सोमवार, जून 25, 2012

सड़क पार

                                                         
शुरुआती नौकरी बैंक के प्रशासनिक कार्यालय में साड्डी  दिल्ली से दूर एक शहर में थी| ट्रांसफर अप्लाई करने के लिए तीन साल की नौकरी के बाद ही एलिजिबिलिटी का नियम था इसलिए शुरू के तीन साल बहुत बेफिक्री से कटे|  जब तीन साल पूरे होने को हुए तो सभी अपने अपने गृहनगर में जाने की फिराक में लग गए| एक  मित्र तो इतने व्यवस्थित निकले कि स्थानान्तरण आवेदन करने से पहले बाकायदा अवकाश लेकर अपने घर के आसपास की कुछ ब्रांच देखकर आये| मुझे बहुत हैरानी हुई, पूछने पर बताया कि ये देखने गया था कि वहाँ काम कम है या ज्यादा और उससे भी ज्यादा जरूरी ये जानना था कि वहाँ  स्टाफ कैसा है? मेरे सवाल कहाँ खत्म होते थे? मैंने पूछा कि सब दो हाथ, दो पैर वाले ही मिले या कोई ज्यादा हाथ पैर वाले भी थे? मित्र बुरा मान गए और ऐसे में उनका तकिया कलाम रहता था, "तू रहने दे यार, तू नहीं समझेगा|" 

इन मामलों में मैं वाकई बहुत नासमझ और अव्यवस्थित बन्दा रहा, यही समझता रहा कि जहां भी जायेंगे अपने जैसे ही तो मिलेंगे, वही थोड़े से फ़रिश्ते और थोड़े से शैतान टाईप|   हमने इस काम के लिए कोई छुट्टी नहीं ली बल्कि ये पता करवाया कि दिल्ली में वैकेंसी है या नहीं| अधिकतर जगह की तरह जवाब 'ना' में ही मिला| कालेज टाईम से ही इतनी बार न न न न  सुन चुके थे कि कहीं से भी  कोई हाँ  मिलती थी तो खुद को चिकोटी काटके देखते थे कि ख़्वाब तो नहीं देख रहे :)   दिल्ली से कुछ दूर एक ब्रांच का पता चला कि वहाँ वैकेंसी है लेकिन सूत्र ने साथ ही आगाह कर दिया कि ब्रांच सेफ नहीं है, तीन चार स्टाफ सस्पेंड, डिसमिस हो चुके हैं इसलिए सोच समझकर रिक्वेस्ट लगाना, ऐसा न हो कि बाद में हमें दोष दो कि पहले बताया नहीं था| एल्लो जी,  हमारा  डेस्टिनेशन फाईनल हो गया और वो भी   बिना ज्यादा दिमाग खपाए, बिना छुट्टी खर्च किये|   हमने अपना आवेदन पत्र फट से भरकर दे दिया| समय आने पर  उसी ब्रांच के आदेश भी आ गए और हम भी पहुँच गए वहाँ| जाते ही स्टाफ की पहली प्रतिक्रिया थी 'आ गई एक और गैया  गार में' जो ब्लोगिंग  में आने पर मेंरी पहली पोस्ट का शीर्षक बनी|

अपने को उस ब्रांच में आने पर जो धकधक थी वो सिर्फ इस बात पर थी कि अभी तक किसी ब्रांच में काम का अनुभव नहीं था| प्रशासनिक कार्यालय में काम करने और ब्रांच में काम करने में बहुत अंतर रहता है, फाईनेंशियल ट्रांजैक्शंस और पब्लिक डीलिंग, ये दो बड़े अंतर  हैं| बड़ी ब्रांच थी तो पहले दिन तो सबसे हाथ मिलाने भर का परिचय हो सका और हल्की फुल्की औपचारिक बातचीत| 

वो कैश विभाग में कार्यरत था, आया और बहुत प्रेम से मिला| देखने में बहुत खूबसूरत, आँखों पर नजर का चश्मा लेकिन उसके चेहरे पर खूब  जमता हुआ|  ब्रांच का अनुभव न होने की बात पर उसने बड़ी बेतकल्लुफी से विश्वास दिलाया कि कोई दिक्कत नहीं आएगी|  कहने लगा,  "हर सीट पर काम कर चुका हूँ,  अभी तो  कैश में ड्यूटी है लेकिन घबराना मत, जब भी मौक़ा लगेगा मैं आकर देखता रहूँगा|" बाकी लोग जहां आपस में हंसी मजाक कर रहे थे, शायद मेरे बारे में भी, वो सिर्फ इतना कहकर कैश में वापिस चला गया|  उसके चेहरे की निश्चलता और सहयोग के आश्वासन से अपना कार्यानुभव न होने का भय बहुत हद तक दूर हो गया| मदद तो खैर सबने की, आखिर एक अतिरिक्त स्टाफ आने से कुछ काम तो सबका हल्का हो ही रहा था| वो भी दिन में एक दो बार मेरी सीट तक आता, हालचाल पूछता और फिर कैश में लौट जाता| ये जरूर पूछता कि कोई दिक्कत तो नहीं आ रही है और साथ में अपनी कैश में होने की मजबूरी थोड़ी खिसियानी सी हंसी हंसकर जाहिर कर देता| अपनी गड्डी धीरे धीरे चल पड़ी| चार छह दिन बीतते न बीतते समझ आने लगा कि कैश के बाहर के काम में उसकी महारत नहीं थी बल्कि कैश में भी उसे इसीलिये बैठाया गया था कि उधर जो जमा घटा होनी है वो शाम तक पता चल ही जानी है और उसके लिए वो खुद ही जिम्मेदार होगा, दुसरे नहीं| धीरे धीरे उसके बारे में  और भी मालूम चलता रहा मसलन अपने पिताजी की जगह बैंक में भर्ती हुआ है और कुछ व्यक्तिगत जानकारियाँ भी|

उसके काम में माहिर न होने से मेरे मन में उसके लिए कोई हीनता का भाव नहीं आया, सब एक जैसे समझदार, कार्यपटु, वाकपटु नहीं हो सकते| बाकी सबसे मैं पीछे  था और वो भी, मैं हंसा करता  कि हम दोनों एक लेवल के हैं| पहले दिन मुझे जो मानसिक, नैतिक सपोर्ट उसने दी थी उसका मोल मेरे लिए  कम नहीं था|

एक बात मैंने और गौर की, पूरी ब्रांच में सबसे ज्यादा मखौल उसीका उडाया जाता था| बैंक की नौकरी के लायक नहीं है, चुंगी महकमे में ठीक रहता, इतने सालों  से कैश में काम  कर रहा है और कैश नहीं संभालना आता के अलावा  एक डायलोग और बहुत बोला जाता था 'इतने साल हो गए शादी हुए और ......'  और वो चुपचाप मुस्कुराता रहता था, कोई जवाब नहीं देता था| एक दिन मेरी ही कहासुनी हुई, उसके बाद ये आख़िरी वाला डायलोग बंद हुआ|

एक दिन एक स्टाफ सदस्य ने खाना खाते समय एक और खुलासा किया कि पिछले रविवार को उसने अपनी आंखों से देखा है कि दिल्ली बस अड्डे के पास इसकी घरवाली इसका हाथ पकड़कर सड़क पार करवा रही थी| सब हो हो करके हंस दिए और उसकी खूब लानत मलानत करने लगे, 'सुसरे ने नाम डुबो के धर दिया',   'लुगाई इसका हाथ पकडके सड़क पार करवा रही थी',  'शर्म भी नहीं आंदी इसनै', 'और ब्याह कर दिल्ली की छोरी से, न्यूए नचाओगी तन्ने सारी उमर' वगैरह वगैरह और वो वैसे ही खिसियाना सा मुस्कुराता रहा और रोटी खाता रहा|  

बहुत छोटा था, तबसे मैं गांधारी और धृतराष्ट्र के बारे में सोचता था कि क्या नेत्रहीन पति का साथ निभाने के लिए गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर सही किया था? अजब झमेला है, उसने खुद को नेत्रहीन कर लिया तो मुझे ये अस्वाभाविक लगा और एक स्त्री अपने पति का हाथ पकड़कर उसे सड़क पार करवा रही है तो ये सब उसे गलत मान रहे हैं? तब तक शायद मुझे भी ये सब देखने सुनने की आदत हो गई थी या फिर हो सकता है मैं ये समझने लगा  था कि दुनिया ऐसी ही रहेगी और अब ऐसी बातों को इग्नोर करने लगा था| इतना जरूर हुआ कि उसका मखौल बनाने का एक और वाकया सबको मिल गया था|

उस दिन शनिवार था, सुबह बैंक पहुँचते ही वो कहने लगा, "भाई, आज मेरे को साथ लेकर जइयो दिल्ली| तेरी भाभी अपने मायके गई है, मुझे उसको लेकर आना है|"  मुझे भी मौक़ा मिल गया, "तू उसे लेकर आएगा कि वो तुझे लेकर आयेगी?" हंस दिया वो, "बात तो एक ही है पर कहा तो ये ही जाएगा न?"

दोपहर में हमने दिल्ली के लिए बस पकड़ी| वो बस स्टैंड पर बनी कैंटीन से ब्रेड पकौड़े और कोल्ड ड्रिंक्स ले आया था|  रास्ते में उसने अपनी ससुराल का एड्रेस बताते हुए थोड़ा सकुचाते हुए  कहा, "मुझे ऐसी जगह उतरवा दियो भाई, जहां से सड़क पार न करनी पड़े|"  अब मैं फंसा, कहीं भी उतरेगा, सड़क तो उसे पार करनी ही पड़नी थी| आखिरकार  खाए हुए नमक का हक अदा करने को मैं भी उसके साथ उतर गया, हालांकि मुझे साथ उतरते देख उसने मुझे रोकने की बहुत कोशिश भी की|  मैंने उसको सड़क पार करवाई और वो जैसे इतनी सी बात पर बहुत ज्यादा अहसान मानने लगा| मैं भी ऐसा ही कुटिल कि अपनी मदद की कीमत उससे वसूलने  के लिए पूछ बैठा, "सड़क पार करने में तेरे को क्या तकलीफ होती है?"  वो हरदम मुस्कुराते रहने वाला चेहरा अजीब सा हो गया, "मेरी उम्र उस समय शायद पांच या छह साल थी, उस दिन  मेरी माँ और मेरे चाचा वगैरह परिवार के बहुत से लोगों के साथ मैं भी दिल्ली आया था|  ये जो पीछे बड़ा वाला चौराहा गया है न, यहीं सड़क पर मेरे पिताजी की लाश रखी  थी| सुबह ड्यूटी करने घर से आये थे और सड़क पार करते समय कोई बस उन्हें कुचल गई थी|  जब भी दिल्ली में सड़क पार करने का मौक़ा आता है तो भाई, मेरी आँखों के सामने  वो वाला सीन आ जाता है| फिर सब धुंधला दिखने लगता है मुझे|" 

साफ़ लग रहा था कि उस समय मेरा चेहरा भी उसे धुंधला दिख रहा होगा|

दूसरों के द्वारा उसका मजाक बनाए जाने पर और  उसके चुप रहने पर मुझे  बहुत बार गुस्सा आता था, उस दिन और भी ज्यादा आया कि क्यों चुपचाप सुनता रहता था वो सबकी बातें? क्यों नहीं ये बात सबको बता दी थी  बेवकूफ आदमी  ने? लेकिन अब ज्यूं ज्यूं अपनी उम्र बढ़ रही है, समझ आ रहा है कि अपने दुःख इस तरह सबके सामने रोने से ज्यादा हिम्मत का काम है, सहन करना और उससे भी ज्यादा हिम्मत का काम है मुस्कुराते रहना| 

कई महीने पहले की बात है,  एक अति उत्साही युवा इंजीनियर से मुलाक़ात हुई थी और वो किसी मशीन  की बात कर रहा था जोकि फंक्शंस के मामले में  आज तक की सबसे जटिल मशीन है| मैं चाहकर भी  उससे सहमत नहीं हो पा रहा था,  मुझे इंसान सबसे जटिल मशीन लगता है| एक से बढ़कर एक जटिल चरित्र, क्या ख्याल है आपका?

मंगलवार, जून 19, 2012

शीतल दाह ..

ध्यान नहीं गया था तो अलग बात थी, जबसे इस बारे में सोचना शुरू किया तबसे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था| मेरा ख्याल हर अगले पल में और मजबूत होने लगा था| दर्पण के इस इस्तेमाल की तरफ पहले किसी ने क्यों नहीं सोचा? सिर्फ सूरत निहारने के अलावा इसका और भी कुछ इस्तेमाल हो सकता है, क्या इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया? अब मैं खुद को निरीह नहीं मान रहा था, मैं खुद को एक समुराई मानने लगा था| एक ऐसा समुराई जिसके हाथ में तलवार नहीं एक दर्पण होगा| जब कोई अपनी बातों से, तर्कों से मुझे निरूत्तर कर देगा या मुझे लगेगा कि वो मुझसे बेहतर है जोकि यकीनन वो होगा भी, मैं उसकी नजर के  सामने अपना हथियार लहरा दूंगा| उसकी जो भी, जैसी भी कमी होगी, जोकि यकीनन होगी ही,  उसे ठीक अपनी आँखों के सामने नाचती दिखेगी| मैं सिर्फ ये कहूँगा कि दर्पण झूठ नहीं बोलता|  सामने वाले का आत्मविश्वास डगमगाएगा, और उसके दंभ भरे गुब्बारे में पिन चुभ जायेगी| फिर मैं अपने तर्को से, बेशक वो कितने ही भोथरे क्यों न होंगे, उसके परखच्चे उड़ा दूंगा| मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चातुर्य सब मेरी सोच की हिमायत भी कर रहे थे और उसे सान  पर भी चढ़ा रहे थे|  हाँ, मैं सर्वोत्तम, मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ जिसने एक साधारण से दर्पण की सहायता से सभी पर जीत हासिल कर ली| अब मुझे कोई नहीं रोक सकेगा| अपनी वाहवाही खुद भी करूँगा और दूसरों से भी करवाऊंगा| मुझे दर्पण पर बहुत प्यार आ गया और मैं उसे चूमने लगा| मेरी बाहर की आँखें भी बंद थीं और जैसे ही मैंने दर्पण को चूमा, या कहूँ कि खुद को चूमा, मेरे ओंठ जल उठे| बेसाख्ता ही मेरी आँखें खुल गईं और दर्पण में मैंने एक कुत्सित,.वीभत्स चेहरा देखा| कौन है ये? दर्पण ने मुझे बताया कि ये मैं ही था|  और यह भी बताया कि दर्पण झूठ नहीं बोलता| और फिर इतने में ही बस नहीं हो गई, दर्पण ये भी बोला कि उसका इंसान की तरह का धर्म नहीं होता जैसे बन्दूक की गोली का भी नहीं होता|  उसके निशाने पर जो भी आ जाये, वो लिहाज नहीं करती वैसा ही दर्पण के साथ था| मेरे कानों में जैसे लावा गिर रहा था, अंतर तक मैं दाह महसूस करने लगा| मेरा चेहरा अब दर्पण में और भी वीभत्स दिखने लगा था| मैंने दर्पण को जमीन पर पटक दिया और उसके टुकड़े टुकड़े हो गए| न चाहते हुए भी उन टूटी हुई किरचों में मुझे अपने अनगिनत अक्स दिखने लगे थे| मुझे लगने लगा कि ये आवाज दर्पण की नहीं, मेरी आत्मा की थी| अंतर का दाह अब शीतलता की सरिता बन गया था| कुछ देर में विश्वविजय का मेरा ख़्वाब मुझे भूल गया था लेकिन मुझे कोई अफ़सोस नहीं था क्योंकि  दर्पण के उन टूटे हिस्सों में फिर से एक सामान्य चेहरा दिखने लगा था| 
                                                     

शुक्रवार, जून 15, 2012

आकाश में पत्थर

कुछ दिन पहले की बात है, बुद्धू-बक्से पर फिल्म अभिनेता अक्षय खन्ना का इंटरव्यू आ रहा था|  विनोद खन्ना-अक्षय खन्ना और धर्मेन्द्र-सन्नी दयोल ये पिता-पुत्र की वो दो जोडियाँ हैं जो मुझे अच्छी लगती हैं, शायद इसी पसंदगी के चलते उस इंटरव्यू का  थोडा सा हिस्सा देख लिया| एंकर ने सवाल किया, "क्या वजह है कि इतना अच्छा एक्टर होने के बावजूद आप उतने सफल नहीं हुए जितने शाहरुख खान, आमिर खान ....?"  इसका जवाब देते हुए अक्षय थोडा सोचकर बोला, "एक बात बताईये, अगर मैं व्यापार कर रहा हूँ और मेरे पास पांच सात सौ  करोड़ का बिजनेस है| अब  मुझे इसलिए सफल न माना जाए कि मेरी वैल्थ अम्बानी से कम है तो क्या ये ठीक है?"  बात मुझे तो दमदार लगी| सफल होने का पैमाना सबके लिए एक कैसे हो सकता है? अब एंकर महोदया ने फिर से घुमाकर पूछना शुरू किया, "इसकी वजह  क्या ये है कि आप दूसरों की तरह खुद को प्रोमोट नहीं करते? आप अकेले रहना पसंद करते हैं, आप लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं  करते,  आप के बारे में लोग कहते हैं कि आप सोशल नहीं हैं, वगैरह वगैरह|" अक्षय थोडा सा असहज दिखे भी लेकिन हर बात का उन्होंने  बड़े सलीके से  जवाब दिया मसलन दूसरों के खुद को प्रोमोट करने को वो बुरा नहीं मानते, जिसे जैसा पसंद है वो वैसा कर सकता है|  और दूसरी बातों के जवाब में अक्षय ने कहा, "ऐसा नहीं है कि मुझे लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं है, मैं अपने दोस्तों, अपनी  फैमिली और  बहुत से दूसरे लोगों की कंपनी भी बहुत एंजाय करता हूँ| हाँ, लोग अकेलेपन से दूर भागते हैं, मुझे दो दिन, चार दिन, हफ्ता अकेला रहना पड़ेगा तो मैं उसे भी बहुत एंजाय करता हूँ| अपने गार्डन में काम करता हूँ, साईकिल लेकर मैं बाहर निकल जाता हूँ और ये सब करने में मुझे बहुत खुशी मिलती है|"

असली बात ये है कि खुशी के मायने सबके लिए एक जैसे नहीं हो सकते| सबके अपने अपने अनुभव, अपने अपने आग्रह, अपनी अपनी खुशी और अपने अपने गम|  अपनी पसंद है अक्षय खन्ना, ये तो ऊपर बता ही चुका हूँ लेकिन उस इंटरव्यू के बाद पसंदगी का ये ग्राफ और ऊपर उठा|  6-8 pack-ab बेशक न हों, होंठों पर दोनों हाथ रखकर ooooooooooh की सिस्कारियां भरती  छूने छुआने को आतुर फैन्स बेशक न हों, ओछी हरकतों से  मीडिया का ज्यादा ध्यान बेशक न खींचता हो,  ऐसा जरूर  लगा कि एक परिपक्व और सुलझा व्यक्तित्व  है इसके पास| मुझे अक्षय  एक बहुत ही सहज और सरल चरित्र लगा, ये अलग बात है कि दुनियादार लोग ऐसे मामलों को  अजीब या जटिल मानते हैं| लेकिन फिर वही बात सोचता हूँ कि दुनिया ही  सरल लोगों के हिसाब से क्यों चले?

बात पुरस्कारों से  ही संबंधित है, एक पोस्ट पहले लिख ही चुका हूँ| सोचा था अब इस मामले में नहीं लिखूंगा लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता कि सोचा हुआ हो ही जाए| प्लान ये था कि परिकल्पना वाले उस सुझाव या खिंचाईनुमा उस पोस्ट से समझ जायेंगे कि इस बंदे को अभी वैचारिक नसबंदी नहीं करवानी है  और आलसी महाराज के ब्लॉग पर जो परिणाम आया उसकी बिलकुल आशा नहीं थी| वैसे भी परिणाम से ज्यादा निष्कर्ष पर अपना फोकस था|  रुझान वगैरह(कितने तो पाठक और कितने मतदाता? लेकिन फिर भी कहा तो रुझान ही जाएगा न:) ) से इतना तो पता चल गया था कि कुछ ने मेरे ब्लॉग को पसंदीदा माना है लेकिन फाईनली  जो सामने आया उसकी आशा नहीं थी|  मेरे हिसाब से सबसे बड़ा असर  उनके यहाँ प्रयोग किये गए निगेटिव मार्किंग वाले नियम से हुआ, अपन  दो नम्बरी भये|   मुझसे बहुत बहुत अच्छा लिखने वाले इस नियम के चलते सांप-सीढी के खेल की मानिंद सांप के द्वारा(निगेटिव मार्किंग)  काटे  गए होंगे, ऐसा मेरा अनुमान है|

अब राव साहब ने जो करना था कर दिया, शमा ब्लॉग महफ़िल के अन्य शिरकतकारों के सामने आ गई|  आलोचना, प्रत्यालोचना, महालोचना का दौर शुरू हो गया| ये कोई अप्रत्याशित नहीं था, हम भी निस्वार्थ भाव से  ये सब करते ही रहे हैं| ये एक ऐसा कर्म है जिसे निभाना हर जागरूक ब्लोगर का धर्म है| ऐसा मौक़ा कौन सा रोज रोज आता है?  'मत चूके  चौहान' की तरह जिसे जैसे सुविधा लगी, सब अपनी प्रतिक्रया दे रहे हैं| नौटंकी, किट्टी पार्टी, गोलबंदी, मदारी का तमाशा, एलीट- नॉन एलीट ब्लोगर्स   वगैरह कई तरह के नाम इस आयोजन के बाद  दिए जा रहे हैं| ये सब जाहिर करता है कि ब्लॉग जगत अभी सोया नहीं है, प्रतिक्रया व्यक्त करता है| कई सवाल उठाये जा रहे हैं  लेकिन मेरी राय में रायता अभी ढंग से, तरीके से  फैला नहीं है|:)  आज अपने पास टाईम था तो इस विषय पर लगाया, सेलिब्रेट करने का अपना तरीका है ये| आईये देखते हैं कुछ बातें - 

मेरी सबसे पहली आपत्ति तो उन ब्लोगर्स से है जिन्हें राव साहब ने अपने आयोजन में तीसरे और उसके बाद वाले स्थानों पर आया बताया है| इनमें से एक ने भी विरोध नहीं किया, पुनर्मतदान की मांग नहीं की और शरीफाना ढंग से बधाई सधाई देकर खिसक लिए| सच में एलीट लोग हैं ये सारे, जानते नहीं कि शरीफ दिखना आजकल दब्बूपन की निशानी है| अबे धुरंधरों, मेरे से बाद वाले पायदानों में ला खडा किया आप सबको इस राव साहब ने और इसमें आपको फर्जीवाड़ा नहीं दिखा?  'तुमने चुप रहकर सितम और भी ढाया मुझपर, तुमसे अच्छे हैं मेरे हाल पे हंसने वाले|' हमें इत्ती शर्म आ रही थी और आपमें से किसी ने 'ओब्जेक्शन मी लोर्ड' भी नहीं बोला :(

अब बात करते हैं, हँसने वालों की,  ये बंदे अपने को सही लगे|  निगेटिव वोट किसे मिले हैं,  आयोजक ने ये खुलासा नहीं किया इसलिए आलोचना की जा रही है| खुलासा किया जाता तो विवाद खड़ा करने के नाम पर आलोचना कर लेते|  'बुड्ढा मरे या जवान, ह्त्या से है काम'  हम तो आलोचना करेंगे| सोच देखिये कौन सी स्थिति बेहतर होती, निगेटिव वोट प्राप्त ब्लोग्स के नाम बताए जाने वाली या अभी वाली?

एक दूसरी प्रतिक्रिया  कई कमेंट्स में देखी कि 'परिकल्पना सम्मान समारोह' से नाम वापिस ले लिया लेकिन 'आलसी सम्मान समारोह' से नाम वापिस नहीं लिया|  इस आपत्ति विशेष को खुद से जोड कर देख रहा हूँ| ये तो कुछ वैसे ही सवाल हैं कि सामान उस दूकान से क्यूं लिया और इस दूकान से क्यूं नहीं लिया? आज आपने काली पैंट के साथ गुलाबी शर्त क्यूं पहनी, नीली क्यूं नहीं पहनी?    जिस दिन घर में पनीर बना था उस दिन तीन चपाती क्यूं खाईं और जिस दिन लौकी बनी थी उस दिन दो चपाती क्यूं खाईं आपने?  निज विचारों की स्वतंत्रता (जिससे किसी दुसरे का कोई नुकसान न होता हो) के अधिकार के अलावा मेरा एक और स्पष्टीकरण है जो अगले प्वाईंट से और स्पष्ट होगा|

एक अन्य आपत्ति है कि जो पहले परिकल्पना से सम्मान ले चुके हैं, वो अब उसे गाली दे रहे हैं और इधर बहुत ज्यादा उल्लासित दिख रहे हैं| - पहली बात तो गाली किसी ने नहीं दी है, सिर्फ असहमति जताई है, दूसरी बात ये है कि क्या सम्मान इसीलिये दिए गए थे कि भविष्य में मुंह बंद रखा जाएगा? मुझे ब्लोगजगत में आये हुए लगभग ढाई साल हो गए हैं, सुनी-सुनाई की जगह अपने ओब्जर्वेसशंस के आधार पर मेरा अंदाजा था कि यहाँ पुरस्कृत किये जाने का एक hidden effect  ये भी हो सकता है, कुछ अन्य बातों के अलावा ये भी एक वजह थी कि मैंने वहाँ से नाम वापिस लिया था|

अलेक्सा रैंकिंग, ये रैंकिंग, वो रैंकिंग वाले पैमाने पर नापकर बड़ा छोटा देखने की कवायद भी हो रही है| इतनी तरह की रैंकिंग है तो एक ये भी सही|   टेक्निकल जानकारी मुझे न के बराबर है इसलिए इस विषय पर ज्यादा नहीं कहूँगा लेकिन पोस्ट से असंबंधित लेबल्स लगाकर pageviews को मैनेज करने के खेल के बारे में क्या ख्याल है?

आयोजक मदारी और ब्लोगर बन्दर वाली बात पर 'नो कमेंट्स|' कुछ बातों पर चुप्पी से अच्छा कोई जवाब नहीं हो सकता|

इस बहाने कुछ भ्रांतियों पर ध्यान गया हालांकि इन सबका इस आयोजन से कोई लेना देना नहीं है बल्कि आम  जीवन में भी इनका अनुभव करता रहा हूँ, आपने भी जरूर किया होगा| औरों की नहीं, अपने ऊपर लेकर ही बात करता हूँ - मैं किसी बात के होने से खुश हूँ तो इसका शर्तिया मतलब  ये नहीं होगा कि इस बात के न होने से मैं दुखी महसूस कर रहा होउंगा|  किसी के साथ मेरी दोस्ती नहीं है तो इसका इकलौता मतलब ये नहीं है कि मेरी उसके साथ दुश्मनी है ही| सुख-दुःख, लाभ-हानि, दोस्ती-दुश्मनी के बीच एक और बहुत बड़ी जमीन होती है जिसे कभी break-even-point  और कभी no-men's-land  और कभी कभी 'निस्पृहता' भी कहा जाता है|
अगर मेरा ब्लॉग गिरिजेश राव की सूची में शुरू के बीस स्थानों पर भी न आता तो भी मुझे कम से कम  इतनी ही खुशी होनी थी, आपको क्या लगता है तब मैं दुखी होता? या जो  ब्लॉग किसी वजह से पीछे रह गए, वो मेरी पसंद से हट जायेंगे?  इस आयोजन से मुझे और मुझ जैसों को ये लाभ हुआ कि कम सक्रियता,  ज्यादा जगह पर  कमेन्ट न करने वाले लेकिन सार्थक लिखने वाले कुछ नए ब्लोग्स का परिचय मिला और यही इस आयोजन की सकारात्मकता है, मेरे लिए| एक अकेले ने आकाश में पत्थर उछाला है, विरोध करने वाले ऊर्जा ही प्रदान करेंगे|

एक दो किताबें फिर से पढ़ी हैं और उनके बारे में कुछ शेयर करने का मन था लेकिन उस मामले में होमवर्क अभी पूरा नहीं हुआ, फिर कभी सही| यूं भी इंतज़ार करने और करवाने की आदत हो गई है अपुन को, so keep waiting:)

p.s.  -  ये पोस्ट बिना किसी खिन्नता के, बिना किसी क्रोध या  वैमनस्य के बिलकुल सही स्पिरिट और सही तबियत में लिखी गई है इसलिए अपनी असहमति, आपत्ति, नाराजगी, आलोचना या उपदेश  बेझिझक यहाँ या कहीं और प्रकट कर सकते हैं| वर्तनी की गलतियों की तो कोई बात नहीं लेकिन भाषा की मर्यादा बरकरार रखी जा सके तो हमारे, आपके और सबके  लिए अच्छा होगा क्योंकि आपकी  भाषा आपके संस्कारों की, आपकी पारिवारिक, शैक्षणिक पृष्ठभूमि की, आपकी मानसिकता की  झलक दिखलाती है|

       



  

शनिवार, जून 02, 2012

हो रहा निर्माण-उत्थान .....


एक हमारा वैरी बैस्ट फ्रैंड रहा है 'राजा बाबू ', अरे वही जिसका जिक्र पुरानी कई पोस्ट में कर चुका हूँ, शायद याद होगा आपको| बैंक में एक ही साथ भर्ती हुए थे हम और शुरुआती पोस्टिंग एक ही ब्रांच में थी| वो राजस्थान के एक खाते पीते राजपूत परिवार से था और आठवीं कक्षा से ही पढाई के सिलसिले में परिवार से दूर जयपुर में एक कमरा किराए पर लेकर रहता था| शुरू से ही अकेले रहने के कारण लगभग हर क्षेत्र में स्वावलंबी था और चूंकि हम बाईस साल की उम्र में घर से पहली बार अकेले रहने को निकले थे तो तीन चार साल के साथ में बहुत कुछ राजा की बदौलत सीखा| कुछ मामलों में वो हमारा लोहा मानता था और बदले में हम हर मामले में उसका लोहा-लक्कड मानते थे, क्योंकि बाह्य मोर्चे पर शुरू से ही हमारा सिद्धांत रहा है कि 'जियो और जीने दो' 'पियो और पीने दो' वगैरह वगैरह| एक बात और स्पष्ट कर दें कि खाने की जगह पर पीने और पीने देने की बात महज इस सावधानी के चलते कही है कि कहीं अन्ना टीम अपने तोपखाने का मुंह इस वजह से हमारी तरफ न खोल दे| यूं भी आरोप बड़े बड़ों पर लगते और लगवाये जाते हैं और घेरे में आ जाते हैं हम जैसे छुटभैये तो सावधानी बरतने में कोई बुराई नहीं है, वैसे भी आई.पी.एल., आई.पिल्ल का ज़माना है|

राजा की कई बातें उस समय हमें अजीब लगा करती थीं, लेकिन मैंने महसूस किया कि उसकी बातें थोथी बात न होकर तजुर्बों का नतीजा था| खैर ज्यादा ज्ञान झाडने का अपना भी मूड नहीं है एकाध टाईमपास किस्सा सुनाते हैं| सुनने के कोई पैसे नहीं है यारों, तुम्हारा कुछ न बिगडेगा और हमारे ठण्ड पड़ जायेगी| एकाध ऐसा भी है हमारा यार जिसे 'मज़ा सा' भी आ सकता है| 

'कीमत चुकता' में अपने राजा बाबू के जिन मकान मालिक साहब का जिक्र किया था, वे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे| बहुत रौबीला चेहरा था उनका, आवाज भी दमदार थी लेकिन बोलते बहुत गिना चुना थे और हँसते हुए तो कभी दिखे ही नहीं| यहाँ तक कि जब मास्टरनी जी आसपास नहीं होती थी, तब भी नहीं हँसते थे| वैसे देखने में जैसे भी लगते हों, थे बड़े ही सज्जन आदमी| यूं भी रौबदाब वाले लोगों को सज्जन बताना ही पड़ता है, दुनिया का दस्तूर ही यही है| जब भी छुट्टी वाले दिन उनके घर जाना होता था तो हर बार कहते थे कि 'का संजय जी, कछु पहले नहीं आ सकते थे? अभी हाल कलेवा करके हटे हैं हम, पहले आ जाते यार थोड़ा सा?' पहली बार सुना तो मुझे लगा कि शायद उनका मतलब ये है कि मैं समय से पहुँच जाता तो मेरा ही कलेवा कर जाते, जो न कर पाने का अफसोस व्यक्त कर रहे हैं| फिर कहते, "चलो कोइ बात नहीं, फिर कभी सही|' हम भी सत्वचन कहकर उस घड़ी को टाल देते| ये डायलाग हर छुट्टी वाले दिन दोहराए जाते, और उसके बाद जम जाते हम लोग बावन पत्ते के खेल में| हम सब चहकते रहते और मास्साब चुपचाप खेलते रहते| नाक के किनारे तक आये चश्मे के ऊपर से झांकती उनकी आँखें हम सबका गहन निरीक्षण करती रहती और हमें हमेशा कन्हैयालाल की याद आ जाती| | 

एक दिन सीप खेल रहे थे और पत्ते बांटे गए| पत्ते मैंने ही बांटे थे और उस दिन कितनी ही देर तक वो मुझे चश्मे के ऊपर से बहुत कहर भरी नजरों से देखते रहे, तो कुछ अजीब सा लग रहा था| जब उनकी बारी आयी तो फिर वही काम, पत्ते देखें और मुझे देखें, फिर से पत्ते देखें और मुझे देखें| काफी देर तक ऐसा चलता रहा तो मैंने कहा, 'चलिए मास्साब, चाल चलिए |' बहुत कम बोलने वाले मास्साब ने फिर वही क्रिया दोहराई, मैंने फिर से कहा तो गुस्से में, खीझ में अपनी रौबीली आवाज में बोले, "खेलें क्या, घंटा? ये पत्ते दिए हैं?" कहकर सबके सामने अपने पत्ते पलट दिए, वाकई सब पत्ते आठ या आठ से नीचे नीचे के थे| जो नहीं जानते हैं, उन्हें बता दें कि सीप एक ऐसा खेल है जिसमें नौ या नौ से बडे पत्ते का ही घर बनाया जाता है| उनका स्टाईल से कहा गया 'घंटा' शब्द घंटा, दिन, महीना नहीं सारी उम्र हम दोस्तों को याद रहेगा| उस समय के मौजूद दोस्तों से अब भी कभी बात मुलाक़ात होती है तो एकाध बार 'रुक यार' 'बैठ यार' कहने पर दूसरा बन्दा मास्टर साहब को और उनके स्टाईल को दोहरा कर वो वक्त याद कर ही लेते हैं, 'रुकें क्या, ...?  बैठें क्या, ....?'|

आज ऑफिस में एक महिला ग्राहक बैंक के काम से आई थी| मेरे साथ वाली सीट पर बैठे सहकर्मी से कुछ पूछ रही थी और काम में व्यस्त मेरा वो सहकर्मी उसे बोला, "कैशियर से पूछ लीजिए|" पहनावे, बोलचाल से हाई सोसाईटी प्रोफाईल दिखने वाली महिला बोली, "कैशियर इस बारे में क्या बतायेगा, घंटा? आप अभी आये हैं यहाँ , मैं जानती हूँ उसे|" सहकर्मी मुंह और नीचे करके काम में और ज्यादा व्यस्त हो गए और मैं? मैं तो खैर वाश रूम में चला गया था, शूगर चैक करवानी ही होगी :(

कई घंटे बीत चुके उस बात को, तबसे राजा की बातें याद आने लगी है| एक और बात वो कहा करता था कि शादी के बाद जैसे जैसे वक्त गुजरता जाता है पति पत्नी की आदतें, व्यवहार आपस में और ज्यादा, और ज्यादा मिलता जाता है| और तो और, शक्ल भी मिलने लगती है और बुढापा आते आते बहुत से पति पत्नी देखने में भाई-बहन लगने लगते हैं| उस समय ये बात सुनकर अजीब सा लगता था,  मजाक भी लगता था और वितृष्णा भी होती थी लेकिन बाद में देखा तो कई मामलों में वाकई ऐसा होता दिखता है| वजह सोचता हूँ तो यही लगता है कि जितना ज्यादा हम किसी के साथ संपर्क में रहते हैं, उतना ही उससे प्रभावित होते और उसे प्रभावित करते हैं फिर चाहे दो इंसान हों या दो संस्कृतियाँ, दो मजहब हों या दो राजनीतिक पार्टियां|  अगर जीवंत हैं तो शायद ऐसा होता ही होगा फिर रिश्ता चाहे कोई भी हो, व्यक्तिगत स्तर पर यह जल्दी दिखने लगता है लेकिन समष्टि स्तर पर धीरे धीरे|  अबके राजा से मिलूँगा तो उसकी एक्सपर्ट राय लूँगा इस मामले पर और उसे आज की बात भी बताऊँगा| खूब हँसेंगे हम दोनों और शायद गाना भी गायें, 'हो रहा भारत उत्थान, हो रहा भारत निर्माण'

शोले में वीरू इत्ता सीरियस होकर जय से बोलता है, "यार जय, मैंने कुछ सोचा है|" जय कहता है, "हाँ भाई, कभी कभी ये काम भी करना चाहिए|" तो जी हमने सोचा कि अपनी पसंद के फ़िल्मी गाने तो कई सुनवा चुके, आज कुछ और दिखाते हैं यूट्यूब के सौजन्य से - बोडी लैंग्वेज क्या कहती है? वीडियो पुराना है, उसके बाद से तो जमुना में और भी कीचड हो चुका है, वो क्या कहते हैं 'much water has flown in the river' :)