शनिवार, नवंबर 03, 2012

जिन्दगी मिलेगी दोबारा..


1. देर रात गये राजा को माँस खाने की इच्छा हुई, फ़ौरन ही आदेश पालन की तैयारी होने लगी। माँस उपलब्ध करवाने वाले ने सोचा कि बकरे के शरीर से बाहर लटकते अंडकोष को काटने मात्र से  ही अभी का काम चल जायेगा और यह सोचकर छुरी हाथ में लेकर आगे बढ़ा। बकरा हो हो करके हँसने लगा। चकित वधिक मुँह बाये उसकी ओर देखने लगा तो बकरे के मुँह से आवाज आई, "जाने कितने जन्मों से मैं तेरा  और तू मेरा गला काटते आये हैं, तेरे इरादे जानकर मुझे  हँसी इसलिये आई कि आज से  तू नया हिसाब शुरू करने जा रहा है।" वधिक ने छुरी फ़ेंक दी और अपनी जिंदगी के असली उद्देश्य की तलाश में लग गया।

2. एक सहकर्मी मित्र  है, पारिवारिक परिचय भी है। वो और उसका दो साल  छोटा भाई शिक्षा के मामले में एकदम समान हैं। एक ही स्कूल में  पढ़े, फ़िर एक ही कॉलेज में,  कोर्स भी एक ही और यहाँ तक कि प्राप्ताँक भी बराबर। दोस्त हमारा शराब को छूता भी नहीं और उसका भाई एक भी मौका छोड़ता नहीं, एक के न पीने की और दूसरे की पीने की वजह पूछी तो जवाब भी उनकी शिक्षा की तरह एक ही आया, "बचपन से पिताजी को हमेशा ही शराब पिए हुये देखा, इसलिये...।

3. अपनी छोटी सी बच्ची का एकाऊंट खुलवाने के बारे में जानकारी ले रही एक महिला ग्राहक ने पूछा  कि आई.डी. प्रूफ़ के रूप में बच्ची का पासपोर्ट वैध डाक्युमेंट है न? इतनी छोटी सी बच्ची का पासपोर्ट? वो बताने  लगीं कि इसका पहला जन्मदिन सेलिब्रेट करने वो लोग दो तीन महीने पहले बैंकाक गये थे। और मैं सुबह शाम देखता हूँ पुल के नीचे उस गंधाते बज़बज़ाते नाले के किनारे मानव और पशु मल-मूत्र, हड्डियों और लोथड़ों, कूड़े  के बीच जाने कौन सा  खजाना तलाशते दो साल से लेकर चौदह-पन्द्रह साल तक के बच्चे।  इनका पटाया बीच यही है,  पोस्टल एड्रेस गंदानाला, बारापुला।

बकरे वाली कहानी सच है या गलत, नहीं मालूम क्योंकि इन कहानियों को तर्क की कसौटी पर कसा ही नहीं जा सकता।
दोस्त जरूर सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि मेरी पीने की इच्छा ही नहीं हुई और छोटा  भाई भी सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि देखादेखी मैं भी पीने लगा।
उस प्यारी सी महंगी सी बच्ची को नजर न लगे, जिसे उसके माँ बाप, दादा दादी और नाना नानी पहला जन्मदिन मनाने विदेश लेकर गये और इन लोकल पटाया बीच वाले बच्चों को तो नजर भी कौन लगायेगा, मस्तराम मस्ती में और आग लगे बस्ती में।

क्या चीज है जो दो जीवों के प्राप्य में इतना अंतर डाल देती है? एक जीव अपनी तन की भूख या मन की मौज पूरी करने के लिये दूसरे जीव के प्राण लेने में सक्षम और दूसरा अपने निरीह, सुंदर या उपयोगी होने की कीमत अपना जीवन देकर चुकाने को विवश, बहुत बार तो बचने के लिये विवश आँखों  से देखने के अलावा कुछ और कर सकने में अक्षम। समान अवसर, समान संस्कार  और समान उपलब्धियों के बावजूद किसी विषय पर एकदम विरोधी परिणामों का  निकलना।  एक ही जैविक तरीके से इस दुनिया में  आने वालों के जीवन में इतना वैषम्य कि एक के हाथ में छुरी और दूसरे की गर्दन पर छुरी ?

कॉलेज समय में पढ़ते हुये दोस्तों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के इरादे से बैंक में भर्ती के या दूसरी सरकारी नौकरी के फ़ार्म भर दिया करता था, कभी सीरियसली तैयारी  नहीं की क्योंकि अपने इरादे कुछ और ही थे। नतीजा आता तो पता चलता कि जिन्होंने खूब तैयारी की थी, वो रह गये और मैं पास हो गया। दिल के बहलाने को खुद के उन सबसे ज्यादा स्मार्ट होने का मुगालता पाला जा सकता है लेकिन अपनी सच्चाई खुद को  तो मालूम ही है।  हम सब दोस्त लगभग एक ही लेवल के थे, फ़िर  ऐसा क्यों होता था?

इन सब क्यों और  कैसे जैसे सवालों के बारे में मुझे जो सबसे उपयुक्त जवाब लगता है वो है, कर्मफ़ल। यही सटीक लगता है कि इस दुनिया के चलते रहने के लिये यह माया महाठगिनी आवश्यक ही  रही होगी। हर कर्म का तदनुरूप फ़ल, अच्छा कर्म तो उसका अच्छा फ़ल और बुरा कर्म तो उसका बुरा फ़ल। बुरे परिणाम भुगतते समय तो ज्ञानबोध वैसे ही खत्म हुआ रहता है,  अच्छा फ़ल मिलने पर प्रमादवश तामसिक कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं  जिनके परिणाम भुगतने के लिये फ़िर से इसी चक्र में उलझे रहना पड़ता है। और एकाऊंटिंग सिस्टम इतना चौकस  कि हर बारीक से बारीक कर्म का लेखा हाथोंहाथ अपडेट। एक जीवन तो क्या जाने कितने जीवन और कितनी योनियों तक ये चलता रहता है, आते हैं पिछला भुगतने और नये खाते और शुरू हो जाते हैं। ’जिन्दगी न मिलेगी दोबारा’ पर  किसी तरह यकीन कर लूँ तो फ़िर शायद ’सकल पदारथ है जग माहीं’ हो भी जाये, फ़िलहाल तो इस करमहीन नर को इस बात की ज्यादा चिंता  है कि ’जिन्दगी मिलती रहेगी दोबारा’ :( 

 चलिये, फ़िलहाल समेटता हूँ खुद को नहीं तो लोग पूछेंगे कि सिरीमान जी, तबियत तो ठीक है न? :) 

इधर आने का ईनाम चाहिये? क्लिक करिये-
एकदम से कोई भूला बिसरा गीत याद आ जाता है और हम उसे मन ही मन गुनगुनाने लगते हैं, अचानक ही आप पाते हैं कि वही गीत रेडियो पर बज रहा है। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है? मेरे साथ बहुत बार होता रहा है। अभी तीन चार दिन पहले पुनर्जन्म और कर्मफ़ल विषय पर मित्रों की प्रतिक्रिया जानने की इच्छा से एक छोटी सी पोस्ट लिखी थी, पब्लिश नहीं की। वही रेडियो वाली बात हो गई।इस पोस्ट का लिंक अपनी पोस्ट(जब पब्लिश हुई) में देना चाहूँगा। 

117 टिप्‍पणियां:

  1. जुड़वां बच्चों की तक़दीरें भी एक जैसी नहीं होतीं...

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    1. तकदीरें भी फ़िंगरप्रिंट्स की तरह होती हैं, एकदम से कभी नहीं मिलती।

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    2. बहुत बढ़िया सरजी…

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  2. ये तो गंभीर विषय था पर आपने सरल बना दिया । कुछ लोग तो इसी कारण बहुत काम नही करते कि अगले जन्म में हमारे साथ गलत होगा और कुछ लोग यही सोचकर कि अगला जन्म तो पता नही मिलेगा तो सब अभी कर लो । खैर मूड सही कर दिया आपने तो रात के साढे ग्यारह बजे

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    1. सबकी अपनी अपनी सोच है, अगला सवाल ये है कि सोच पर भी कर्मफ़ल का प्रभाव होता है या नहीं?
      मूड़ सही होने का माध्यम बना मैं, यानि कि अच्छा कर्म:) धन्यवाद मनु जी।

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  3. सब भौतिक और आध्यात्मिक आकर्षण है, बस निर्भर करता है कि किसी को कौन ज्यादा आकर्षित करता है ।

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    1. मर्म की बात कही विवेक जी। मुझे लगता है अधिकतर मामलों में दोनों पलड़े ऊपर नीचे होते रहते हैं।

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  4. उदाहरण बेहतर चुने, गंभीर विषय को रोचक और सहज बनाने के लिए....
    भाई मैं तो मानता हूँ, कर्मफल को भी और पुनर्जन्म को भी... कई मिल जायेंगे नहीं मानने वाले...
    इसे इस उदाहरन से भी समझ सकते हैं, राहुल गाँधी के पूर्व जन्म के ही कर्म है कि राजीव गाँधी के घर पैदा हुआ, विरासत मिली, इसके लिए उसने इस जन्म में कोई कर्म नहीं किया, वही मेनका गाँधी भी उसी खानदान में ब्याही लेकिन वह और उसका बेटा पूर्वजन्म के कर्मों के कारण सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी वाले सुख/स्थिति से वंचित हैं.

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    1. आपका दिया उदाहरण और भी मस्त है। वैसे मैं इस स्थिति को सुख वाली स्थिति नहीं मानता, कभी ऐसी स्थिति की कामना अपने लिये या अपनों के लिये नहीं कर सकता।

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    2. मेरी समझ से .... धोखाधड़ी और मक्कारी से जोड़ा गया धन, ऐश्वर्य, पद और प्रतिष्ठा (खोखली) को कर्मफल और भाग्यफल से नहीं जोड़ना चाहिए।

      समाज और राष्ट्र से अपनी सच्चाई छिपाकर रखना जिस परिवार का संस्कार बन गया हो वे अपने इस जीवन के कर्म के आधार पर अगले जीवन में कष्ट सहेंगे ... इसकी क्या गारंटी ... इसलिए उनके अगले जीवन तक मामले को न खींचते हुए उन सभी दुष्टों का फैसला इसी जीवन में करना सही होगा।

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  5. कुछ तो होता जरुर है . वरना आजीवन दूसरों को दुखी करने वाले सुखी जीवन बिता लेते हैं जबकि सच्चे संवेदनशील लोग जीवन भर नाकामियां झेलते हैं ...अब ये कर्मफल है या जन्म जन्म का फेर , ऊपर वाला ही जाने !
    कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर !

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    1. @ अब ये कर्मफल है या जन्म जन्म का फेर -
      ऊपर वाला तो सब जानता है, मैं 'या' की जगह 'और' वाली थ्योरी से खुद को ज्यादा एकमत पाता हूँ।

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    2. ऊपर वाला शायद बहुत ऊपर चला गया है ... उसने नीचे वालों की फिकर करना बंद कर दिया है।

      जो कुछ भी घटित-अघटित हो रहा है उसके कुछ ओर ही कारण हैं :

      मुझ समेत कई और जनों ने एक छोटे अधिकारी से मिलने को एक छोटी पर्ची से आवेदन किया।

      उसने मुझे पहले बुलाया, देर तक बात की। काम होने का भरोसा दिलाया। पानी-चाय कोपूछा।

      इस सुखद एहसास का कारण मेरे पूर्व जन्म के कर्म नहीं थे। और न ही मेरा भाग्य ऐसा कि वह किसी ईश्वरीय प्रेरणा के वशीभूत उसे पूरा करने धरती पर घूम रहा हो।

      इसका सीधा सा कारण था - वह भी मेरे भाग्य (और के दुर्भाग्य) से वशिष्ठ था। नाम था 'विपुल वशिष्ठ' नाम और गोत्र की धुन एक-सी।


      इसी तरह बहुतेरे कारण गिना सकता हूँ जिनकर भाग्यवादी लोगों का ध्यान नहीं जाता। जाता भी है तो बताते नहीं।

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    3. * sudhar :
      वह भी मेरे भाग्य (और 'ओरों' के दुर्भाग्य) से वशिष्ठ था।

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  6. फत्तू इधर बहुत दिनों से नजर नहीं आ रहा... क्या वो ईएल पर है?

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    1. SOS भेजता हूँ सरजी, उम्मीद है कि फ़त्तू भागा आयेगा :)

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    2. शायद पूर्वजन्म का फ़ल है फ़त्तू के ...जो नजर नहीं आ रहा...:-)

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    3. हमारी थ्योरी हमारे ही सिर..:)

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    4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    5. आप सोचते होंगे ... नाम से मेरी धुन वाले व्यक्ति ने मेरा काम किया होगा। दरअसल जिसे मैं 'मेरा काम' कह रहा हूँ वह उसकी ऑफिशियल ड्यूटी ही थी। सभी की नज़रों में मैं भाग्यशाली और पूर्वजन्म का भोक्ता बना हुआ हूँ लेकिन सच्चाई इसके ठीक उलट है। उसने मुझे चार महीने जो अपनी मीठी जुबान से मानसिक यंत्रणा दी वह अवर्णनीय है। मीठी जुबान के साथ झूठे दिलासे और हरामखोरी के मिश्रण वाला शरबत यदि पीने को मिले तो कभी दोबारा जन्म लेने की नहीं सोचोगे। लेकिन ये जन्म और पुनर्जन्म कहीं आपके सोचे से तो होता नहीं। इसपर हमारा वश नहीं। बिलकुल नहीं। इस प्रक्रिया पर बहुत जटिल चिंतन है जो फिर कभी परोसूँगा।


      मैं संजय जी की लेखन शैली का सदा से कायल रहा हूँ। मेरा भाग्य है कि मैं इस जन्म में उन्हें साक्षात पढ़ पा रहा हूँ। :)

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  7. जिनका चिंतन सर्वजनहिताय होता है उससे लोग पूछते ही आए है तबियत ठीक है न ..
    तबियत सही हो तो लोग सिर्फ अपनी सोंचते हैं ..

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    1. Respected संगीता जी,
      इस टिप्पणी के आगे ये पोस्ट पानी भरती है, बहुत बहुत धन्यवाद।

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  8. हमारे पास दो हाथ हैं , एक जिस को सीधा हाथ कहते हैं , एक जिसको उल्टा हाथ कहते हैं . सीधा हाथ यानी तो हम खुद अपने लिये करते हैं , उल्टा हाथ यानी तो हम करने के लिये आये हैं
    दोनों का जोड़ / घटा मिला कर जीवन चलता हैं . कर्म होते हैं , आपके कर्म आप का अच्छा बुरा सब आप को इसी जीवन में ही दिखता हैं . अगर अपने से छोटा यानी आयु में कम हम से पहले मृत्यु को प्राप्त होता हैं तो वो पहला संकेत हैं की चेत जाए अपने काम को सुधारे .
    हां मुझे आपत्ति होती हैं जब कोई कहता हैं की एक अमीर बच्ची क्युकी बच्चे अमीर गरीब नहीं होते उनके परिवेश होते हैं और परिवेश लालन पालन सबके अभिभावक अपने हिसाब से करते हैं . मेरी भांजी को उसकी नानी अपने रिटायरमेंट के बाद अपने पैसे से बैंकाक/ सिंगापोर घुमाने लेगयी वो नानी तो गाव से निकल शेहर आयी थी , जिन्होने गरीबी से अमीरी { आप को वो अमीरी लग सकती हैं मुझे नहीं लगती अपने लिये नहीं किसी के लिये भी } तक का रास्ता अपनी पढाई और काबलियत से पूरा किया और अपनी नातिन को घुमाने ले गयी

    अमीरी और गरीबी की तुलना , काले गोरे की तुलना , लडके लड़की की तुलना , तुलना से ऊपर ना उठ सकना हम मानवो की कमी हैं

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    1. ’इसी जीवन’ वाली थ्योरी मैं नहीं मानता। मृत्यु आगे-पीछे वाली बात में जो रह गया आप उसी के बारे में सोच रही हैं और जो चला गया, मैं उसके बारे में ज्यादा सोच रहा हूँ। बहुत नजदीक से ऐसे मामले देखे हैं कि बच्चे का जन्म हुआ और तुरंत इंक्यूबेटर\सर्जरी जैसे झमेलों में उलझ गया। बहुत बार तो वहीं से ..। इसके अतिरिक्त रोज समाचार आते हैं कि कूड़े के ढेर में नवजात बच्ची मिली। ऐसे बच्चों ने इस जीवन में किसका क्या बिगाड़ा था जो पैदा होते ही कई तरह के कष्ट उठाये।
      मैं आपकी भाँजी के बारे में सोचता हूँ कि पूर्वजन्मों के अच्छे कर्म होंगे। भविष्य के लिये भी शुभकामनायें।
      अमीर-गरीब पर आपकी आपत्ति सही हो सकती है।
      तुलना हमेशा से होती आई है और होती रहेगी।

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    2. नवजात को प्राप्त सुख सुविधाएँ अगर उसके अभिभावको की काबिलियत है तो फिर मानना पडेगा कि अभावोँ मेँ बसर करते बच्चोँ के अभिभावक नाकाबिल है. किंतु यह यथार्थ नही होता और यह न्यायोचित भी नही.


      अमीरी गरीबी की तुलना किए बिना गरीब के शोषण अभाव और पीडा को आप समझ ही नही सकते, काले गोरे की तुलना बिन अनाकर्षण हीनता बोध आप समझ ही नही सकते,लडके लड़की की तुलना पक्षपात अत्याचार अनाचार को रेखाँकित तक नही कर सकते. तुलना से ही पक्षपात को उजागर कर समानता के ध्येय मेँ बाँधा जा सकता है.
      हो भी सकता है तुलनात्मक निर्धारण से किसी के साथ कमी बेसी प्रकट करना हम मानवो की कमी हो फिर तब भी यह प्रश्न मुँह चिडाएगा कि यह मानवीय कमी हममेँ क्योँ है क्या कारण है क्योँ कोई ऐसा विशेष आचरण ही कर रहा है?

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    3. sanjay
      @ऐसे बच्चों ने इस जीवन में किसका क्या बिगाड़ा था जो पैदा होते ही कई तरह के कष्ट उठाये।
      आपकी इस बात का जवाब मैने पहले ही दिया हैं @अगर अपने से छोटा यानी आयु में कम हम से पहले मृत्यु को प्राप्त होता हैं तो वो पहला संकेत हैं की चेत जाए अपने काम को सुधारे .
      @मैं आपकी भाँजी के बारे में सोचता हूँ कि पूर्वजन्मों के अच्छे कर्म होंगे।

      ये उसकी नानी के इस जनम की मेहनत हैं

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    4. suyagy
      @अमीरी गरीबी की तुलना किए बिना गरीब के शोषण अभाव और पीडा को आप समझ ही नही सकते,

      गरीबी , जनसंख्या , फॅमिली प्लानिंग , शिक्षा , बेटी से संतुष्टि , बेटे की चाह में बेटियाँ
      शोषण समझने के लिये एनालिसिस

      @काले गोरे की तुलना बिन अनाकर्षण हीनता बोध
      अगर सब को ईश्वर ने रचा हैं , तो आकर्षण इत्यादि महज मिथिया भ्रम हैं . शरीर केवल शरीर हैं बोध हम देते हैं

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    5. रचना जी,


      बिना तुलनात्मक अध्ययन के विश्लेषण(एनालिसिस)? क्या हो पाएगा एक बार पुनः सोच लीजिए......"बेटे की चाह में बेटियाँ" देख लीजिए इसमेँ तुलना अंतर्निहित है. अमीरी के सुख दर्शाए बिना आप गरीबी को गरीबी तक साबित नही कर सकते.उसी तरह आप विपक्ष विचार से तुलना किए बिना स्वपक्ष को परिभाषित तक नही कर सकते विश्लेषण दूर की बात है. आकर्षण और विकर्षण सभी मिथ्या भ्रम है बात तो सही है लेकिन होता तो है लोग मिथ्या भ्रम मेँ जीते तो है ही. सुख दुख आदि ऐसे कितने ही मिथ्या भ्रम मेँ लोग जीते ही है, ऐसे जीना ही कर्मफल की सम्भावनाओँ को स्पष्ट करता है अन्यथा सभी न कह उठे कि सत्य हमने जान लिया है.

      (सँजय जी अगर विषयाँतर लगे तो टोक दीजिएगा.)

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    6. रचना जी, ये मेरी जिज्ञासा का जवाब नहीं है बल्कि आपकी बात का सपोर्टिंग स्टेटमेंट है। शायद कुछ कॉम्युनिकेशन गैप हो रहा है।

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    7. सुज्ञ ji
      maere shabd ek krm sae haen jaraa us krm par nazar daale wo analysis haen

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    8. ---और इसे प्रजातिगत जेनेटिक कमी कहें या विशेषता ...यह पूर्व जन्म के कर्म फल है या स्वयं की ओढी हुई इस जन्म की कर्मशीलता/अकर्मशीलता ... कैसे ज्ञात हो..

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    9. सुज्ञ जी का पक्ष हमेशा से ही मुझे सुलझा हुआ सा क्यों लगता है?
      रचना की बात मुझे दो-तीन बार क्यों पढनी पढती है?
      श्याम जी तो इतने सक्षम है जो अपने उठाये प्रश्नों को स्वयं ही सारगर्भित उत्तर दे सकते हैं। वे इस सन्दर्भ में खुद क्या सोच रखते हैं? पहले वे विस्तार करें ... जिज्ञासा है। बाक़ी चर्चाकार के विचार भी जानने को उत्सुक हूँ।

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    10. क्षमा के साथ सुधार :
      *रचना = रचना जी

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    11. @ रचना जी, आपकी हिन्दी से शिकायत नहीं। जब आप हिंदी में लिखते हैं तो ही अच्छा लगता है। आपके इंग्लिश में लिखे को तो बामुश्किल समझ पाता हूँ। इसलिए आपकी हिंदी कवितायें हों अथवा हिंदी में विचार-लेखन या फिर टिप्पणियों में विरोधी तेवर की झलक हमेशा ध्यान खींचते हैं। आपके लिखे को दो-तीन बार पढने की वजह यही है कि हम खुद को विश्वास दिलाते हैं कि जो कहा गया है वही समझे हैं या उसके अलावा। जब कोई बड़े मंच का प्रतिष्ठित व्यक्ति कुछ कहता है तब भी उसे दो-तीन बार पढ़ना पड़ता ही है। मैंने इसलिए भी ये बात कही कि बिना तुलनात्मक सोच के कभी किसी भी पाले (पक्ष) में खड़ा नहीं हुआ जा सकता। एक पक्ष को तो स्वीकारना पड़ता ही है। 'तटस्थ रहना या दिखना' एक प्रकार की निरुपाय वाली स्थिति है।

      किन्हीं भी दो बच्चों (काले-गोरे, अमीर-गरीब, मेधावी-मूर्ख) में तुलना हमारा चेतन न सही अवचेतन मस्तिष्क तो कर ही लेता है। मानव रंगों से, ध्वनियों से, गंधों से और स्वादों से बंधा रहने वाला श्रेष्ठतम जीव जो है।

      आपसे विमर्श करना हमेशा मुझे सुखकर अनुभूति कराता है अपेक्षाकृत अन्यों के। क्योंकि आप बहुत बारीकी से सोच-विचार कर लिखते हैं। यूँ कहूँ तो बुरा नहीं मानियेगा ... 'बाल की खाल निकालने में आप निष्णात हैं।' और जब बाल की खाल देखने को मिलती है तो बार-बार पढ़ना पड़ता है। :)

      जहाँ तक सुज्ञ जी बात है ... वे वही कहते हैं जो हमारी सोच पकड़ नहीं पाती, उस पर भी दृष्टि ले जाते हैं, विस्मित करते हैं। :)

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    12. प्रतुल जी,
      पहली फ़ुर्सत में ही इस पोस्ट के बाद की पोस्ट परोसता हूँ, अपेक्षा पर खरा उतरने की कोशिश रहेगी।

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    13. प्रतुल जी,
      आभार!! लेकिन इस दृष्टि मेँ वैशिष्ट्य जैसा कुछ भी नहीँ है. हमेँ मात्र सम्यक सोच पर सजग रहना है, सामान्यतया सिक्के के अपनी तरफ के पहलू पर दृष्टि जाती है सजगता यही है कि सर्वप्रथम विपरित दिशा के पहलू को समझा जाय, उपराँत सम्भावित सभी दृष्टिकोण पर चिँतन किया जाय और उसके बाद दृश्यमान पहलू को परखा जाय. निराकरण आसान और सहज हो जाता है.

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  9. हर बार सोचने का महत्कर्म दे जाते हैं आप, कम से कम सप्ताह भर के लिये।

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  10. यह दुनियाँ आश्चर्यों से भरी पड़ी है। कुछ देखते हैं, अचरज करते हैं, संवाद करते हैं, प्रश्न पूछते हैं, उलझते हैं, परेशान रहते हैं। दूसरे वे हैं जो कुछ भी नहीं करते बस जीते चले जाते हैं पशुओं की तरह।

    बकरा कटने से पहले जितना जीता है, उस जीवन का भरपूर आनंद उठाता है। उसे यह भय नहीं होता कि कल कटना है। कसाई काटता है कि शाम को घर लौटे तो बच्चों के लिए दो रोटी का जुगाड़ कर सकूं। राजा को खाने में मजा आ रहा है लेकिन दुःखी हैं तो वे जो न काटते हैं, न कटते हैं और न स्वाद लेते हैं।

    दुःख, सुख भी महसूस करने की बात है। बैंकाक वाली प्यारी बच्ची जन्मदिन मनाकर लौटते वक्त किसी ऐसी बात से दुःखी हो सकती है जो अभी भी उसके ममा ने पूरा नहीं किया। कूड़े के ढेर से कूड़ा बीनने वाला बच्चा खुश हो सकता है कि उसे आज रोज की तुलना में कुछ ज्यादा मिला।

    पिताजी का बहाना बनाकर जो शराब पीता है वह भी मूर्ख है और जो पिताजी को शराब में डूबा देखकर नहीं पीता वह भी मूर्ख है। समझदार वह है जो इसलिए नहीं पिता कि यह बुरी लत है। समझदार वह है जो कम से कम इतना पी ले और जान जाये कि शराब का स्वाद कैसा होता है।

    संसार आश्चर्यों से भरा पड़ा है। इसका आनंद लेना हो तो बच्चों की तरह कौतूहल भाव से इसे देखना चाहिए। पूर्वाग्रही बनकर, ज्ञानी बनकर बनकर नहीं। किसी एक किनारे पर खड़ा होकर जब हम दुनियाँ को देखने निकलते हैं तो सामने बहती नदी और उसकी लहरें ही दिखलाई पड़ती हैं, दूसरा किनारा नज़र नहीं आता। आता भी है तो धुंधला नज़र आता है। मजा तो तब है जब नाव को मझधार में बहने दें और दोनो किनारों का आनंद लें।

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    1. बघरा हुआ ज्ञान मिला...धन्यवाद...

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    2. देवेन्द्र जी को तो कोई अंतर्यामी ज्ञान हो गया लगता है.... :)

      -बकरा कटने से पहले जीवन का भरपूर आनंद उठाता है।
      -उसे यह भय नहीं होता.

      -कसाई बच्चों के लिए सीधे दो बोटी का जुगाड़ न कर् दो रोटी का जुगाड़ करता है.
      -जो काटते हैं, जो कटते हैं और जो स्वाद लेते हैं, सुखी है. और जो यह नही करते दुःखी है.
      दुःख, सुख जब महसूस करने की बात है तो जिस तरह सुख मेँ दुखी और दुख मेँ सुखी साबित कर रहे है तो क्या आश्चर्यर कि लोग दुख मेँ दुखी और सुख मेँ सुखी भी होते हो.


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    3. बच्चे के कौतुहुल में जिज्ञासा भाव तो रहता ही है देवेन्द्र भाई, वही है इधर। हम भी कहाँ किसी पर अपनी बात थोपते हैं? न थोपें न थुपवायें :)
      स्वाद लेने के लिये एक बार कोकीन\हेरोईन का जुगाड़ करता हूँ, शायद समझदारी झलक दिखला दे:)

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    4. क्या शानदार बात कह दी देवेन्द्र जी आपने. थ्री चियर्स आज रात आपके नाम, उसके बाद का जाम हमारे नाम. ;-)

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    5. देवेन्द्र भाई के नाम थ्री चियर्स होंगे, इस बहाने हम भी तो कहीं न कहीं याद आयेंगे ही:)

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    6. महाराज श्री देवेन्द्र पाण्डेय जी ने जो वचन कहे उसपर सभी एक बार जोर से जयकारा लगा लें 'बोल सांजे दरबार की ... " .............. 'जय'


      महाराज श्री को संत श्री सुज्ञ जी महाराज ही संभाल सकते हैं। हम तो सत्संग का आनंद लेने को जमे बैठे हैं।

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  11. जिसका जैसा साफटवेयर, उसका वैसा ही जीवन।
    हर किसी का साफवेयर जन्म के पहले ही तय हो जाता है।

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    1. हम भी यही मानते हैं जी, पिछली प्रोग्रामिंग है जिसे इस जन्म में अपने कर्मों द्वारा अपग्रेड कर सकते हैं।

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  12. भावों का रोचक प्रस्तुतीकरण |
    सभी दृष्टांत सन्देश देने में सक्षम -
    शुभकामनायें-

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  13. आपने बहुत ही सरलता से परिणामो मेँ वैषम्य पर प्रश्न उपस्थित किया.

    कर्मसिद्धान्त और उसके भवो भव के परिणाम निर्धारण पर संशय स्वभाविक भी है. क्योँकि पूर्वकृत कर्मोँ की स्मृति नही रहती. कितने भी कारण खोज लिए जाय अंततः सटीक कारण अनजाना ही रह जाता है. लोग सफलता के लिए सुन्दरता, आकर्षण, तीक्ष्ण बुद्धि,काबिलियत, अनुकूलता, अवसर आदि को कारण की तरह प्रस्तुत करते है किंतु इन सारी अनुकूलता का हमारे साथ ही सँयोग क्योँ हुआ? प्रश्न अनुतरित रह जाता है. चिंतन के इस बिन्दु पर जाने के बाद कर्मफल पर सन्देह का कोई कारण नही बचता.
    किंतु इसका अर्थ यह भी नही कि होगा वही जो कर्मफल मेँ निश्चित है,पुरूषार्थ का 80% हिस्सा होता है, दुखभोग की सम्भावनाएँ सद्कर्म रूपी पुरूषार्थ से बहुत कुछ कम की जा सकती है. कर्मोँ मेँ भावोँ की तीव्रता पर निराकरण निर्भर करता है. कृत कर्म हम सुधार नही सकते किंतु उसके प्रभावोँ की तीव्रता अपने सदकार्य से कम अवश्य कर सकते है.

    गहन चिँतन को प्रेरित करती और सत्य मार्ग को इँगित करती पोस्ट. आभार संजय जी!!

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    1. सहमत हूँ सुज्ञजी, कर्मफ़ल पर यकीन करते हुये कर्म के महत्व को मानता हूँ, ’मा फ़लेषु कदाचन: तक बात आयेगी।’

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  14. वाह आज तो बहुत दार्शनि‍क सी पोस्‍ट हो गई. अच्‍छी लगी.

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    1. परिवर्तन प्रकृति का नियम है जी, कभी कभी ऐसे भी सही:)

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  15. आह क्या कहा जाय जो जैसा है वैसा ही है -किसकी मर्जी है यह?

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  16. सभी मुद्दे विचारणीय हैं लेकिन टिप्पणी नहीं लिख पा रहा (लम्बी और उलझाव भरी हो जायेगी) कभी बात करेंगे, लेकिन अभी इतना ही कहूंगा कि यह सब सोच पाना ही हमारी इंसानियत का साक्ष्य सा लगता है वरना - सुखिया सब संसार है, खाए और सोये ...

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    1. हम इंतज़ार करेंगे दिसंबर जनवरी तक, .... और बात होवे:)

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  17. ... खुदाया कैसे तूने ये जहाँ सारा बना डाला ...

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    1. किसी को गुल किसी को अंगारा बना डाला...
      बहुत पसंद है जी हमें ये गज़ल।

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  18. हमने ज़िन्दगी को बहुत पेचीदा बना दिया है...और उम्मीद रखते है सब हमारे विचारों को माने...ज़िन्दगी सिर्फ जीने के लिए है...जिन्हें एक बार लगती है...वो खुल के जी लेते हैं...टमाटर वाला फेस्टिवल मनाने स्पेन पहुँच जाते है...बाकि अगले जन्म के लिए छोड़ देते है...खैर गानों के मामले में मेरा भी अनुभव आपसे भिन्न नहीं है...कुछ जगहों पर तो पहली बार में मुझे लगा है की मै यहाँ पहले भी आया हूँ...चूँकि कवि/लेखक कल्पना में ही जीता है इसलिए किसी से कह भी नहीं सकता...

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    1. अपने मतलब के मतलब निकाल लेते हैं, बाकी से पल्ला झाड़ देते हैं।
      Deja vu पर पिट्सबर्गिया झोले में भी कुछ है, रुचि हो तो बताईयेगा लिंक मुहैया हो जायेगा।

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    1. ये स्माईली न होता तो अगाध ज्ञान के सागर में प्रसन्नता की सुनामी आ गई होती। काश खींचने के डॉलर लगते होते...:)

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    3. काश खींचने के डॉलर लगते(अर्थात खिंचने के मिलते)!! आने दीजिये एकाऊंट नंबर, देख लेंगे उसे भी:)

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  20. भैया जी बार बार पढ़ने चिंतन करने बाद भी बस इस पोस्ट पर चिंतन ही का विचार आ रहा है क्या कहूँ प्रणाम स्वीकारें अगली पोस्ट का बेसब्री से इंतजार

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  21. बहुत सारे कंट्रास्ट दिखाए आपने आज.. मुझे भी याद आया कि कभी कमेन्ट में कहा था मैंने किसी पोस्ट पर कि समाज में दो तरह के बच्चे पाए जाते हैं.. एक वो जिन्हें भूख लगते ही खाना मिल जाता है और दूसरे वो जिन्हें खाना मिलते ही भूख लगती है..
    और शराब वाली बात पर तो हमारे बैंकिंग का पुराना किस्सा.. एक टापू पर एक आदमी जूते की मार्केटिंग के लिए गया और रिपोर्ट भेजी कि यहाँ तो कोई जूते पहनता ही नहीं, इसलिए जूतों का मार्केट ही नहीं.. दूसरा आदमी भी वहाँ गया और उसकी रिपोर्ट कहती थी कि यहाँ ज़बरदस्त स्कोप है, यहाँ तो कोई जूते पहनता ही नहीं!!!
    और आखिर में रेडियो वाली बात के संयोग के कई किस्से चैतन्य को सुना चुका हूँ और कुछ तो आपके साथ भी हुए!!
    मगर इस बार कुछ ज़्यादा सीरियस लग रहे हैं आप!! सब ठीक-ठाक!!

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    1. हम आपको एक बात खाने की सुनाते हैं। किसी ने पूछा कि खाने का सबसे अच्छा समय कौन सा है? जवाब मिला, "गरीब को जब मिल जाये और अमीर का जब दिल करे।"
      सीरियस वीरियस कुछ नहीं हैं जी, बाबे दी फ़ुल्ल कृपा है:)

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    2. बाबे दी फ़ुल्ल कृपा है:)---यही तो....

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  22. भारत में बच्चों की स्थिति तो बड़ी भयावह है. और यह सुधरेगी नहीं. सुधारना चाहता कौन हैं यहाँ. जिनपर जिम्मेदारी है वह चाहते हैं और बढे, कम से कम वोट तो मिलेंगे...

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    1. वोट बढ़ते रहेंगे सरजी, इस मामले में लोग बहुत कर्मठ हैं।

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  23. जोड़-घटाव का हासिल सिफर भी निकल आता है.

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    1. पूर्णमिदं पूर्णमद पूर्णस्य पूर्ण वशिष्यते
      पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिस्यते,

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  24. धनभाग, कर्मभाग या पिछला अगला जन्म भाग या गुणाभाग जो भी आप मान ले हमारे की हम इस पोस्ट पर देर से पधारे पोस्ट तो पोस्ट टिप्पणियों ने भी ज्ञान दिया , उस पर से यदि हम सही समझ रहे है तो पोस्ट का संदर्भ ग्रन्थ भी हमको पता है , आर्थात ज्ञान का भंडार उसके लिए सभी का धन्यवाद ।


    किन्तु हम समझेंगे वही जो हम हमझना चाहते है , या जो हम पहले से ही समझे हुए रहते है , या जिसके समझने में हमें फायदा होगा , या जो समझाइश हमारे धर्म और कर्म से जुडा है , या समझाने वाला हमारा मित्र, समर्थक , हमारी सोच वाला है या कोई और आदि इत्यादि ,

    1-ये जन्म जन्मान्तर वाली बात हम विश्वास नहीं करते है , सारा गुणाभाग इसी जन्म में ख़त्म ,

    2- मजेदार और सही हर व्यक्ति की अपनी सोच और समझ होती है एक ही बात को लोग अलग अलग कोण से देखते है वैसे कई बार काला और सफ़ेद के साथ आप को ग्रे भी मिलेगा ।

    3- हम अपनी बिटिया को अपनी तरफ से हर संभव सुख सुविधा देते है ( अब आप की मर्जी अमीर कहिये गरीब कहिये जो चाहे वो कहिये ) हजारो लाखो बच्चे दुनिया में भूख से मर रहे है , यदि कोई बच्चा मेरे सामने आया तो जरुर उसकी मदद करुँगी मुंह नहीं फेरुंगी किन्तु कही कोई ऐसा है इसलिए मै अपनी बच्ची की सुविधाओ में कमी कर दू तो ऐसा नहीं करने वाली हूँ , हमारी बच्ची को जो मिल रहा है वो हमारा कर्म है और जब वो बड़ी होगी ओ जो कुछ पायेगी वो उसका कर्म होगा ।

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    1. ये न.३ वाला ही सबसे सही है जी....

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    2. @ anshumala ji:

      सब प्रकार के भाग हमारे,
      जो देर से ही सही आप पधारे।
      न पधारते तो हम क्या कर लेते भला?

      हमझने आई मीन समझने वाले आपके सारे याईया टाईप विकल्प सही हैं, ऐसा ही होता है। सन्दर्भ आदि के मामले में भी आपकी समझ पर बहुत विश्वास है:)

      १. अपना अपना विश्वास।

      २. ये भी सही।

      ३. पहले प्वाईंट वाले विश्वास पर निर्भर। मैं मानता हूँ कि कम आयु वाला phase वो पीरियड है जिस दौरान एक जीव कर्म करता कम है, पिछले हिसाब ज्यादा निबटाता है। ज्यूँ-ज्यूँ उम्र बढ़ती है, नई entries होने लगती हैं। may be I am wrong, I always keep this option open.

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  25. मेरा कर्म ही मुझे यहां खींच कर ले आया और यह सुंदर पोस्ट पढ पाई । कितनी बार हमें ऐसा लगता है कि फलां तो इतना अच्छा व्यक्ति है फिर उसके हिस्से ये दुख क्यूं । हाल ही में णैने कर्म का सिध्दांत मामक एक छोटी सी पुस्तिका पढी । लेखक का कहना है कि यदि हमारा एक कर्म एक साइलोनुमा कोठी में संचित है यदि पहले गेहूं डाला है तो अभी नीचे से गेहूं ही निकलेगा । चाहे इभी आप उसमें बाजरा या जवार ही क्यूं ना भर रहे हों । और ्चचे और बुरे कर्म एक दूसरे को कैन्सिल भी नही करते इसमें जोड घटाव नही होता । अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का बुरा फल देर सवेर मिलना ही है । हमारे बस में जितना हो अभाव ग्रस्तों की मदद कर सकें यही सही होगा .

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    1. आप सुधीजनों की टिप्पणियाँ ही इस पोस्ट की सुंदरता हैं।
      हो सके तो पुस्तक के बारे में कुछ और भी बताईयेगा, इस साइलोनुमा उदाहरण ने इस पुस्तक के बारे में उत्सुकता बढ़ा दी है।
      मैं भी ऐसा ही मानता हूँ कि एक अच्छा और एक बुरा कर्म आपस में केन्सिल नहीं होते।
      इस अमूल्य प्रतिक्रिया के लिये आपका आभारी हूँ।

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  26. कर्म-फल के कारण ही न जाने व्‍यक्ति कहाँ से कहाँ पहुंच जाता है। अच्‍छी पोस्‍ट है।

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  27. .
    .
    .
    आपके लिखे तीनों वाकयों पर यह है अपना नजरिया...

    १- मान लिया जाये यह सच ही है तो मेरे मझोले शहर में १०० बकरे का मीट बेचने वाले हैं, ५२ मंगल और कुछ और छुट्टियाँ छोड़ साल के बाकी ३०० दिन कम से कम एक काटते हैं, चालीस साल का एवरेज कैरियर है सबका... तो कुल बकरे कटे १०० X ३०० X ४० = १२०००००... अब अगले जनम को जम्प करिये... कसाई १२००००० और बकरे केवल १००... हिसाब जमा नहीं...
    २- शराब न पीना अच्छे व पीना बुरे चरित्र का द्मोतक नहीं है... बुरा है शराब का गुलाम हो जाना व नशे में धुत हो अनाप शनाप बोल/हरकत कर अपना मखौल उड़वाना... वरना दुनिया की कई बेहतर खाने पीने की चीजों की तरह ही शराब भी है... इसे पीना या न पीना आदमी के अपने आत्मनिर्णय पर निर्भर करता है... कर्मफल से इसका क्या लेना देना...
    ३- एक बच्ची का जन्मदिन मनाने पटाया जाना व उसी की तरह की दूसरी बच्ची का नाला किनारे कूड़ा बीनना...यह हमारे समाज की सामूहिक नाकामी है, जिसे धर्म कर्मफल जैसी अवधारणा के तले ढकना चाहता है... इसी विश्व में स्वीडन व डेनमार्क जैसे देश भी हैं जहाँ हर बच्चा सम्मान का जीवन जीता है...

    आभार!


    ...

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    1. ----परन्तु शराब पीने से ही ये सारे भाव-दुर्गुण उत्पन्न होते हैं एवं आत्म-निर्णय को प्रभावित करती है....
      --- और जहर भी तो सारी खाने-पीने की वस्तुओं की भांति एक वस्तु है उसे क्यों रोज नहीं पीते हैं...
      --- क्या वह व्यक्ति इसलिए पटाया न जाय कि दूसरे गली के बच्चे नहीं जा सकते...
      --- सच तो यही है कि ये कर्म-फल ही हैं...इस जन्म के ...पिछले जन्म के दोनों ...
      --- क्या हारने वाली टीम इसलिए जश्न न मनाये कि हारने वाला दुखी है शोक संतप्त है ...

      हटाएं
    2. प्रवीण जी के तीनो बिन्दूओ से सहमत हूँ।शराब एक लत बन जाए तो बुरी है ।वैसे लत तो हर चीज की ही बुरी है।और उन्होंने ये नहीं कहा है कि जो बच्चे अभावग्रस्त नहीं है उन्हें भी सुख सुविधाओं से वंचित किया जाए ।बल्कि ये कहा है कि कुछ बच्चे यदि अभावो में रह रहे हैं या कुपोषित हैं तो कहीं न कहीं यह हमारे पूरे समाज की नाकामी है।किसी बच्चे का इलाज के अभाव में दम तोड़ देना तो पूरे समाज के लिए शर्म से डूब मरने वाली बात है।लेकिन हमारे यहाँ इसकी परवाह कोई करता ही नहीं।वर्ना सब साथ आएं तो स्थिति बदल सकती है ।कर्मफल पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसलिए बनाया गया होगा ताकि लोग बुरे कर्मो से डरे लेकिन हो रहा है उल्टा एक तो धर्म के धंधेबाजो ने अपनी दुकानदारी चमका ली दुसरा यदि कोई अभावग्रस्त या बीमार या अपाहिज है उसे उसके हाल पर छोड़ दिया गया।हर कोई बुरे कर्मो की वजह से ही दुखी नहीं होता।

      हटाएं
    3. प्रवीण भाई,
      आपकी प्रतिक्रिया के लिये विशेष धन्यवाद।

      १. जो पुनर्जन्म वाली थ्योरी में यकीन रखते हैं, वो अनंत जन्म शृंखला में भी यकीन करते हैं। और जो हिसाब आपको जमा नहीं, उसी हिसाब के चलते मुझे पुनर्जन्म वाली थ्योरी जमती है। किसी एक जन्म में हिसाब किताब पूरा मिल नहीं सकता, इसीलिये जन्म-दर-जन्म होता है। आई रिपीट, मैं गलत हो सकता हूँ लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ।

      २. मैंने शराब पीने न पीने को चरित्र से नहीं जोड़ा, एक उदाहरणमात्र दिया है जोकि एकदम सही उदाहरण है। शराब अच्छी चीज है या बुरी चीज, ये एक अलग विषय है।
      "दोस्त जरूर सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि मेरी पीने की इच्छा ही नहीं हुई और छोटा भाई भी सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि देखादेखी मैं भी पीने लगा।" ’इतनी’ से मैंने आदत का गुलाम होने की intensity जरूर खुद ही जोड़ी थी।

      ३. सोचता हूँ अंगद की तरह पाँव अड़ा ही दूँ:) उन बच्चों के पिछले जन्मों के अच्छे कर्म रहे होंगे जो स्वीडन\डेनमार्क जैसी जगह पर जन्म लिया।
      पूरे समाज की नाकामी जरूर है लेकिन डायरेक्टली तो कुछ ही हैं जो ये करने-सहने को मजबूर हैं।

      पुन: आभार।

      हटाएं
    4. Dr. shyam gupta:
      आपकी बात से सहमत हूँ, आपकी टिप्पणियों के लिये धन्यवाद।
      आपकी प्वाईंटवाईज़ प्रतिक्रियायें हमेशा मुझे ऑडिट रिपोर्ट्स और उनके जवाब की याद दिलाती हैं। शायद पहली बार आपका इधर आना हुआ, धन्यवाद स्वीकार करें।

      हटाएं
    5. राजन,
      "कर्मफल पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसलिए बनाया गया होगा ताकि लोग बुरे कर्मो से डरे" बिल्कुल ऐसा हो सकता है कि ये कहानियाँ शायद हमें सद्कर्मों के लिये प्रेरित करने के लिये ही प्रचारित की गई हों।
      वैसे इस पोस्ट का पार्ट टू भी सोचा है, हो सकता है मेरा इसे लिखने का मंतव्य और स्पष्ट हो।

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    7. १- मान लिया जाये यह सच ही है तो मेरे मझोले शहर में १०० बकरे का मीट बेचने वाले हैं, ५२ मंगल और कुछ और छुट्टियाँ छोड़ साल के बाकी ३०० दिन कम से कम एक काटते हैं, चालीस साल का एवरेज कैरियर है सबका... तो कुल बकरे कटे १०० X ३०० X ४० = १२०००००... अब अगले जनम को जम्प करिये... कसाई १२००००० और बकरे केवल १००... हिसाब जमा नहीं...

      @ जब एक कसाई ने बारह लाख बकरे काटे। तो उसमें शामिल कसाई के साझेदार भी थे ... बकरा को बेचेने वाले, बकरे को खरीदने वाले, बकरा कट जाने के बाद उसका मांसआदि बेचने वाले, मांस आदि खरीदने वाले, पकाने वाले, खाने वाले। इस तरह बारह लाख बकरों की ह्त्या में एक व्यक्ति ही जिम्मेदार नहीं रहा अपितु एक बड़ा समुदाय हिस्सेदार बना।

      अब अगले जनम की और जम्प करते हैं ... ^~~~~^.... अब बारह लाख कसाई और बकरे तमाम ... हिसाब जमा कि नहीं।

      बकरा जान से गया मियाँ जी हिसाब-किताब में ही लगे हैं।

      हटाएं
    8. .
      .
      .
      @ बकरा जान से गया मियाँ जी हिसाब-किताब में ही लगे हैं।

      लिखा संजय जी के बताये वाकये पर गया है, जहाँ बकरा और कसाई जन्म जन्म का हिसाब कर रहे हैं... पर क्या किया जाये, प्रतुल वशिष्ठ का अपना एक स्तर(???) है... और वह कभी निराश नहीं करते... :)


      ...

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    10. प्रतुल जी का गणन सही है,उत्कृष्ट स्तर पर है. यह हिसाब धर्मशास्त्रोँ मेँ भी वर्णित है यथा-
      अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
      संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

      अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।

      कर्मफल के प्रकटन मेँ ऐसे जटिल व गर्भित समीकरण होते है. प्रवीण जी तो उस 'बाद-बाकि'वाले गणित से हिसाब लगा रहे है जो कभी प्रारम्भ मेँ 'भारत' से 'अरब' गया था. परिणामस्वरूप जटिल समीकरण उनके लिए अग़्य़ान खाते मेँ ही रह गए.

      हटाएं
  28. पोस्ट और टिप्पणियाँ दोनों ही सहेजने लायक है।वैसे आपका दिया दूसरा उदाहरण बहुत अच्छा लगा।ये तो कई बार देखा है कि एक ही माहौल में पले बढे दो लोगों की सोच में भी बहुत अंतर होता है।

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  29. और हाँ ये कर्मफल की जहाँ तक बात है तो कोई बच्चा यदि एक सम्मानजनक और सुविधाजनक जीवन नहीं जी पा रहा है और इसलिए इससे वंचित है कि उसके माँ बाप के कर्म बुरे है तो उनकी सजा उस बच्चे को क्यों?
    ये सच है कि बुरे कर्मो के लिए सजा तो होनी चाहिए लेकिन इंसान से गलतियाँ भी होती है।रोड पर कोई साईकिल वाला अपनी लापरवाही की वजह से एक्सीडेन्ट हो गया है तो इसका मतलब ये नहीं है कि हम उसे उसके हाल पर छोड़कर आगे बढ़ जाएँ।

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    1. उदाहरण नं. 3 पर मुझे लग रहा है कि अधिकतर मित्र पोस्ट से ज्यादा टिप्पणियों से प्रभावित हुये हैं। आप सब इस उदाहरण में सिर्फ़ माँ-बाप के कर्म पर जोर दे रहे हैं, या फ़िर ऐसा इसलिये है कि आप अपने विश्वास पर एकदम दृढ हैं कि ये कोई मताधिकार, शादी की उम्र या ड्राईविंग लाईसेंस जैसा मामला है जो बच्चे के वयस्क होने से जुड़ा है।
      आंखों से अंधा कानून भी जुर्म के पीछे उद्देश्य क्या रहा होगा, इस पर गौर करता है। गलती के लिये बहुधा प्रतीकात्मक सजा ही दी जाती है और वो भी पर्याप्त होती है।
      बहरहाल, संवाद रोचक हो रहा है।

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  30. सर जी , एक मंझे हुए साहित्यकार का सा लेख ( मैं यह नही कह रहा कि आप मंझे हुए नही है :) ), अन्दर तक झखझोरता हुआ ! पढने में वाकई मजा आया ! बच्चो का तुलनात्मक विवरण काफी रोमांचित करता है !

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    1. आदरणीय गोदियालजी,
      इतना मान मत दीजिये, मैं बहुत जल्दी फ़ूल जाता हूँ:) मेरा लिखा आपको पसंद आया, मैं इतने मात्र से ही प्रोत्साहित महसूस कर रहा हूँ।
      धन्यवाद।

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  31. अर्चना जी के ब्लॉग पर आपके किये गए कमेन्ट से आपके ब्लॉग पर आना हुआ, पढ़ना शुरू किया तो रुका ही नहीं गया| बहुत ही अच्छा लिखा है आपने

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    उत्तर
    1. अर्चना जी का धन्यवाद कि उनके ब्लॉग के माध्यम से आप यहाँ आये। आभार योगेन्द्र जी।

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  32. कई बातें हैं। एक तो ये कि "अपनी सच्चाई खुद को तो मालूम ही है। हम सब दोस्त लगभग एक ही लेवल के थे, फ़िर ऐसा क्यों होता था?" बहुत कम 'पास' हो जाने वालों को ऐसा कहते सुना है !

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  33. कर्मफलवाला(अंतिम भाग) बहुत अच्छा लगा .और सब बातें सदा से रही हैं इतना ध्यान देने और संवेदना जगानेवाला मुश्किल से मिलता है- साधु !

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  34. सिरीमानजी नमस्‍कार :)

    पोस्‍ट आने के बहुत दिन बाद कमेंट के लिए वापस आया हूं। पढ़ पहले गया था..

    अच्‍छा या बुरा कर्म क्‍या होता है।

    हर एक का अपना सत्‍य है।

    हर उचित की अपनी परिभाषा है।

    बकरा न बोलता तो अण्‍डकोष कट जाने थे।

    अगर गर्दन न कटी तो भी कर्मफल अधूरा रह गया।

    गीता में श्रीकृष्‍ण इस भ्रम को दूर करते हैं "विवेक के अनुसार जो सही है वह सही है, विवेक के अनुसार जो गलत है वह गलत है"

    पाप और पुण्‍य भी समाज के बनाए हैं। अगर किसी पशु को मारना किसी के लिए हिंसा है तो किसी के लिए परिवार पालना है। क्रिया दुरूह है, कठिन है, पीड़ा व्‍यक्‍त करती है, इसलिए हम उसे पाप की श्रेणी में आसानी से डाल देते हैं।

    जीव सभी में एक जैसा है फिर घर में दीमक की दवा क्‍यों डालते हैं। हर दीमक में उतनी ही आत्‍मा है जितनी बकरे में। आत्‍मा के स्‍तर पर बदलाव नहीं आता।

    मैट्रो रेल बनी तब कितने कीड़े मकोड़े मरे होंगे, हर एक का पाप लगेगा, आप रेल को किराया देकर जब उसकी सवारी करते हैं तो उस पाप के भागी बन जाते हैं। क्‍या किराए का छूरा फेंक पाएंगे...

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  35. बहुत ज्ञान मिला इस पोस्ट में। :)

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  36. दोनों लघु कथा और अंतिम उपसंहार निःशब्द करते है जी
    बच्चों की कहानी में तीन बच्चे और पुल और रात की बरसात फिर खाली पुल जीवंत हो उठा
    सादर प्रणाम

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  37. No comments Sir....
    Its Always a Great experience to read your blogs.

    Thanks for such a beautiful and meaningful blog.

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