किसी कर्मचारी के विरुद्ध एक विभागीय जाँच चल रही थी और उस कार्यवाही में मैं भी एक भूमिका निभा रहा था। विभागीय जाँच वगैरह का जिन्हें अनुभव या अनुमान है, वे जानते ही होंगे कि इनका सेटअप भी कुछ औपचारिकताओं को छोड़कर लगभग भारतीय अदालत की तरह ही रहता है। जज साहब की तरह एक जाँच अधिकारी, प्रबंधन की तरफ़ से पब्लिक प्रोसीक्यूटर की तरह एक अधिकारी, आरोपी, सफ़ाई वकील की तरह ही आरोपी का प्रतिनिधि, दोनों तरफ़ से गवाह. दस्तावेज और सबसे बड़ी समानता - वही तारीख पर तारीख। प्रबंधन जहाँ जल्दी से जल्दी मामले को एक तरफ़ लगाना चाहता है, बचाव पक्ष की तरफ़ से येन-केन-प्रकारेण मामले को लंबा खींचा जाता है। तो बात कर रहा था उस जाँच की, संयोगवश जाँच अधिकारी, बचाव पक्ष के वकील यानि कि यूनियन के नेताजी और मैं हम तीनों कभी एक ही कार्यालय में रह चुके थे। उन दोनों की जन्म कुंडली शुरू से ही नहीं मिलती थी। वर्तमान में जाँच अधिकारी साहब बड़े ऑफ़िस में कार्यरत थे तो ’स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम’ के चलते उनकी अपनी समझ में उनकी तूती बोल रही थी, बोलनी चाहिये थी और नेताजी ऐसी तूतियों को ठेंगे पर रखते थे।
ऐसे ही गर्मी के दिन थे, ब्रांच की छत पर बने एक कमरे में, जहाँ पुराना रिकार्ड रखा जाता था, कार्यवाही चल रही थी। अचानक से नेताजी ने कहा कि यहाँ तो गर्मी बहुत है, अब आज की कार्यवाही खत्म कीजिये और अगली तारीख पर कुछ ज्यादा समय दे देंगे। जाँच अधिकारी ने शुरू में मजाक में, फ़िर आग्रह करते हुये और अंत में धौंस दिखाते हुये जाँच को फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट की तर्ज पर खत्म करने की बात कही। मेरे एक फ़ेवरेट पंजाबी गीत ’सुच्चा सूरमा’ में आये एक वाक्य में कहा जाये तो ’कुंडियों दे सिंग लड़ गये’ यानि मरखनी भैंसों के कुंडलियों जैसे सींग आपस में फ़ँस गये थे। मैं नौकरी में नया-नया था, सच कहूँ तो मुझे तो इस मुठभेड़ का चश्मदीद गवाह होने में मजा आने लगा था। एक तरफ़ प्रबंधन मद में चूर अधिकारी महोदय, दूसरी तरफ़ सर्वहारा के मसीहा जी। दाँव पर दाँव चले जाने लगे।
कानून की बहुत ज्यादा समझ न रखने वाले भी जानते हैं कि equity, fair play and justice के नाम पर कानून को कैसे हैंडल किया जा सकता है। नेताजी ने गर्म मौसम, बिजली की दिक्कत, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता के अभाव का ऐसा भावुक प्रसंग कार्यवाही में लिखवाना शुरू किया कि कोई पढ़े तो उसे ऐसा लगे कि जैसे जाँच के नाम पर इस टीम को थार के मरुस्थल में बिना पानी और बिना किसी सायबान के छोड़ दिया गया हो। कागज़ों में गला सूखना शुरू हुआ फ़िर गला चोक हो गया, पसीने धड़ाधड़ बहने लगे, धड़कने कभी तेज और कभी मंद होने लगीं। नौबत यहाँ तक आने लगी कि नेताजी को अभी अस्पताल भिजवाना पड़ेगा। "अरे भाई, कमाल है। आरोप सिद्ध नहीं है तभी तो जाँच की जा रही है न? और बर्ताव ऐसा कि गोरों ने काला पानी में भी किसी से न किया होगा। पीने के लिये पानी तक की सुविधा नहीं, हद है। ये सब उत्पीड़न सिर्फ़ इसलिये कि हम लोग चुपचाप आरोप स्वीकार कर लें वो भी उस गुनाह के जो हमने किये भी नहीं। मैं कार्यवाही में रिकार्ड करवाना चाहता हूँ कि अगर पानी के अभाव में मुझे या किसी को कुछ हुआ तो इसे प्रबंधन और जाँच अधिकारी की साजिश माना जाना चाहिये।"
जाँच अधिकारी ने आसपास देखा तो उसी कमरे में पुराने रिकार्ड में से कुछ ढूँढता ब्रांच का चपरासी मनोज दिखाई दिया। बवाल खत्म करने के लिये उन्होंने आवाज लगाई, "अरे, मनोज बेटा।"
"हाँ, साहब?"
"अरे बेटा, तेरी ब्रांच में बैठे हैं और पीने के पानी को तरस रहे हैं।"
मनोज ने हाथ के कागज वहीं रखे और हँसकर बोला, "अभी लाता हूँ साहब।"
मुझे थोड़ी सी मायूसी हुई, इतने जोरदार घटनाक्रम का ऐसा पटाक्षेप :(
मनोज मुड़कर दरवाजे तक पहुँचा था कि नेताजी की आवाज आई, "अरे, मनोज।"
"हाँ, दद्दा?"
"तेरी ड्यूटी कहाँ है रे?"
"नीचे हॉल में है, दद्दा।" मनोज आकर जाँच अधिकारी के सामने रुका और आँखों में आँखें डालकर बोला, "हम पानी नहीं लायेंगे, साहब।" मुझे पंक्तियाँ याद आ रही थीं ’राणा की पुतली फ़िरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था..’
जाँच-अधिकारी ने साम,दाम, दंड, भेद सब तरह की नीति अपना ली लेकिन मनोज से पानी लाने की हाँ नहीं भरवा सके। "सस्पेंड करवा दो साहब, पानी नहीं लाऊँगा। मेरे घर आओ, गरीब आदमी हूँ तो जो बन सकेगा वो सेवा कर दूँगा लेकिन यहाँ अभी पानी नहीं लाऊँगा।"
कुछ देर के बाद सब पूर्ववत होना ही था, कार्यवाही के पन्ने फ़ट गये और नई तारीख नेताजी की शर्तों के आधार पर दी गई। पानी-शानी की फ़ुल्ल सेवा भी हुई वो भी अब की बार बिना कहे। अपने को ये सब देखकर बहुत मजा आया। बाद में मेरे पूछने पर नेताजी ने बताया कि मनोज जैसे चेलों को उनपर और उनकी प्रोटेक्शन पावर पर भरोसा है और वो भरोसा नाहक ही नहीं है।
ये उन नेताजी की कहानी है जो यूनियन के चार-पाँच सौ मेंबर्स के नेता थे। ये नेताजी के इन पाँच शब्दों की ताकत थी "तेरी ड्यूटी कहाँ है रे?" कि एक मामूली सा सदस्य अपनी जमी जमाई नौकरी पर खतरा लेने को तैयार था। हालाँकि मैं जानता हूँ कि शब्द में बहुत ताकत है। वेद, बाईबिल, गुरबाणी, कुरान सबमें शब्द की महिमा गाई गई है। शब्द की महिमा के उस स्तर को हम शायद ही समझ सकें लेकिन किसी खास मौके पर किसी खास व्यक्ति द्वारे कहे गये कुछ शब्द कितने प्रभावशाली हो सकते हैं, इस बात का अनुमान तो हम प्रत्यक्ष कुछ देखकर ही लगा सकते हैं।
अंत में यही कहना चाहता हूँ कि गलती सिर्फ़ लड़कों से ही नहीं होती .......
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जवाब देंहटाएंगलत लोगों के लड़कों से गलती पे गलती होती है क्योंकि उनके गलत आका हर गलती को अपने बाहुबल के दुरुपयोग से सही ठहराते रहते हैं ...
:(
जवाब देंहटाएंश्री अनुराग जी से सहमत
जवाब देंहटाएंवाह! क्या जलवे हैं! एक बार अड़ गए तो बस अड़ गए, अंगद के पाँव की तरह! फिर मजाल जो कोई डिगा दे...
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन चाहे कहीं भी तुम रहो; तुम को न भूल पाएंगे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंकओई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन.. एक समय हमें भी बड़ा गर्व होता था ऐसे नेताओं पर और यकीन भी कि उनका साया सिर पर है.. लेकिन सब बिकाऊ निकले.. आज किसी मनोज को बोलकर दिखा दें. मनोज एक की जगह चार ग्लास पानी लाएगा और वे चिल्लाते रह जाएँगे कि तेरी जगह कहाँ है रे..!!
जवाब देंहटाएंख़ैर यह एक दुखती रग़ थी जिसे हमने सहला लिया. आख़िरी लाइन पर सिर झुकाए हूँ!!
Very interesting.Good post.
जवाब देंहटाएंइसे कहते हैं न्याय .......................
जवाब देंहटाएं’राणा की पुतली फ़िरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था..’............is line ko sandabh-sahit 10 baar parhe hain ji...........maja aa gaya...........
जवाब देंहटाएंpranam.
सच में गलती लडको की नहीं होती .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंऑफिसों में तगड़ी पोलटिक्स चलती है... कुछ नए अनुभवों की याद दिलाता आपका ये संस्मरण मजेदार है
जवाब देंहटाएंशब्दों का बहुत महत्व है और किसी प्रभावशाली व्यक्ति के कहे शब्द तो और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह लोकतंत्र के साइड इफेक्ट्स हैं की की इसने लालू, शरद, और मुलायम जैसे लोगों को प्रभावशाली बना दिया है।
जय हो!
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