बुधवार, नवंबर 28, 2012

ये बात तो सही है...

"आपने सिगरेट पीना छोड़ा नहीं न अब तक? ये अच्छी चीज नहीं है, आपसे कितनी बार तो कह चुका हूँ।" कश्यप बोला।

"अरे यार, दिमाग खराब मत कर। है तो यहीं हापुड़ का और आप-आप कहकर बात करता है जैसे लखनऊ की पैदाइश हो तेरी।   बराबर के दोस्त और फ़िर एक ही बेल्ट के बंदों से आप-जनाब वाली भाषा अपने से होती नहीं।  फ़िर पैस्सिव स्मोकिंग से इतनी परेशानी है तो आने से पहले टेलीग्राम भेज दिया कर, हम कमरे से बाहर ही मिल लिया करेंगे। अब काम की बात बता, क्यों आया है?"

"नाराज हो जाते हो। पहले एक बात बताओ, मैं सिगरेट के लिये मना करता हूँ तो इसमें मेरा क्या फ़ायदा है? मैं तो दस बीस दिन में एक बार मिलता हूँ,  अब तो वैसे भी...।  छोड़ दोगे तो खुद का ही फ़ायदा होगा न?"

"हाँ यार, ये बात तो सही है।"

"गुड। अब बताता हूँ कि क्यों आया हूँ। मेरा सेलेक्शन स्टेट बैंक पी.ओ. में हो गया है। अगले ही सप्ताह ज्वायनिंग है लेकिन उन्होंने कहा है कि पिछले एम्प्लायर से सैटिस्फ़ैक्शन लेटर लेकर जाना होगा। ब्रांच मैनेजर कहता है कि अब फ़ँसा हूँ मैं उसके पंजे में, अभी पिछली बात भूला नहीं है।"

अब  पिछली बात आप भला  क्या जानें? लेकिन, मैं हूँ न। बस थोड़ा पीछे चलिये मेरे साथ। एक ही बैच के थे हम, फ़ाईनल पोस्टिंग अलग अलग जगह हुई थी। मैं प्रशासनिक कार्यालय में और वो एक ग्रामीण शाखा में। हम यारी दोस्ती में उलझ गये, उसका शुरू से ही सपना था कि प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनना है। वो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में उलझा रहता था। न दोस्ती, न फ़ालतू की बातें और न फ़ालतू के शौक। ब्रांच में काम के मामले में अक्सर ब्रांच मैनेजर से उसकी  कहासुनी हो जाती थी। उसका कहना था कि उसे दूसरी परीक्षायें पास करनी हैं तो काम का लोड न डाला जाये, ब्रांच मैनेजर का यह कहना होता था कि आप यहाँ तन्ख्वाह ले रहे हो तो काम करना ही पड़ेगा।  हम प्रशासनिक कार्यालय में थे तो खबरें मिलती ही रहती थीं।  ऐसे ही एक बार कुछ कहासुनी हुई तो भावुक होकर उसने सुसाईड करने की बात कह दी।  घोटालों के अलावा भी दफ़्तरों में बहुत कुछ होता है, उनसे प्राय:  पब्लिक अनभिज्ञ रहती है।

जिस दिन यह बात हुई थी, उस रात हमेशा की तरह उसके दूसरे दो साथी अपने कमरे में  इंतजार कर रहे थे कि कश्यप आये और फ़िर वो लोग उस गाँव के एकमात्र भोजनालय में रात का खाना खाने जायें। वो नहीं आया तो उन्होंने सोचा कि शायद सो गया होगा, हम ही उसे आवाज लगा लेंगे। उसके रूम पर गये तो दरवाजा बाहर से बंद था हालाँकि ताला नहीं लगा था। कश्यप के मकान मालिक जो कि बाहर ही कुर्सी पर बैठे थे, उन्होंने बताया कि वो अभी अभी रेलवे लाईन की तरफ़ गया है। सुनते ही दोनों साथी रेलवे लाईन की तरफ़ भाग लिये।  रेलवे स्टेशन के विपरीत दिशा में एकाध किलोमीटर दूर पटरी पर लेटे हुये कश्यप को वो दोनों लगभग घसीटते हुये, गालियाँ देते-खाते  कमरे पर लाये।

इस बीच मकानमालिक साहब भी गाँव में ही किरायेदार के तौर पर रह रहे ब्रांच मैनेजर को बुला लाये थे। कमरे में मेज पर एक चिट्ठी रखी थी जिसमें ब्रांच मैनेजर साहब का स्तुतिगान कर रखा था। बताते हैं कि सबसे अजीब हालत उन्हीं साहब की थी, एक पल में शुक्र मनाते थे कि ये भी बच गया और वो भी बच गये और दूसरे ही पल इसको सबक सिखाने की बात करते थे। अगले दिन उनके प्रशासनिक कार्यालय पहुँचने से पहले ही फ़ोन पर सब किस्सा हम तक पहुँच गया था। उधर रात को ही फ़ोन पर कश्यप के दोस्तों ने उसकी माताजी को सूचना देकर हैड ओफ़िस पहुंचने के लिये कह दिया था। दिन भर खासी गहमागहमी रही और मामला कहीं दर्ज होने की बजाय सुसाईड नोट और फ़िर उसका एक काऊंटर माफ़ीनामा लिखवाकर और पंचों के हस्ताक्षर करवाकर सुरक्षित हाथों में सौंप दिया गया। दुनिया, देश, बैंक, ब्रांच और जिन्दगी फ़िर से डगर-मगर चलने लगे।

ये थी पिछली बहुत सी बातों में से फ़िलहाल मतलब की बात, ब्रांच मैनेजर साहब के पैर के नीचे अब कश्यपजी की पूँछ आ गई थी। विस्तार से पूछने पर पता चला कि ब्रांच मैनेजर साहब ने वैकल्पिक शर्त जो रखी है, वो है अपना पेंडिंग काम निबटाने की। पेंडिंग काम में अब  एक कोई काम ऐसा था जिसमें कश्यप का हाथ तंग था। चांस की बात है, वो काम मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगता था और मुझे मालूम था कि मैं वो काम तीन चार घंटे में निबटा भी सकता हूँ  लेकिन मेरी पोस्टिंग अलग जगह थी, उसकी अलग जगह। जब हमने पूछा कि ब्रांच में किसी और की मदद ले ले तो वो कहने लगा कि अब कोई मदद नहीं करता।  सबको मालूम है कि ये जाने वाला है तो फ़िर जिस मैनेजर के साथ अभी दो तीन साल काम करना है, इसके लिये उससे पंगा क्यों लिया जाये? 

मजेदार समस्या थी। हैड ओफ़िस में होने के नाते हमसे उसकी अपेक्षा थी कि मैनेजर साहब को किसी उच्चाधिकारी से कहला सुनवाकर उसका काम हो जाये। दिल से मैं भी चाहता था कि उसका काम हो जाये लेकिन उसके मैनेजर साहब ने जो पेंडेंसी खत्म करने का विकल्प दे रखा था वो गलत भी नहीं लग रहा था। खैर, उसे विदा किया कि जा भाई अपनी गाड़ी पकड़ और  अपना बैग बिस्तर बांधना शुरू  कर, भली करेंगे राम।

उसे भेजकर फ़िर से फ़िक्र को धुंये में उड़ाया गया। बातों बातों में कश्यप ने बताया था कि अगले दिन उसके ब्रांच मैनेजर छुट्टी पर थे। एल्लो, निकल आया हल। हम मैनेजर नहीं हैं तो ना सही, छुट्टी तो हम भी ले सकते हैं। चार में से दो उस आईडिये से खुश थे और दो नाराज थे कि क्यो छुट्टी ली जाये? फ़िर उन्हें समझाया गया कि जहाँ तीस दिन की विदाऊट पे चल रही है, वहाँ इकतीस दिन की होने में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। सबको खुश करना वैसे भी मुश्किल है। 

अगले दिन मैं और राजीव ग्यारह बजे कश्यप की ब्रांच में पहुँच गये। हमें देखकर वो हैरान हो गया और सिगरेट पीते देखकर हमेशा की तरह परेशान भी। मुश्किल से दो घंटे लगे होंगे हमें, उसकी सारी पेंडेंसी खत्म कर दी। बहुत खुश था वो उस दिन और हम भी। भावुक होकर बार बार कह रहा था, "मैं आप लोगों का कैसे धन्यवाद व्यक्त करूँ?"  मैंने माहौल को हल्का करने के लिये कहा, "मेरे लिये एक सिगरेट मंगवाकर।"  उस दिन उसने सिगरेट के दोष नहीं बताये, खुद भागकर गया और सिगरेट लेकर आया। बाहर जाकर हम लोगों ने  एक साथ लंच किया,  हमारी तरफ़ से फ़ेयरवैल ट्रीट।  स्टेशन पर हमें गाड़ी तक छोड़ने आया।  गाड़ी में अभी टाईम था, हम प्लेटफ़ार्म पर  टहल रहे थे तो मुझे बहुत हँसी आई, जब फ़िर से मेरे लिये सिगरेट लेकर आया। हम लौट आये, कुछ दिन के बाद  वो दूसरे बैंक में प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनकर चला गया।

आसपास की शाखाओं में एक नया किस्सा प्रचलित हो गया कि हिन्दुस्तान में मजदूरी बहुत सस्ती है। लोग एक सिगरेट तक में बिक जाते हैं। हैड ओफ़िस में हमेशा की तरह ऐसी खबरें भी पहुंच जाती रहीं। लोग चटखारे ले लेकर हमसे पूछते थे कि क्या ये सच है और मैं और राजीव एक दूसरे को देखते थे और जोर से हँस देते थे। बाकायदा ऑफ़र आते थे कि  फ़लाँ काम पेंडिंग है, आ जाओ किसी दिन। बहुत छेड़ा हम लोगों को जालिम लोगों  ने। 

हाँ, याद आया, आज पूरी बात ही पढ़ लो। शायद दो साल के बाद कश्यप की शादी में जाना हुआ था। तब तक हम सब इधर ट्रांसफ़र होकर आ चुके थे, एक तरह से उसकी शादी को हम उस दौर के बैचमेट्स का  रि-यूनियन समझ लीजिये। उसकी शादी से ज्यादा क्रेज़ सबको एक दूसरे से मिलने का था। खाने-पीने का दौर चला, पिछली बातें निकलीं तो ये बात भी निकल आई। उस दिन पहली बार ऐसा हुआ कि ये एक सिगरेट में बिकने वाला किस्सा उस समय दुहराया गया जब दोनों पक्ष मौजूद थे। किस्सा कहने के बाद जब सच्चाई पूछी गई तो मैं और राजीव फ़िर से एक दूसरे को देखकर जोर से हँस दिये। कश्यप जरूर जोर से बोला, "बकवास है सब।" हम जानते थे कि वो ज्यादा घुमाफ़िराकर बातें नहीं करता, मजाक भी नहीं समझता,  टु द प्वाईंट रहने वाला आदमी है। और कोई मौका होता तो हम भी सबके साथ मिलकर उसे खींचते लेकिन उस समय तो उसी की शादी में गये हुये थे इसलिये उसे शांत रहने की कहने लगे।

वो बोला, "बकवास है ये एक सिगरेट में बिकने वाली बात और आप भी खंडन नहीं करते। आप से ऐसी आशा नहीं थी। चुप रहना भी झूठ को बढ़ावा देना है। दो सिगरेट पिलाईं थी आपको, स्टेशन वाली क्यों भूलते हैं आप?"

राजीव और मैंने दोनों ने एक साथ  कहा, "हाँ यार, ये बात तो सही है।"

क्या कहते हैं आप? गाड्डी पटरी पे ही है न अब :)

(पात्रों के नाम बदले गये हैं)
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पिछले दिनों एक सामूहिक ब्लॉग पर कुछ असहमतियाँ हुई थीं। फ़िर पता चला कि हम  लोगों  ने फ़र्जी ईमेल आई.डी. और ब्लॉग वगैरह बना रखे हैं ताकि दूसरों को गालियाँ दी जा सकें। अलग से पोस्ट लिखकर या जवाब  देने की बजाय यही कहना सही लगता है कि  "हाँ यार, ये बात तो सही है।"       :)

रविवार, नवंबर 18, 2012

फ़िर वही ...

वृद्ध नगरसेठ ने महात्माजी के आगे हाथ जोड़कर निवेदन किया, "बाबा, मेरे इकलौते युवा पुत्र को सन्यास की दीक्षा देने की हामी भरकर आपने तो मेरे बुढ़ापे की लाठी छीन ली है। बिनती करता हूँ कि उसे  अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी संभालने की आज्ञा दें।"
महात्माजी कहने लगे, "भगतजी, मैंने तो उसे उतावलेपन में ऐसा निर्णय लेने से बहुत मना किया था लेकिन उसकी रुचि और उसके संस्कार देखकर मुझे उसे दीक्षा देना ही उचित लगा।"
सेठ की आँखों के सामने उसका व्यापार, वैभव निराधार होता दिखा और उसने दूसरा दाँव चला, "आप इतने धर्मज्ञ हैं फ़िर भी आप के हाथों धर्म विरुद्ध कार्य हो रहा है। शास्त्रों में भी लिखा है कि सन्यास तो जीवन के चौथे चरण के लिये उचित है।"
महात्माजी मुस्कुराते हुये कहने लगे, "ठीक कहते हो। एक रास्ता है, सन्यास के लिये तुम्हारी आयु उपयुक्त है। तुम सन्यास लेने को तैयार हो जाओ।  इसी शास्त्रोक्त  युक्ति से तुम्हारे पुत्र को मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिये समझाता हूँ।
सेठजी एकदम से सकपका गये और कहने लगे, "शास्त्रों में जो लिखा है, वो सब कुछ सही थोड़े ही होता है महाराज।"

हम सब उसी नगरसेठ की तरह व्यवहार करते हैं।  

पिछली एक पोस्ट पर आई टिप्पणियों के बाद उचित लगा कि इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ाया जाये। कुछ मित्र कर्मफ़ल और जीवन-मरण के  चक्र वाली थ्योरी से सहमत दिखे, कुछ असहमत। अधिकतर मित्रों का यह मानना था कि कर्मों का असर इसी जीवन तक है। अपने अपने विचार रखने को सभी स्वतंत्र है,  राय देने वाले सभी दोस्तों का धन्यवाद। एक आपत्ति जिसकी मुझे सबसे ज्यादा आशंका थी, वो मुखर रूप से किसी की तरफ़ से नहीं आई कि  कर्मफ़ल वाली थ्योरी उसमें विश्वास रखनेवालों को अकर्मण्य बनाने में सहायक होती है। आपको ऐसा लगता हो या नहीं लेकिन मुझे जरूर ऐसा लगता है।

 गरीबी, अपंगता या ऐसे ही किसी अन्य दुर्भाग्य  को दैव मानकर अपना आत्मसम्मान खो देनेवालों की   कमी नही। वहीं दूसरी तरफ़ अमीरी, सुंदरता, शक्ति आदि सुखद परिस्थितियों को अपने अच्छे कर्मों का फ़ल मानकर आगे के लिये  निश्चिंत होने वालों की भी कमी नहीं। मेरी बातें विरोधाभासी लग सकती हैं कि  एक पल में किसी सिद्धाँत को मानने की बात करता हूँ और दूसरे पल उसी की कमी बताने लगता हूँ, लेकिन यह अपनी तरफ़ से सिक्के के दोनों पक्ष देखने जैसी बात है। मन में ऐसे विचार आते रहे  हैं कि जब सब पूर्वनिर्धारित है ही तो फ़िर क्यूँ किसी खटराग में पड़ना? यह विचार एक मार्ग अवरोधक के समान लगता है, जो ठिठक गया वो अटक गया और जो इस अवरोध को पार कर गया वो मंजिल तक देर सवेर पहुँच ही जायेगा। 

शायद यह बाधा ही रही हो जिसने कभी  ’चार्वाक’ विचारधारा को प्रसिद्धि दिलवाई और कभी ’अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’ जैसे कथन  को अपने करणीय कर्मों से  विमुख होने का साधन बना लिया। ध्यान दें, कभी भी ये विचारधारायें बहुमत की जीवन शैली का पर्याय नहीं बनी बल्कि सुविधानुसार हम लोग इनका उद्घोष करते रहे। 'जो जस कीन्ह सो तस फ़ल चाखा’ और ’उद्यमेन ही सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथै’ भी तो हममें से कुछ  ने पढ़े ही हैं।

सिर्फ़ ब्लॉग चर्चा के आधार पर तो नहीं, इससे बाहर के अपने  व्यक्तिगत अनुभव के भी  आधार पर कह सकता हूँ कि  बहुत बार  कर्म को प्रधान मानने वाले  को हम  भाग्यवादी मात्र  मान लेते हैं। ऐसा है नहीं, रणक्षेत्र में अर्जुन को  गीता उपदेश देते समय योगेश्वर कृष्ण ने ’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन:’ की सीख देकर जीवन जीने का एक  रास्ता बताया।  सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी का कहना कि ’तेरा भाणा मीठा लागे’ कर्म से पलायनवाद नहीं बल्कि कर्मशील रहते हुये भी प्रारब्ध को सहजता से स्वीकार करना है वहीं दशम गुरू ने शक्ति रूपा देवी की स्तुति करते हुये  ’शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं’ कहा। मेरी अल्प समझ में  यही श्रेष्ठ मार्ग है और यही सर्वश्रेष्ठ। 

हमें सुविधाओं की आदत हो चुकी है और हम शारीरिक श्रम तो क्या थोड़ा सा  मानसिक श्रम भी नहीं करना चाहते। जो चीज हमें रेडीमेड परोस दी जाती है, शुरू  में शौकिया और फ़िर आदत के चलते वो हमारी जिन्दगी का हिस्सा बन जाती है। ज्ञान के साथ भी ऐसा ही है,  खुद मनन पाठन  किये बिना जो परोस दिया गया वही ग्राह्य हो गया। 

हमारे देश की विशालता केवल भौगोलिक नहीं है।  आर्थिक, सामाजिक तथा शिक्षा जैसी  अन्य विविधताओं के आधार पर भी देखें तो जनमानस अलग अलग स्तर पर स्थित दिखता है। एक विशाल स्टेडियम की कल्पना कीजिये, बीच में मैदान है और चारों तरफ़ सीढि़यों पर दर्शक खेल का आनंद लेने के लिये अवस्थित हैं। जो सबसे नीचे की सीढ़ी पर बैठे हैं और जो ऊपर की सीढ़ियों पर अवस्थित हैं, क्या उनको दिखने वाले दृश्य, खेल की बारीकियाँ  और उस पर उनकी प्रतिक्रियायें एक जैसी होती होंगी? मुझे नहीं लगता। शायद ऐसा ही इस दुनिया के साथ है। यहाँ फ़र्क ये है कि हम सब सिर्फ़  दर्शक ही नहीं, खिलाड़ी भी हैं। अन्य विविधताओं के साथ  अब  कालक्रम को और जोड़ देखिये। आज से सौ साल पहले जो स्थितियाँ  थीं, आज एकदम से बदल चुकी हैं तो जबसे मानव सभ्यता का उदगम आप मानें तब से जीवन कितना बदल चुका होगा? 

बौद्धिकता के अलग अलग स्तरों पर जी रहे अलग अलग लोगों के मानने के लिये कितने विकल्प और फ़िर उन्हें अपनाने, नकारने या सुधारने  की कितनी स्वतंत्रता, मुझे गर्व है जैसा भी हूँ आखिर इस संस्कृति का हिस्सा हूँ।   शायद पिछले जन्मों के सुकर्म ही हैं  :)) 

चलिये नारा लगाईये आप भी, ’क्या कुटिल जी,  फ़िर वही संकीर्ण विचारधारा?’ :)


                                                       

रविवार, नवंबर 11, 2012

Bloggers' Deepawali



                                                          


दीपावली की खिचड़ी
                         


                                                  
















                            दीपावली पर्व आप सबके लिए शुभ हो


 
                                

  
                                

शनिवार, नवंबर 03, 2012

जिन्दगी मिलेगी दोबारा..


1. देर रात गये राजा को माँस खाने की इच्छा हुई, फ़ौरन ही आदेश पालन की तैयारी होने लगी। माँस उपलब्ध करवाने वाले ने सोचा कि बकरे के शरीर से बाहर लटकते अंडकोष को काटने मात्र से  ही अभी का काम चल जायेगा और यह सोचकर छुरी हाथ में लेकर आगे बढ़ा। बकरा हो हो करके हँसने लगा। चकित वधिक मुँह बाये उसकी ओर देखने लगा तो बकरे के मुँह से आवाज आई, "जाने कितने जन्मों से मैं तेरा  और तू मेरा गला काटते आये हैं, तेरे इरादे जानकर मुझे  हँसी इसलिये आई कि आज से  तू नया हिसाब शुरू करने जा रहा है।" वधिक ने छुरी फ़ेंक दी और अपनी जिंदगी के असली उद्देश्य की तलाश में लग गया।

2. एक सहकर्मी मित्र  है, पारिवारिक परिचय भी है। वो और उसका दो साल  छोटा भाई शिक्षा के मामले में एकदम समान हैं। एक ही स्कूल में  पढ़े, फ़िर एक ही कॉलेज में,  कोर्स भी एक ही और यहाँ तक कि प्राप्ताँक भी बराबर। दोस्त हमारा शराब को छूता भी नहीं और उसका भाई एक भी मौका छोड़ता नहीं, एक के न पीने की और दूसरे की पीने की वजह पूछी तो जवाब भी उनकी शिक्षा की तरह एक ही आया, "बचपन से पिताजी को हमेशा ही शराब पिए हुये देखा, इसलिये...।

3. अपनी छोटी सी बच्ची का एकाऊंट खुलवाने के बारे में जानकारी ले रही एक महिला ग्राहक ने पूछा  कि आई.डी. प्रूफ़ के रूप में बच्ची का पासपोर्ट वैध डाक्युमेंट है न? इतनी छोटी सी बच्ची का पासपोर्ट? वो बताने  लगीं कि इसका पहला जन्मदिन सेलिब्रेट करने वो लोग दो तीन महीने पहले बैंकाक गये थे। और मैं सुबह शाम देखता हूँ पुल के नीचे उस गंधाते बज़बज़ाते नाले के किनारे मानव और पशु मल-मूत्र, हड्डियों और लोथड़ों, कूड़े  के बीच जाने कौन सा  खजाना तलाशते दो साल से लेकर चौदह-पन्द्रह साल तक के बच्चे।  इनका पटाया बीच यही है,  पोस्टल एड्रेस गंदानाला, बारापुला।

बकरे वाली कहानी सच है या गलत, नहीं मालूम क्योंकि इन कहानियों को तर्क की कसौटी पर कसा ही नहीं जा सकता।
दोस्त जरूर सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि मेरी पीने की इच्छा ही नहीं हुई और छोटा  भाई भी सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि देखादेखी मैं भी पीने लगा।
उस प्यारी सी महंगी सी बच्ची को नजर न लगे, जिसे उसके माँ बाप, दादा दादी और नाना नानी पहला जन्मदिन मनाने विदेश लेकर गये और इन लोकल पटाया बीच वाले बच्चों को तो नजर भी कौन लगायेगा, मस्तराम मस्ती में और आग लगे बस्ती में।

क्या चीज है जो दो जीवों के प्राप्य में इतना अंतर डाल देती है? एक जीव अपनी तन की भूख या मन की मौज पूरी करने के लिये दूसरे जीव के प्राण लेने में सक्षम और दूसरा अपने निरीह, सुंदर या उपयोगी होने की कीमत अपना जीवन देकर चुकाने को विवश, बहुत बार तो बचने के लिये विवश आँखों  से देखने के अलावा कुछ और कर सकने में अक्षम। समान अवसर, समान संस्कार  और समान उपलब्धियों के बावजूद किसी विषय पर एकदम विरोधी परिणामों का  निकलना।  एक ही जैविक तरीके से इस दुनिया में  आने वालों के जीवन में इतना वैषम्य कि एक के हाथ में छुरी और दूसरे की गर्दन पर छुरी ?

कॉलेज समय में पढ़ते हुये दोस्तों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के इरादे से बैंक में भर्ती के या दूसरी सरकारी नौकरी के फ़ार्म भर दिया करता था, कभी सीरियसली तैयारी  नहीं की क्योंकि अपने इरादे कुछ और ही थे। नतीजा आता तो पता चलता कि जिन्होंने खूब तैयारी की थी, वो रह गये और मैं पास हो गया। दिल के बहलाने को खुद के उन सबसे ज्यादा स्मार्ट होने का मुगालता पाला जा सकता है लेकिन अपनी सच्चाई खुद को  तो मालूम ही है।  हम सब दोस्त लगभग एक ही लेवल के थे, फ़िर  ऐसा क्यों होता था?

इन सब क्यों और  कैसे जैसे सवालों के बारे में मुझे जो सबसे उपयुक्त जवाब लगता है वो है, कर्मफ़ल। यही सटीक लगता है कि इस दुनिया के चलते रहने के लिये यह माया महाठगिनी आवश्यक ही  रही होगी। हर कर्म का तदनुरूप फ़ल, अच्छा कर्म तो उसका अच्छा फ़ल और बुरा कर्म तो उसका बुरा फ़ल। बुरे परिणाम भुगतते समय तो ज्ञानबोध वैसे ही खत्म हुआ रहता है,  अच्छा फ़ल मिलने पर प्रमादवश तामसिक कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं  जिनके परिणाम भुगतने के लिये फ़िर से इसी चक्र में उलझे रहना पड़ता है। और एकाऊंटिंग सिस्टम इतना चौकस  कि हर बारीक से बारीक कर्म का लेखा हाथोंहाथ अपडेट। एक जीवन तो क्या जाने कितने जीवन और कितनी योनियों तक ये चलता रहता है, आते हैं पिछला भुगतने और नये खाते और शुरू हो जाते हैं। ’जिन्दगी न मिलेगी दोबारा’ पर  किसी तरह यकीन कर लूँ तो फ़िर शायद ’सकल पदारथ है जग माहीं’ हो भी जाये, फ़िलहाल तो इस करमहीन नर को इस बात की ज्यादा चिंता  है कि ’जिन्दगी मिलती रहेगी दोबारा’ :( 

 चलिये, फ़िलहाल समेटता हूँ खुद को नहीं तो लोग पूछेंगे कि सिरीमान जी, तबियत तो ठीक है न? :) 

इधर आने का ईनाम चाहिये? क्लिक करिये-
एकदम से कोई भूला बिसरा गीत याद आ जाता है और हम उसे मन ही मन गुनगुनाने लगते हैं, अचानक ही आप पाते हैं कि वही गीत रेडियो पर बज रहा है। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है? मेरे साथ बहुत बार होता रहा है। अभी तीन चार दिन पहले पुनर्जन्म और कर्मफ़ल विषय पर मित्रों की प्रतिक्रिया जानने की इच्छा से एक छोटी सी पोस्ट लिखी थी, पब्लिश नहीं की। वही रेडियो वाली बात हो गई।इस पोस्ट का लिंक अपनी पोस्ट(जब पब्लिश हुई) में देना चाहूँगा।