लगे, उस भाई बन्धु को मन  मसोसने की कोई जरूरत नहीं। अपने को किसी से कोई गिला नहीं रहता। निभेगी तो ठीक, न निभेगी तो भी ठीक - देखी जायेगी.....!!
हमेशा की तरह मेरी लास्ट की पंचलाईन बहुत निराश करने वाली ही है, है न?
:) एक छोटा सा चंचल सा खरगोश कड़ी धूप में इधर उधर डोल रहा था। एक हाथी सोया हुआ था। खरगोश को तो वह एक बड़ा महल सा ही लगा।  जिज्ञासु खरगोश ने उस विशालकाय महल के पिछले दरवाजे में सिर घुसाया और धूप और गर्मी के चलते प्रवेश  भी पा गया। अंदर नमी और ठंडक के चलते उसे नींद आ गई। उधर शाम हुई तो हाथी उठा और चल दिया। अब खरगोश की हालत खराब, कभी इधर गिरे कभी उधर। कैसी कैसी तो आवाजें आ रही थीं। मौसम ठंडा होने के कारण रास्ते भी सिकुड़ गये थे। कयामत की रात की तरह वह रात उस पर बहुत भारी पड़ी। अगले दिन लगभग वही दिन का समय था और वही मुद्रा, खरगोश को  सिमसिम खुला मिला और वो जान छुड़ाकर बाहर कूदा। संयोग से फ़त्तू वहीं से गुजर रहा था, उसने ये करिश्मा देखा तो भागकर उस आलौकिक खरगोश के पांव पकड़ लिये। अब खरगोश पैर छुड़वाये और फ़त्तू कहे कि उपदेश दो कोई, फ़िर जाने दूँगा। तंग आकर खरगोश ने कहा, “बालक, यही है हमारा उपदेश और यही है हमारा संदेश कि  बड़ों के भीतर घुसना तो बहुत आसान है लेकिन बाहर निकलना बहुत मुश्किल।”
फ़त्तू  अभी भी रिसीविंग ऐंड पर चल रहा है, लेकिन वक्त बदलेगा जरूर। उस ने यह संदेश मुझ तक पास-ऑन किया, मैं आप तक कर रहा हूँ।
कल रात को जो कुछ चिट्ठाजगत पर देखा, उसके बाद इस ब्लॉगजगत का हिस्सा होने पर शर्म भी आ रही है  लेकिन फ़त्तू के अश्लील होने का  अपराधबोध बिल्कुल खत्म हो गया है। यहाँ जो लिखा जा रहा है, कम से कम उसकी जिम्मेदारी से तो मैं पीछे नहीं हट रहा। पंजाबी की एक कहावत है, "किसी नूँ माह(उड़द) स्वादी ते किसी नूँ माह बादी(वात रोग करने वाली),  लेकिन जिस गंदी भाषा का इस्तेमाल देखा, बहुत बुरा लगा।
गाना सुनो यारों, भाषण तो बहुत हो गया। किशोर दा भी ना बस्स.. -