सोमवार, मई 23, 2011

खौफ़-ए-इंकार


’पाँव चादर के हिसाब से ही पसारने चाहियें’   जब ये पहली बार सुना तो शायद इस मुहावरे का अर्थ भी नहीं समझ आया होगा। लेकिन जो चीज अच्छी लग गई तो लग गई,  ये मुहावरा भी अच्छा लग गया और इस तरह से हमारी किलर्स इंस्टिंक्ट बहुत शुरू में ही kill कर दी गई। विवेक, तृष्णा, कामना, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन:  जैसे भारी भरकम शब्दों ने बहुत पहले ही हमारी नियति तय कर दी थी। जब भी हाथ-पाँव फ़ैलाने का मौका दिखता, हम पहले अपनी चादर चैक कर लेते और हर बार अपनी चादर छोटी मिलती। धीरे धीरे अपनी आदत ही ऐसी हो गई कि जो आराम से  मिल गया, उसी में गुजारा करना अच्छा लगने लगा। जवानी फ़ूटी तो हमारी सोच को और बल दिया फ़िल्म ’हम दोनों’ के गीत ने, ’जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया।’ नतीजा बहुत सुखद रहा कि हमें किसी से ’न’ नहीं सुननी पड़ी। किसी से कुछ चाहा ही नहीं, माँगा ही नहीं तो अगला\अगली ’न’ भी क्यूँ देते?

जवानी फ़ूटने तक सब ठीक रहा, किस्मत फ़ूटी तो पता चला कि ’दिल्लगी(या शायद दिल लगी, not sure)  क्या चीज है।’    यानि कि दिक्कत तब शुरू हुई जब ये मोटी मोटी किताबों के माध्यम से हमें मैनेजमेंट, प्लानिंग वगैरह वगैरह सिखाने की कोशिश की गई। उसी दौरान पता चला कि हमारी पर्सनैल्टी का डेवलपमेंट तो हुआ ही नहीं। आत्म-विश्लेषण किया तो पाया कि ’fear of rejection’ तमाम उम्र हम पर तारी\भारी रहा है। मनोचिकित्सकों की सलाहें मिलीं कि जिस काम से डर लगता हो, उसे अवायड करने की बजाय उसे बार बार करना चाहिये। अपने reflexes भी, अपने नेटवर्क कनेक्शन की तरह बहुत स्लो हैं,  चुटकुले, शिक्षायें, सबक भी हमें मौके पर कम और बेमौके पर ज्यादा समझ आते हैं। ताजातरीन मामला इसी ’fear of rejection’ से संबंधित है।

इस बार दिल्ली न जाकर जरूरी काम से सहारनपुर जाना था तो कमरे से निकलते समय ही फ़ैसला कर लिया था कि पर्सनल्टी डेवलप करके ही लौटना है। क्या पता लोग हम पर सबकुछ लुटाने, वारने को तैयार बैठे हों और हमारे प्रोपोज़ न करने के कारण ही उनकी बात मन की मन में रह जाती हो, let us give it a try:).

सबसे पहले नंबर लगाया पार्किंग वाले का। बाईक पार्किंग में लगाकर पार्किंग स्लिप लेने गया तो उससे पूछा.  “वीरे,  इससे पहले जहाँ मैं नौकरी करता था, रेलवे पार्किंग वाला स्कूटर खड़ा करने के पैसे भी नहीं लेता था और चाय पिलाकर ही भेजता था(सच है ये),    जब बाईक उठाने आऊँगा तो तू भी  चाय पिलायेगा न?”
पार्किंग ब्वाय, “पागल कुत्ते ने मेरे को नहीं काट रखा है, आपको काटा होगा।”
बड़ा तगड़ा झटका सा लगा, लेकिन सहन कर लिया। आखिर पर्सनल्टी डेवलप करनी थी।

बस तैयार खड़ी थी, आवाजें लगा रहे थे, ’लुधियाना, लुधियाना। आ जा बई, बैठ जा, तैयार है गड्डी।”
मुझे याद आ गया मेरा डीटीसी वाला दोस्त, बोनट पर बिठा लेता था मुझे और टिकट नहीं लेने देता था। मैंने पूछा, “बैठ जाता हूँ, किराया तो नहीं माँगेगा?”
कंडक्टर, “रैण दे बई, दूजी बस विच आईयो। गर्मी नाल पैल्ले ही मेरा दिमाग भन्नया(दिमाग खराब होना) होया है।”  झटका ये भी जोर का ही था।

लुधियाना पहुँचकर ट्रेन में चढ़ा। आज तक किसी से सीट नहीं माँगी थी, उस दिन एक सिंगल सीट पर दो लड़के बैठे थे, उनसे कहा, “यार, सीट दे दो।”
दोनों भड़क गये, “अंकल जी, एक इंच भी जगह दिख रही है आपको? पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं….”अबके जोर का झटका धीरे से लगा। याने कि, याने कि धीरे धीरे डेवलपमेंट होने लगी थी।

अब सारी कहानी सुनाने बैठूंगा तो आप कमेंट देने से मना कर दोगे। पर्सनल्टी डेवलप हो गई है, लेकिन अभी इतनी नहीं कि रिजैक्शन का डर बिल्कुल ही खत्म हो गया हो। हाँ, अब उतना डर नहीं लगता। दुनिया नहीं बदल सकती, अब हम ही अपना नजरिया बदल रहे हैं। नैरो-गेज़ से ब्रॉड-गेज़ में conversion करने की कोशिश जारी है। जीटी रोड पर लगे caution-signboards की तर्ज पर मैं भी caution-mark  लगा ही देता हूँ,

CAUTION, BROADENING OF MIND IS IN PROGRESS, KINDLY WINE\WHISKY\SCOTCH WITH US(BEAR IS SO OLD FASHIONED NOWADAYS)

सबक ये है कि कामयाब होने के लिये आदमी का ढीठ होना बहुत जरूरी है,   (ये सबक कुछ दिन पहले हमारे मैनेजर साहब ने दिया था, इस वाक्य में उनके थोड़ा को मैंने बहुत किया है, बस्स),
और सवाल ये है कि कामयाब कौन है? 
  
अवि,   तीन शब्दों का ही है, आज तो मुश्किल नहीं है न सवाल:)) 

गाना वैसा ही, पुराना सा, भीनी भीनी सी महक लिये:-
महक क्या ऐसी-तैसी करवायेगी, यूट्यूब ने भी रिजैक्ट कर दिया है:)

सोमवार, मई 16, 2011

किये कराये पर पानी..... एक व्यथा हँसते गाते

अपने ब्लॉग प्रोफ़ाईल में मैंने शुरू में ही लिख दिया था कि पुरानी बातें, पुरानी फ़िल्में, पुरानी गीत, पुरानी किताबें, पुरानी यादें, पुरानी… वगैरह वगैरह मुझे बहुत पसंद हैं। कुछ पुराने चुटकुले भी इन वगैरह वगैरह में शामिल हैं। ऐसा ही एक   छोटा सा गंदा सा  चुटकुला था -  मास्टर जी ने बच्चों से पूछा, “किये कराये पर पानी फ़ेरना, इसका वाक्य प्रयोग बताओ।”  बच्चे ने कहा, “फ़्लश में पानी छोड़कर मैंने सब किये कराये पर पानी फ़ेर दिया।”

ये चुटकुला अब मेरे लिये त्रासदी बनकर रह गया है। सिर्फ़ एक पोस्ट ने मेरे डेढ़ साल के किये कराये पर पानी फ़ेर दिया। ब्लॉग नाम देखिये, मेरे काम देखिये। गाली गलौज मैं लिख दिया करता,  अपने बच्चे जवान हो रहे हैं और प्रेम मोहब्बत के गाने मैं सुनवा दिखा  दिया करता, छांटकर महिला ब्लॉगर्स के यहाँ मैं कमेंट किया करता, उल्टे सीधे चुटकुले फ़त्तू के नाम से डाल दिया करता – ये सब किसलिये भला?   अपनी छवि सुधारने के लिये ही तो, और एक गोलमोल सी कविता से पंगा क्या ले लिया, सबने जबरदस्ती  ही धर्मात्मा बना दिया। पिछले जमाने में शरीफ़, आस्तिक  कहलाना बड़ाई की बात होती होगी लेकिन आज के समय में किसी को ये सब खिताब दे देना गाली देने से कम नहीं है।

आप सब बड़े बेमुरव्वत निकले, कूटनीति की चार नीतियों में से पहली अपना ली ताकि ये बंदा अपनी जिंदगी को नीरस कर ले। कोई अद्वैत से जोड़ बैठा इसे, किसी को अध्यात्म दिखाई दे गया, किसी को काव्य रस मिल गया, जुलम भयो रामा जुलम भयो रे। हमारे प्रतुल भाई ने तो उसकी व्याख्या ऐसी शानदार कर दी कि हमारे खानदान् में सात पीढ़ी तक किसी ने  ऐसा  नहीं सोचा होगा। ले देकर एक सतीश सक्सेना जी ने और एक अदा जी ने थोड़ा मेरी भावनाओं की कदर की। बड़े भाईजी ने आगाह किया कि इसे जुनून कहते हैं और  देवीजी  ने समझाईश दी कि पतवार तो कब्जे में रखना था। ये दो कमेंट न मिलते तो मैंने टंकी पर चढ़ ही जाना था। चलो इन दोनों को धन्यवाद दे देता हूं कि समय से कदम उठाकर इन्होंने   ब्लॉग जगत में अपील, विचार, पुनर्विचार जैसे आग्रह होने से बचा लिये।  आप सबकी भी मिन्नतें, चिरौरी बच गईं। वैसे सोचकर मजा बहुत आ रहा है कि कैसे सब मना रहे होते, सब न सही कुछ तो मना ही रहे होते कि वीरू टंकी से नीचे उतर आ।      खैर, फ़िर कभी सही।

पिछले महीने ही सूचना मिल गई थी कि पिछले साल की तरह इस साल फ़िर से बुड्ढे तोते को प्रशिक्षण हेतु नामित किया गया है। कई सालों से यह एक घोषित युद्ध छिड़ा हुआ है प्रबंधन और हमारे बीच। वो कहते हैं चाहे कितना खर्च हो जाये सिखाकर मानेंगे और हम कहते हैं कि चाहे जितना  जोर लगा लो,   ऐसे ही भले हैं हम नासमझ से, बुद्धू से। खुशी इस बात की थी कि हमें अभी चुका हुआ नहीं मान लिया है प्रबंधन ने। जिस दिन पत्र आया था, लौटते ही चहकते हुये ये सूचना दी कि फ़िर से ट्रेनिंग आ गई है।  सुनने को मिला, “उपलों में चाहे घी के कनस्तर उंडेल दिये जायें,  रहेंगे उपले ही।”  एक बार तो ताव देने के लिये मूँछों पर हाथ गया ही था लेकिन धरती पर पैर रहने का ये फ़ायदा रहता है कि इंसान अपनी हैसियत नहीं भूलता। ये सोचकर हाथ जेब में डाल लिया कि हमारा समझौता कौन करवायेगा?

 मुझे याद आ गया डीटीसी का हमारा एक ड्राईवर मित्र। एक दिन उन पति पत्नी से मुलाकात हुई तो दोनों खफ़ा खफ़ा से थे। पूछा तो भाभी तो कुछ बोली नहीं, भाई ने बताई ये बात। कहने लगा, रात ग्यारह बजे ड्यूटी करके घर आया तो तेरी भाभी पूछती है, “रोटी खायेगा?” जवाब मिला, “ना, रैण दे। जेवड़ी(रस्सी) ल्या दै, फ़ाँसी खा लूँगा।”  गुस्से में धम धम करती वो रोटी बनाण लगी और मैं सामणे बैठ गया कि गुस्सा ठंडा हो जायेगा इसका। गैलां ही आके बैठ गया हमारा पालतू  काड़ू(कालू)। इब इसनै पैली रोटी बनाई और मन्नै थाली आगै करी तो बोली, डट जा(रुक जा), यो बेचारा भूखा सै। उसके बाद एक रोटी कालू के सामने फ़ैंकी गई और दूसरी मेरी थाली में। तीन रोटी खाकै कालू ने अपना मुँह जीभ से पोंछ लिया और मुझे तीसरी रोटी देके इसनै तवा तलै उतार दिया और न्यूं बोली, “इस बेचारे नै जाणवर होके भी अक्कल सै कि हिसाब से रोटी खानी चाहियें और एक तू सै कि और रोटियों की बाट देखे सै।”  भाई, फ़ेर मेरे ते रया नईं गया और मन्नै एक जड़ दिया इसकै। इब तू ही फ़ैसला कर कि गलती किसकी सै, मेरी अक इसकी?

उस दिन तो मैं हँसता रहा, समझाया अपने दोस्त को कि कुछ बीबियाँ अपने पति को बहुत प्यार करती हैं   और कैसे न कैसे उनका समझौता करवा दिया। तब मेरे ऐसे सलाहकार  दोस्त नहीं थे, अब आपका   इस मामले में  क्या कहना है?    कसूरवार कौन है, वो आदमी जो ड्यूटी करके आधी रात में घर आता है और ऐसा ट्रीटमेंट पाता है और मारपीट  करने वाला कहलाता है      या वो औरत जो आधी रात में अपने पति को खाना बनाकर खिलाती है और फ़िर उससे मार खाती है। बेचारे    कालू कुत्ताजी जी को बैनेफ़िट ऑफ़ डाऊट देने की फ़िक्सिंग पहले ही हो चुकी है, इसलिये अपना जवाब इन दोनों विकल्पों तक ही सीमित रखें। वैसे मुझे मालूम है कि कोई मानने वाला है नहीं, जवाब देंगे तो अपनी मर्जी से। ठीक है यारों, जैसा मन हो वैसा जवाब दे देना, हमारी तो देखी जायेगी।

प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान एक हाई स्टेटस के प्रशिक्षु से कुछ मजेदार बतचीत हुईं, वो अगली बार। तब तक ये मस्ती भरा गाना सुन लीजिये। काका और किशोर दा, क्या कैमिस्ट्री है..

शनिवार, मई 07, 2011

बिना पतवार की नौका


  
                                                                    (गूगल से साभार)



तुम हो जैसे अथाह जलराशि,

और मैं हूँ

एक बिना पतवार की नौका।

पूरी तरह से,

तेरी मौजों के सहारे।

रहने दे मेरा वज़ूद,

या मिटा दे मुझे,

सब अख्तियार हैं तुझे।

बल्कि खुश होता हूँ हमेशा,

जब भी ऐसा सोचा कि

मुझे मिटाकर देखना कभी,

तुझमें ही खो जाऊँगा, 

औरतुझमें ही घुल जाऊँगा।

फ़िर  कैसे अलग करोगे भला?

मुझे मुझ से, मुझे खुद से......



अब ये फ़ूट ही गई है तो आलोचनाओं से डरकर मैं भी फ़ूट लेता हूँ, काहे से कि  अपना मानना है कि  आलोचना सिर्फ़ की जानी चाहिये, ली नहीं जानी चाहिये।   लौटकर देखता हूँ, आप सबको तो:)


मंगलवार, मई 03, 2011

पंगा न लै.....


पढ़ा-लिखा कुछ खास  नहीं था, शुरू से ही डील डौल वगैरह का काफ़ी अच्छा था। शरारती एक नंबर का, मारपीट जब तक एकाध बार कर न ले, खाया पिया हजम  ही नहीं होता था। शायद सातवीं या आठवीं तक स्कूल गया फ़िर कहीं किसी दुकान पर नौकर लग गया। ट्रेन से डेली पैसेंजरी करता था। आदतें आसानी से जाती  नहीं, अंदर  सीटें खाली हों  तो गेट पर लटकना और भीड़ हो तो जबरदस्ती सीट के लिये धक्कामुक्की करना उसका शगल था। जल्दी ही ट्रेन में मशहूर हो गया था,  कुछ जगह ऐसी होती हैं और कुछ बंदे ऐसे, जिनके लिये बदनामी ही मशहूरी होती  है।

समय बीतता गया,  उसकी प्रतिभा नित निखार पा रही थी। अब  उसने नया शौक पाल लिया, चलती गाड़ी में दरवाजे से हाथ बढ़ाकर टायलेट की खिड़की की सलाखें पकड़कर डिब्बे के पिछले हिस्से में पहुंचता और फ़िर दूसरे डिब्बे की खिड़की की सलाखें पकड़कर उस डिब्बे में घुस जाता। तालियाँ बजाने वालों का मनोरंजन हो रहा था मुफ़्त में, और वो खुद को हीरो समझता था। एक दिन हाथ फ़िसल गया और वो चलती गाड़ी से नीचे गिर गया। जान बच गई लेकिन एक टाँग घुटने के पास से काटनी पड़ी। वही तालियाँ बजाने वाले अब उसे बेवकूफ़ बता रहे थे।

कुछ दिन के बाद वो लाठी का सहारा लेकर चलता दिखाई दिया। स्वभाव वैसा ही, वही यारों दोस्तों के साथ धौल धप्पा और हो हल्ला। कुछ महीनों के बाद नकली पैर लगवा लिया उसने। अब बिना सहारे के भी चल लेता था, हाँ थोड़ी सी लंगड़ाहट(मौके के हिसाब से कभी कभी ज्यादा भी) जरूर बाकी थी। घरवालों ने शादी भी कर दी उसकी। दूसरे बहुत से सरकारी आँकड़ों की तरह ये लिंगानुपात वाले आँकड़े भी आज तक मेरी समझ में नहीं बैठे। बताते हैं कि हजार के पीछे आठ सौ के करीब लड़कियाँ हैं यानि उस हिसाब से लगभग हर पांचवा आदमी कुँवारा रहना चाहिये जबकि मुझे शायद ही कोई लड़का ऐसा दिखता हो जो लड़की के अभाव में कुँवारा रह गया हो। दूर क्यों जाया जाये, मुझ जैसे तक को(थोड़ा कन्फ़्यूज़न है, ही लिखा जायेगा या भी?) गौरवर्णीय, सुंदर, सुशील और गृहकार्य में दक्ष, जैसी कि हर भारतीय विवाहयोग्य कन्या होती ही है, मिल गईं:))  गरज ये कि कैसा भी बंदा हो, उसके लिये ऊपर वाले ने कहीं न कहीं कोई उसका जोड़ बना ही रखा है तो जी हमारा हीरो भी अब तक शादीशुदा हो गया था। जल्दी ही राशनकार्ड में तीन नाम और जुड़ गये।

भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ,   हमारे भारत में परंपरा चली आ रही है कि जो कुछ न करता हो उसका ब्याह कर दो कुछ तो करता रहेगा स्साला, कुछ तो करेगा:)  जो किसी काम में लगे हुये हैं वे बेशक कुँआरे रह जायें, जैसे हमारे राहुल बाबा बेचारे जनसेवा में लगे हैं तो अब तक…, लेकिन जिसके पास कोई काम नहीं, वे सब खूँटे से बांध दिये जाते हैं। दरअसल हँसते-खेलते, आजाद किस्म के लोगों को देखकर इन चीजों को खो चुके लोगों को बड़ी टीस उठती होगी कि हमारी आजादी छिन गई और ये है कि अब तक सर उठाकर घूम रहा है। शुभचिंतक होने का ड्रामा सा रचकर उम्रकैद दिलवाकर ही मानते हैं। यकीन न हो तो किसी शादी में देख लीजिये, दूल्हा बेचारा कसा बंधा सा कसमसाता रहता है और दूसरे नाच नाच कर खुशियां  मनाते हैं। ये खुशी वैसी ही होती है जैसे अपनी कालोनी की लाईट गायब होने के बाद पड़ौसी कालोनी की जलती बत्तियों को हसरत भरी निगाह से देखने के बाद उन्हें भी गुल होते देखकर हमें अतुलनीय खुशी का अहसास होता है। शेरवानी, सेहरा इत्यादि इत्यादि पहनाकर दूल्हे को सजाया नहीं जाता बल्कि मार्निंग शो में प्रिंसीपल साहब के द्वारा छापा मारकर स्कूल के बच्चों को यूनीफ़ोर्म के जरिये पहचानने वाली बात से इसे जोड़ा जा सकता है। ऐन वक्त पर अगर दूल्हा भागने की कोशिश करे तो भीड़ में अलग से पहचान लिया जाये, इसीलिये ये सब नौटंकी की जाती है।

फ़िर से बहक गया मैं,  हीरो की शादी भी हो गई और घर बच्चों से गुलजार भी हो गया। परिवार बढ़ा तो जिम्मेदारियां भी बढ़ीं। श्रीमानजी ने अब कुछ कमाई वगैरह करने की सोची और जल्दी ही फ़ाईनैंस का धंधा शुरू कर दिया। भारत सरकार ने तो अब financial inclusion जैसे काम शुरू किये हैं, हमारे ये मित्र अरसा पहले से ’जिसका कोई नहीं, उसका तो खुदा है यारो’ की स्टाईल में खुदाई दिखा रहे हैं। नजदीक ही एक सब्जी मंडी उनका कार्यक्षेत्र है, गरीब(तर) लोगों को पांच हजार देते हैं और दो महीने तक सौ रुपया रोज की किस्त। हिसाब सीधा है लेकिन ब्याज की दर निकालना इतना सीधा नहीं क्योंकि जिन दस बीस लोगों से उनका व्यवहार है, उनके यहाँ से पैसों के अलावा फ़ल, सब्जी वगैरह प्यार मोहब्बत में ले ही ली जाती है। शाम को जब रिक्शा में बैठकर घर लौटता है तो जेब नोटों से और रिक्शा दस बारह थैलियों से भरी होती है। हालचाल पूछने पर ऊपर वाले का शुक्रिया देते हैं और नम्रता से बताते हैं कि गरीबों की मदद करते हैं तो उनकी दुआयें काम आ ही जाती हैं।

आदत मेरी भी खराब है, जो बात कोई खुद से बता दे उसपर बेशक ध्यान न जाये लेकिन जो पर्दे में है वहां ताक झांक जरूर करनी है। खलनायक फ़िल्म  का  गाना याद आ रहा है, ’नायक नहीं…’ वाला।    कहीं उल्टा सीधा सोचने लगो सब,  हमारे जयपुर नरेश तो जरूर इसमें भी कोई प्वाईंट ढूंढ लेंगे, अगर इसे पढ़ा तो।    कित्ती खराब सोच है यार तुम्हारी, छवि मेरी खराब करते हो:)    तो एक शाम मैंने अपने दोस्तों से  जानना चाहा कि यार सरकारी बैंकों को तो अपने ऋण वसूलने में इतनी दिक्कत आती है और ये बंदा कई गुना ज्यादा की दर पर कैसे कारोबार चला रहा है? जवाब में पहले तो बैंकों की कार्यप्रणाली की माँ-बहन एक की गई फ़िर हमारे हीरो की कार्यप्रणाली की तारीफ़ें की गईं। मालूम चला कि दिक्कतें तो उसे भी आती हैं लेकिन उनसे निपटने के उसके फ़ार्मूले भी अलग हैं। हर लोन का जमानती तो होता ही है, इसके अलावा इस  धंधे में   आदमी का थोड़ा सा रफ़-टफ़ होना भी लाजिमी है। जरूरत पड़ने पर डिफ़ाल्टिंग पार्टी से गाली-गलौज करना पड़ता है। कई बार मार पीट भी करनी पड़ती है। मेरी शंकायें बढ़ने लगीं थी। माना कि ये इस लाईन में शुरू से है, डील डौल भी अच्छा है लेकिन कभी सामने वाला भारी पड़ जाये तो?  अब तो ये बेचारा भाग भी नहीं सकता, एक टांग नकली है उसकी। या फ़िर  बात चौकी-थाने पर पहुंच जाये तो? बताया गया  कि ऐसी स्थिति में नकली टांग ही तो उसका ट्रंप कार्ड बन जाती है। जब तक खुद हावी है तब तक तो कोई दिक्कत है ही नहीं, जब खुद पर बात आये तो पुलिस के आने से पहले उसकी लकड़ी वाली टांग उसके हाथ में आ जाती है। सी.एम.ओ. द्वारा जारी विकलांगता सर्टिफ़िकेट और  पहचान पत्र हमेशा पास रहते ही हैं। दुहाई दे देता है, “आप ही करो जी फ़ैसला, मैं हैंडिकैप्ड आदमी हूँ। एक कदम बेख्याली में रखा जाये तो मेरी टाँग निकल जाती है, मैं क्या खाकर इस ’रेमंड्स’  से लड़ूंगा?”

मैंने तो उसे हमेशा ही हँसते, खिलखिलाते देखा है लेकिन सुना है कि मौका देखकर आँसू भी निकल जाते हैं उसके। फ़िर पुलिस वाले बेचारे भी उसे क्यों मेहमान बनायेंगे, उससे तो कुछ हासिल होना नहीं। उल्टे उसकी सेवा पानी करनी पड़ेगी, नहीं तो रिक्शा मौका-ए-वारदात से थाने की तरफ़ और जरूरत पड़ने पर एसीपी ओफ़िस, डीसीपी ओफ़िस, हैडक्वार्टर की तरफ़। रास्ते सब मालूम हैं उसे, ये भी और वो भी, आर.टी.आई, समाज कल्याण विभाग, मानवाधिकार  वगैरह-वगैरह। मैंने कहा, फ़िर तो गनीमत है कि ये अल्पसंख्यक वर्ग से नहीं है, वरना एक और प्वाईंट जुड़ जाता उसके हक में।

तो मित्रों, आज के प्रवचन से ये शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि अपनी खामियों, कमजोरियों, दुखों, तकलीफ़ों को सही अवसर पर इस्तेमाल करने वाला  प्राय: कामयाब होता है, जितना ज्यादा दुखी दिखाई दे सकने की कला में निपुण होगा, वह भीतर से उतना ही सुखी होगा। जिस तरह आजकल चैन में लगा परिचय-पत्र गले में टांगकर जेब में रखा जाता है और वक्त जरूरत  दिखाकर अपना कार्य सिद्ध किया जाता है, इसी भाँति अपनी वास्तविक, काल्पनिक तकलीफ़ों का सर्टिफ़िकेट हमेशा अपने साथ रखें और मौके पर उसका प्रदर्शन करके चिरकाल तक अनंत सुख के भागी हों। सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु ........

p.s. - एक बिटिया की तरफ़ से एक शिकायत दर्ज हुई थी, उसके पापा कहते तो  न भी  मानता लेकिन बिटिया का  कहना  है तो  सर-माथे पर:)  आशा है, अब ठीक लग रहा होगा।  दोबारा कुछ कहना हो तो पापा को बीच में डालने की बजाय सीधे दो लाईनें मेल कर देना।  मुझ लापरवाह को  जिम्मेवारी का अहसास करवाने के लिये शुक्रिया।

http://youtu.be/zmzSnJmB7QQ