शुक्रवार, जून 26, 2020

कोरोना काल की डायरी

लॉकडाऊन काल के मेरे अनुभव तो अच्छे ही रहे, विशेषरूप से लॉकडाऊन १ और २ के। वेतन नियत समय पर और बिना कटौती के मिलना तय था तो आर्थिक रूप से कोई प्रत्यक्ष हानि नहीं हुई, अप्रत्यक्ष लाभ ही हुआ होगा। आवश्यक सेवाओं के अंतर्गत आते हैं इसलिए घर से निकलना पड़ता था और मेट्रो सेवाएं बन्द थी तो अपने दुपहिया पर जाना होगा, यह सोचकर कष्ट था किन्तु सीमित ट्रैफिक और सिग्नलरहित सड़कों के कारण आनन्द ही रहा। पुलिस कर्मियों की डण्डेबाजी भी नहीं झेलनी पड़ी, रोके जाने पर सभ्यता से आईकार्ड दिखाने से ही काम चल गया यद्यपि ऐसी स्थिति भी दो-चार बार ही आई। समय के सदुपयोग की बात की जाए तो महाभारत का प्रथम खण्ड पिछले वर्ष पढ़ना आरम्भ किया था, कतिपय कारणों से वह बाधित था, उसे सम्पन्न करने का मन बनाया। पिछले अनुभव से नियमित न रहने को लेकर कुछ शंकित अवश्य था। लक्ष्य बनाया कि भले ही कम पढ़ा जाए लेकिन नियमित रूप से दो से तीन पृष्ठ भी प्रतिदिन पढ़ पाया तो २०२० में यह सम्पन्न हो जाएगा। मई समाप्त होते तक  उस स्थिति तक पहुँच गया कि बचे हुए दिनों में यदि दस पृष्ठ प्रतिदिन पढ़ सका तो लक्ष्य  जून 2020 तक प्राप्त हो सकेगा। आरम्भ में प्रतिदिन के 3 पृष्ठ भारी लग रहे थे, अब दस पृष्ठ तक achievable लग रहे थे। 
अब एक अन्य बात पर ध्यान गया, यदि यह खण्ड पढ़ लिया तो उसके बाद? द्वितीय खण्ड उपलब्ध नहीं है, यदि उसकी प्राप्ति में समय लग गया तो बना हुआ momentum समाप्त होने की आशंका आदि आदि..... ऐसे समय में संकटमोचक रहते हैं 'छोटे पण्डित', काम बता भर दो और काम उसका हो जाता है। कोरोनाकाल की एकमात्र अड्डेबाजी में यह बात छेड़ी, उसने लपक ली। इसी बीच 'लालबाबू' बोले कि ऑनलाइन भी मंगवा सकते हैं। एक रविवार को मैंने चैक किया तो पाया कि वास्तव में गीताप्रेस की online पुस्तक सेवा है। ऑर्डर कर दिया, पेमेंट भी कर दी। अगले दिन कन्फर्मेशन के लिए फोन किया(मेरे लिए दुनिया के कठिनतम कार्यों में से एक) तो पता चला कि जो सज्जन यह सब देखते हैं वो अगले दिन आएंगे, वाराणसी में वहाँ भी 'आज मैं तो हरि नहीं, कल हरि होंगे मैं नांय' अर्थात alternate day duty सिस्टम चल रहा है। अगले दिन हरि ने कन्फर्म किया कि पेमेंट प्राप्त हो गई है और पैकेज तैयार है। अब लोचा यह आया कि दिल्ली के लिए डाकविभाग 30 जून तक स्पीडपोस्ट/रजिस्टर्ड पोस्ट स्वीकार नहीं कर रहा। मैंने अपना लॉजिक दिया कि प्रथम खण्ड समाप्त होने के पूर्व मुझे द्वितीय खण्ड क्यों चाहिए। सामने से विकल्प दिया गया कि कुरियर से भेज सकते हैं लेकिन वो महंगा पड़ेगा। डाक विभाग जो कार्य ₹80/- में करता, निजी कुरियर उसके लिए कम से कम ₹200/- अतिरिक्त लेगा।  "भेजिए, मैं अतिरिक्त राशि ट्रांसफर कर रहा हूँ।"
अगले दिन हरिजी ने कुरियर की रसीद व्हाट्सएप्प कर दी। चार-पाँच दिन और व्यतीत हो गए, कुरियर नहीं आया। अब अपने तुरुप के पत्ते 'बाबा' को गुहार लगाई गई कि किसी चेले को कुरियर ऑफिस भेजकर पता करवाएं, उन्ने अगले दिन का आश्वासन दे दिया। तभी कुरियर वाले का फोन आ गया कि लोकेशन बताईये, आपका कुरियर आया है। 
सार यह है कि आज छब्बीस जून २०२० है और प्रथम खण्ड सम्पन्न हो गया है। लॉकडाऊन तेरी सदा ही जय हो।
#कोरोना_डायरी

बुधवार, जून 10, 2020

समय का फेर

लगभग दस वर्ष किराए के मकानों में रहना पड़ा, कुल 5 मकानमालिक मिले। ऐसा नहीं हुआ कि इनमें से किसी मकानमालिक से मतभेद के चलते एक रात्रि भी उस मकान में बितानी पड़ी हो। एक के साथ ऐसी स्थिति बनी भी तो दो घण्टे में रूम बदल लिया था। हुआ यूँ था कि मेरा एक मित्र अस्थाई ट्रांसफर पर अपने गृहस्थान में एक लम्बा काल बिताकर एक सुबह अचानक मेरे रूम पर प्रकट हुआ, "वापिस आ गया। नया मकान मिलने तक यहाँ रुक सकता हूँ न?" पूछने वाले ने अपने तरीके से सूचना ही दी थी। मैं उन दिनों अकेला रहता था और उसे उसे अपनी पत्नीश्री को भी लाना था, तो उनके लिए मकान देखने में हमें कुछ अधिक सेलेक्टिव भी होना पड़ रहा था।
मेरे मकानमालिक के पूरे परिवार से अपने सम्बन्ध अच्छे थे लेकिन प्रोटोकाल को लेकर मैं असावधान नहीं रहता था, मैंने भी मकानमालिक को यह सूचना दे दी। उनकी ओर से लेशमात्र भी ऑब्जेक्शन नहीं हुआ। अब हुआ यूँ कि हमारे उस मित्र को संयोगवश उन दिनों बहुत जुकाम लगा हुआ था। कुछ उसका भयंकर जुकाम, कुछ मकान ढूंढने में हमारे अतिरिक्त पैमाने और कुछ यह आश्वस्ति कि कुछ दिन अतिरिक्त लग भी गए तो हम सड़क पर नहीं हैं, इस सबमें सप्ताह भर लग गया। एक दिन ऑफिस से लौटे तो मकानमालिक के बड़े लड़के ने मुझे बुलाया कि चलो कुछ दूर टहल कर आते हैं, बहुत दिन हुए हमारी चर्चा भी नहीं हुई। वह अच्छा पढ़ा-लिखा अधिकारी आदमी था, विभिन्न विषयों पर उससे चर्चा हुआ भी करती थी। मेरे मित्र के बारे में उसने बोला कि इनकी तबीयत ठीक नहीं लगती, ये आराम कर लें। 
हम निकल लिए। उस दिन वो कुछ असहज था। कुछ देर बाद मेरे मित्र का नाम लेकर बोला, "उसे बहुत भयंकर जुकाम लगा हुआ है। कोई गम्भीर बीमारी है?"
मैंने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है, जुकाम है तो जाने में समय लगता ही है। फिर घर से बाहर रहते हैं तो घर जैसी केयर भी नहीं मिल पा रही होगी।
कुछ देर चुप रहकर वो बोला, "यह छूत की बीमारी जैसा होता है, आपको भी रिस्क है।"
मैंने बात टाली कि ऐसा कुछ नहीं है।
उसने कई प्रकार से समझाया कि मित्रता आदि अपने स्थान पर ठीक है लेकिन इस कारण मुझे स्वयं को खतरे में न डालते हुए उस मित्र को कहीं और शिफ्ट कर देना चाहिए। मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसके स्थान पर मैं अस्वस्थ होता तो मेरा वो मित्र मुझे नहीं छोड़ता, मैं भी अस्वस्थ होने का रिस्क लेकर भी उसे कभी बाहर नहीं करूँगा।
वो चलते-चलते रुक गया, बोला, "रिस्क आपको भी लेना नहीं चाहिए लेकिन मैं समझा ही सकता था। तो अब ऐसे सुनो कि मैं मेरे व मेरे घर के सदस्यों के लिए रिस्क नहीं ले सकता। अब?"
मैंने कहा, "अब? वापिस चलते हैं।"
दोनों चुपचाप लौट आए। घर पर गेट खोलकर जब वो अंदर जाने लगा, मैंने कहा, "भाईसाहब, आज रात से आप व आपके परिजन हमारी ओर से रिस्कफ्री होंगे।"
दो घण्टे में पूरी मण्डली ने टीन-टप्पर ढो-ढाकर नए अड्डे में जा टिकाया। यहाँ अकेले थे, नए अड्डे में पूरी मण्डली पुनः जुड़ गई।
कुछ घटनाओं में मैं किसी एक पक्ष को ठीक या गलत नहीं सिद्ध कर पाता, सभी पक्ष ठीक ही लगते हैं। यह भी ऐसी ही घटना रही। पूर्व मकानमालिक और उनका लड़का बाद में भी यदाकदा मिलते थे, बात होती थी और हम हँस देते थे। वो भी कहता था कि अपनी अपनी जगह हम दोनों ही ठीक थे, और मैं पहले से ही यह मानता था☺️
वही मित्र आज ऑडिट के चक्कर में अपने गृहस्थान से हमारे ऑफिस वाली बिल्डिंग में आया था। संयोगवश जिन सीनियर के साथ आया था, वो हम दोनों के कॉमन मित्र रहे हैं। वही सीनियर मुझे मिलने आए तो उन्होंने बताया कि अमुक भी आया हुआ है। आज भेंट होती तो सम्भवतः चौबीस वर्ष बाद आमने-सामने मिलते, एक ही बिल्डिंग में अलग-अलग मंजिल पर बैठे रहे। कोरोना, दूसरे शहर से आने के प्रोटोकॉल, पहले से परिपक्व हो गए हम☺️ फोन पर बात हुई तो हँसते हुए कल मिलने का तय हुआ है। अपनी-अपनी जगह सब ठीक हैं।
ऐसी बातों के लिए भी कोरोना काल याद रहेगा।☺️