शुक्रवार, नवंबर 13, 2015

हार की जीत


उसकी नींद एकदम से खुल गई थी। उठते ही उसने अपने पैर पर हाथ फ़ेरा, लेकिन उसे हैरानी हुई कि यहाँ तो सब ठीक है। सोने की कोशिश की लेकिन नींद नहीं आई। रह रहकर वो अपने पैर को उसी जगह सहलाकर देखता रहा। फ़िर भी चैन नहीं आया तो उठकर कमरे की लाईट जलाई और गौर से देखा, पैर तो एकदम साफ़ है। अब ध्यान करने की कोशिश की तो नींद में जो अनुभव किया वो क्रमबद्ध तरीके से याद नहीं आ रहा। क्या हुआ था, कैसे हुआ था - कुछ ध्यान नहीं। सिर्फ़ इतना ध्यान आया कि बहुत तरह के जानवरों से घिरा हुआ था और उनके बीच से निकलने के प्रयास कर रहा था। जानवर भी बेतरतीब तरीके से इधर उधर दौड़ रहे थे। लगता था कि जान बचेगी नहीं, रौंद दिया जायेगा। वो किसी तरह उस झुंड से बाहर आ गया। चैन की साँस आई तो उसने अपने आप को व्यवस्थित करना शुरु किया। ओह, ये क्या? उसके पैर पर कुछ लिसलिसा सा लगा हुआ था। क्या हो सकता है? जरूर किसी जानवर का मल-मूत्र होगा। छि: छि:... हाँ, इसी अवसर पर नींद खुल गई थी।
एक बार फ़िर से उसने अपने दोनों पैर चैक किये, सब ठीक था। लेकिन उसका ध्यान बार बार उधर ही जा रहा था। बल्कि उसने एक बार बैठकर झुककर नाक को अपने पैर के जितनी निकट ले जा सकता था, ले भी गया। हालाँकि ऐसा करते हुये उसे ये सोचकर हँसी भी आई कि घर के किसी सदस्य ने उसे ऐसा करते देखा तो समझेंगे कि योग कर रहा है। अगले ही पल लेकिन उसकी हँसी रुक गई। किसी जानवर का मल-मूत्र ध्यान आते ही आंखो के सामने कई तरह की आकृतियाँ आईं। पीली, भूरी, मटमैली और हरापन लिये हुये भी, ठोस भी और तरल भी। नाक एक अजीब सी दुर्गंध से भर गई और एकदम से उठकर उसे वाश बेसिन की तरफ़ भागना पड़ा।
सुबह अनमना सा घर से स्कूल के लिये निकल तो गया लेकिन स्कूल पहुँचा नहीं। सरकारी पार्क में जाकर जूते मोजे उतारकर पैर की उस जगह को घृणा से देखता रहा। मिट्टी से रगड़कर साफ़ किया, बहुत देर तक पानी से पैर धोता रहा लेकिन उसकी नाक से वो गंध नहीं गई।
अब ये उसका लगभग रोज का काम हो गया था। नेट पर मलमूत्र से होने वाली गंदगी और उसके दुष्प्रभाव के बारे में गूगल करता रहता। धीरे धीरे स्कूल से अनुपस्थित होने वाली बात घर में भी पता चल गई। बहुत कुरेदने के बाद उसने सबको बताया कि उसके पैर पर किसी जानवर का मल या फ़िर मूत्र या फ़िर हो सकता है कि दोनों लग गये थे। दिखते नहीं हैं लेकिन गंध बताती है कि उसे जो लगा था वो सही है। 
फ़िर नेट से ली हुई जानकारी उसने घर के सदस्यों को बतानी शुरु की, You old fashioned people, आप लोगों को पता ही नही कि इसके कितने दुष्प्रभाव हो सकते हैं। लेकिन वो क्या करता, घर वाले पुराने विचारों के थे। वो उसकी आशंकायें सुनकर अपना माथा पीटते थे, वो खुद को सीरियसली न लेते देखकर अपना माथा पीटता था। आपस में तर्क होने लगे। दोनों पक्ष अपने तर्कों पर अड़े रहते। एक पक्ष कहता कि माना कि गंदगी लगी थी लेकिन अब तो साफ़ है न? वो कहता कि गंदगी लगी तो थी न? देखो न, बदबू अब तक आ रही है। धीरे-धीरे संवाद कम होता गया। जरूरी काम मशीनबद्ध तरीके से होते जा रहे थे।
समय बीतता रहा। न अब उसके सोने का समय था और न जागने का। पैर के उस हिस्से पर वो कभी झांवा रगड़ता कभी, गीले कपड़े से रगड़ता रहता। फ़िर उसने कहीं से एक चाकू का जुगाड़ किया। अकेला रहने पर धीरे-धीरे उस जगह को उसने चाकू से खुरचना शुरू कर दिया। दर्द होता होगा लेकिन उसकी नाक में रच बस गई गंध इतनी तेज थी कि वो दर्द महसूस नहीं कर पा रहा था। खून रिसता, वो उसे पोंछ देता। घाव गहरा होता रहा, इतना गहरा कि एक दिन उसे अपने पैर की हड्डी दिखने लगी। उत्साहित होकर उसने माँ को आवाज लगाई, "माँ, माँ जल्दी आओ। मेरे पैर पर जो गंदगी लगी थी, उसके दुष्प्रभाव के बारे में मैं ठीक कहता था न? उस गंदगी के कारण पैर काटना पड़ेगा न? मैं ठीक था न, माँ?"

6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे एक परिचित परिवार की 74 वर्षीय महिला प्रत्येक लघु/दीर्घ शंका के निवारण उपरान्त पूर्ण स्नान करती और सारे वस्त्र बदलती थीं. साधन सम्पन्नता से यह निभ भी रहा था. उनके निवास बदलने के 9 वर्ष बाद अचानक उनका छोटा पुत्र बड़ी विपन्नता की अवस्था में मिला. जानकर बड़ा दुःख हुआ की उन वृद्ध महिला ने केवल इस लिए आत्म हत्या कर ली थी कि बहू ने बदली आर्थिक स्थिति के साथ समझौता करने की प्रार्थना की थी. संस्कार और परिस्थिति दोनों ही मनोस्थिति/मानसिकता निर्धारण में सहयोगी होते हैं.
    आपकी कथा के नायक ने नेट पर स्थिति देखने से पूर्व ही यह मान लिया था की पैर मैं लगी गंदगी (भले ही थी या नहीं थी, लेकिन) अपनी दुर्गन्ध ज़रूर छोड़ गई है और इसका दुष्प्रभाव टाला नहीं जा सकता है. पैर खोकर भी उसे पैर खोने के दुःख के स्थान पर अपनी भ्रान्ति के सही ठहरने की ख़ुशी बड़ी लगी. मतिभ्रम ( Hallucination) भी इसी मनोस्थिति के कारण होते हैं. मन अवसाद में डूब जाता है. कुछ वर्ष पहले किसी संभावित अनिष्ट की आशंका की मनोस्थिति में डूबता उतराता दिल्ली में बस में बैठा जा रहा था. गोल डाक खाने के पास चर्च पर लगे “आज का विचार” को पढ़ा – Why to worry now? It is possible it may not happen. मेरी चिंता तो पता नहीं कहाँ खो गई?
    देर से ही सही दीपावली के शुभ अवसर पर अपने घर में प्रकाश देख कर अवर्णनीय प्रसन्ता हुई. आपका हमारे घर में स्वागत है.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बाल दिवस, आतंकी हमला और ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. कुछ दिनों पूर्व कुछ लोगों के द्वारा प्रचारित असहिष्णुता की दु्रगन्ध पर अच्छा व्यंग्य।

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  4. यही कला तो आपको "तुम सम कौनो नाहिं" कहने पर विवश करती हैं हमें.......सीधी-सरल बातों में गूढ छिपा होता है...........
    प्रणाम स्वीकार कीजियेगा

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  5. देखन में छोटन लगे 'बात' करे गंभीर !

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  6. देखन में छोटन लगे 'बात' करे गंभीर

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