बुधवार, सितंबर 19, 2012

मुरारी लाल ...?

कश्मीरी गेट स्टेशन पर हमेशा की तरह भीड़ थी| इंटरचेंजिंग  स्टेशन होने के नाते पीक ऑवर्स में भीड़ का न होना अस्वाभाविक लगता है, भीड़-भाड़ देखकर  ही  नार्मल्सी का अहसास होता है| बहुधा अपना नंबर दूसरी ट्रेन में ही आता है, यानी कि हमारे लाईन में लगने के बाद आने वाली दूसरी मेट्रो में| धक्का मुक्की करने की आदत कभी रही नहीं और वैसे भी 'लीक छोड़ तीनों चलें' में से अपन वन-टू-थ्री कुछ भी नहीं| कैस्ट्रोल की विज्ञापन फिल्म अपने को आईडियल लगती  है, चाहे पाखाने की लाईन में लगे हों,  कोई ज्यादा जल्दी वाला आ जाए तो उसे   'पहले आप' कह ही देते हैं| अपना नंबर आते आते पहली मेट्रो भर चुकी होती है, कुछ देर के लिए नंबर वन का अहसास हम भी ले लेते हैं| हमेशा की तरह दूसरी मेट्रो आई तो अपन लाईन में सबसे आगे थे|  फिर  भी   गेट  खुलते खुलते चढ़ने वाले कई वीर बहादुर लोग अपने से पहले ही आरोहण कर चुके थे| जल्दी वाले भागकर सीट पर कब्जा करते हैं, अपन एंट्री मारकर अपना कोना पकड़ लेते हैं| लॉजिक ये है कि उधर वाला दरवाजा केन्द्रीय सचिवालय स्टेशन पर ही खुलता है तो उतरने में  ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती|

गेट के एक कोने पर राड पकड़कर  मैं खडा था और उसी गेट के दूसरे किनारे पर नजर गई तो अपने से एक दो इंच ऊंचा एक छः  फुटा जवान बन्दा भी बिलकुल उसी मुद्रा में अपने हिस्से की राड पकडे खडा था|  संयोग से हमारे बीच जो  चार पांच लोग खड़े थे, सब औसत या फिर औसत से कम कद के थे| खाली दिमाग तो आप सब जानते ही हैं, शैतान का घर होता है| अमर चित्रकथा में कभी देखा भगवान के द्वारपाल जय-विजय का चित्र ध्यान आ गया|  दोनों ऐसे खड़े थे जैसे सच में किसी राजमहल के द्वारपाल हों|  दिमागी खुराफात बढ़ने लगी, मैं अपने सह द्वारपाल के चेहरे का जायजा लेने लगा| कद में तो मुझसे ऊंचा था ही, सेहत में भी मुझसे इक्कीस| उम्र मुझसे चार पांच साल कम रही होगी, कसरती बदन, टीशर्ट में एकदम किसी हीरो के माफिक लग रहा था|  सुदर्शन व्यक्तित्व बार बार ध्यान खींच रहा था और मैं द्वारपालों वाली कल्पना से भी अब तक छुटकारा नहीं पा पाया  था|  

बन्दे ने बहुत करीने से मूंछें बढ़ा रखी थी, अभी तक हमारी तरह सफेदी झलकनी शुरू हुई नहीं थी| मूंछों के भी तो  कितने स्टाईल हैं आजकल| इस बन्दे ने मूछों को नीचे की तरफ विस्तार दे रखा था, एकदम होंठों से नीचे तक जा रही थीं| एक हमारी मूंछ है, दो महीने में सिर्फ एक बार सही सेट होती है जब सैलून  में हजामत-शेव  बनवाते हैं वरना तो कभी ऊंची-नीची और कभी एकदम से बेतरतीब| मेट्रो चल रही थी, साथ साथ मेरे विचार भी| बार बार उसकी तरफ देखता था और ये  पाया कि वो भी शायद कुछ समझ रहा है क्योंकि जब भी देखा, उसे भी इधर ही देखते पाया| फिर मैं दूसरी तरफ देखकर सोचने लगा कि  टाईम बहुत बदल गया है, ऐसा न हो कि वो कुछ उल्टा सीधा समझ ले| बहुत हो गयी कल्पना, कहीं अगले बन्दे ने मुझे  दोस्ताना टाईप वाला  समझ लिया तो जवाब देते न बनेगा| इससे अच्छा तो चंचल को थोड़ा मोडीफाई  करके याद कर लेते हैं -  मैं नहीं देखना, मैं नहीं देखना| 

मन ने कहा, देखना नहीं है तो सोचने में क्या हर्जा है? सोच तो सकते ही हैं| बन्दे ने मूंछें ऐसी क्यों रखी होंगी? इन्हें थोड़ा ऊपर की तरफ उमेठ लेता तो एकदम 'मेरा गाँव मेरा देश' वाले  विनोद खन्ना जैसा लगता|  धीरे से नजर उठाकर देखा तो जाए कि अगर मूछें ऊपर की तरफ हों तो कैसा लगे?  येस्स, परफेक्ट एकदम विनोद खन्ना| लेकिन यार, अब तुम क्यों इधर देख रहे हो? भाई मेरे, मेरी नीयत बिलकुल ठीक  है| ले यार, मैं ही फिर से नजर दूसरी तरफ कर लेता हूँ| बड़ा खराब टाईम आ गया है| 

अच्छा ये जो पुलिस कई बार पोस्टर चिपका देती है कि अपने आसपास देखिये, कहीं कोई आतंकवादी तो नहीं? अलग अलग भेष में एक ही चेहरे, इतना फर्क पड़ जाता है दाढी मूंछों को इधर उधर या ऊपर नीचे करने से? इसी बन्दे ने अगर दाढी भी बढ़ा रखी होती तो कैसा लगता? देखूं  ज़रा| हाँ, सच में चेहरा मोहरा बदल तो जाता है| अबे यार, दो मिनट उधर  नहीं देखता रह सकता क्या? चल मान ले कि बार बार मैं देख ही रहा हूँ तुम्हें तो कुछ ले लिया क्या? बाईगोड लोग बहुत असहिष्णु हो गए हैं, आदमी भी सेल्फ कान्शियस होने लगे हैं | जा यार, अब सच में नहीं झांकना तेरी तरफ| होगा मिस्टर इंडिया, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| 

ये मेट्रो  वाले भी जान बूझकर ऐसी अनाऊँसमेंट  लगाते हैं, 'माइंड द गैप'| अबे सालों,  गैप में माइंड लगा दिया तो बाकी कामों में तुम्हारे फूफाजी आयेंगे माईंड लगाने? गाडी में चार डिब्बे फालतू लगा नहीं सकते, चले हैं हमें सिखाने| खुद को कुछ आता जाता नहीं है पैसा कमाने के सिवा और बात करते हैं| नहीं देखना यार तेरी तरफ अब, वैसे भी हमारा स्टेशन आने वाला है| फिर से  वही धक्कापरेड करनी है, एक और मेट्रो|  घर से दफ्तर तक सीधी एक मेट्रो होती तो मजा आ जाता| एक जगह से बनकर चलती और दूसरी जगह टर्मीनेट होती चाहे डिसमिस होती| ठाठ से हम भी  सीट पर बैठकर आते, न गेट पर खडा होना पड़ता और न ऐसे  द्वारपाल बनना पड़ता|

एक बात तो है, बन्दे की पर्सनेल्टी है जबरदस्त| मूंछे नीची रखने का मतलब है कि समझदार भी है| कुछ समय पहले तक घर में घुसते समय लोग मूंछें नीची कर लेते थे, आजकल बाहर भी नीची रखने में ही समझदारी है| या तो रखो ही नहीं, या फिर इसकी तरह रखो| वापिसी में कहीं नीची करनी भूल गए तो पता चला कि लेने के देने पड़ गए|  खैर, जो भी हो, हमारा बन्दा है एकदम मॉडल या हीरो के जैसा| लगता है ये  भी इसी स्टेशन पर उतरेगा| एक काम करता हूँ, उतरकर इसको बता देता हूँ कि मैं बार बार इसलिय देख रहा था कि अगर  मूछें ऊपर की तरफ उठाकर रखे तो इसकी शक्ल और पर्सनैल्टी एकदम विनोद खन्ना से मिलती है और अब भी  ट्राई  करे तो किसी फिल्म या सीरियल में हीरो का रोल मिल सकता है|   हो सकता है इसके मन में कोई मेरे बारे में कोई गलतफहमी आ रही हो, दूर हो जायेगी| जितनी  बार मैंने उसकी तरफ देखा, वो भी  बार बार मेरी तरफ देखता था| वैसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन गलतफहमी ख़त्म ही हो जाए तो अच्छा है|

'अगला स्टेशन केन्द्रीय सचिवालय है| यहाँ से वायलेट लाईन के लिए बदलें|'  क्यों भाई, कोई जबरदस्ती है? हमें सूट  न करती होती तो बिलकुल न बदलते| कभी वायलेट लाईन के लिए बदलो, कभी पीली रेखा से पीछे रहें|    ***या समझा है हमें?  पीली रेखा को समझा ले  न  कि आगे रहे हमसे, सारे उपदेश हमारे लिए ही हैं| एक दिन  तुम्हारी भी क्लास लेनी है| हिन्दी अंगरेजी की ऐसी तैसी करके रख दी है तुमने| 

' हाँजी सर, धक्का मत दो| उतरना है यहीं पर,  वरना मुझे शौक थोड़े ही है दरबानी करने का जो  पंद्रह मिनट से गेटकीपर बनके खडा हूँ|  ओ पहलवान, उतरने देगा हमें, तभी तो चढ़ पायेगा| ऐसे जोर लगाने से कोई फायदा नहीं| पता नहीं कब कामनसेंस आयेगी लोगों को| घर से पता  नहीं  क्या खाकर आते हैं, चढ़ना है तब धक्के मारेंगे और उतरना है तब धक्का मारेंगे| अभी यमदूत आ जाएँ न तो फिर बैकसाईड  से  धक्के लगाने लगोगे, न जी हमें नहीं जाना, हमें जल्दी नहीं है| जाहिल लोग कहीं के|'

उतरकर बैग,पाकेट रोज  चैक करने पड़ते हैं जी, पता चले कि इतनी भीड़ में मोबाईल या वैलेट निकाल लिया किसी हाथ के जादूगर ने| जेबकतरे भी हाई प्रोफाईल हो गए हैं आजकल, मेट्रो में सफ़र करते हैं| हाँ, सब ठीक है| अरे वो कहाँ गया मेरा यार विनोद खन्ना, जालिम सफाई तो देने देता| अब यहाँ तो छह फुटे और पांच फुटे  सब बराबर हैं, सामने अपनी मेट्रो खड़ी  है, उसे देखूं या अपने उस हमसफ़र को? मिल जाता तो उसे बता देता कि क्यों बार बार उसे देख रहा था| वो पता नहीं क्या क्या समझ रहा होगा क्योंकि वो भी बार बार घूर रहा था, समझ नहीं आया|  ये भीड़ भी न एकदम निकम्मी  है, खो गया न बन्दा| चलो यार संजय कुमार, जाने दो उसे,  गलत समझेगा तो हमारा क्या लेगा? वो भी तो घूर रहा था| 

'क़ुतुब मीनार को जाने वाली मेट्रो....'      मैं अभी उसी प्लेटफार्म पर ही था, चलने को हुआ कि  कंधे पर हाथ रखकर किसी ने मेरा ध्यान खींचा, देखा तो थोड़ा हटकर वही खड़ा था| 

मुझसे कहने लगा, 'बॉस, एक बात बोलूँ?'   

बोलने की तो मैं सोच रहा था, समझ गया कि उसे एक आदमी द्वारा बार  घूरना और बार बार देखना खला होगा| तुम बोल लो यार, मैं फिर अपना पक्ष रख लूंगा| 'हाँ भाई, बोलो?' मेरे मुंह से फिलहाल इतना ही निकला|

'आप अगर अपनी मूंछ  को थोड़ा सा ..'  मेट्रो के गेट खुल चुके थे और उतरने वाली भीड़ धक्के मारती हुई हम दोनों को अलग अलग दिशा में ले गयी| जाहिल लोगों ने पूरी बात भी नहीं सुनने दी और न मुझे कुछ कहने दिया|  समझ नहीं पाया कि क्या कहना चाह  रहा था वो...|
                                                                     

रविवार, सितंबर 09, 2012

होता है. होता है...

ट्रेन में डेली पैसेंजरी का जिक्र कई बार कर चुका हूँ, ऐसे ही एक सफ़र की बात है - कोई त्यौहार का दिन था| उस दिन सभी स्कूल, सभी कार्यालय बंद थे लेकिन बैंक खुले थे| लौटते में हमारे ग्रुप में सिर्फ दो मेंबर थे, एक मैं और एक शेर सिंह जी|  एक सहकारी बैंक में मुलाजिम थे और रिटायरमेंट के नजदीक थे, प्यार-दुलार में सब उन्हें 'बड़े मियाँ' बुलाते थे|  हम तो हैं बगुला भगत टाईप के, आसपास कुछ न हो तो आँख बंद करके भगतई का ड्रामा कर लेते हैं जो आगे पीछे काम आ जाता है लेकिन 'बड़े मियाँ'  बिना ताश खेले  जल बिन मछला  हुआ जाते  थे| कोच में बैठे एक एक  बन्दे  से पूछते थे 'सीप खेलनी आती है?' एक पार्टनर मिल गया, एक और की दरकार थी| अगला स्टेशन आया, फिर वही  कवायद    हुई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ| 

इसी तरह दो तीन स्टेशन गुजर गए आखिरकार उनकी तलाश पूरी हुई  और बाजी जम गई|  ताश का पार्टनर मिलने की जो खुशी उनक चेहरे से छलक रही  थी, इतनी तो  वांछित बहुमत प्राप्त करवा देने वाला पार्टनर दल मिलने  पर  गठबंधन सरकार के मुख्य  घटक दल को भी शायद न मिलती हो| 

बार बार मुझसे कहते थे, 'देखा,  कोशिश की तो मिल गया न खिलाड़ी? नहीं तो सारा रास्ता बोर होते जाते|'  
मैंने कहा, 'ये  तो है| वैसे आधा रास्ता तो कट ही गया था, बाकी आधा भी कट ही जाता|' 
बड़े मियाँ ने अकर्मण्य, सुस्त, कामचोर, निरुत्साही, जाहिल  आदि आदि ढेरों सर्टिफिकेट जारी कर दिए| बहुत प्यार करते थे न हमसे| 


खैर, पत्ते बाँट दिए गए और खेल शुरू हो गया और जिसको वो इतनी शिद्दत से ढूंढकर लाये थे, उस भले आदमी ने इतनी देर में  पत्ते पलट कर रख दिए, "मेरा तो स्टेशन आ गया जी, मैं तो अब उतरूंगा|" 

बड़े मियाँ के चेहरे की ट्यूबलाईट बुझ गयी, पोपले मुंह से अपनी जनाना सी आवाज में बोले, 'धत मेरे यार, अभी तो खेल का मजा आना शुरू हुआ था और तू उतर भी रहा है|'  आसपास जितने बैठे थे और उनकी व्यग्रता का आनंद ले रहे थे, खूब हँसे| 

जुलाई २०११ के लास्ट में पंजाब से ट्रांसफर होकर आया था| एकदम नया माहौल, नयी तरह के ग्राहक, यूं कहिये सब कुछ एकदम नया नया सा, अपरिचित सा था| हमें तो आदत थी गाँव-कस्बों की ब्रांचों की, यहाँ पर आकर  हर चीज को या तो टुकुर टुकुर देखते रहता  था या फिर वही आँख बंद कर लेते थे| अब जाकर धीरे धीरे कुछ पंजे जमने शुरू हुए थे कि अचानक बड़े मियाँ वाला किस्सा याद आ गया, याद दिला दिया गया|  To Cut A Long Story Short , हिस्टरी ने फिर से खुद को रिपीटा|

सफ़र बढ़ गया है जी, दो घंटा रोज| हो सकता है पोस्ट लिखने  की और टिप्पणियों की नियमितता कुछ  प्रभावित हो लेकिन अभी पीछा नहीं छूटेगा आपका,  क्योंकि 'यही कहेंगे हम सदा कि  दिल अभी भरा नहीं|'| 

हाजिर होते रहेंगे नए पुराने किस्सों के साथ, तब तक जय राम जी की|