रविवार, अगस्त 25, 2013

चाच्चा बैल....(दो)

भाग एक  से आगे 


अंदर डाक्टर और उनकी टीम अपना काम कर रहे थे और बाहर खड़े हम एक दूसरे को दबी जबान में कोस रहे थे। 302 के संभावित आरोपियों में दो नाम थे, पहला उस दोस्त का जिसने टीए बिल पास करने में शर्त सोची थी और दूसरा मैं जिसने यह शर्त चाचा को बताई थी। खैर, हमारे चाचा ने हमें आत्मग्लानि से बचा लिया। थोड़ी देर में हमें बताया गया कि उन्हें अस्पताल लाने में कुछ और देर होती तो खतरा हो सकता था। कुछ दिनों के आराम के बाद चाचा जब दोबारा ड्यूटी पर आये तो पहले से भी ज्यादा अनुशासित होकर, सुबह वाली एकमात्र चाय भी बंद कर दी। चाय का कलेश ही खत्म, न पियें न पिलायें। एक दिन उस शनिवार को याद करके मुझे कहने लगे, "अनेजा साहब, तबियत खराब हुई उसका गम नहीं लेकिन उस दिन हुई इसका गम हमेशा रहेगा। तुम लुच्चों ने सारी उमर यही प्रोपोगेंडा करना है कि चाचा बहल से उस दिन जबरदस्ती चाय पी थी इसलिये उसे हार्ट अटैक हुआ था।" चाचा नहीं हँसता था, शायद डाक्टर ने मना किया हो लेकिन मुझपर ऐसी कोई बंदिश नहीं थी, सो मैं खूब हँसा। बल्कि चाचा से कहा कि ये तो वही बात हो गई कि ’मुझको बरबादी का कोई गम नहीं, गम है कि बरबादी का चर्चा हुआ।" चाचा बहल मुस्कुरा दिये, "बिल्कुल यही बात है।" डेली पैसेंजरी जारी रही।

चाचा के एक भाई दिल्ली में रहते थे और वो कहते थे कि अगर वो हफ़्ते में एक दिन उसके घर जा सकें तो रोज की थकान कुछ कम हो सकती थी। दिक्कत थी तो सिर्फ़ ये कि वो दिल्ली की भीड़ और दिल्ली की डीटीसी बस सर्विस के साथ बहुत कम्फ़र्टेबल नहीं थे। उनके मतलब की बस दिल्ली स्टेशन के बाहर से ही बनकर चलती है, कई बार बताने के बाद भी वो नर्वस हो जाते थे। भृतृहरि के बताये मध्यम पुरुष के लक्षण ’मेरा काम भी हो जाये, उसका काम भी हो जाय’ की तर्ज पर मैंने एक रास्ता निकाला। दिल्ली स्टेशन के सामने ही लाईब्रेरी थी, बहुत दिन से उधर जाना नहीं हो रहा था। हमने जुगत भिड़ाई कि चाचा पर अहसान जतायेंगे और सप्ताह में एक बार उन्हें बाहर जाकर बस में सवार करवा देंगे और खुद सड़क पार करके लाईब्रेरी हो आया करेंगे। हींग लगी न फ़िटकरी, रंग चोखा होने लगा। अपनी चवन्नी भी नहीं लगी और चाचा अहसान तले दबने लगे। मैं उन्हें बस तक छोड़ता लेकिन वो मेरा हाथ नहीं छोड़ते थे। 

पुरानी दिल्ली का इलाका जिन्होंने देख रखा है वो जानते होंगे कि खाने-खिलाने के शौकीन लोगों के लिये वो पेरिस\जेनेवा से कम नहीं। चाचा बहुत ताकीद से कहते, "अनेजा साहब, मेरा बड़ा दिल है कि आपको कुछ खिलाऊँ" और मैं उस शनीचरी चाय को याद करके लरज जाता और अगली बार का वादा करके जबरन हाथ छुड़ा लेता। शुरू के कुछ हफ़्ते तो अगली बार का वायदा करना पड़ा, उसके बाद चाचा एक बार वही डायलाग बोलते और फ़िर खुद ही कहते, "अगली बार पक्का न?" और धीरे से गुनगुनाते, "मुझको बरबादी का कोई गम नहीं......" हम दोनों हँस पड़ते लेकिन सच में वो जब कुछ खिलाने की बात कहते थे तो साफ़ पता चलता था कि ऊपर ऊपर से नहीं बल्कि दिल से कह रहे हैं।

धीरे धीरे मौसम में ठंड बढ़ने लगी। चाचा की परेशानियाँ और बढ़ गईं। एक दिन शाम को हम स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे तो उन्होने एक बार फ़िर से बारी बारी से बढ़ती ठंड, अपनी बढ़ती उम्र, उस शहर, नौकरी और अपनी बीमारी की माँ-बहन के साथ रिश्तेदारी जोड़नी शुरू की। वो कई बार स्टाफ़ के सामने मेरी तारीफ़ किया करते थे कि ये अगर कोई परेशानी बताता है तो साथ साथ उसका संभावित हल भी बताता है, उस दिन भी ताजी ताजी तारीफ़ से हम कुप्पा हुये थे तो संभावित हल बता दिया, "चाचा, एक काम करो। जब तक सर्दी है, यहीं मकान ले लो।" चाचा ने ओब्ज्क्शन मी-लार्ड लगाया, "रोज आने-जाने से छुट्टी मिल जायेगी लेकिन रोटी-पानी और दूसरे पंगे खड़े हो जायेंगे?" भतीजे ने ओब्जेक्शन ओवर रूल किया, "चाची को भी यहीं ले आओ। आप ही तो बताते हो कि शादी से पहले चाची का परिवार यहीं रहता था। आपकी रोटी की समस्या भी हल हो जायेगी और ........."

मैं बोलते-बोलते रुका था, चाचा चलते-चलते रुक गये। कन्हैयालाल की तरह चश्मे के ऊपर से झाँककर बोले, "हम्म्म्म, सही बात। तुम्हारी चाची को यहीं ले आता हूँ, मेरी रोटी-वोटी भी बना दिया करेगी और पुराने यारों से भी मिल लेगी।"
"ओ चाच्चा, मैंने ये कब कहा है यार?"


"सब पता है मुझे, एक नंबर के बदमाश हो तुम लड़के।"

अगले हफ़्ते से चाचा ने वहीं एक मकान किराय पर ले लिया और हमारा ट्रेन का साथ छूट गया। एक दिन हम चार-पाँच साथी स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे कि सामने से चाचा-चाची आते हुये मिल गये। सबने नमस्ते की, चाचा ने सबके साथ अपनी धर्मपत्नी का परिचय करवाया। जब इस बैकबेंचर का नंबर आया तो उनसे कहने लगा, "ये संजय है, इसीने आईडिया दिया था कि सर्दियों में तुम्हें यहाँ लेकर रहने लगूँ। मेरी रोटी का जुगाड़ भी हो जायेगा और..."

चाचा ने आगे क्या कहा ये मैं नहीं सुन पाया क्योंकि मैं ’चाचा चुप, चाचा चुप’ का गाना गा रहा था, चाची कह रही थी कि ’आपको कभी शरम नहीं आनी’ और साथी लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे। उस दिन चाची की तरफ़ से घर चलकर चाय पीने का न्यौता मिला और मेरे कुछ कहने से पहले ही चाचा बोले, "जवाब मुझे पता है, अगली बार।" हम हँसने लगे, उधर स्टेशन पर गाड़ी की अनाऊंसमेंट सुनकर हमने गुलाबी चेहरे वाली अपनी प्रौढ़ा चाची से विदा ली क्योंकि लोग अस्त-व्यस्त होते हैं लेकिन चाचा गुनगुनाने में मस्त-व्यस्त था, "ओ मेरी जोहराजबीं...’

चाचा ने हैल्थ ग्राऊंड पर ट्रांसफ़र के लिये आवेदन कर रखा था। मैं एक सप्ताह के लिये LTC पर गया हुआ था, उसी दौरान चाचा के आर्डर आये और वो अपने गृहस्थान को चले गये। कुछ समय तक जब भी उस ब्रांच से कोई पत्र-व्यवहार होता था तो चिट्ठी के साथ एक छोटी सी चिट लगी आती थी, 

"संजय अनेजा, 
अगली बार कब होगी? 
regards 
चाच्चा बैल"

उसके बाद कई शाखाओं में काम करना पड़ा, जब भी उनके शहर से कोई स्टाफ़ मिलता तो चाचा बहल के बारे में मैं जरूर पूछता लेकिन कोई विशेष जानकारी नहीं मिली। अभी एक ट्रेनिंग के सिलसिले में लौटते समय स्टेशन पर फ़िर ऐसे ही एक स्टाफ़ से मुलाकात हुई, पूछने पर पता चला कि दो साल पहले बहल साहब का देहांत हो चुका। वो अपने कोच में चले गये और मैं अपने कोच में आकर बैठ गया।

गाड़ी चलने में अभी आधा घंटा बाकी था। खिड़की के बाहर देखा तो कुछ दूर रेल की पटरियों के बीच बैठा एक कुत्ता अगले दोनों पंजों में एक सूखी हड्डी लिये बैठा था। उस सूखी हड्डी को ही व्यंजन मानकर अपने दाँतों से नोच-भंभोड़ रहा था। उस सूखी हड्डी में तो क्या रस होगा, होगा भी तो खुद उस कुत्ते के मसूढ़ों का खून होगा जिसे उस हड्डी से टपकता मानकर वो मग्न बैठा होगा।

अपने पास भी ऐसी बहुत सी सूखी हड्डियाँ हैं। कल किसी और की बारी थी, आज चाचा की बारी, कल किसी और की बारी।

ऐसे ही हड्डियों को नोचते-भंभोड़ते रहेंगे, हम लोग....

                                                               

                                                                (चित्र गूगल से साभार)
                                                       





   

बुधवार, अगस्त 21, 2013

चाच्चा बैल

बैंक की स्टाफ़-ट्रांसफ़र नीति के तहत उनका ट्रांसफ़र  हमारी ब्रांच में हो गया था। पहली मुलाकात ट्रेन में ही हो गई लेकिन तब औपचारिक परिचय नहीं हुआ था। हुआ यूँ कि हम ताश खेल रहे थे, वो मेरे पास ही आकर बैठ गये। मौका देखकर उन्होंने पूछा कि फ़लां स्टेशन पर गाड़ी कितने बजे पहुँचती है? उन्होंने उंगली पकड़ाई, हमने पहुँचा पकड़ लिया। तब भी ऐसे मौकों पर नैतिक शिक्षा के सब पाठ याद आ जाते थे। जब बिना हाथ पैर हिलाये हुये सिर्फ़ जबान चलाने से किसी की मदद होती हो तो परोपकार थोड़ा भी मुश्किल नहीं लगता, आजमाकर देख सकते हैं। हम ताश खेलते रहे और उनके इस छोटे से सवाल का जवाब देने में कम से कम दो तीन स्टेशन निकाल दिये। टाईम-टेबल में गाड़ी का उस स्टेशन पर पहुँचने का समय, वास्तव में पहुँचने का औसत समय, अब तक का बेस्ट अराईवल\वर्स्ट अराईवल सब विस्तार में बता दिये। उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव से समझ आ गया कि जनाब नये नये डेली पैसेंजर हैं और ऐसा भी दिख गया कि जरूर बैंक में ही काम करते होंगे। अपना अनुभव यही बताता है कि दूसरे महकमों के कर्मचारी सुबह के समय थोड़ी बहुत देर सवेर की चिंता नहीं करते, उनके दिल बहुत बड़े होते हैं। वैसे इसमें भी कोई हैरानी नहीं अगर दूसरे महकमे वाले बैंकवालों के बारे में भी ऐसे विचार रखते हों क्योंकि दूसरे की आँख के तिनके को शहतीर समझने के फ़ोबिया से हम सभी पीड़ित हैं।

उस दिन स्टेशन पर उतरे तो वो जनाब भी हमारे साथ ही ट्रेन से उतरे। हमारे पिछले शानदार रेस्पोंस से उत्साहित होकर अब उन्होंने अपनी मंजिल के बारे में पूछा तो मजबूरन गौर से उन्हें निहारना पड़ा। जिस ब्रांच में मैं काम करता था, उसी के बारे में पूछ रहे थे। मैंने कहा कि चलते रहिये, मैं बता दूँगा। यूँ ही हल्के-फ़ुल्के सवाल-जवाब करते हुये हम लोग ब्रांच पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर तो उन्हें पता चलना ही था कि हम स्टाफ़ हैं, बड़े स्टाईल से गर्दन हिलाते हुये बोले, "छुपे रुस्तम हो, पहले नहीं बताया कि स्टाफ़ मेंबर ही हो।" फ़िर हाथ मिलाकर हुआ औपचारिक परिचय, मि. बहल और आपके मो सम कौन का। वो उम्र में पचपन थे और हम लगभग बचपन में ही थे। जितनी मेरी उम्र, उतने साल की तो उनकी नौकरी हो चुकी थी। वो अधिकारी, हम बाबू। थोड़ा सा हँसी-मजाक भी हुआ, प्रभुजी तुम चंदन हम पानी, तुम अधिकारी हम किरानी। उन्होंने हँसते हुये गले लगा लिया, हम चाचा-भतीजा बन गये। पहले दिन से ही वो बुलाते अनेजा साहब, मैं बुलाता चाचा बहल। कभी कभी जल्दबाजी में पंजाबी स्टाईल में ’चाच्चा बैल’ भी कह देता था और फ़िर सॉरी कहने पर वो मुस्कुराकर कह देते, "काके, तुम्हारा चाचा तो बचपन से ही बैल बना हुआ है और मरते दम तक बैल रहेगा।" धीरे-धीरे मि. बहल अब ’चाचा बहल’ कहलाये जाने लगे।

पर्सनल्टी के मामले में ऐसे शानदार चरित्र मैंने बहुत कम देखे हैं। उम्र के अनुसार बाल सफ़ेद हो गये थे, बहल साहब उन्हें रंगते नहीं थे और न ही सफ़ेदी के डर से मूँछें उड़ा रखी थीं। लाली लिये हुये खूब गोरा रंग, रौबदार मूँछें, सलीकेदार कपड़े, एकदम चमकते हुये जूते और गरिमा भरी चाल के साथ साथ नपी तुली बात करना उनके व्यक्तित्व को बहुत शानदार बना देता था। उन दिनों में ही वो एकदम फ़ौजी अफ़सर लगते थे, जवानी में तो वाकई बिजलियाँ गिराईं होंगी।  अपने घर से डेली अप-डाऊन करते थे और दिल्ली स्टेशन तक हमारा साथ रहता था। शाम को स्टेशन पर गाड़ी का इंतज़ार करते हुये एक दिन बताने लगे कि जब उनकी शादी हुई थी तो उनके ससुर साहब यहीं स्टेशन मास्टर थे। बुढ़ापे में एक तरफ़ ढाई घंटे की पैसेंजरी से उकताये हुये थे, कहने लगे, "भैंचो, पता नहीं था पैंतीस साल बाद फ़िर इस शहर में धक्के खाने पड़ेंगे। हार्ट-पेशेंट हूँ, कल का भरोसा नहीं और सुबह शाम पाँच घंटे गाड़ी में धक्के खाने पड़ते हैं।  दाना-पानी ही तो है अनेजा साहब।"

दिखने में ही नहीं, व्यवहार में भी आदमी एकदम डिसीप्लिन्ड थे। बंधा हुआ रूटीन था, सुबह बैंक पहुँचते और चपरासी को इशारा कर देते। थोड़ी देर में एक कप चाय आ जाती। शाम को चाय वाला बूढ़ा हिसाब करने आता, वो भी अपनी तरह का एक आईटम ही था। दिन में हममें से कोई भी जाकर चार-पांच चाय बोल आता और नाम किसी दूसरे का लिखवा देता, पेमेंट के समय रोज शाम को चकल्लस मचा रहता था। कुछ दिन में गौर किया कि बहल साहब का कोई चाय-खाता नहीं था। बूढ़े से पूछा तो कहने लगा, "पेज क्यूँकर खराब करना? रोज की एक ही चाय होती है उनकी तो।" लड़कों ने बात पकड़ ली, किसी न किसी बहाने से रोज जाकर चाचा बहल से चाय की फ़रमायश होती और वो मुस्कुराकर सिर हिला देते। समझ आज तक नहीं आई कि वो सिर हाँ का हिलाते थे या न का, अलबत्ता उनके खाते से चाय किसी को नसीब न हुई। चाचा बहल का एक और नाम ’मूँजी चाचा’ चल निकला, बस ये नाम उनकी गैरहाजिरी में उनका जिक्र करने के लिये इस्तेमाल होता था।

दूसरे सरकारी महकमों में सुनते हैं कि टीए बिल, मेडिकल बिल वगैरह पास करवाने के लिये स्टाफ़ को भी चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है लेकिन हमारे बैंक इस मामले में साफ़ सुथरे हैं। चाचा बहल की चाय के चक्कर में एक दिन हमारा एक साथी जो स्टाफ़ बिल वगैरह देखता था उसे हम लोगों ने चढ़ा दिया। शुक्रवार का दिन था और बहल साहब ने एक अच्छा खासा टीए बिल पेश कर रखा था। दिन में कई बार चाचा ने बिल पास करने वाले भतीजे को नमस्ते बुलाई, हाल चाल पूछे और भतीजा भी बदस्तूर सलामती के जवाब देता रहा। सीधे से बिल की बात न चाचा ने की और भतीजे ने तो खैर क्या करनी थी।

लौटते समय चाचा ट्रेन में बहुत विचारमग्न थे, ऐसे ही अगले दिन सुबह भी। महसूस मैं भी कर रहा था लेकिन मुझे तो कहानी पता ही थी सो मैं चुपचाप देखता रहा। जब ट्रेन से उतरे तो मेरा हाथ पकड़कर चाचा बहल ने पूछा, "अनेजा साहब, बात समझ नहीं आई। कल मैंने चार पांच बार उसे इशारा किया  लेकिन उसने मेरा बिल पास नहीं करवाया।कहानी समझ नहीं आई, किसी बात से नाराज तो नहीं है स्टाफ़ के लोग?"  दो नाव में सवारी करने वाला मैं धर्मसंकट में फ़ँस गया। मुझे हँसी आ गई, चाचा ने नब्ज पकड़ ली और मेरे पीछे पड़ गया कि भेद खोलूँ। मैंने बता दिया कि लड़कों ने कसम खा ली है कि चाचा से चाय पीनी है। 

"हद हो गई यार और आपसे तो मुझे ये उम्मीद नहीं ही थी। एक बार वो कह देता या कोई भी कह देता तो मैं क्या मना करता? और आपको भी बात का पता न होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन पता होने के बाद भी सारा दिन चुप रहे, हद कर दी यार।" जाते ही सब लड़कों के लिये चाय का आर्डर हुआ, चाय वाला बूढ़ा चाय देने से पहले आर्डर की सत्यता जाँचने आया क्योंकि चाचा बहल को आये हुये कई महीने हो गये थे लेकिन उनका ग्राफ़  एक चाय एक दिन से ऊपर कभी नहीं गया था। चाय के कप हाथ में लेकर सबने चीयर्स बोला, उस महंगी-महंगी  चाय को हमने जितना एंजाय किया शायद चाय के किसी शौकीन ने कभी नहीं किया होगा। 

पन्द्रह साल से ज्यादा बीत गये, अब भी याद है वो शनिवार का दिन था। बारह बजे पब्लिक डीलिंग खत्म हुई और साढ़े बारह बजे एकदम ब्रांच में भगदड़ मच गई, चाचा बहल को छाती में दर्द शुरू हुआ था और वो सीट से गिर गये थे। आनन फ़ानन में उन्हें शहर के एकमात्र हार्ट स्पेशलिस्ट के क्लीनिक/अस्पताल लेकर गये। अंदर डाक्टर और उनकी टीम अपना काम कर रहे थे और बाहर खड़े हम एक दूसरे को दबी जबान में कोस रहे थे।

                                                                                  to be contd..(may be\may not be)

बुधवार, अगस्त 07, 2013

येस मिनिस्टर


गधे हैं जो रक्षामंत्री के घर के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं, उनके व्यक्तव्य का   विरोध कर रहे हैं। अब भला इन गधों से कोई पूछे कि जो जानकारी किसी मंत्री के पास हो सकती है, वो आम जनता को कैसे हो सकती है? बिना पाकिस्तान की स्वीकारोक्ति के ऐसे कैसे उनके उजले कपड़ों पर कीचड़ उछाल देते?   स्टुपिड पब्लिक, इस बात का शुक्र नहीं मनाती कि अभी उन्होंने ये नहीं कहा कि इस घटना के पीछे भगवा आतंकवादी है।

अवसर को देखते हुये कड़ी  निंदा, भर्त्सना, घनघोर आलोचनायें होंगी। पड़ौसी देश के साथ सख्ती से निबटने के भाषण होंगे। जनता को धैर्य व संयम रखने की अपीलें होंगी। 

शोर शराबा हो रहा है तो फ़ौजियों के परिवार वालों को भी कुछ पैकेज-वैकेज दे दिया जायेगा। अरे भई, फ़ौज में नौकरी करने गये थे तो जान जाने का रिस्क तो रहना ही था। वैसे भी शायर ने कहा है कि ’ये जान तो आनी-जानी है, इस जान की कोई बात नहीं’ 

दो-तीन महीने के बाद इस बात पर संतोष ही नहीं जताया जायेगा बल्कि अपनी पीठ ठोकी जायेगी कि शांति-प्रक्रिया में गतिरोध समाप्त कर लिया गया है।

Very well said Sir, keep it up. We deserve all this and much more.