शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

सॉरी लारा, सॉरी बिप्स,,,,,

आज यह पोस्ट लिखते हुये मन बहुत भारी हो रहा है। मैं जानता हूं कि कोई सीरियसली नहीं लेगा, मत लो यारो, मुझे जो कहना है कहूंगा ही। कई दिन से ये नाटक चल रहा था, कल कहीं जाकर पर्दा गिरा है।चलो, मामला एक तरफ़ तो लगा। पिछले दो तीन महीने से रोज दिन में कई बार फ़ोन पर मैसेज आ रहे थे ’इन्विटेशन’ के।  सोनू निगम से शुरू हुये थे, फ़िर मीका का नंबर आया। जब देखो एक ही बात, ’आपको …. ने इन्वाईट किया है अपने ब्लॉग पर।’  शुरू में तो हम समझे कि भाई कुछ गलतफ़हमी सी हो गई है, हमने तो अपनी ब्लॉग यात्रा जिन ब्लॉग्स से शुरू की थी, वहीं से बेआबरू होकर निकाले गये थे और ये सितारे हमें काहे को इन्वाईट करने लगे? कुछ तो स्टैंडर्ड होगा ही इनका? वो रोज के रोज इन्वाईट करते रहे और हम इग्नोर करते रहे। महीना भर मैसेज भेजने के बाद कंपनी वालों को यकीन हुआ कि हम ’दोस्ताना’ टाईप के आदमी नहीं हैं, तब कहीं जाकर मैसेज आने बंद हुये। मन में थोड़ी सी शांति आई लेकिन पूरा इत्मीनान नहीं आया। इतना ज्ञान हमें बहुत पहले से प्राप्त हो चुका था कि पुरानी बीमारी, पुरानी यादें और पुरानी महबूबा अगर अचानक से ही सताना बंद कर दें तो यह कोई अच्छे लक्षण नहीं हैं बल्कि ये मुसीबतें अपने से बड़ी मुसीबतों को रास्ता देने के लिये जमीन तैयार कर रही हैं।
तो जी, हम तो एवररेडी थे नया पंगा झेलने को। दो दिन के बाद फ़िर से मैसेज आया, अबकी बार लारा के ब्लॉग का इन्विटेशन था। ले लो भैया, कर लो खेती और भर लो दंड। पता होता कि कलयुग के बाबाजी की तपस्या भंग करने के लिये ऐसी ऐसी अप्सरायें न्यौते भेजेंगी तो भैया हम तो सोनू निगम या मीका का ही आमंत्रण स्वीकार कर लेते। वक्त जरूरत पर बहस कर लेते उनके साथ, लड़ भिड़ भी लेते मौका देखकर लेकिन अब लारा के साथ तो झगड़ा भी नहीं कर सकते। दिल को मजबूत करके डिलीट कर दिया मैसेज। कहीं गृह-मंत्रालय के हत्थे चढ़ जाता ऐसा मैसेज तो हमारा नारको टेस्ट ही हो जाना था। लो जी, फ़िर से पुरानी कहानी शुरू हो गई, रोज वही संदेसा और रोज वही हमारा दिल को मजबूत करके डिलीट करना। पन्द्रह दिन तक लड़ाई चलती रही और एकबार फ़िर हम विजेता बने। दो दिन बिना मैसेज के निकल गये और तीसरे दिन फ़िर वही मैसेज की ट्यून सुनकर फ़ोन देखा तो अबकी बार विपाशा थी। नहीं जीने देंगे भाई ये मोबाईल कंपनी वाले। अबे यार, हम तो इसकी फ़िल्म भी नहीं देखते कभी, ऐसा नहीं कि अच्छी नहीं लगती, बहुत अच्छी लगती है पर हम ठहरे वो जिन्होंने बचपन में ही lufthansa का विज्ञापन देख रखा है, ’we check the people, who check the craft you travel’. वो उसका जॉन है न, उसकी बाडी देखकर  हौल सा पड़ जाता है| कहीं उस एथलीट को पता चल गया तो हम भाग भी नहीं सकेंगे। है तो बाईक भी अपने पास, पर वो भी अपने जैसी ही है, चालीस की रेंज वाली और वो ठहरा ’धूम मचा दे।’ कई दिनों तक मन पर काबू रखे रखा, लेकिन कल पता नहीं मौसम बेईमान था या क्या था, कल मैसेज आया तो फ़ैसला कर लिया कि आज विपाशा का न्यौता स्वीकार कर ही लेना है, जो होगा देखा जायेगा। इरादा पक्का करके शाम को बैंक से अपनी बाईक उठाई और चल दिये घर की ओर जैसे चंगेज़ खान इस शस्य श्यामला धरती पर कब्जा करने के लिये पता नहीं कितने सौ मील से घोड़े पर सवार होकर आया था। गांव से बाहर निकले ही थे अभी, एक मोड़ सा है वहां, जैसे ही मोड़ पार किया एक काला कुत्ता एकदम से बाईक के आगे आ गया। अमां, हम खोये हुये थे सांवले से ख्यालों में और सामने आ गया ब्लैक एंड ब्यूटीफ़ुल। मुश्किल से बचाया उसे और वो सड़क के दूसरी तरफ़ जाकर हमें ही घूर रहा था। ये समय आ गया है आजकल। अब काली बिल्ली के रास्ता काटने पर अपशगुन होता है, ये तो सुना था लेकिन काला कुत्ता रास्ता काट जाये तो क्या होता है?  और फ़िर याद आ गई तीन साल पहले की एक घटना। सुबह के समय बस स्टैंड से बैंक की तरफ़ जा रहा था कि अचानक सड़क की दूसरी तरफ़ से अपनी तरफ़ भागकर आते एक पिलूरे पर नजर पड़ी।  बिना जैब्रा क्रॉसिंग के ही सड़क पार कर रहा था और उसके गतिमान शरीर को देखकर मैं अचंभित रह गया था। ऐसा लगा मुझे कि वो मेरी तरफ़ आते हुये  जैसे गाना गा रहा हो -
तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई, यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई,
जाने तू या जाने ना, माने तू या माने ना।
पहले भी मैं तुझे दांतों में लेकर, चाटा किया और काटा किया,
जाने तू या जाने ना, माने तू या माने ना।
और मैं उसे देख ही रहा था कि उसने आकर मेरी बाईं पिंडली अपने मुंह में भर ली थी। मुझे तो पता ही बाद में चला जैसे हमारी सरकार को बहुत बाद में पता चला था कि कारगिल में आकर पाकिस्तान ने अड्डा जमा लिया है। तो जी, जब हमारे कारगिल पर उस पिलूरे ने दांत गड़ा लिये उसके बाद ही हम एक्शन में आये। वो वाली टांग नब्बे डिग्री तक उठा दी थी और वो पिलूरा भी ऐसा जिद्दी अपने पडौसियों की तरह कि लटक ही गया पर छोड़ा नहीं। हाथ में जो बैग था उससे मारकर उसे भगाया, लेकिन तबतक वो चाटे, काटे, दोऊ भाँति विपरीत वाला काम कर चुका था। बाद में देखा तो पेंट में उसके दांतों से कट लग गया था। पिंडली सुरक्षित थी लेकिन उस दिन के बाद से मुझे भी चाटने और काटने की आदत सी हो गई है। वो पेंट अब तक संभालकर रखी है, आदमी को निराशावादी नहीं होना चाहिये।  जब सचिन का पैड, एल्विस प्रैस्ले की गिटार, सलमान की शर्ट और ….. के अंतर्वस्त्र नीलाम हो सकते हैं तो क्या पता जी दस बीस साल में हमारी उस पेंट का भी नंबर लग ही जाये।  
खैर, बात अभी की  चल रही थी और दिमाग पहुंच गया तीन साल पहले की बात पर। कल की बात पर लौटते हैं, उस कुत्ते को बचाने में लड़खड़ा गये थे और निहारने में तो ऐसा डगमगाये कि बाईक को संभाला सड़क के किनारे खड़े एक पेड़ ने। बहुत नुकसान हो गया जी हमारा तो, और हमारे से ज्यादा गृह-मंत्रालय का। जिसकी इन्श्योरेंस एक्सपायर्ड थी, हमारी बाईक, वो ज्यादा डैमेज हो गई और जिसकी इन्श्योरेंस इंटैक्ट थी एकदम टन्न, यानि हम, वो  सिर्फ़ टूट फ़ूट कर रह गये। वहीं पर बैठे बैठे मन ही मन विपाशा से माफ़ी मांग ली और लारा से भी। सॉरी लारा, सॉरी बिप्स – हमारे भरोसे मत रहना। मत करना हमारा इंतजार, तुम जाओ अपने परफ़ैक्ट मैच के पास, हमारी तो देखी जायेगी। यूँ भी बड़े नाखूनों वाली और लिपस्टिक लगाने वाली सुंदरियों को हम दूर से ही प्रणाम करते रहे हैं।
देश की शायद सबसे बड़ी मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनी के मालिक लोगों, पिछले दिनों आपने साऊथ अफ़्रीका में एक बड़ा टेक ओवर किया है, बहुत बहुत बधाई हो। अगले दिन अखबार में पढ़ी थी स्टेटमेंट कि पचास हजार से काम शुरू किया था, और अब संभवत: पचास हजार करोड़ की डील की है आपकी कंपनी ने। सच में बहुत तरक्की की है आपने। अब आपने इतना योगदान दिया है देश की अर्थव्यवस्था में, बहुत कुर्बानी दी है आपने लेकिन यार ये उलटे सीधे तरीके से अपने उपभोक्ताओं को चूना लगाकर पैसा कमाना सीखा कहां से है? महीने के तीस-पैंतीस रुपये हमारे जैसे हर उपभोक्ता के ख्वाम्ख्वाह में लग भी जायेंगे तो वो मरने वाला नहीं है, तुम्हारा पेट जब भर जाये तो बता देना। हम तो बिना मोबाईल के भी जी लेंगे, तुम्हारा काम कैसे चलेगा?
:) फ़त्तू और उसका चेला गली के बीच में अपनी अपनी चारपाई बिछाकर सो रहे थे। एक ट्रैक्टर वाले को वहां से होकर गुजरना था, कई बार हार्न बजाने पर भी कोई हरकत न हुई तो वो और उसके साथी ट्रैक्टर से उतर कर चारपाई के नजदीक आकर उन्हें आवाज देने लगे। फ़त्तू ने मुंह से चादर हटाई और कहने लगा, “भाई, कितना ही दुखी हो ले, यो  तो सै महा आलसी, कोई फ़ायदा न होगा। तमनै जाण की जल्दी सै तो एक काम करो, मेरी चारपाई ने उठाकर साईड में कर दो, मैं तो इतना ए कर सकूं सूं थारी खातिर।"

बुधवार, जुलाई 28, 2010

बियाबान-ए-मोहब्बत..................

इस दुनिया में क्या हर आदमी अपनी काबिलियत के मुताबिक मुकाम हासिल कर पाता है? सही मायने में देखें तो बहुत कम लोग ऐसे दिखेंगे जो अपनी प्रतिभा के अनुसार प्रसिद्धि, नाम और दाम कमा सके। जबकि बहुत से ऐसे भी दिखेंगे जो बहुत साधारण होते हुये भी शिखर पर पहुंचने में कामयाब रहे। तो क्या है जो इंसान को कामयाब या नाकामयाब बनाता है? प्रतिभा, मेहनत, दृढ़ निश्चय, जीतने की ज़िद, खुद को पेश करने की कला, मार्केटिंग स्किल्ज़, जुगाड़ करने का जुगाड़ या किस्मत? या शायद इनमें से कोई भी बात। अपने हिसाब से तो कोई ऐसा सर्वदा सफ़ल फ़ार्मूला है नहीं, शायद इसीलिये कृष्ण ने फ़ल की चिंता किये बिना कर्म करने की शिक्षा दी थी। सफ़लता और असफ़लता अपने हाथ की चीज़ नहीं है, इसलिये इनसे ज्यादा अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिये।
नौकरी के सिलसिले में लगभग दो साल पहले जब पंजाब आना हुआ, तो पहली बार मैंने मोहम्मद सिद्दीक को सुना।गानों के स्तर पर कोई बात नहीं कहता लेकिन ऐसी आवाज कम से कम मैंने पहले नहीं सुनी थी। और मजे की बात ये है कि इनका नाम भी यहीं आकर सुना। स्थानीय क्षेत्र में हालाँकि इनका काफ़ी नाम है, लेकिन बाहर शायद बहुत कम लोग होंगे जो इनके बारे में जानते होंगे।
इसी तरह एक बार मैंने अखबार में ’कृष्ण अदीब’ की एक गज़ल पढ़ी। मैंने एक पुरानी पोस्ट में शिव बटालवी की एक कालजयी रचना ’मैनूं तेरा शबाब लै बैठा’ का ज़िक्र करते हुये कहा था कि शिव की एक यह रचना पढ़ने के बाद मेरी हिम्मत उनकी लिखी किसी और चीज़ को पढ़ने की नहीं हो सकी। जब एक गीत, गज़ल इतना असर छोड़ सकती है तो और पढ़ लीं तो अपनी तो ऊपर की मंज़िल शायद हिल ही जाती। कितना दर्द, कितनी तड़प, फ़र्ज़ की जद्दोजहद और इस बेदर्द दुनिया से टकराने ने शराब में डुबो दिया शिव को। मैं इतना जानता हूं कि मैं अगर शराब पीने वाला होता, शिव को पढ़ने के बाद शायद और किसी काम का रहता ही नहीं। कुछ उसी टक्कर की लगी थी ’कृष्ण अदीब’ की वो गज़ल। बरसों पहले पढ़ी थी, अखबार में से काटकर अपने फ़ोल्डर में अपनी प्रिय रचनाओं के कलैक्शन में लगा रखी थी। लेकिन प्रिय चीज़ें शायद बिछड़ने के लिये ही होती हैं, मेरा वह फ़ोल्डर ही कहीं सामान शिफ़्ट करते समय इधर उधर हो गया। नैट पर ढूंढी थी वह गज़ल, नहीं मिली।  मैं जानता हूं कि इस लाईन में तो क्या किसी लाईन में भी मैं अथोरिटी नहीं हूं, लेकिन मेरी नज़र में प्यार को इतने अच्छे से अभिव्यक्त शायद बहुत कम ही लोग कर पाये होंगे और मुझे बहुत हैरानी होती है कि ’कृष्ण’ भी कोई बहुत पॉपुलर नहीं हैं। मेरी निगाह में यह हम लोगों का ही दुर्भाग्य है।
पता नहीं कहीं मेरे किसी कमेंट के कारण यह जाहिर हुआ था या कैसे हुआ यह, लेकिन मुझसे इतने अपनत्व से ’कृष्ण अदीब’ की कोई रचना पढ़्वाने के लिये कहा गया कि ’मो सम कौन कुटिल, खल, कामी’ भी मजबूर हो गया अपनी बहुत पसंदीदा गज़ल आपके साथ शेयर करने के लिये। कई साल पहले पढ़ी थी, न तो यह सोचा था तब कि कभी ऐसी भी नौबत आ सकती है और वैसे भी अब दिमाग पहले सा नहीं रहा है सो जितनी याद है, जैसी याद है, लिख देता हूं, किसी को पसंद आये तो कृष्ण अदीब की वाह वाह और न पसंद हो तो मेरी हाय-हाय।

मैं बियाबान-ए-मोहब्बत की सदा हो जाऊँ,
हाथ जो तुझको लगाऊँ तो फ़ना हो जाऊँ।
        या खलाओं से गिरूँ टूटते तारों की तरह,
        या किसी चाँद से चेहरे की ज़िया हो जाऊँ।
मैं सरे शाम भटकता हूँ फ़रिश्तों की तरह,
अब अगर थोड़ी सी पी लूँ तो खुदा हो जाऊँ।
        और कुछ देर मेरे साथ रहो हमसफ़रों,
         जाने किस वक्त, कहाँ तुमसे ज़ुदा हो जाऊं।

मुझे लगता है कि शायद बीच में एक शेर कहीं छूट गया है, लेकिन मुझे बहुत बहुत बहुत पसन्द है।
जब लोग हमें इतना चढ़ा देते हैं तो हमने भी खुद को जिम्मेदार मानते हुये एक अल्पज्ञात गायक को सान पर चढ़ा रखा है।  किसी दिन भी आपको सुनवा सकता हूँ ;शिव’ और ’कृष्ण’ की लिखी गज़लें।  वादा कोई नही, लेकिन कोशिश जारी रहेगी।

शनिवार, जुलाई 24, 2010

घाट का पानी, बारिश का पानी और मौसम की कहानी।

फ़िल्म ’वक्त’ का डायलॉग ’जो देखा वो ख्वाब था और जो सोचा वो अफ़साना| चलो राजा, हटाओ ये सब और अपनी दुनिया में लौट आओ’ सुनकर मजा आ जाता था। अपन को तो जो चीज पसन्द आ जाती है, उसे अपने मदारी वाले थैले में  भर लेते हैं  और वक्त जरूरत पर निकाल लेते हैं। पिछली सीरियल्ड पोस्ट के ड्रामे को समेटने के लिये निकाल लिया जी थैले में से ये डायलॉग, अरसे से दबा पड़ा था इसलिए  हो सकता है कुछ मुड़ तुड़ गया हो लेकिन अपन ही कौन से सीधे और संपूर्ण  हैं जो मुड़े-तुड़े लोगों से और ऐसी बातों से परहेज करेंगे?  जैसा भी है, चलेगा बल्कि दौड़ेगा। तो जी वो डिरामा खत्म और अपना पुराना ट्रेंड चालू।
पिछले दिनों आप सबकी सप्ताह भर की छुट्टी मंजूर करके हम गये थे एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षित होने। बल्कि गये नहीं थे भेजे गये थे, जबरन। शायद हमारे नियोक्ता की नजर में हम ही सबसे मिसफ़िट थे जिन्हें प्रशिक्षण की जरूरत थी। जब जाना जरूरी हो ही गया तो हमने भी खुद को समझाया कि यहाँ भी कौन से तीर चला रहे हैं, ऐसी तैसी ही करवानी है तो  यहाँ नहीं करवायेंगे,  राजधानी में ही सही।  आखिर तो भेड़ को बाल उतरवाने ही हैं। बांध लिया बैग और लिख मारा अपनी पोस्ट पर कि जा रहे हैं एक और घाट का पानी पीने। भूल गये थे उस समय अपना एक पसंदीदा गाना, आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है….।  पानी पीने की बात क्या लिख दी, ऊपरवाले ने जैसे सारे  परनाले खोल दिये। जिस दिन यहाँ से निकले, पानी बरसना शुरू हुआ और बरसता  ही गया। जिधर नजर जाती थी पानी ही पानी। रिमझिम के तराने लेकर आई बरखा से शुरू हुआ अपना सफ़र रिमझिम गिरे सावन और  आय हाय ये मजबूरी होते हुये लगी आज सावन की फ़िर वो झड़ी है तक परवान हुआ।
खैर, बस स्टैंड पहुंचे तो बारिश के कारण अफ़रातफ़री का माहौल मचा हुआ था। हमें तो वैसे भी बड़े शहरों की सभी बसें, सड़कें, कोठियां, दुकानें यानि कि स्त्रियों सहित सभी स्त्रीलिंगी चीजें एक जैसी ही लगती हैं। सारी एक जैसी दिखती हैं, एक ही तरीके से fascinate करती हैं और एक ही तरीके से दूर दूर रहने की चेतावनी सी देती दिखती हैं।   थोड़ी देर तक इधर उधर टुकर टुकर देखते रहे, लेकिन कुछ पल्ले न पड़ा कि कौन सी  पकड़ें ताकि सही मंज़िल तक पहुंच जायें, शायद बस लिखना रह गया बीच में कहीं। झक मारकर पूछताछ कार्यालय की तरफ़ गये तो देखा कि अंदर कोई नहीं बैठा था। एक सज्जन बाहर ही खड़े थे, बड़ी सीरियस मुद्रा में, हाथ में एक छोटा सा रूल पक्ड़े हुये जैसे अंग्रेजों के जमाने के जेलर के पास था। मैंने पास जाकर नमस्ते की, फ़िर पूछा, “भाई साहब, चंडीगढ़ जाने..”, उसने मेरी तरफ़ देखने की भी जहमत नहीं उठाई  और बेरुखी से अपना अंग्रेजों के जमाने का रूल बगल में दीवार पर लिखे हुये मुगलों के जमाने  के टाईम टेबल पर एक जगह  टिका  दिया। देख लिया जी टाईम, आयेगा कभी हमारा भी।
मैं अभी वहीं खड़ा था कि दो लड़कियां आकर टाईम टेबल के पास खड़ी हुयीं, देख  ही रही थीं कि जेलर साहब पूछने लगे, “हाँ जी, कित्थे जाना है?”  और बड़े प्यार से उन्हें सारी जानकारी देते रहे। इतने में एक नया ब्याहा जोड़ा भी वहां पहुंचा और आधुनिक पतियों की उच्च परंपरा का पालन करते हुये साहब तो अटैची और बैग उठाकर पीछे खड़े रहे और मेम साहब पूछताछ करने के लिये आगे बढ़ रही थीं कि रूलधारी जेलर दो कदम आगे बढ़कर उनका इस्तकबाल करने पहुंच गया और झुक झुककर सारी जानकारी दे रहा था और निहाल हो रहा था जैसे बस की जानकारी देने पर ही वो सुन्दरी अपने फ़ेरे उलटकर उसके गले में जयमाला डाल देगी। वो जनाब आकर अपनी जगह पर खड़े हुये  और मैंने फ़िर पूछा, “भाई साहब, किराया कितना..” जालिम ने बात भी पूरी नहीं करने दी और रुल एक और जगह पर रख दिया। मैंने पूछा, “गल सुण, जेकर मैंनूं परमात्मा ने आदमी बना दित्ता है ते कि  इस विच मेरा कसूर है ?”  अबके कहने लगा, “मैं की आख्या है जी त्वानूं?”  समझाया थोड़ा बहुत उसे पंजाबी और हिन्दी में, फ़िर धमकाया भी कि बेटे ऐरा गैरा न समझ लियो, ब्लॉगर हैं हम। एक संसद और बन गई है हमारे यहाँ, तेरी शिकायत कर दी न तो ‘rule is rule’  का पता चल जायेगा।  धमकी से तो शायद नहीं धमका लेकिन ब्लॉगर होने की हूल काम कर गई, उसने भी सोचा होगा कि कुछ बड़ी ही चीज होंगे, बड़े तरीके से बस का समय और किराया और कई चीजें बताईं। हम भी अपना url और ब्लॉग का पता लिखा विज़िटिंग कार्ड उसे थमाकर और   सदैव आभारी वाला डायलाग मारकर अपना कारवां बढ़ा गये।
जा पहुंचे अपने ट्रैनिंग सेंटर और देखा कि कुल जमा नौ प्रतिभागी उपस्थित हैं, हम बन गये दस नंबरी।  देख लो जी, यहाँ भी दस नंबरी।  संयोग नाम की चीज है अभी दुनिया में। ट्रेनिंग शुरू हुई तो पता चला कि हमीं सबसे जूनियर हैं। अब बारिश का तो आपको बता ही रहे हैं ऐसे झड़ी लगी थी कि जैसे सरकारी पाईप लाईन में लीकेज हो गई है और जिसकी ड्यूटी थी रिपेयर करने की, वो लगा हैं कहीं ब्लॉग्स पर टिप्पणियँ करने में। अब जिसे देखें, सब ऊपर से नीचे तक गीले।  एक साहब ने कहना शुरू किया कि मौसम बड़ा खराब है। मेरे तो जी आग लग गई, सावन में लग गई आग। लेकिन लिहाज कर गया। दूसरे साहब कहने लगे कि कौन सा आज का बिगड़ा है मौसम, हमेशा से ही दुखी करता रहा है।  मेरे तो कुछ मामला ही समझ नहीं   आ रहा था जैसे आप भी कन्फ़्यूज़ हो रहे होंगे। और वहाँ सारे के सारे जैसे एक सुर में लग गये बेचारे मौसम के पीछे। आखिर मैं भिड़ ही गया उनसे, कि भाई लोगों, तुम्हारे कौन सा चुटकी काट ली है ’मो सम’ ने?अब सारे हैरान होकर मुझे देखने लगे कि इसे हुआ क्या है? कहने लगे कि यार इतनी बारिश, न कहीं आ सकते हैं न जा सकते हैं, कितनी तबाही मची हुई है हर तरफ़। कई दिन हो गये धूप निकली नहीं है, कपड़े सब गीले हो गये हैं। इस बारिश के मौसम को थोड़ा सा कोस लिया तो तुम्हें पता नहीं क्यों परेशानी हो रही है?  अबे यार, ये मौसम को कोस रहे थे और मैं सोच रहा था कि ये सब ’मो सम’ को कोस रहे हैं। सच में अब तो सपना भी देखते हैं तो ब्लॉगिंग का ही दिखता है। गनीमत हुई कि अपनी जवानी के दौर में ये रोग नहीं था वरना अपना हनीमून और हनीसन वगैरह की सफ़लता कमेंट्स की मात्रा पर निर्भर होती। ईश्वरम यत्करोति शोभनमैव करोति।
तो साहब, ये  जूनियर प्रशिक्षु हमेशा की तरफ़ बैकबेंचर बन गया। सबसे बड़ी सुविधा ये है  कि इंटर एक्शन करना अपने हाथ में रहता है। प्रशिक्षक महोदय/महोदया बारी बारी से आते रहे जाते रहे और हम पूरी तन्मयता से ’स्पाईडर सोलिटेयर’ में नित नये रिकार्ड बनाते रहे। कक्षा में ध्यान सिर्फ़ तभी दिया जब पढ़ाई से अलग कुछ बातचीत हुई। बताने वाली बात है हमारी हिन्दी की सेवा करने की भावना। ट्रेनिंग के दौरान एक वरिष्ठ प्रतिभागी बार बार प्रैक्टिकल तथा थ्योरोटिकल परेशानियों का ज़िक्र कर रहे थे कि ये परेशानी है, वो परेशानी है। परेशानियों के जितने प्रकार हो सकते हैं, तीनों काल के उन्होंने गिनवा दिये। प्रशिक्षक बेचारे हमारी तरह ही जूनियर श्रेणी से थे, खुलकर कुछ कह नहीं पा रहे थे। ’बिटवीन द लाईन्स’ समझाने के लिये उन्होंने चचा का सहारा लेने की सोची  और बोले, “आपकी परेशानियों को देखते हुये एक शेर याद आ रहा है,
’न था कुछ तो खुदा था, न कुछ होता खुदा होता,
……….
दूसरी पंक्ति में अटक गये, और सब सांस रोके इन्तज़ार कर रहे थे कि इस था न था के बाद क्या होगा, और हमने लपक लिया मौका। दूसरी पंक्ति पूरी कर दी
’डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।”
बल्ले बल्ले हो गई जी, शावा शावा हो गई हमारी। जब सारे हैरान होकर देख रहे थे हमने भी बम चला ही दिया कि ये तो हमारे ब्लॉग प्रोफ़ाईल में भी हमने लगा रखा है। अब और झोल खा गये सारे, तो इसका मतलब आप ब्लॉगर हैं?  बड़ा अहसान सा जताते हुये कह दिया कि हाँ, लिखते हैं थोड़ा बहुत। दो चार तो हमारे सीनियर्स ऐसे थे जिनकी नजर में ब्लॉग लिखने के लिये आदमी की शख्सियत कम से कम अमिताभ बच्चन, मनोज बाजपेयी, अमर सिंह, नीतिश कुमार के बराबर तो होनी ही चाहिये। तो जी हम भी छा गये उस महफ़िल में, सबको प्रेरणा दे डाली हिन्दी में ब्लॉग लिखने की। और कोई दिक्कत होने की सूरत में चार पांच ब्लॉगर्स के नाम नोट करवा दिये हैं, तो जिसके ब्लॉग पर भी पूछताछ वाला ट्रैफ़िक बढ़ता दिखाई दे, उस से अनुरोध है कि हमारे ऊपर वर्णित रूल वाले जेलर साहब की तरफ़ जेंडरबेस्ड पक्षपात न करे, नये लोगों की मदद करे और मन ही मन हमारा धन्यवाद करे। आखिरी सत्र में हमारे एक सीनियर ने जो शेरो शायरी वगैरह में भी रूचि रखते थे, एक गज़ल पढ़ कर सुनाई और आखिरी शेर कहने से पहले मेरी तरफ़ इशारा करके कहा, “ये आखिरी शेर आपके नाम पर, आपको समर्पित।” मैं डूब गया वहाँ भी, शेर तक याद नहीं कर पाया कि क्या था।
ठीक है भाई साहब, मैं शक्ल से ही ऐसा लुटा पिटा दिखता हूं शायद कि वरिष्ठ और बराबर वाले जब मौका लग जाये, उठाकर समर्पित कर दें। मुझे हो जाने दो थोड़ा सा सीनियर, देख लूंगा सबको – a से शुरू करूंगा और z  तक सब ब्लॉगर्स को रोज एक पोस्ट समर्पित करूंगा। कल्लो, क्या करोगे?
:) फ़त्तू बाहर से लौटा तो उस दिन उसका मूड खराब था।  अपनी माँ से पूछने लगा, “ मां मां, सब मुझे  बावली बूच   क्यों कहते हैं?”  
माँ ने समझाया, “बेटा, इसमें लोगों का कोई कसूर नहीं है, तेरी शक्ल ही ऐसी है।

शनिवार, जुलाई 03, 2010

सिल्वर स्पीच एंड गोल्डन साईलेंस -Part 2

स्वीकारोक्ति:  कुछ बातें न लिखूं तो बात बनती नहीं, अब बीच में छोड़ दूं तो भी ठीक नहीं।  मुझे शायद ये पोस्ट लिखनी ही नहीं चाहिये थी| अब रिक्त स्थान की पूर्ति अपनी सोच और हमारी  उस समय की मानसिकता  के हिसाब से स्वविवेकानुसार भर लें और  पढ़ें।
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हमारी गेम अगले दिन से शुरू होनी तय हुई थी, चुनांचे रात में हर वो गाना, हर वो शब्द जिसमें ’ल’  वर्ण का इस्तेमाल होता है, गाया गया, बोला गया और दोहराया गया। हंस रहे थे कि प्यास बुझा लो सारी, कल का दिन तो इस वर्ण पर बैन हो ही जाना है। सुबह जब हरि ओम शरण की आवाज में ’स्वीकारो मेरे प्रणाम’  ने जब नींद खोली तो पांचों पांडव जैसे पवित्रता की नदी में गोते लगाने को तैयार थे। कुछ बात करने से पहले ही सारा हिसाब रखते कि कहीं वर्जित वर्ण तो नहीं आ रहा है?  आ रहा हो तो पहले उसका सब्स्टीच्यूट सोचते, फ़िर बोलते। ऐसे धीमी गति से सब बात कर रहे थे जैसे रेडियो में कभी धीमी गति के समाचार आया करते थे। सबसे ज्यादा मजे हमारा राजीव ले रहा था। वैसे ही कम बोलने का आदी, जब बोले तो ऐसी फ़ुलझड़ी सी छोड़ने वाला कि पूछिये मत। हिसाब किताब रखने की जिम्मेदारी सबसे जूनियर एस.के. को सौंप दी गई थी, लिहाजा सबसे संजीदा वही था।  जैसे रमी में देखा होगा आपने ताशेडि़यों को, प्वाईंट्स याद रखते हैं, हमारा एस.के. ऐसे ही सबके स्कोर याद कर रहा था। अब अपने से तो बंधन में रहना होता नहीं था, ऑफ़िस के लिये निकलते तक अपन की रैंकिंग(डिफ़ाल्ट्स में) सबसे ऊंची थी। बाकी हर जगह पर लाईन में सबसे पीछे रहने वाले अपन शुरू से ही पेनल्टी, जुर्माने वगैरह में सबसे आगे रहा करते हैं।  लेकिन जो भी हो, मजा बहुत आ रहा था। कभी बेध्यानी में कोई ऐसा शब्द मुंह से निकलता तो सारे शोर मचा मचाकर स्कोर अपडेट करवा देते। बोले गये शब्दों की मात्रा आधी से भी कम रह गई थी।
दोपहर तक भी प्रोग्राम ठीक ठाक ही चलता  रहा। प्रशासनिक कार्यालय था, हम सब अलग अलग विभाग में थे, लेकिन एक ही फ़्लोर पर एक ही हॉल में बैठते थे हम सब, तो स्कोर अपडेशन भी चलता रहा।  फ़िर आया हमारा अघोषित टी ब्रेक का समय। सारे बैठ गये एस.के. की सीट के आस पास। चाय का आर्डर दे दिया गया, जीतू और मैंने अपनी हर  फ़िक्र को धुंये में उड़ाना शुरू किया।  मेरा यार जीतू, ताल फ़िल्म तो बहुत बाद में आई थी, नहीं तो उसका गाना ’ताल से ताल मिला’ जैसे हमारी ट्यूनिंग की कहानी कहता है। बातें करते करते मेरे  से गलती हुई और एस.के. ने फ़ौरन स्कोर बताया, बाईस। मैं अपनी रौ में फ़िर कुछ कह गया, आवाज आई ’तेईस।’  उधर से जीतू ने भी कुछ बोला, एस.के.बोला, आठ। साथ की सीट पर बैठा उसके बॉस, मि.सिंह  थोड़ा सा हैरान होकर अपने असिस्टैंट की तरफ़ देखने लगे। अब अपना दिमाग सरक गया, ’मत चूके चौहान।’ एस.के. के सरनेम में ही ’ल’ वर्ण आता था, मैंने पूछा, “……….,  यार तूझे अभी  आराम नहीं आया क्या? चल डॉक्टर के पास होकर आते हैं।” भाई एक्दम से बोला. ’छब्बीस।’ उसका बॉस मुंह बाये देखे उसे।  जीतू ने ताल से ताल मिलाई, “सिंह साहब, आपके चेले को” यहीं तक बोला था कि एस.के. कूद पड़ा उसकी तरफ़ इशारा करते हुये, ’नौ’। लो जी बाद्शाहो, ताल से ताल मिल गई हम दो बेफ़िक्रों की। बड़े सीरियस होकर सिंह साहब से कहने लगे कि पता नहीं लड़की-वड़की का चक्कर है या क्या है, ये कल रात से बहकी बहकी बातें कर रहा है। कभी चार बोलता है कभी सत्रह, उधर  एस.के. पूरी संजीदगी से  अपनी स्कोरिंग में बिज़ी। सिंह साहब ने बड़े प्यार  से उससे पूछा, “क्या दिक्कत है, बताओ?” मुस्कुरा कर एस.के. ने सिर हिला दिया, ’ नथिंग।’  मैंने पूछा, “अच्छा, अपना नाम बताओ?” बोला, “एस,के।”  मैंने कहा पूरा नाम बताओ।  कैसे बोलता, सरनेम में ’ल’ आता था। कहने लगा “जस्ट एस.के.।” जीतू ने ट्यूबलाईट की तरफ़ इशारा किया और पूछा, “ये क्या है?” जवाब आया, “ट्यूब।’  मैंने कहा, “अबे यार, ट्यूब तो साईकिल, स्कूटर के पहिये में भी होती है, इसका पूरा नाम बता। ये जो लाईट देती है, सतर्क एस.के. ने फ़ौरन मेरा ताजा स्कोर बोल दिया। मैंने कूलर की तरफ़ इशारा करके पूछा कि ये क्या है तो उसने कंधे उचका दिये कि पता नहीं।  राजीव तो हमारा था ’चुप्प छिनाल’ जैसा, हंसता गया और शोलों को और हवा देता गया बीच बीच में, अब वो भी जान बूझकर अपना स्कोर बढ़्वाने लगा। एस.के. अकेला, सामने हम तीन चार लुच्चे, जैसे वो मुहावरा कहते हैं कि ’रजिया फ़ंस गई गुंडों में’, अपने बोलने पर भी उसका ध्यान, हमारे बढ़ते स्कोर पर भी उसकी तेज नजर। देखते देखते महफ़िल रंग पकड़ती गई, आसपास की सीटों से भी स्टाफ़ उठकर पास आ गया और माजरा समझने की कोशिश करने लगा। अब एस.के. कभी मेरी तरफ़ देखकर कहे उनतीस, उधर जीतू भी इक्कीस, बाईस पर पहुंच गया, उधर से राजीव भी बारह-तेरह की रेंज में और खरबूजों को देखकर राजा खरबूजा भी डबल फ़िगर में पहुंच गया। एस.के. का स्कोर अभी भी चार पर ही रुका हुआ था। बीच बीच में एस.के. को लगा भी कि शायद बात कुछ बिगड़ रही है, तो  मैं सीरियस होकर कह देता कि जो बात हुई है, वो बात तो कायम रहेगी।
तो साहब लोगों, हमारा टी ब्रेक उस दिन पौन घंटे का चला। राजीव और राजा हंस हंसकर, मैं और जीतू जानबूझकर फ़ंस फ़ंसकर एस.के.को नचा रहे थे लट्टू की तरह। हमारी गलतियों की स्पीड बढ़ती जा रही थी और उसी स्पीड से एस.के. की स्कोरिंग।  हॉल के लगभग सभी स्टाफ़ सदस्य भौचक्के होकर हमारे स्कोरर की तरफ़ देख रहे थे। हम भी कब तक अपनी हंसी   रोकते, ठठाकर हंस ही पड़े। और हमारा जूनियर एस.के., अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और चिल्लाकर बोला, “अपनी ….…..   गई  तुम्हारी ये  गेम, मेरा *** बनाकर रख दिया तुम सब ने। आज के बाद किसी  ने मेरे से बात भी की तो, मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। दोस्त नहीं हो,  तुम मेरे दुश्मन हो सालों।”  मैंने फ़ट से टोका, तेरा स्कोर पांच हो गया।" ’गुस्से में आगबबूला होते हुये वो चीखकर बोला, “पांच हो या पचास, आई एम आऊट फ़्रॉम युअर गेम, और सुनो, सालो मैं बोलूंगा और बार बार बोलूंगा, ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल  ल  ल ल  ल ल ल। जाओ, कर लो जो करना है।” हम चारों पागलों की तरह हंस रहे थे, वो गुस्से में ल ल ल ल ल ल ल ल ल करे जा रहा था और स्टाफ़ के सभी जने पूछ रहे थे कि यार कहानी क्या है? अब कहानी कुछ होती तो बताते। आप ही बताओ है कुछ हमारे बताने लायक और आपके सुनने लायक बात? खामख्वाह में उंगलियां तुड़वा दीं मेरी आप सबने भी, तारीफ़ कर कर के।
बस एक शंका का समाधान कर दो, जब मैं लंबे लेख लिखता हूं तब भी नाराजगी, पार्ट में लिखा तब भी गिला। तभी तो कहता हूं कि मुझपर तो आरोप लगते ही रहे हैं, कुछ न कुछ। मुझे कैसे चैन से जीने दोगे मेरे मीठे दुश्मनों?  बुरा मत मानना, जितना प्यार दोगे, उतना सर चढूंगा मैं, और सबको झेलना ही होगा मुझे।  आज की मेरी परेशानी और फ़त्तू की बात एक जैसी ही है।
:) फ़त्तू की तबियत खराब थी। सबने उसे चारपाई पर लिटाकर घर के अंदर वाले कमरे में लिटा दिया। फ़त्तू चिल्लाने लगा कि गरमी में मार दिया। चारपाई उठाकर बाहर आंगन में रख दी गई। थोड़ी देर में फ़त्तू फ़िर शोर मचाने लगा कि सर्दी से जान निकाल कर मानेंगे सब। फ़िर अंदर लिटाया तो फ़िर गर्मी का रोना और बाहर लिटाया तो थोड़ी देर के बाद फ़िर सर्दी का कलेश। गुस्से में आकर चारपाई दहलीज के बीच में रख दी गई, आधी अंदर और आधी बाहर कि अब कर शिकायत, कौन सी करेगा? पांच सात मिनट के बाद फ़त्तू ने फ़िर चिल्लाना शुरू किया, “सालों, सब मेरे दुश्मन हो, मुझे मारकर ही दम लोगे, सर्द-गरम हो गई मेरे को,   तो?
सबक –  खुद कुछ न भी कर पायें तो कोई गम नहीं, दूसरों  के दोष जरूर निकालते रहें ताकि लोगों के जेहन में जिन्दा रह सकें। और ये फ़ार्मूला यहाँ, इस ब्लॉगजगत में  तो बहुत ही कामयाब है।
p.s. –  अब एक खुशखबरी।  आप सबकी एक सप्ताह की छूट्टी हमने मंजूर कर ली है। एक और घाट का पानी पीने कि लिये  शायद 4 से  11 तक बेघर हो रहा हूं, तो कुछ और झेलने से बच गये न सब?  लेकिन कब तक बकरे की मां, भाई, चाचा, भतीजे खैर मनायेंगे? मैं फ़िर आऊंगा। चलो अब ताली बजाओ सब बच्चा लोग।

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

सिल्वर स्पीच एंड गोल्डन साईलेंस -Part 1

सुना था कहीं कि पहला प्यार और पहली नौकरी कभी नहीं भुलाये जा सकते, अपन नौकरी वाली बात से सहमत हैं। जहां तक बात पिरेम,  पियार,  पिरीत, ईसक-विसक की है, खुश रहना है तो  करो और भूल जाओ। देवदास किताबों में और परदे पर बहुत अच्छा लगता है लेकिन  घर में,  परिवार में, ऑफ़िस में, दोस्तों के बीच  अगर देवदास आ जाये तो सारे माहौल का कर्फ़्यू लगा दे। इसलिये प्यारो, गमों से मिज़ाज़ मिलाकर रखो,  टेंशन लेने का भी नहीं, देने का भी नहीं। वैसे भी पहला प्यार भूल नहीं सकते तो फ़िर  वो पहले के साथ आखिरी  प्यार भी है। कहावत गलत हो गई न?  तो आज याद आ रही है  एक और आपबीती नौकरी के संबंध में।
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“यार, एक बात दिमाग में आ रही है कई दिनों से। न तो कुछ कह पा रहा हूं तुम लोगों से और न चुप रह पा रहा हूं।” मैंने अपने दोस्तों से कहा। उन दिनों हम पांच दोस्त एक मकान किराये पर लेकर रह रहे थे। सारा दिन एक ही ऑफ़िस, एक ही घर। यूं समझ लीजिये कि चौबीस घंटों का साथ था।
सुनकर राजीव तो हंसने लगा, जितेन मुस्कुराने लगा, राजा तो फ़िर राजा ही था, बेफ़िक्र और बेपरवाह।  ले देकर एक एस.के. था, जिसने उत्सुकता दिखाई। “भाई, यारों से नहीं बात करेगा तो और किससे करेगा? बोल न, क्या बात है?” और बेचारे ने सबसे जूनियर होते हुये भी राजीव की तरफ़ आंखें तरेरीं। “अगला बन्दा परेशानी में है और तुम हंस रहे हो।”
राजीव ने वैसे ही हंसते हुये कहा, “प्यारे, तुझे अभी हमारे साथ रहते हुये थोड़ा ही समय हुआ है। जिस दिन इन भाई साहब के दिमाग में कुछ बात आ जाती है न, तो समझ ले कि नई कहानी तैयार हो रही है कोई।”
अब गुस्सा तो मुझे आ रहा था, लेकिन क्या करता, पता था अपने दोस्तों की आदत का। सहमत हों या न हो, पीछा नहीं छोड़ते थे मेरा(करबद्ध प्रार्थना है कि इस बात का कोई अन्यथा मतलब न निकाला जाये), इन सबको मेरा खून पीना अच्छा लगता था।  मैंने कई बार कोशिश करी कि अकेला रह लूं, पर मजाल है एक भी मान जाये। लड़ते थे, झगड़ते थे और फ़िर थोड़ी देर में वैसे के वैसे। परदेश में रहने के और कितने भी नुकसान हों, दोस्तों की पहचान हो जाती है। मैंने कहा भी राजीव से, “बेट्टे, हंस ले पहले, फ़िर बात सुनियो। तेरे  हिसाब से तो दिमाग वाला हिस्सा खाली ही है मेरा।   न अपील करे तो जाने दियो बात को हवा में।”
फ़िर से हंस दिया वो, “बीमारी तो यही है, बात करेगा तो अपील तो करेगी ही। चल अब बक फ़टाफ़ट, क्या बात है?”
मैंने कहा, “यार, मुझे लग रहा है कि हम सबकी भाषा बहुत खराब हो गई है। शायद परिवार से दूर रह रहे हैं, एक लापरवाही सी आ गई है अपनी सबकी बोलचाल में। हर बात में चार पांच बार गालियां निकालने लगे हैं हम। ये आदत पक गई तो कितनी दिक्कत होगी? कोई हमें सुनेगा तो क्या सोचेगा हमारे बारे में, हमारे परिवार के संस्कारों के बारे में।”
अब सारे एक एक डिग्री नीचे उतर आये थे। राजीव मुस्कराने लगा था, जितेन भाव शून्य, राजा वैसा ही था खोया हुआ ख्यालों में और हमारा नया नया एस.के. परेशान दिखने लगा, यानि बात ने असर किया। अब मैं तो करवट बदल कर सो गया, करो अपने दिमाग की लस्सी। मुझे पता था थोड़ी देर में साले जबरदस्ती उठायेंगे, जब स्टेशन पर डीलक्स की सवारियां ताड़ने जाना होगा। और फ़िर वहीं कोई सर्वमान्य हल निकलेगा इस समस्या का। , मैंने तो खैर पहले ही सोच लिया था कि क्या एक्शन-प्लान रहेगा।
तो साहब, नियत समय पर हमें उठाया गया, स्टेशन पर जाकर डीलक्स ट्रेन की आगवानी के लिये खड़े हुये, ट्रेन के आने पर यात्रियों का दर्शन, निरीक्षण, अवलोकन तथा  चिट्ठाजगत की  तर्ज पर   धड़ाधड़ टिप्पणियां, धड़ाधड़ वाह-वाही और धड़ाधड़ पसंद जैसी क्रियायें सम्पन्न की गईं। गाड़ी के जाने के बाद रेलवे के ही एक बेंच पर हमारी लंबीमेज बातचीत(रेलवे ने गोल बेंच लगाई होतीं तो हम भी गोलमेज बातचीत कर लेते) शुरू हुई।  हमेशा की तरह हंसी मजाक, छेड़ाखानी जैसे पड़ावों से होती हुई समस्या की गेंद फ़िर अपन के पाले में आ गिरी, ’जो बोलेगा वही कुंडी खोलेगा।’  ऐसे  निकम्मे दोस्त थे हमारे, और अनुराग सर और अली साहब हमें कहते हैं कि खुशकिस्मत हो जो ऐसे दोस्त मिले। सही बात है जी, हैं खुश्किस्मत। तो निर्णय सुनाया गया कि रोज एक अक्षर तय कर लिया जायेगा, जैसे ’क’,   ’म’ या ’ल’ और दिनभर में जो भी उस अक्षर का उच्चारण करेगा, एक रुपया प्रति गलती के हिसाब से जुर्माना भरेगा। इसी बहाने कुछ भी बोलने से पहले सोचा जायेगा और भाषा पर थोड़ा नियंत्रण रहेगा। आज से उन्नीस बीस साल पहले तक एक रुपये की भी कुछ कीमत होती थी, और उन दिनों हम सब थे गाली-गुफ़्तार के मामले में थोक के डीलर।  यह तय हुआ कि शाम को जो भी कलैक्शन होगा, उसे कॉमन खर्चे के काम लाया जायेगा।
साहिबान, अगले दिन का कोड रखा गया ’ल’, और कमर कस ली सबने तोलने के बाद बोलने की।

 फ़िर क्या हुआ? देखेंगे हम लोग...........