मंगलवार, जुलाई 01, 2014

झाड़ू-नमक

मेरे बाँये पैर के अंगूठे के ठीक ऊपर एक मस्सा था जो जन्म से नहीं था बल्कि मेरे कुछ बड़े हो जाने के बाद हुआ था। हालाँकि वो मस्सा आकार में चने के बराबर था लेकिन पैर के अंगूठे पर होने के कारण एकदम से सबका ध्यान नहीं जाता था।  उन्हीं दिनों मेरी गर्दन और छाती पर छोटे छोटे तिल-मस्से निकल आये। परिजनों का ध्यान जाता तो मुझे कहा जाता कि किसी डाक्टर वगैरह को दिखाओ। मैं यही मानता था कि कोई हार्मोन कम ज्यादा होने से ऐसा हो गया होगा, सीरियसली नहीं लिया।

ऐसे ही एक बार रिश्ते के एक भैया  ने इस पर गौर किया और मेरी अच्छे से क्लास लगाई। उन्होंने अपना किस्सा बताया कि उनकी गर्दन पर भी इसी तरह बहुत से मस्से हो गये थे और नौबत ये आ गई थी कि शेविंग करते समय टॉवल खून से सन जाया करता था। बताने लगे कि उन्होंने इसीलिये दाढ़ी रखी थी। हालाँकि जब हमारी बात चल रही थी उस समय वो इस समस्या से मुक्ति पा चुके थे। उनका खुद का आजमाया हुआ आसान सा तरीका उन्होंने मुझे भी बताया, "सहारनपुर में नौ गज़ा पीर की मजार पर एक बार झाड़ू और नमक चढ़ाया जायेगा और ठीक होने पर एक बार फ़िर से यही चढ़ाने की मन्नत माँगी जायेगी, कुछ ही दिनों में तिल और मस्से खुद झड़कर गिर जायेंगे। प्रत्यक्ष प्रमाण तुम्हारे सामने मैं खुद खड़ा हूँ।" चूँकि वो आयु में और रिश्ते में मुझसे बड़े थे और मेरी परवाह भी करते थे, उनकी डाँट मैंने गंभीरता से सुनी। हमेशा की तरह इस बार भी इरादा भी सिर्फ़ सुनने का ही था लेकिन शायद वो भी मेरी भावना समझ गये और सिर्फ़ भाषण और परामर्श देकर चुप नहीं बैठ गये बल्कि एक पारिवारिक एकत्रीकरण में सबके सामने वही आजमाया हुआ नुस्खा क्रियान्वयित करने का आदेश पारित करवा करके माने। पारिवारिक पंचायत के सामने मुझे भी झुकना पड़ा कि जब भी सहारनपुर जाना हुआ. ये काम यकीनन निबटाया जायेगा।

सहारनपुर शहर से बाहर निकलते ही ’नौगजा पीर की मजार’ के नाम से एक स्थल है। विशेषतौर पर जुमेरात को माथा टेकने वालों की खासी भीड़ वहाँ होती है और स्वाभाविक रूप से लगभग सभी हिन्दु मतावलंबी होते हैं।  इस स्थल की मुख्य मान्यता वही है जो ऊपर लिखी, ’अवांछित तिल/मस्सों का सूखकर झड़ जाना।’ बाई-प्रोडक्ट्स के रूप में हिन्दु-मुस्लिम एकता, गंगा जमुनी तहज़ीब वगैरह मुलम्मे तो हैं ही। कुछ दिनों के बाद सहारनपुर जाना हुआ तो हम भी रास्ते का आईडिया लेकर गये और अनमने ढंग से नमक-झाड़ू की रस्म अदायगी कर दी गई। ये किसी धार्मिक मजार की अपनी पहली और आखिरी विज़िट थी।

जब तब मुलाकात होने पर भैया द्वारा मेरी गर्दन और आसपास के इलाके का मुआयना किया जाता। चूँकि पूछे जाने पर मैंने कहा था कि मैं वहाँ हो आया हूँ और झाड़ू-नमक भी चढ़ा आया हूँ तो मुझ पर झूठ बोलने का आरोप तो भैया ने नहीं लगाया लेकिन अंतत: घोषित कर दिया कि मैंने वहाँ सच्चे दिल से मन्नत नहीं माँगी होगी। 

उस विज़िट के दस-बारह साल बाद सन २००७ के एक दिन सर्जन ने दस मिनट के एक ऑपरेशन में मेरे अंगूठे का वो मस्सा काट दिया। 

ज्ञानचक्षु अपने अब भी नहीं खुले, आज से पन्द्रह साल पहले उस समय तो खैर क्या ही खुले होने थे। उस समय अपनी सोच ये थे कि पीर ही सही लेकिन जिसे नौ गजा बताया जा रहा है, उसी अनुपात में उसकी शक्तियाँ बखानी जा रही होंगी। अपने को ज्यादा अजीब सा तब लगा जब पंजाब जाते समय अंबाला के पास भी इसी नाम की एक मजार देखी।  हम तो एक पीरजी के कद को लेकर ही गणित लगा रहे थे और ये दूसरे भी? एक ही बंदे की बेशक वो पीर ही क्यूँ न हो, दो जगह मजार कैसे? और अगर अलग अलग पीरों की मजार है तो ऐसे और कितने होंगे?  हालाँकि बाद में कुछ सूचनावर्धन अवश्य हुआ। जो दिखता है, वही संपूर्ण सत्य नहीं है बल्कि नेपथ्य में बहुत कुछ है। नेट पर देखा तो पाया कि अकेले भारत में ऐसी एक दो नहीं बल्कि हजारों मजारें हैं। 




कुछ दिन से शिर्दी वाले साईं बाबा के बारे में भी कई चर्चे हैं। लोग आक्रामक रूप से पक्ष में हैं या विपक्ष में, वहीं कुछ (बहुत से) लोग किंकर्तव्यमूढ़ से हैं। एक मित्र का फ़ोन आया और वो इस मुद्दे पर मेरी राय जानना चाह रहे थे। उस समय तो टाल दिया लेकिन  मैं क्या राय दे सकता हूँ? इतना जरूर है कि बहुत सी बातें सोचने विचारने वाली  हैं। घटनाओं का पैटर्न देखिये, प्रभाव देखिये।  व्यक्तिगत संबंधों में दिल और दिमाग में दिल को वरीयता देना बहुत बार त्याग का सूचक होता है लेकिन जब किसी गतिविधि का प्रभावक्षेत्र व्यष्टि से समष्टि की तरफ़ होता हो तो अपने दिमाग को कुछ कष्ट देना चाहिये।  दूसरों की राय पर आँख मूँदकर न चलें, सोच विचार कर खुद निर्णय लें। 

मैं किसी धार्मिक पीठ पर विराजमान कोई शख्सियत होता तो निश्चित ही इस बात का विरोध कर रहा होता कि सनातन धर्म पर ये छद्म आक्रमण बंद हों और माँग करता कि किसी दूसरे धर्म वाले को पिछले दरवाजे से मेरे भगवान से बड़ा दिखाना बंद किया जाये।

मैं कोई राजनेता होता तो शायद इस बात का विरोध कर रहा होता कि मेरी आस्था पर चोट किया जाना बंद हो। मेरी त्वरित इच्छापूर्ति की गारंटी या आत्मतुष्टि जिससे मिले मैं वो करने को स्वतंत्र बता रहा होता बेशक मेरा वो कदम राष्ट्र हित को खतरे में डाल रहा हो।

मैं भी व्यावहारिक सा फ़ैशनेबल मनुष्य होता तो जिधर भीड़ जाती दिखे, उधर मुँह उठाकर चल देता।

लेकिन मैं ये सब नहीं हूँ, हो भी नहीं सकता।  

आज अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुये अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले अमर शहीद अब्दुल हमीद का जन्मदिवस है, उन्हें सादर श्रद्धाँजलि।