गुरुवार, मई 07, 2020

उतने पाँव पसारिये.....

उन दिनों बिजली की आपूर्ति बहुत अनियमित थी, सार्वजनिक उपक्रम के हाथों में थी। घर में छोटे बच्चे भी थे, आवाज उठी कि इन्वर्टर होना चाहिए। क्रय के मामलों में मैं था निपट अनाड़ी, मेरा एक प्रिय मित्र इनमें विशेषज्ञ था तो उससे बात छेड़ी। उसने बताया कि उसने भी इसी सप्ताह नया इन्वर्टर लिया है। साथ ही यह भी बताया कि जिस विक्रेता से इन्वर्टर क्रय किया है, उसने बिना ब्याज और/या किसी अतिरिक्त कीमत के ही छह मासिक किस्तों में इन्वर्टर दिया है क्योंकि बातचीत करते समय वो लोग एक ही कॉलेज के सीनियर-जूनियर निकल आए थे। मेरा वह मित्र वैसे भी बहुत सुदर्शन व्यक्तित्व का स्वामी रहा तो पहली भेंट में ही लोग उसके व्यवहार से प्रभावित होते मैंने स्वयं देखे थे, इसलिए इस सुविधा के मिलने पर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मित्र ने उत्साहित होते हुए मुझे भी कन्विंस किया कि जब कोई अतिरिक्त कीमत नहीं चुकाई जानी है तो एक साथ भुगतान करने की अपेक्षा मुझे भी ऐसे ही छह किस्तों में भुगतान की सुविधा लेनी चाहिए।
सारी पटकथा सैट होने के बाद अब बिल्ली के गले घण्टी बाँधने की वेला आ गई थी।
घर के मुखिया पिताजी थे, उनसे बात आरम्भ हुई। 
"आजकल बिजली बहुत जा रही है, गर्मी में छोटे बच्चों को रातभर परेशानी होती है।"
"हाँ, क्या कर सकते हैं?"
"बैटरी वाले इन्वर्टर मिलते हैं, पंखे वगैरह को आठ-दस घण्टे का बैकअप मिल जाता है। लाईट जाते ही ऑटोमैटिक इन्वर्टर पर शिफ्ट हो जाते हैं, सोच रहा था कि हम भी ले लेते हैं।"
"ले लो। कितने का आता है?"
"पन्द्रह हजार के आसपास आएगा।"
"ठीक है। हैं पैसे?"
"पैसों का तो हो जाएगा, पहले तो आपकी परमीशन ही लेनी थी। वो सुनील है न, उसने भी इसी सप्ताह नया इन्वर्टर लिया है। ढाई हजार कैश और हर महीने ढाई हजार के हिसाब से पाँच चैक लिए हैं दुकानदार ने, कह रहा था कि मेरा भी ऐसे ही करवा देगा।"
"ऐसे कोई कैसे उधार पर दे देता है?"
"सबको नहीं देते हैं। सुनील के घर भी दुकानदार ने अपना लड़का भेजा था, वो आकर घर देख गया। बल्कि जो लड़का आया था, वो सुनील का घर देखकर बहुत इम्प्रेस्ड भी था।"
"हम्म, जो लड़का यह देखने आया था कि यह बन्दा उधार लायक है या नहीं, उसकी खुद की तनख्वाह कितनी होगी तेरे ख्याल से?"
अब मैं कुछ सोच में पड़ गया, "मिलते होंगे डेढ़-दो हजार उसे, हमें क्या मतलब?"
अब आया क्लाइमैक्स, "भैंचो डेढ़-दो हजार महीने के लेने वाला यह वेरीफाई करने हमारे भी घर आएगा कि हम उधार के लायक हैं या नहीं। ऐसा है, पैसे हैं तो इन्वर्टर खरीद लो नहीं तो चुपचाप बैठ जाओ।"
कुछ देर हम दोनों चुपचाप बैठे रहे। फिर पिताजी बोले, "चल जा, मेरी चेकबुक ले आ।"
"नहीं, पैसे तो हैं मेरे पास। तभी तो खरीदने को तैयार हुआ था, सुनील से तो आज ही बात हुई तब उसने छह महीने वाली बात बताई। हाँ, सुनकर मैं भी थोड़ा लालच में जरूर पड़ गया था क्योंकि इसमें कोई नुकसान नहीं दिखा था।"
"देख ले, पैसे नहीं हैं तो मेरे बैंक खाते से निकाल ले। छोटे बच्चों को बिजली के कारण परेशानी तो होती होगी।"
"न, हैं अभी मेरे पास। जरूरत होगी तो आपसे ले लूँगा।"
"ठीक है। कैश मीमो मेरे को चैक करवाईयो।"
"अच्छा जी।"
अगले दिन इन्वर्टर आ गया। कैश मीमो चैक करवाने गया, उन्होंने देखी भी नहीं और सम्भाल कर रखने के लिए कह दिया। 
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एक समय था जब उधार लेने के नाम पर ही मध्यमवर्गीय लोग उछल पड़ते थे जैसे करंट लगा हो। जब तक अपरिहार्य न हो जाए, उधार लेने की अपेक्षा अपनी आवश्यकताएं सीमित कर लेना प्राथमिकता हुआ करती थी। 'पैर उतने ही पसारने चाहिएं, जितनी चादर हो' - पिछली पीढी तक यह भौतिक जीवन का मंत्र था।
यद्यपि मैंने ऊपर जो लिखा, वह एक बहुत सामान्य घटना है। सामान्य लेकिन सरल नहीं, अपितु बहुत जटिल। कम से कम मेरे लिए बहुत जटिल, जिसकी स्वयं की आजीविका भी इस अंधी दौड़ पर निर्भर करती है।
मैं स्वयं यह भी कह रहा हूँ कि प्रत्येक काल में इसे प्रासंगिक नहीं मान सकते। समय परिवर्तनशील है, विलासिता की वस्तुएं धीरे-धीरे आवश्यकता बन जाती हैं। 
जो देखा है, उसके आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि सुख पाने के चक्कर में हम अनजाने में दुख को भी न्यौता दे रहे होते हैं। 
आवश्यकताएं आज भी बहुत कम हैं पर ये दिल मांगे मोर कि कर लो दुनिया मुट्ठी में ....
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 निशांत भाई की फेसबुक पोस्ट ने यह सब लिखवा दिया☺️

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