गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

धुंधली सी धुंध.....कहानी.(समापन)

हाथ पर और घुटने पर लगी खरोंचों को देखकर कहने लगे, "पुत्तर, बचाव हो गया। केहड़े पिंड जाना है?" अब आगे.....................
 
मैंने बताया तो पूछने लगे कि किसका लड़का हूँ? मैंने  बताया, "बापूजी, मैं यहाँ का रहने वाला तो हूँ नहीं। नौकरी के सिलसिले में यहाँ रहता हूँ, मेरे परिवार को आप नहीं जानते।"  बारिश रुक चुकी थी लेकिन गीली सड़क पर कुछ देर पड़ा रहा था, गीले कपड़ों के कारण ही शायद सिहरन सी लग रही थी। मैंने उनसे पूछा कि वो इस समय  सड़क पर क्या कर रहे थे? हँसकर बताने लगे, "कुछ बंदों के साथ हरमंदिर साहब के दर्शनों के लिये गया था, लौटने में देर हो गई। बाकी सब शहर के थे,  मुझे पिछले मोड़ पर उतारकर गाड़ी से वापिस चले गये थे। थोड़ा सा आगे आकर देखा तो सड़क के बीच में मोटर साईकिल गिरी पड़ी थी, परमात्मा का शुक्र है कि तुम्हें ज्यादा नहीं लगी।" 

मैंने टाईम देखा, शहर से चले हुये  लगभग दो घंटे हो चुके थे। तो क्या मैं इतनी देर तक सड़क पर..? बूँदाबादी फ़िर होने लगी थी और साथ साथ मेरी आँखों के आगे फ़िर वही धुंध। चोट तो ज्यादा लगी नहीं तो क्या थकान के कारण ही मुझे पता नहीं चला..?

सरदारजी ने सहारा देकर मुझे खड़ा किया। आमने सामने खड़े हुये तो मैंने पहली बार उनकी तरफ़ गौर से देखा।  सफ़ेद कुर्ता पायजामा, मजबूत कद काठी के साथ स्नेह बरसाता निश्छल चेहरा। मोटरसाईकिल दो तीन किक खाने के बाद स्टार्ट हो गई, मैंने कहा कि उनको छोड़ दूँगा तो उन्होंने हाथ से इशारा करते हुये कहा कि उनका घर तो ये सामने है। मैंने उधर देखा तो पेड़ों के पीछे सड़क से थोड़ा हटकर बना हुआ एक  दोमंजिला पक्का मकान दिखाई दिया। हैरानी की बात ये है कि अब भी बूँदाबांदी, हवा और चांदनी वही टिपिकल पहाड़ों जैसी धुंध का सा आभास दे रहे थे। पेड़ों के पीछे, एक अकेला मकान, बहती हुई सरकती हुई सी धुंध की चादर एक अजीब सा नशीला सा माहौल बना रहे थे। सरदारजी ने मेरे सिर पर हाथ फ़ेरा और जेब में हाथ डालकर कुछ फ़ूल बाहर निकाले। जरूर गुरुद्वारे से प्रशाद के साथ मिले होंगे।एक फ़ूल मेरी तरफ़ बढ़ाया, दोनों हाथ से मैंने गुरुघर का प्रशाद स्वीकार किया, माथे से लगाकर जेब में रख लिया। बुजुर्गवार ने मेरी  पीठ थपथपाई, बोले, "पुत्तर, ध्यान से जाना।"

मैं चल दिया था। दिमाग खाली नहीं रहता है, सोचने लगा कि सरदारजी टाईम पर न आते तो शायद मैं सारी रात वहीं सड़क पर पड़ा रहता। लेकिन एक बात है, सरदारजी निकले बड़े कोरे, एक बार झूठे से भी नहीं कहा कि बेटा, चोट लगी है और अब भी बारिश हो रही है, रात यहीं रुक जा। सामने ही तो था उनका मकान। मैं कौन सा रुकने वाला था? इन्हीं बातों को सोचता विचारता मैं कब कमरे पर पहुँचा, कब सोया - कुछ ध्यान नहीं।
बग्गा सुड़क सुड़क कर अपनी चाय पी रहा था और मेरी बात सुन रहा था। मेरे शरीर में अब भी ओफ़िस जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, अकड़न-जकड़न ने शरीर पर कब्जा कर रखा था। मैंने बग्गे से कहा कि आज मैं आराम करूँगा, शाम तक सब ठीक हो जायेगा।  अब उसने भी खरोंचों का मुआयना किया और ज्यादा चोट न लगने की बात पर शुक्र मनाया। पूछने लगा कि कौन सी जगह पर मोटर साईकिल स्लिप हुई थी? अब गाँव-खेड़ों की सड़कों पर क्या साईनबोर्ड लगे होते हैं, अंदाजे से उसे लोकेशन बताई। सोचकर कहता है, "है तो नेड़े ही(पास ही है)।" फ़िर जैसे कुछ याद आ गया हो, एकदम से कहने लगा, "चल्लो जी, घर अकेले रहोगे इससे अच्छा है दफ़्तर चलो। वहाँ पीछे सोफ़े पर लेट जाना। टाईम पास हो जायेगा थोड़ा आपका भी।" बस इस टाईप के बंदों की यही आदत है, दबाकर रखो तो कुछ नहीं बोलेंगे और जरा सी छूट दे तो सिर पर हावी होने लगेंगे। मेरे बार बार मना करने के बाद भी जैसे जबरदस्ती ही मुझे कमरे से ओफ़िस ले जाकर ही माना। और तो और पिछले दिन के कपड़े भी लपेटकर ले गया कि घर से धुलवाकर दे जायेगा।

फ़िर ओफ़िस में जाकर सब वही कुछ  पूछ्ते रहे, मैं जितना याद था वो बताता रहा। दफ़्तरों में स्टाफ़ कम हो या ज्यादा हो, अनौपचारिक ग्रुप जरूर बने रहते हैं। बग्गा अपने ग्रुप में बैठा था और धीरे धीरे अपने ग्रुप वालों के साथ गुटर-गूँ कर रहा था। शाम को बॉस कुछ जल्दी निकल गये,  हम भी निकलने की तैयारी कर रहे थे कि बग्गा पार्टी ने आकर बीती रात की घटनाओं के बारे में  फ़िर से सवाल जवाब शुरू कर दिये। उससे पिछली रात कितनी देर सोया था से शुरू हुये सवाल खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। 

अब मुझे खीझ होने लगी थी, "मोटर साईकिल स्लिप होना कौन सी इतनी बड़ी बात हो गई जिसपे कमेटी बैठाओगे? ठीक है यार, मैंने पी रखी थी। चढ़ गई, हजम नहीं हुई इसलिये गिर गया होऊंगा। खुश हो?"

"नईं साबजी, गुस्सा न करो। ये सब हम नहीं कह रहे हैं।"

"फ़िर, क्या कह रहे हो? मैंने झूठमूठ ये ड्रामा किया है?"

सारे चुप। एक बोला, "साबजी, जिस जगह अपकी मोटर साईकिल गिरी थी, वहाँ एक मकान है जरूर लेकिन उस मकान में कई साल से कोई नहीं रहता।"

"वो बाबा तो वही मकान बता रहा था अपना। अब मैंने कौन सा रजिस्ट्री करानी थी उस मकान की जो कागज पत्तर चैक करता? झूठ बोल रहा होगा, खैर हमें क्या लेना देना। खत्म करो ये सब, मुझे वैसे भी आधा अधूरा सा ही ध्यान है वो सब।"

फ़िर भी सब खड़े रहे। सुखदर्शन, जो उन सबमें उम्र में सबसे बड़ा था और मुझपर बहुत स्नेह रखता था, धीरे से बोला, "साबजी, उस मकान में एक बूढ़ा अकेला रहता था। बच्चे उसके बाहर मुल्क में सैट हो गये थे। कई साल पहले एक बार वो बूढ़ा अपने कुछ संगियों के साथ स्वर्ण मंदिर के दर्शन करने अमृतसर गया था। वापिसी में उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया था और वो बेचारा मौके पर ही..।"

कुछ सीन मुझे दिख रहे थे, कुछ धुंध के पीछे छुप जाते थे। हो सकता है ये बात पहले भी सुन रखी हो, संयोगवश उसी मकान के पास एक्सीडेंट हुआ था तो अवचेतन में से निकलकर  कोई कहानी बन गई हो। खाली दिमाग वैसे भी शैतान का घर होता है। आज बाहर बारिश नहीं हो रही थी लेकिन मेरे दिमाग में जरूर बिजलियाँ चमक रही थीं। क्या-क्या ख्वाब देख लेते हैं हम? और फ़िर उन्हें सही ठहराने के कितने बहाने भी, हद है यार।  जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया और अपना दिमाग अब भी वही सदियों पुराना।

कुछ काम करने लगूँ तो इस गोरखधंधे से छुटकारा मिले।  घर आकर भूख न होने पर भी खाना बनाने की तैयारी में जुट गया। खूब सारा खाना बनाना है आज, सोच लिया। अकेले बैठकर कैंडललाईट डिनर होगा, और सच में कुछ देर में ही सब भूल गया। क्या हुआ था, कब हुआ था, कैसे हुआ था - सब भूल गया।

सोने की तैयारी कर रहा था कि बग्गे ने आवाज लगाई, "साब, कपड़े ल्याया हूँ।"

"शाबाश शेर। इतनी जल्दी? धुलवा भी लाया और प्रैस भी करवा लाया, वैरी गुड।"

"आहो जी। तबियत ठीक है न हुण?"

"चकाचक। चल जा अब, रात बहुत हो गई।"

"हाँ जी, चलता हूँ। याद आया, कमीज की जेब में से ये फ़ूल निकला था।" 
 
उसकी हथेली पर रखा हुआ गुलाब का सूखा फ़ूल मुझे दिखता था, फ़िर धुंध की चादर आ जाती थी, फ़िर दिखता था, फ़िर धुंध.......।
 
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बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

धुंधली सी धुंध (कहानी)

                                                              (चित्र गूगल से साभार)
                                                                    
दरवाजा पीटे जाने की आवाज से आँख खुली।  देखा तो रोशनदान से छनकर आती धूप के चलते बंद कमरे में भी भरपूर उजाला हो रहा था। कुछ देर तो आँखें खोलकर वैसा ही निष्चेष्ट लेटा रहा,  लेकिन बाहर खड़े बग्गे ने फ़िर से दरवाजा पीटा और हाँक लगाने लगा, ’साब, ओ साब’..     लड़खड़ाते कदमों से उठकर मैं दरवाजे की तरफ़ बढ़ा। दरवाजा खोला तो खोलते ही आँखें तेज धूप के कारण मिचमिचाने लगीं। चक्कर खाकर गिर न जाऊँ, मैंने दरवाजा पकड़ लिया। बग्गे के चेहरे पर पसीना उतरा हुआ था, उसने मुझे सहारा दिया और फ़िर से फ़ोल्डिंग बेड पर लाकर बिठा दिया। मेरे माथे पर हाथ लगाकर कहने लगा, "तबीयत ठीक नहीं लगदी है। आधे घंटे से आवाज लगा रहा हूँ और आपने कोई जवाब ही नहीं दिया। मुझे यही डर था कि रात को बारिश में आये होगे और तबियत खराब होगी, अकेले रहना बड़ी मुसीबत है साबजी। पानी पियोगे?" जवाब सुने बिना ही गिलास में पानी भर लाया।

मैंने घड़ी देखी तो ग्यारह बजने वाले थे।  ग्यारह? हे भगवान, ये तो अच्छा है कि गाँव की पोस्टिंग है वरना शहर होता तो पता नहीं कहाँ-कहाँ तक शिकायती टेलीफ़ोन, ईमेल हो चुके होते। मैंने उठने की कोशिश की लेकिन ऐसा लगा जैसे पैर जाम हो चुके थे। बग्गे ने फ़िर से मुझे गिरने से बचाया और कहने लगा, आप लेटे रहो, आराम करो।  चाय बनाता हूँ,  थोड़ा आराम मिलेगा।" मैं फ़िर से लेट गया।

कमरे के एक कोने में ही गैस स्टोव रखा था  और वहीं  अपनी रसोई का आडंबर किया हुआ था। अकेला आदमी, सामान जितना कम हो उतना ही अच्छा। दूध पाऊडर की चाय टेस्ट में बेशक कुछ अलग हो लेकिन थकान दूर करने के काम तो आ ही जाती है। मेरी आँखें फ़िर मुँद गईं, बग्गे की बातें चल रही थीं। "सवेरे यहाँ से निकला था तो देखा था कि ताला नहीं लगा हुआ तो समझ गया कि आप आ गये होंगे। फ़िर जब साढ़े दस बजे तक आप नहीं आये तो वड्डे साब ने कहा कि जा देखकर तो आ, सब ठीक तो है। तब से लगा होया हूँ दरवाजा पीटने में। कितने बजे आये थे कल रात को?"

"रात को? टाईम तो नहीं देखा लेकिन तड़का होने ही वाला था।" सच तो ये है कि मैं सोचने की हालत में ही नहीं था। पता नहीं क्या हुआ था लेकिन दिमाग एकदम जाम हुआ पड़ा था, बीच बीच में कुछ याद आ रहा था लेकिन सिलसिलेवार नहीं। जैसे पहाड़ों में कभी कभी एकदम से बादल या कोहरे की चादर सी आ जाती है और सब दिखना बंद, और थोड़ी देर में सब साफ़, लेकिन जो नजारा कोहरे के पीछे रह गया वो नहीं दिखता। चुप रहने पर बोझिलता और बढ़ रही थी तो मैं बग्गे को बताने लगा कि कैसे पहले तो ट्रेन लेट हो गई। फ़िर लुधियाना में एक घंटे तक बस का इंतजार करता रहा और बस नहीं आई। हारकर नजदीक के स्टेशन पर जाना पड़ा ताकि आखिरी पैसेंजर ट्रेन ही मिल जाये। अचानक ही रिश्तेदारी में जाना पड़ा था और अंदाजा था कि लौटने में सात आठ बज जायेंगे  तो मोटर साईकिल शहर के बस स्टैंड पर रख गया था। अब ट्रेन से आया तो वहाँ से फ़िर बस स्टैंड तक पैदल आना पड़ा और पहुँचते-पहुँचते बारह बज चुके थे। हालाँकि सहकर्मियों ने अच्छी तरह से मना किया था कि आठ-नौ बजे के बाद गाँव तक अकेला न आऊँ लेकिन अकेला होने पर मुझे कोई डर वाली बात लगती नहीं।

जैसे जैसे कल रात की बातें याद आ रही थीं, मैं टुकड़ों-टुकड़ों में बोल रहा था। बस स्टैंड से मोटर साईकिल उठाई और हल्की-हल्की  बारिश शुरू हो गई। पता था मुझे, भीगे बिना तो सफ़र पूरा होता ही नहीं है मेरा।  जी.टी.रोड तक तो फ़िर भी ट्रक और कारें दिख रही थीं, गाँव के लिये जहाँ जी.टी.रोड छोड़ी थी तो फ़िर दूर दूर तक कोई नहीं था। न कोई गाड़ी, न लाईट। सिर्फ़ अपनी मोटर साईकिल की लाईट सड़क पर भागती दिख रही थी। बारिश अब भी रुक रुककर चल  ही रही थी। बीच बीच में कभी चाँद चमकता भी दिख जाता था और उस समय सड़के के गड्ढों में रुका बारिश का पानी चाँदी जैसे रंग का दिखता था। यही फ़र्क है असली और कृत्रिम में, बाईक की  पीली रोशनी में तो ये पानी सुनहरा नहीं दिखता? यैस्स, ध्यान आ गया। बिल्कुल यही सोच रहा था मैं जब  सड़क के एक किनारे के खेतों से कुछ निकलकर एकदम से बाईक के सामने से सरसराता हुआ सा दूसरे किनारे जाकर खेतों में उतर गया था। खरगोश था, नेवला था या कुछ और, आकार से कुछ अंदाजा ही नहीं लगा पाया था मैं। 

एकदम से ब्रेक जरूर लगाये थे, नतीजतन घिसटते हुये बाईक रुकी लेकिन फ़िसलने के बाद।

फ़िर से आंखों के आगे वही धुंध सी छा गई थी, महसूस हो रहा था लेकिन कुछ कर नहीं पा रहा न ही कुछ हरकत करने की इच्छा।   आँखों के आगे से कोहरा हटा, जब एक उम्रदराज सरदारजी मेरी नब्ज़ और धड़कनें चैक कर रहे थे। मुँह से ’वाहेगुरू, वाहेगुरू’ बुदबुदाते हुये मुझे सहारा देकर बैठाया।  हाथ पर और घुटने पर लगी खरोंचों को देखकर कहने लगे, "पुत्तर, बचाव हो गया। केहड़े पिंड जाना है?"

जारी ...




गुरुवार, फ़रवरी 14, 2013

मेंहदी...



हमारा एक पुरानी साथी भोला उसके गाँव के एक आदमी के बारे में बता रहा था कि वो हमेशा अपनी गर्दन झुकाये रहता था। हमने अपना ज्ञान झाड़ा कि हो सकता है उन साहब ने यह तजुर्बा ले रखा हो -
नज़र  बाग में नज़र मिलाते, नज़र से हमने नज़र को देखा
नज़र पड़ी जब नज़र के ऊपर, नज़र झुकाते नज़र को देखा
वाह वाह करनी तो दूर रही, भोला ने हमारी दलील यह कहकर खारिज कर दी कि ’गर्दन’ और ’नज़र’ विच फ़र्क हुंदा है। और खुलासा करते हुये मामले को और रहस्य प्रदान कर दिया कि एक बार गाँव के लोगों ने उस बंदे को मजबूर करते हुये उसकी गर्दन ऊपर की ओर उठवाई। गाँव में किसी ने अपने मकान की दूसरी मंजिल बनवाई थी जोकि एक नया प्रयोग था, लोगों ने कह कहकर उस आदमी को मजबूर किया कि देख तो सही, नई चीज है। उस बंदे ने ऊपर की तरफ़ देखा और देखते ही देखते दूसरी मंजिल भरभराकर गिर गई। उसके बाद किसी ने ऐसी जिद नहीं की बल्कि उस बंदे को खिलापिलाकर इतना खुश रखते थे कि गर्दन ऊपर उठने ही नहीं देते थे। 

मैंने कहा कि यार तेरे गाँववालों ने तो बंदे को वहीं रोककर उसकी प्रतिभा के साथ बहुत अन्याय किया, दिल्ली जैसी जगह पर ले आते  तो  म्यूनिसिपैलिटी वाले मनचाहे पैकेज पर उसे रख लेते। भोला कहने लगा, "बताने का मेरा मतलब ये है कि आपको देखकर मुझे उस बंदे की याद आ जाती है।" इस वार्तालाप का नतीजा ये निकला  कि हमने उसके बाद से नज़र नीची रखने में और भी भलाई समझी।

तेरह फ़रवरी, शाम लगभग सात बजे - किसी मेट्रो स्टेशन पर मेट्रो के दरवाजे खुले। सवारी उतरीं कम और चढ़ी ज्यादा।  हमारी झुकी नज़र ने एक जोड़ा नंगे पैर देखे और कुछ हैरानी हुई। माना कि मेट्रो में सफ़ाई अपेक्षाकृत ठीक ही है लेकिन फ़िर भी नंगे पैर? पाकीज़ा फ़िल्म का डॉयलाग था कुछ कि आपके पैर बहुत खूबसूरत हैं टाईप, वो क्या हुआ?  रिस्क लेते हुये गर्दन थोड़ी सी उठ ही गई। बिना सैंडिल\जूती वाले पैर, पैरों पर ताजी ताजी लगी मेंहदी। और ऊपर तक देखा तो दोनों हाथ कुहनियों तक डिज़ाईनर मेंहदी  से सजे हुए।मेंहदी अभी एकदम ताज़ी-ताज़ी थी। नहीं समझ पाया कि देखना असभ्यता है या न देखना, लेकिन आज देखे बिना रहा नहीं गया। 

बदनीयत कोई नहीं थी, सिर्फ़ उत्सुकता थी कि शौक से लगवाई गई मेंहदी को इस भीड़-भाड़ वाली जगह पर बचाकर रखने में कितने कौशल की जरूरत होगी? उस कौशल को देखकर लोग कैसे रियेक्ट करेंगे?  असल में खाली दिमाग होना ही नहीं चाहिये, उल्टी सीधी बातें ज्यादा दिमाग में आती हैं। भीड़ में किसी से छू जाने पर मेंहदी का डिज़ाईन बिगड़ना ज्यादा बड़ा मुद्दा होता या किसी के कपड़ों में दाग लगना? मेट्रो घर के पास तो छोड़ सकती है लेकिन घर तक तो नहीं छोड़ सकती। मेट्रो स्टेशन तो फ़िर साफ़ सुथरे हैं लेकिन उससे बाहर सड़क का हाल? और सुरक्षा का मुद्दा, वो भी उस दिल्ली में जहाँ अभी दो महीने भी नहीं गुजरे कि...? और बहुत से सवाल जो दिमाग में तो आ रहे थे लेकिन जिन्हें जुबान पर लाना शायद आधी आबादी के साथ अन्याय हो जायेगा।  अधिकार, आज़ादी, इच्छा जैसे शब्द वैसे भी आजकल अपने  दिमाग में गूंजते ही रहते हैं। 

वैसे मुझे हैरानी ही हुई कि दस पन्द्रह मिनट के सफ़र में कोई हंगामा दिखा नहीं। या तो दिल्ली के सारे (ना)मर्द सभ्य, सुशील हो गये हैं या फ़िर जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट आने के बाद और हाल ही के दिनों  में सरकार ने अपराधिक मामले निपटाने में जो इच्छाशक्ति दिखाई है, उससे दिल्ली वाले सकपकाये हुये हैं। सोचा था कि उस लड़की से कुछ साधारण से प्रश्न पूछता हूँ जैसे कि इतना कान्फ़िडेंस कहाँ से लेकर आती हो तुम लड़कियाँ,  फ़िर ख्याल आया कि बेशक मैं उम्र में उसके बाप के बराबर हूँ  लेकिन कुछ पूछने का हकदार नहीं हूँ।  गर्दन फ़िर से नीची करके घर को लौट आया हूँ।

ध्यान आया कि तेरह फ़रवरी के बाद चौदह फ़रवरी आती है:)  हो सकता है अगली मेट्रो यात्रा और भी मेंहदीनुमा मेरा मतलब है खुशनुमा हो। कुछ राज्य सरकारें रक्षा-बंधन वाले दिन अपनी तरफ़ से बहनों को रोडवेज़ में मुफ़्त यात्रा करने का उपहार देती हैं, आने वाले वर्षों में सरकार से चौदह फ़रवरी को वैलेंटाईनों\नियों को  क्या उपहार मिलता है, देखेंगे हम लोग....।
 

सोमवार, फ़रवरी 04, 2013

पहचान

बात पुरानी ही है, हजारों साल पुरानी न सही लेकिन हजारों दिन पुरानी तो होगी ही। हमारे एक बॉस हुआ करते थे, अभी तो रिटायर्ड लाईफ़ बिता रहे हैं। दिल के बहुत वड्डे, कर्मठ, उत्साही, जुगाड़ी। बॉसपना छूकर नहीं गया था उन्हें, सब सहकर्मियों के साथ  मित्रवत व्यवहार ही रखते थे । स्वभाव की बात करें तो अपने से एकदम उलट थे, हम न मदद लेने में यकीन रखने वाले न मदद देने में और वो आधी रात को भी कोई साथी फ़ोन कर देता तो कैसी भी मदद करने को तैयार। इसी तरह से जरूरत पड़ने पर मदद मांगने में भी नहीं हिचकते थे। बैक की नौकरी के अलावा पार्टटाईम में प्रापर्टी का काम भी कर लेते थे, उस पुराने जमाने में कमाई का एक अच्छा जरिया एस.टी.डी. कनैक्शन भी किसी के नाम से ले रखा था। दूसरों को भी पैसे कमाने के नुस्खे बिना फ़ीस लिये बताते रहते थे।
एक पियन साथी को एक दिन कहने लगे कि यहाँ से छुट्टी होते ही गांव भाग जाता है, क्या करता है वहाँ?  
वो बताने लगा, "करणा के सै जी, जाके हाथ मुंह धोके चार भाईयां गेल बोल बतला ले सैं, हुक्का-पानी पी ले सैं, बस।"
"तो शाम को दो तीन घंटे सब्जी की रेहड़ी लगा लिया कर, सौ-पचास रोज के बन जाया करेंगे बाहर बाहर ही।"
अब हरियाणा के आदमी को आप जानो ही हो, उधार नहीं रखता अपने सिर। वो बोला, "आप एक काम करो जी, एक  झोटा बांध लो। दिन में एकाध भैंस भी नई होण तईं ल्याओगा कोई तो सौ पचास आपके भी बन जायेंगे बाहर बाहर से।"
बॉस हमारे बुरा नहीं मानते थे, जानते थे दुनिया ऐसी ही है। इसके बाद भी स्कीमें बनाते रहते थे, बताते रहते थे। हमें भी दो चार स्कीमें बताईं लेकिन हम तो टालते रहे। उन दिनों वो अपने बच्चों को सैट करने के लिये एक गैस्ट हाऊस बनाने के प्रोजैक्ट में जुटे हुए थे। बड़ा प्रोजैक्ट था, खूब पैसा लग रहा था।
उन्हीं दिनों की बात है,एक दिन कहने लगे कि सरसों का सीज़न है। कुछ पैसा उधर लगाया जाये तो अच्छा फ़ायदा होगा। अभी खरीद लेते हैं, दो चार महीने बाद मुनाफ़े पर बेच देंगे। उनके पैतृक शहर में कई आढ़ती उनके जानकार थे, क्वालिटी पहचानने न पहचानने की कोई समस्या नहीं और न ही खरीदने-बेचने के समय मंडी जाने की समस्या। अपनी ही प्रोपर्टी में सरसों रख दी जायेगी, किराया भाड़ा भी कुछ नहीं। पहले उसी बाहर बाहर वाले साथी को तैयार करने का जुगाड़ किया। उस भले आदमी ने गेंद मेरी तरफ़ सरका दी कि संजय भी व्यापार में शामिल हो तो वो भी थोड़ी घणी पूँजी लगा देगा। सच बात तो ये है कि उस सरसों खरीद के विवरण जानकर मैं भी बाहर बाहर से कुछ कमाने के लिये कन्विंस हो चुका था।
घाटे का तो कोई चांस था ही नहीं, संयुक्त परिवार में रहने वाला मैं अब इस सोच में पड़ गया कि ये बंपर मुनाफ़ा मैं अकेले अकेले खा जाऊं तो नैतिक रूप से वो सही होगा या नहीं? ’जहाँ चाह वहाँ राह’ वाली तर्ज पर राह निकाली कि पूँजी पिताजी से ली जाये, मुनाफ़ा जो होगा वो भी पिताजी तक ही पहुँचाया जाये, माल मालिकों का, मशहूरी कंपनी की। डील हो गई और बॉस के पचास हजार और हम दोनों जूनियर पार्टनर्स  के पच्चीस-पच्चीस हजार की आरंभिक पूँजी  से  ’ईर बीर फ़त्ते’ फ़र्म अघोषित रूप से व्यापार में कूद गई।
पहले ही बता चुका कि कई हजार दिन पहले की बात है, इसलिये करबद्ध प्रार्थना है कि हमारे हिस्से की पच्चीस हजार की रकम पर ज्यादा ध्यान न दिया जाये। अरे भई,  पुरानी फ़िल्मों में इतनी रकम की फ़िरौती की माँग के कई उदाहरण मिल सकते हैं।
हमारे सामने ही एक आढ़ती से फ़ोनपर सरसों खरीद लेने की पुष्टि हो गई। हालाँकि खरीद दर  अखबार में दिये गये रेट से कुछ ज्यादा लगी लेकिन बताया गया कि अखबार में तो स्टैंडर्ड रेट आते हैं, हमारे नाम पर खरीदी गई सरसों हाई क्वालिटी की थी इसलिये रेट ज्यादा है। व्यापार के गुर धीरे धीरे ही आते हैं। अब हम लोग अखबार में ’बलात्कार’, ’हत्या’, ’चार बच्चों की माँ आशिक के साथ भागी’ जैसे समाचार बाद में देखते थे, उससे पहले ’आज के भाव’ में सरसों का रेट देखते थे। आने वाले समय में सरसों की माँग उठ सके, इस मिशन के तहत अपने और अपनों के घरों में सरसों के तेल का और दूसरे उत्पादों का प्रयोग बढ़ाने के तमाम प्रयास शुरू कर दिये गये।
महीना भर हुआ था कि बॉस ने बताया कि उनकी जिस प्रापर्टी में सरसों का भंडारण किया गया था, उस प्रापर्टी को बेचना पड़ गया है। अब एक विकल्प है कि सरसों जिस भाव बिके, बेच दी जाये या फ़िर उसके भंडारण के लिये किराये की जगह ली जाये। चूँकि अभी सीज़न चल रहा था, सरसों ऊंचे भाव पर बिकनी नहीं थी, फ़र्म ने फ़ैसला लिया कि किराये की जगह पर सरसों का भंडारण किया जाये।
चार पांच महीने बीत गये थे, अखबार बता रहे थे कि सरसों के प्रति क्विंटल भाव कम से कम साढ़े चार सौ रुपये ज्यादा हो चुके थे, बिग पार्टनर से कहा गया कि सरसों बिकवा दी जाये। आढ़ती को फ़ोन पर कह दिया गया। ये कहना सुनना कई दिन तक चलता रहा। इधर आढ़ती के यहाँ कभी ये पंगा कभी वो पंगा शुरू हो चला था, उधर अखबार में सरसों के  भाव गिरने शुरू हो चुके थे। एक दिन गरमागरमी में कहा गया कि जिस रेट पर निकले, इसे निकलवाओ। वो निकाली गई, बेईज्जत होकर निकली तो उसने भी कसर पूरी निकाली। वैसे भी खरीद के समय अखबार रेट से ज्यादा का आरोप था तो इस बार अखबार रेट से कम पर निकली। कई हिसाब बराबर हो गये। अब वहाँ से पेमैंट और हिसाब आने का इंतजार था, हफ़्ते दो हफ़्ते में वो कयामत की घड़ी भी आ गई, जब सब हिसाब किये जाने थे। 
खरीद पर कमीशन, बिक्री पर कमीशन, किराया-भाड़ा, दामी, बारदाना (कई शब्द मैंने पहली बार सुने) वगैरह वगैरह काटकर हिसाब समेटा गया तो अपने हिस्से में सिर्फ़ बाईस सौ रुपये का घाटा आया। पूँजी पिताजी की लगवा रखी थी तो उन्हें  घुमाफ़िराकर पच्चीस हजार पर तीन सौ का लाभ दिया क्योंकि अपना रेट तो  दस परसेंट का है, घाटा हो या फ़ायदा।
हम सरसों के व्यापारी के रूप में अपने फ़्रेंड्स सर्किल में बहुत मशहूर हुये। कई महीनों तक लोगों के मनोरंजन का साधन बने रहे। लोग चाय सिगरेट मंगवाते थे, आधी पी चुके होते तब जालिम लोग पूछते, "और सरसों का व्यापार कैसा रहा?" न आधी पी जाती, न उगली जाती।  सबसे ज्यादा मजे भोला द ग्रेट लेता था, "मैं सौ रुपये मांगता तो देने से पहले मुझे सौ बात सुनाते थे, हुण आया न स्वाद पच्चीस सौ रुपईये दा घाटा खाके? वड्डे ब्योपारी बनण चले सी"  और यहीं नहीं, जब जब घर आता तो मेरे लाख मना करने के बाद भी  पिताजी के सामने भी बात छेड़ता, "संजय बाऊ, दुबारा सरसों कब लेणी है?" मैं आँखों-आँखों में डाँटता रहता और वो चाय पीता रहता और हँसता रहता।
उस सच्चे सौदे के बाद बॉस की और उस हरियाणवी साथी  ’अभय सिंह’ की नोंक-झोंक खूब चलती रही। एक दिन अभय सिंह बॉस पर भारी पड़ रहा था कि आपको आढ़ती की पहचान ही नहीं थी और बॉस ने मायूस सा होकर कहा, "यार, मुझे तो वो आढ़ती एकदम सीधा-सादा लगा था। गोरा-चिट्टा, मासूम सा।" अभय एकदम से भड़क गया, "यो पैहचाण सै सही गलत की? देखण में गोरा चिट्टा था तो हमने के उसकी पप्पी लेणी थी?"
आप भी सोचेंगे कि इस मो सम को ये बात आज कैसे याद आई? अखबार में पूरे पेज पर राहुल की फ़ोटो और प्रोफ़ाईल देखकर माताजी मुझसे कह रही थीं, "ओय संजय, इसका भी जन्म 1970 का ही है, तेरे जितना ही है ये।" माँ है न, नहीं जानती कि इतने से शब्दों से कितना बड़ा मानहानि का केस बन सकता है। फ़िर बात चली तो कहने लगीं कि बच्चा दिखता एकदम से सीधा साधा है, छल कपट से दूर। माँ है न, नहीं जानती कि किसी के दिखने या लगने से जिस जिम्मेदारी की अपेक्षा लगा लेते हैं हम लोग, उसके लिये सीधा-सादा होना या दिखना ही बहुत नहीं होता। 
उसके दिखने वाली बात पर मुझे अपने पुराने बॉस, अभय और वो गोरा चिट्टा आढ़ती याद आ गया, माँ ने पूछा भी कि हँसता क्यों है, क्या बताता उसे? ऐसी बातें सिर्फ़ दोस्तों के साथ ही तो हो सकती हैं न...
बहुत दिन हुये गाना नहीं लगाया था, चलो  आज यही सही:)