शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

मैं और मेरी.......


पता नहीं कौन से संत कवि हुये थे कबीर जी या रहीम जी या कोई और,  उचार गये अपनी मौज में आकर कि जीवन भर घास पात खाकर गुजारा करने वाली बकरी का भी गला छुरी से रेता जाता है क्योंकि वह जब भी मिमियाती है तो ’मैं….मैं..’ की ध्वनि निकालती है।   ’जिस देश में गंगा बहती है’  नाम की फ़िल्म में प्राण साहब डाकू बने थे और शायद उस डाकू के दिमाग में अपने भविष्य के बारे में जो फ़ोबिया बना हुआ था उसी के चलते पूरी फ़िल्म में अपनी गर्दन पर हाथ फ़ेरते रहते थे, गोया फ़ाँसी की रस्सी को अपनी गर्दन पर कसा जाता महसूस कर रहे हों।

कई दिन हो गये मैं भी अपनी गर्दन पर हाथ फ़ेरता रहता हूँ, चाहे छुरी फ़िरे या फ़ाँसी, गर्दन को तैयार रहना चाहिये। सोचकर एक बार तो झुरझुरी सी उठती है, लेकिन और कोई उपाय है भी नहीं। इस ’मैं’ और ’मेरी’ ने कहीं का नहीं रखा। हर युग में, हर काल में ज्ञानी लोग अपने तरीके से समझाते रहे है कि ’मैं’ रूपी अहंकार को सर मत उठाने दो, लेकिन किसी का बिना मांगे दिया ज्ञान हम ऐसे मानने लगे तो हो गया काम। हम जैसे न हों तो कौन इन्हें ज्ञानी मानेगा?

अपनी भी लगभग हर पोस्ट में मैं ऐसा,  मैं वैसा, मैंने ये किया और वो किया जैसे कंटेंट मिलेंगे। अलबेला खत्री जी की एक पोस्ट पढ़ी थी जिसमें उन्होंने बताया था कि एक समुदाय विशेष के द्वारा आयोजित कार्यक्र्म में जब वो गये तो सामने भीड़ देखकर उन्होंने चुटकुलों का केन्द्र बिन्दु बदल कर सुदूर दक्षिण कर दिया  कि कहीं पब्लिक नाराज न हो जाये, और अभी शुरू किया ही था कि भीड़ में से एक ने खड़े होकर धमका दिया, “ओये,  पैसा  असी खरच कीता है,  कार्यक्रम साड्डा,  तुसी चुटकुले  दूजेयां दे सुनाओगे?”  तो हास्य कवि को अपनी प्रस्तुति बदलनी पड़ी थी।  उन्होंने नहीं कहा कि हमारी बात मानो, इसलिये हमने मान ली। ब्लॉग हमारा, पी.सी, नैट बिजली का खर्चा हमारा, उंगलियां हम तोड़ें, दिमाग के स्कूटर बाईक(घोड़े आऊटडेटिड चीज हो चुके हैं) हम दौड़ायें और पोस्ट मैं और मेरी पर न लिखकर औरों पर लिखें, ऐसे भी सिरफ़िरे अभी नहीं हुये। 

अपनी नजर में नायक, महानायक, खलनायक, सहनायक  हम ही हैं। मेरी दुनिया ’मैं’ से शुरू होकर ’मैं’ पर ही सिमटती है, बहुत विस्तार हुआ तो”हम’ तक। असली बात ये है कि किसी सीनियर ब्लॉगर के बारे में लिखेंगे तो लोग कहेंगे फ़लां गुट में पैठ बनाना चाह  रहा है,  अपने से जूनियर के बारे में लिखा तो कहेंगे कि टिप्पणी पाने के लिये लिख रहा है| इसलिये अपना तो ये फ़ार्मूला ’मैं और मेरी’ वाला जारी रहेगा। वैसे भी आप सबने छूट दे ही रखी है, बल्कि हमने इमोशनल करके ले रखी है। तारीफ़ करनी होगी, गुण बखानने होंगे तो अपने ही बखानेंगे और मजाक उड़ाना होगा, बुरा भला कहना होगा तो भी खुद को ही कहेंगे। दूसरों की कमी निकालनी भी पड़ी कभी तो या तो प्रधानमंत्री की निकालेंगे या किसी मंत्री टाईप बंदे की। जवाब दे तो उसकी हेठी और   न दे तो हमारी वाहवाही कि देखो पंगा लिया भी तो किससे? अपने आसपास के किसी की आलोचना करेंगे तो रोटी. रोजी,  या टिप्पणी पर खतरा मंडरा सकता है और आने वाले दो दशक तक  रोटी, एक दशक तक रोजी और एक महीने तक टिप्पणी को खतरे में डालने का रिस्क हम लेना नहीं चाहते:)

वैसे ’मैं’ हमेशा बुरी नहीं होती। यूँ भी हम कभी दावा नहीं करते कि हम कोई साधु सन्यासी हैं, आम आदमी हैं तो आम आदमी के गुण दोष तो रहेंगे ही।  बादशाह शाहजहाँ के बारे में एक बात मशहूर है कि जब आखिरी दिनों में उन्हें कैद कर दिया गया था तो एक दिन प्यास लगने पर कुयें से खुद ही पानी खींच रहे थे, उनका सिर ऊपर चर्खी से टकराया तो खुदा का शुक्र करने लगे। नजदीक खड़े पहरेदार ने पूछ ही लिया, “आपके सिर में चोट लगी और आप खुदा का शुक्र कर रहे हैं?” जवाब मिला, “मैं, जिसे कुँये से पानी भी निकालने की तमीज और तहजीब नहीं, इतने सालों तक हिन्द का बादशाह रहा, खुदा का शुक्र न करूँ तो क्या करूँ?”

कबीर साहब के पास बलख-बुखारे का शहजादा शिष्य बनने के लिये आया था और बारह साल तक उनकी शागिर्दी करता रहा। गृह मंत्रालय ने नरम पड़ते हुये कबीर साहब से निवेदन किया कि अब इसे गुरू-मंत्र दे दीजिये। उसके बाद हुआ ऐसा कि शहजादा गली से निकल रहा था तो ऊपर से कूड़ा ऐसे गिराया गया कि शहजादा उसमें लथपथ हो गया। कुछ नहीं कहा,  बस ऊपर की ओर देखा और बोला, “न हुआ बलख बुखारा, नहीं तो….।”  बारह साल और वैसे ही गुजारने पड़े, फ़िर इतिहास की पुनरावृत्ति हुई। इस बार कूड़ा कर्कट सिर पर गिरा तो शहजादा बोला, “ऐसा करने वाले, तेरा भला हो। मैं नाचीज़ था ही इस काबिल।” इस बार परीक्षा में पास हो गया शहजादा।

इस्तेमाल तो मैं का ही किया था न शाहजहाँ ने भी और शहजादे ने भी। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपनी  भी मैं और मेरी अभी प्राईमरी स्टेज पर हो?  जब तक इस दुनिया की नजर में महापुरुष कहलाने के लायक नहीं हो जाते,  ये ’मैं और मेरी’ चलती रहेगी।  

कोशिश की है वैसे हमने, एक पूरा दिन ये सोचकर बिताया कि आज मैं नहीं बोलना(जा),  मैं को तू से   और मेरी को तेरी से रिप्लेस कर देना है। करके देखा, मुश्किल भी बहुत आई, लेकिन मजा भी बहुत आया।  थोड़ी बहुत गड़बड़ भी हुई, वो तो खैर होनी ही थी।  हमारे होते हुये भी न होती,  तब फ़िक्र की बात थी। उस दिन सुबह सुबह ही हीर-रांझा के किस्से पर नजर पड़ गई, हीर अपनी सहेलियॊ से कह रही होती है कि

’आओ नी मैन्नू रांझा सद्दो, हीर न आखो कोई’( आओ री, मुझे रांझा कहकर बुलाओ, कोई मुझे हीर मत कहो)’
बुल्ले शाह के बारे में सर्च किया तो उनका कलाम दिखाई दिया जिसमें वो कहते हैं कि जो मुझे सैय्यद(जिस उच्च जाति\उपजाति में वो जन्मे थे)  कहेगा वो दोज़ख में जायेगा और जो मुझे मेरे   पीरो-मुर्शिद साईं ईनायत शाह की वजह से  अराईं(सामाजिक ढांचे के हिसाब से अपेक्षाकृत कुछ दोयम स्तर की जाति\उपजाति) कहेगा वो बहिश्त में पींगे डालेगा। वो थी प्रेम की इंतिहा, हम ठहरे इक्कीसवीं सदी के ब्लॉगर। इतनी शिद्दत अपने में   होनी बहुत मुश्किल है, सो  बीसवीं सदी के कुछ गाने मन ही मन सोचे और कोशिश-वोशिश की औपचरिकता पूरी कर ली।   रिप्लेस्ड एंड एडिटिड वर्ज़न कुछ इस तरह से थे -

१.  तू तेरे प्यार में पागल

 २. तू न भूलेगा, तू न भूलेगी

 ३. तुम्हें तुमसे प्यार कितना

४. तू ये सोच कर तेरे दर से उठा था

५. तू बेनाम हो गया(इसपे सबसे ज्यादा वाहवाही के चांस हैं:))

 उस दिन बहुत सारे सोचे थे, आज इतने ही याद आते हैं। आप भी  कभी वेल्ले टाईम में सोच सकते हैं लेकिन अपने रिस्क पर।     मोटी सी बात ये है कि बात जमी नहीं। ’मैं’ को जहाँ होना चाहिये, वहीं है अभी तो। अगर गई भी तो जाते-जाते ही जायेगी, फ़ोर्टी ईयर्स का साथ है:)   वैसे कहते हैं   कि ’लाईफ़ बिगिन्स @ 40,  सो कोशिश जारी रहेगी।   किसी को ऐतराज हो तो बता दे नहीं तो हम समझेंगे कि पंचों की सहमति है कि बंदा अभी बिगड़ा ही रहे।

अब ये गाना सुन देख लो,  निवेदन है कि इसके साथ पंगा नहीं लेना। काहे से कि अपने को ये वाला बहुत पसंद है और मेरी चीज के साथ छेड़खानी करूंगा तो मैं ही, सिर्फ़ मैं:) 

देख लो जी, ये ’मैं’  भी काफ़िर छूटती नहीं है मुंह से लगी हुई।

51 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो जिस प्रदेश से आते हैं वहाँ मैं से तकरीबन 300 कि.मी. का फ़ासला है.. पिताजी की रिसर्च थी कि बिहार से दिल्ली की तरफ रुख़ करके निकला एक आदमी, मुग़लसराय तक तो हम बोलता है, उसके बाद बकरी हो जाता है... ख़ैर औपचारिक महौल में तो हम भी मिमिया लेते हैं, लेकिन अनौपचारिकता में तो हम ही हम..
    आपकी मैं में भी मैनर्स छिपे हैं भाई! और मैदान मार ले जाते हो आप... हम तो बस पोस्ट की और गाने की मै (मय)पिए बेहोश हुए जाते हैं!!

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  2. मैं तो इस पर वाहवाही देने की सोच रहा था: 'तू तेरे प्यार में पागल', चलेगा? :)

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  3. हा हा हा ...
    अच्छी है ये तू ही तू भी ....
    ये भी हो सकता था ...
    तू मेरे प्यार में पागल ,
    तू भी भूलेगा मैं तो भूल चुकी ,
    तुम्हे मुझसे प्यार कितना ,
    तू क्या सोचकर मेरे दर से उठा था ...

    वैसे मैं ही मैं पर और भी कुछ लिख दिया है मैंने ...तू डाल- डाल मैं पात- पात !

    अच्छी लगी पोस्ट !

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  4. इसा लेखा ने तो हमारी सभी पसंदीदा लाइनों की ऐसी-तैसी कर के रख दी. कुछ उदाहरण:

    तैने कब मुझसे कहा था ... (खामखाँ उलझ रहा है)
    तुझे छू रही हैं ... (तो मैं क्या करूँ)
    तुझे आई न जग से लाज ... (बेशरम...)
    तेरे दिल में आज क्या है ... (मैं क्या एक्सरे मशीन हूँ)
    तेरे सपनों की नानी कब ... (सपने तेरे और फोरकास्ट हमारा?)
    तेरी दुनिया से ... (अरे वाह, यह गाना बच गया, बल्ले बल्ले)

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  5. तू शायर बदनाम ... हो ओ ओ .. तू चला .. तू चला (ये गाना हमारी तरफ से, शायर को ब्लॉगर से भी रिप्लेस कर सकते हैं)

    मजा आ गया (हमेशा आता है वैसे, लेकिन आज हंसी मजाक में कई सारे नए किस्से भी सुन लिए . एतिहासिक मजा आया आज )
    एक बात और , ये लाइन (हीर-राँझा वाली ) ये पाकिस्तानी मूवी 'खुदा के लिए' में थी | नसीरुद्दीन शाह जी मौलवी बने कोर्ट में ये लाइन कहते हैं, और कट्टरपंथियों का जवाब अपने तरीके से देते हैं | अगर ये फिल्म आप लोगों ने नहीं देखी है, तो जरूर देखिये |

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  6. "तेरे हमराह बचे हैं जो".. (किधर है बचे हुए?)
    --काहे से कि अपने को ये वाला बहुत पसंद है और तेरी(मेरी) चीज के साथ छेड़खानी करूंगा/करेगा तो तू ही(मैं ही), सिर्फ़ तू (मैं:))

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  7. मैं मैं हूं . और मेरी मेरी ही है . सही है तू तू मै मै से मै मै मेरी भली

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  8. बचपन में एक खेल भी तो खेला होगा आपने 'तेरा नाम तू, मेरा नाम मैं, तू बुद्धू कि मैं' अब अद्वैत दर्शन के सूत्र जैसा लगता है, आपने इसे जिस तरह हकीकत की जमीन पर उतारा है वह... ''मैं'' लिखने के बाद इतने मनोयोग से दुबारा अपनी पोस्‍ट भी नहीं पढ़ सकता, जिस तरह आपकी यह पोस्‍ट पढ़ा.

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  9. तू और तेरा तू जाने मै और मेरा भी तू ही जाने मैं हूँ कहाँ!

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  10. तेरी कलम से... !!!!!!!!!!!!!

    हमारा गला तो सचमुच का रेत दिया इस एक पोस्ट ने। :)
    पर ऐसा शानदार पढने को मिलता रहे, उसके ऐवज में अधिक कीमत नहीं है ये।
    मैं से निकले किस्से, किस्सों के ऊपर का हम, बहुत अच्छा लगा हमेशा की तरह।
    और गानों के एडिटेड वर्ज़न तो बहुत ही बढ़िया।

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  11. हमारे अन्दर ही नायक, खलनायक और जोकर है। पूरी तरह जी डालें स्वयं को।

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  12. गजब का चिंतन है गुरुजी। और आज मैं कुछ कहने के काबिल नहीं रहा क्योंकि मैं मैं नहीं रहा।

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  13. .

    @ तुम सम कौन कुटिल खल कामी.
    .
    .
    .
    .
    .
    .

    वैसे भी आप सबने छूट दे ही रही है, बल्कि हमने इमोशनल करके ले रखी है।
    @ दे ही रखी है, ........ करे लें.

    .

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  14. चलिए कहने लायक आपने छोड़ा नहीं तो सोचा आपके ब्लॉग पर भी शेर का शिकार कर लेता हूँ-

    मैं उसकी परछाई हूँ या वो मेरा आईना है
    मेरे ही घर में रहता है मेरे जैसा जाने कौन?

    लीजिए एक और-

    मेरे जैसा आदमी मेरा ही हमनाम
    उल्टे सीधे काम करे मुझे करे बदनाम

    दोनो ही निदा फ़ाज़ली के हैं।

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  15. इस मैं की भी अजब माया है .............. जब ये कबीर,बुल्ला बाबा, रहीम "मैं" को जानने निकले तो फिर " तू ही तू, इक तू ही तू " कहते फिरे ........ अब हम ब्लागरी में झांकते है तो आपके लिए भी कुछ कुछ ऐसा ही ------" तू ही तू, इक तू ही तू "....... :)

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  16. भाई साहब, आज तो बस इतना ही कह पाऊंगा
    तू ही तू
    तुम सम कौन कुटिल खल कामी
    गानो को रिप्लेसमेंट अच्छा लगा
    एक को गाकर भी देखा पर काम चला नही

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  17. tere naam ka divana ......'oh..ho...' mere naam ka divana.....'oh.....ho..'....kya kare hamnam hone
    se gana fit nahi baith raha hai........thora aur
    sochte hain.....

    pranam.

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  18. मेरे घर में हम सब भी " मै " नहीं हम का प्रयोग करते है अपने साथ परिवार के दुसरे सदस्यों को भी अपने में लपेट लेते है अपनापन है किन्तु जैसे ही घर से बाहर आते है दुनिया बदल जाती है हम वापस मै पर आ जाते है | एक बार मुंबई में कह दिया की हा ठीक है हम संभल लेंगे तो बगल में कड़ी दोस्त ने कहा की इसमे मुझे न लपेटो मै नहीं कर सकती खुद अकेले की जिम्मेदारी लो और हम नहीं मै कहो तो लगा सही कह रही है बाहर तो सब अजनबी है उनको खुद में शामिल नहीं कर सकते उनकी तरफ से कुछ कह नहीं सकते इसलिए हम यहाँ नहीं चलेगा यहाँ तो मै ही कहना पड़ेगा मै कह खुद की जिम्मेदारी लो हम कह कर दूसरो की नहीं |

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  19. बाई द वे किसी ने ये भी कहा था की रविवार का दिन उसके लिए कभी कभी पति के साथ कुछ खास पोस्टो को देखने का दिन भी होता है :))

    पिछली पोस्ट की टिपण्णी का पहला भाग उन्ही का था |

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  20. मैं तो अब भी "तेरे" की बजाये "मेरे" ही लगाऊंगा, जैसे आपने भी "मो सम कौन" को "तो सम कौन" नहीं किया है :)

    तू ही रे (बॉम्बे)
    नहीं
    मैं ही रे, मैं ही रे, मेरे बिन मैं कैसा जियूं

    प्रणाम

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  21. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  22. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (26.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  23. संजय जी,
    एक बड़े मियां ग़ालिब गुजरे हैं जिन्होंने कहा था... डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता... (शब्द कुछ कम बेसी हो सकते हैं पर भाव यही है). 'मैं' का सवाल बड़ा पुराना है . आप भी इस लफड़े में तंग हों..यह स्वाभाविक ही है .
    @’लाईफ़ बिगिन्स 40.......सठियाने से बीस साल की दूरी पर इस तरह के ख्याल आना इस बात का सबूत है कि बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं....इसमें ट्यूबलाईट का भी पूरा योगदान है!!

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  24. यह पोस्ट है या तू तू मैं मैं का झुनझुना!
    पकड़ा दिया बजाने के लिए!
    ..जिस रंग में रंगना चाहते हो रंग देते हो! सही है...तुम सम कौन कुटिल खल कामी..! मैं..मैं..मैं भी कम नहीं हूँ। सड़क अभी भी खराब है। हर हर महादेव।

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  25. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  26. बड़े चालू हो यार !
    जो तुम्हारी तारीफें कर कर के थक गए वे बेचारे तुम्हारी तारीफ नहीं पा सकते क्यूंकि आपको टिप्पणियों की चाह का ब्लेम न लग जाएँ ! और हम जैसे कब से आसरे से देखते रहे की कम से कम आज नहीं तो कल , हमारी तारीफ़ तो होगी ही उस आशा की मुंडी भी झट से उड़ा दी कि लोग कहेंगे कि गुटबंदी कर रहा है !

    मो सम कौन ....ही बढ़िया था मो सम कौन कुटिल खल ....!!

    बढ़िया पोस्ट के लिए शुभकामनायें लो ...हम तुम्हारी तरह कंजूस नहीं !

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  27. संजय जी बहुत बेहतरीन पोस्ट है, बहुत अच्छी लगी पर जनाब हम कभी सुधर नहीं सकते क्योंकि हमें पढाया ही ये जाता है की "मैं" उत्तम पुरुष और "तू" मध्यम पुरुष.

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  28. @लाईफ़ बिगिन्स @ 40,

    ये लाइन पढ़ कर और लिखने की स्टाइल देख कर ऐवे ही मन में ख्याल आया की कही आज आप के लिए कोई खास दिन तो नहीं है |

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  29. @ चला बिहारी.....
    सलिल भैया,अब तो बाबूजी की रिसर्च की मुहर भी लग गई। हम सदा के बकरी हैं, मुगलसराय के आसपास तक भी नहीं फ़टक सके आज तक।
    आप तो हम वाली कैटेगरी में हैं ही:)

    @ अभिषेक ओझा:
    चलेंगा चाचू, चलेंगा:)

    @ वाणी गीत:
    हा हा हा वाणी जी, दिल के बहलाने को गालिब, ये ख्याल अच्छा है..
    हमारे हिसाब से तो ’तू डाल डाल..तू ही पात पात’

    @ स्मार्ट इंडियन:
    हा हा हा,
    तैने कब मुझसे कहा था ... कहा था न उस्ताद जी, ये ’मैं’ जाते जाते ही जाती है।

    @ नीरज बसलियाल:
    नीरज, ये लाईनें कई जगह इस्तेमाल हुई हैं। आप रिकमेंड कर रहे हैं, फ़िल्म देखेंगे जरूर। अलिरो कुरासावा की मूवी(with english subtitles) देखने का कोई जुगाड़ या लिंक हो तो बिखेरना यार, प्लीज़।

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  30. बोधकथाएं पढ़वाने का अच्‍छा तरीका निकाला है आपने।

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  31. @ नीरज बसलियाल:
    ’अकिरो;

    @ Archana Ji:
    दिल में हैं जी हमारे हमराह, जेहन में।
    जब छेड़खानी वाली बात आयेगी तो तू का कोई काम नहीं जी:)

    @ धीरू सिंह जी:
    सही कहा जी, अपने मुझे वोट दिया, म्हारा वोट भी आपको पक्का।

    @ राहुल सिंह जी:
    राहुल जी, मैं जो भी बेसिर पैर की कह दूं, आप जैसे शुभचिंतकों के कारण उसे एक सार्थक अर्थ मिल जाता है। बन गया कालिदास:) शुक्रिया सर।

    @ ktheLeo:
    'मजा सा’ आ गया सर जी।

    @ Avinash Chandra:
    बालक, ये क्या कह दिया...। बड़े भाईयों के होते ऐसा, तो हमारा होना न होना बेकार है।

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  32. @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    जुटे हुये हैं सर जी, जी जान से।

    @ सोमेश सक्सेना:
    शेरमार खाँ जी, इतने बढि़या शेर पढ़वाने के लिये हम तारीफ़ करने के काबिल नहीं रहे। जियो राजा, जियो।

    @ प्रतुल वशिष्ठ:
    करे लिया, प्रतुल भाई:) शुक्रिया।

    @ अमित शर्मा:
    मरवाकर ही छोड़ोगे यार? पता है कितने कष्ट उठाये इन लोगों ने? हम ठहरे मजाजीवी, हमें कष्ट देने में मजा आता है। इतना मत चढ़ाया करो, हा हा हा।

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  33. @ दीपक सैनी:
    और ट्राई कर देखना, दीपक। लगे रहो, कभी तो मजा आयेगा ही, न आये तो लगाना दो कल्ले पै:)

    @ संजय झा:
    सोचो नामराशि, कुछ और सोचो। हमनाम की इज्जत का सवाल है:)

    @ Ashumala Ji:
    ये दुनिया अपनापन भी बर्दाश्त नहीं कर पाती है, डरे सहमे लोग हैं हम सब।
    तुम्हारे(आपके) तुमको(उनको) तुम्हारी(हमारी) जै राम जी की पहुंचे, धन्यवाद सहित। आपका हमारा हिसाब किताब तो चलता ही रहता है।

    @ अन्तर सोहिल:
    कैसे मान जाओगे, पक्के रोहतकी हो:)
    प्रणाम(तुम नहीं बदलते, तो हम ही बदल जाते हैं)

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  34. @ अदा जी:
    अली साहब की एक पोस्ट पर आपकी टिप्पणी से प्रेरणा मिली थी जी हमें इस पोस्ट की।
    गीत संगीत की बात हो, और आप उसमें परफ़ैक्ट न हों, ’ऐसा हो नहीं सकता।’ सारे गाने परफ़ैक्ट और नजराना नहीं बख्शीश कह देतीं तो और अच्छा था। ’तू’ वाली दुकान बढ़ाकर ,मैं’ को न त्यागकर अच्छा ही किया आपने, कायेकू बनना ’त्यागमूर्ति’? हां नहीं तो...!!

    @ Er. सत्यम शिवम:
    धन्यवाद, इंजीनियर साहब। इस काबिल समझा।

    @ prkant:
    प्रोफ़ैसर साहब, चचा की यही बात हमारे प्रोफ़ाईल में है। पहले आऊटर कवर में थी कभी, अब अन्दर के वर्कों में पहुंच गई है बस्स।
    फ़ोर्टियाने सठियाने वाली बात पर ट्यूबलाईट, चांदनी, रोशनी सबका आभार मानते हैं जी(किसी ने कसर नहीं रख छोड़ी है अपनी तरफ़ से)

    @ देवेन्द्र पाण्डेय:
    पुराना बहाना कब तक चलाओगे, गुरू? खैर, कभी तो सड़क ठीक होगी। हम तो आशावादी हैं, कभी तो लहर...:)

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  35. @ सतीश सक्सेना जी:
    तारीफ़ तो हम भी करते हैं, तरीका नहीं आता बस्स। आपके गुट के तो हम हैं ही, आप न मानो बेशक:)
    ये मान लिया कि आप मेरी तरह कंजूस नहीं हैं और आपको होना भी नहीं चाहिये।

    @ विचार शून्य:
    सुधर नहीं सकते, तभी तो प्रिय हो। अच्छे वाला बांकपन कायम रहना ही चाहिये। तो तय रहा कि ’मैं’ उत्तम पुरुष और ’तू’ मध्यम पुरुष, है न?

    @ anshumala ji:
    है न खास दिन, आपके उन्होंने भी कमेंट दिया आज:) आपका ख्याल ऐंवे सा ही निकला, हा हा हा।

    @ राजेश उत्साही जी:
    सरिता में पढ़ा था एक बार - एक बालक को कड़वी दवा देने के लिये उसके पेरेंट्स ने गुलाब जामुन या रसगुल्ले में दवा की गोली दबा कर दी। बालक ने मिठाई खाई, और गोली निकाल कर बाहर फ़ेंक दी, बोला, "मिठाई का बीज भी कड़वा ही लग रहा है।" बालक लोग बहुत तेज हैं:)

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  36. ..एक घंटे में सबको निबटा दिये ! कमाल है।

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  37. मैं बुरा नहीं , मैं का बोध न होना बुरा है ! मैं की जगह तू कहने से भी मैं खत्म नहीं होता । बड़ी पुरानी समस्या है ये । मेरा तो अनुभव नहीं पर मैं की पूरी जानकारी हो जाने के बाद शायद मैं नहीं रह जाता होगा ! बहरहाल मैं का खात्मा शायद असंभव है ! रोचक लेखन ! शुभकामनाएँ !

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  38. मैं को तू मत बोलिए.
    मैं से तू हो जाईये,फिर देखिये खुदा भी आपके पास आ खडा होगा.
    चालीस की खूब याद दिलाई आपने,बहुत अदभुत होता है चालीस का प्यार.
    सलाम.

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  39. अब क्या लिखूं चुप रहना ही बेहतर है.

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  40. न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता

    डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता

    हुआ जब ग़म से यूं बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का

    न होता गर जुदा तन से तो ज़ानों पर धरा होता

    हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है

    वो हर एक बात पे कहना के यूं होता तो क्या होता



    टीप :
    कहना फक़त ये कि मैं(मय)नोशी पे ग़ालिब के बाद आपने मुतास्सिर किया ! बेहतरीन !

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  41. I am first time in your blog..

    First of all congratulations for unique & versatile blog name.

    Your most welcome in my blog.

    जवाब देंहटाएं
  42. @ रजनीश तिवारी:
    स्वागत है रजनीश जी,इतनी अच्छी बात कोई अनुभवहीन नहीं कह सकता। आपका बड़प्पन है। आपका प्रोफ़ाईल और ब्लॉग उपलब्ध नहीं दिखता, आशा है जल्दी ही देखने, पढ़ने को मिलेंगे आपके अनुभव। आपको भी शुभकामनायें।

    @ ओम कश्यप:
    धन्यवाद ओम जी।

    @ sagebob:
    ये होना, न होना ही तो जड़ है जी। शुक्रिया।

    @ भारतीय नागरिक:
    कहना चाहिये जी, जब हम सुनने को तैयार हैं। कह दीजिये।

    जवाब देंहटाएं
  43. @ Dr (Miss) Sharad Singh:
    thanx ji.

    @ अली साहब:
    एक ये और दूसरी ’बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे,’ चचा की ये दो गज़लें बहुत सारी दर्शन और धर्म पुस्तकों पर भारी हैं। और अपनी फ़ेवरिट। याद दिलाया आपने, आभार मानता हूँ।

    @ Dr Varsha Singh:
    hope this is not the last time:)

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  44. लेकिन किसी का बिना मांगे दिया ज्ञान हम ऐसे मानने लगे तो हो गया काम। हम जैसे न हों तो कौन इन्हें ज्ञानी मानेगा? ---
    सच्ची बात अगर हम भी मन लें तो काहे के ब्लागर? आपका कहीं दिया हुया कमेन्ट ही दोहरा देती हूँ कि अगर मैं ऐसी एक पोस्ट भी लिख सकी तो खुद को धन्य मानूँगी। शुभकामनायें।

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  45. बड़े ही रोचक अंदाज़ में या यूं कहें कि पंचतंत्र के अंदाज़ में आपके द्वारा ‘मैं‘ पर प्रस्तुत किया गया यह शोधपत्र पसंद आया।
    हिंदी का ‘मैं‘ संस्कृत में ‘अहम्‘ है, और जब यह वापस हिंदी में आया तो इसका अर्थ गर्व या घमंड हो गया और तभी से संतगण इसके पीछे लट्ठ ले कर दौड़ने लगे।
    आपने इसी परम्परा का निर्वहन किया है।

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  46. "ब्लॉग हमारा, पी.सी, नैट बिजली का खर्चा हमारा, उंगलियां हम तोड़ें, दिमाग के स्कूटर बाईक(घोड़े आऊटडेटिड चीज हो चुके हैं) हम दौड़ायें और पोस्ट मैं और मेरी पर न लिखकर औरों पर लिखें, ऐसे भी सिरफ़िरे अभी नहीं हुये।"

    Ek geet yaad aa gayaa sanjay ji ... kaheen pe nigaahe, kaheen pe nishaanaa..... :)

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  47. @ मिर्मला कपिला जी:
    आप शर्मिंदा कर रही हैं, आपका आशीर्वाद मिलता है तो धन्य हम जैसे होते हैं।

    @ mahendra verma:
    वर्मा साहब, ऊपर राहुल सिंह जी को कहा था वही बात है। आप सम सुधीजन हैं जो इस मो सम के उल्टे-सीधे प्रलाप को सार्थक रूप दे देते हैं। आभार आपका, आप सबका।

    @ पी.सी.गोदियाल साहब:
    गोदियाल जी, ये सच है(हमेशा से)। कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना, हम पुराने टपंच हैं:) कर्टसी(चुपके-चुपके)

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  48. संजय जी आपकी बात सुन कर जाना जमाना कितना बदल गया है पहले लोग गलत बात सुन कर शर्म करते थे आजकल सच बात सुन कर शर्म आती है। लेकिन आपको शर्मिन्दा नही कर रही सच कह रही हूँ। बहुत बहुत शुभकामनायें।

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  49. बाऊ जी,
    बोर्डर फ़िल्म मे डायलोग था:
    तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो, हमी हम हैं तो क्या हम हैं!
    छलनी करके रख दिए हैं आप!
    तो सम कौन कुटिल, खल, कामी?
    लाईफ शुरू कब होती है, ये तो नहीं पता....
    लेकिन नौटी @ फोर्टी ज़रूर सुना है......
    आशीष

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  50. मैं…… मैं…… मैं …क्या बोलूँ !

    जाइये हम कुछ नहीं बोलते अबकी बार…… फ़ौर अ चेन्ज ;) :P

    नमन !

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