एक सीनियर सहकर्मी थे, पूरी नौकरी एक ही पद और एक ही शहर में काट दी। ऐसा नहीं कि योग्य नहीं थे लेकिन शहर नहीं छोड़ना था तो प्रोन्नति न लेने का यह उनका सोचा समझा निर्णय था। आगे बढ़ने से पहले बैकिंग सर्विस की थोड़ी जानकारी भी ले लेते हैं जिससे पृष्ठभूमि समझनी कुछ सरल हो जाएगी। बहुत आरम्भ में ही श्रम संघों ने तकनीकी आधार पर बैंक में चपरासी, गार्ड, सफाई कर्मी तथा क्लर्क, हैड कैशीयर आदि अधीनस्थ पदों पर काम करने वालों को कुछ विशेषाधिकार दिलवा दिए। इनके सर्विस रूल्स आदि केन्द्रीय सरकार द्वारा गठित समितियों के तय/संस्तुत किए बिंदुओं से पूरी बैकिंग इंडस्ट्री में संचालित होने आरम्भ हुए थे। इन समितियों के अध्यक्ष के नाम पर इन संस्तुतियों को देसाई अवार्ड/पंचाट तथा शास्त्री अवार्ड/पंचाट के नाम से जाना जाता है तथा इसी कारण इनसे कवर होने वाले सभी non-officer कर्मचारियों को पंचाट कर्मचारी अथवा award staff भी कहा जाता है। इसका एक परिणाम यह हुआ कि कुछ मामला बनने पर सरकार तथा न्यायालय आदि की दृष्टि में सभी पंचाट कर्मचारी लेबर की परिभाषा में आते हैं, भले ही उनके वेतन, भत्ते आदि उनके साथ काम कर रहे किसी officer से अधिक क्यों न हों। कालांतर में प्रत्येक पांच वर्ष में प्रबंधन और यूनियन के बीच सहमति से वेतन तथा किए जाने वाले कार्यों पर द्विपक्षीय समझौते होते हैं जिन्हें Bipartite Settlement कहते हैं, बेस इनका वही अवार्ड्स/पंचाट हैं। बहुत गहराई में नहीं जाएंगे अन्यथा इन्हीं गहराइयों मे डूबे रहेंगे, संक्षेप में इतना समझ लीजिए कि नियमानुसार award staff से वही और अधिकतम उतना ही काम और उतने ही समय में करने के लिए कहा जा सकता है जितना यूनियन के साथ उपर्लिखित अवार्डस अथवा द्विपक्षीय समझौते में निर्धारित हुआ था।
तो प्रेक्टिकली होता यह था कि कोई अर्जेन्ट फोटोकॉपी करवाना है और अधीनस्थ कर्मचारी को कहा जाए कि शीघ्रता से ये दो पेज का फोटोकॉपी करवा लाओ, पता चलता था कि फोटोस्टेट खर्चा दो रुपए और रिक्शा किराये का वाउचर दस रुपए। क्लियरिंग हाऊस जाना है जो 100 कदम की दूरी पर है, लोकल कनवेयेन्स का वाउचर पंद्रह रुपए। इस वर्ग को उनके लिए निर्धारित समय से काम के कारण थोड़ा भी अधिक रोका जाए तो ओवरटाईम। और ये बताने में या पढ़ने में लग रहा होगा कि बढ़ा चढ़ाकर बताया जा रहा है लेकिन यह सामान्य व्यवहार की बात है, एकाध बार मेरा भी वाउचर बना है 😄
लौटते हैं उन सीनियर सहकर्मी वाली बात पर। लोकल व्यक्ति था, सुदर्शन व्यक्तित्व वाला। बैंक क्लर्क होने के कारण भले ही लेबर केटेगरी में आता हो लेकिन कहीं किसी से कम नहीं।
वो भाईसाहब जब तब अपना अवार्ड स्टाफ होने वाला बैज चमका दिया करते थे, 'असी अफसर नहीं हैगे, असी हैगे अवार्ड स्टाफ' 'पंज वजे तक जिन्ना काम होएगा, करांगे', 'ए मेरी ड्यूटी नहीं है, जिम्मेदारी वाला कम्म अफसर दा हुंदा है', 'साइन करवाओ वो पीछे बैठे अफसर से, हम क्लर्क हैं' 'अफसर क्या करते है सारा दिन? चिड़िया ही तो बैठानी होती है, काम तो सारा हम करते हैं'....आदि आदि
शाखाओं में किसी अफसर के अवकाश पर जाने की स्थिति में सीनियरमोस्ट क्लर्क से उस अधिकारी की सीट पर काम करवाने और बदले में उसे officiating allowance देने का प्रावधान भी होता है। ऐसे दिनों में भाईसाहब ऑफिशिएट करने को उत्सुक रहते थे क्योंकि इसमें वैध तरीके से कुछ अतिरिक्त आय होती थी लेकिन पेंच यह था कि दूसरे अवार्ड स्टाफ प्राय: अवकाश पर जाते थे जबकि शाखा में उन दिनों पोस्टेड अधिकारी बहुत कम अवकाश लेता था। इस कारण ऑफिशिएटिंग अलाउन्स वाले अवसर कम आते थे और डॉयलॉगबाजी वाले बहुत। मैनेजर साहब को आए भी कुछ ही दिन महीने हुए थे तो प्रतिदिन यही डॉयलॉग सुनाई पड़ते थे। एक बार चांस बन गया, अधिकारी गया अवकाश पर और मैनेजर साहब ने ऑफिस ऑर्डर निकालकर भाईसाहब को बैठाया ऑफिशिएटिंग पर। संयोग से पेंशन बँटने का दिन था या ऐसा ही कुछ, उस दिन काम भी सामान्य से अधिक। दोपहर तक ठीक ठाक काम खिंचता रहा। लंच के बाद भाईसाहब ढीले पड़ने लगे। इधर से चैक पास होने के लिए आ रहे, उधर से fd बन्द होने के लिए उनके पास, कहीं से कोइ ड्राफ्ट बनवाने वाला मगज मार रहा, कहीं से पासबुक लेने वाला। पब्लिक डीलिंग बन्द हो गई लेकिन काम समाप्त होने को न आए। एक बार मैनेजर साहब से बोले कि अमुक काम कल के लिए रोक लेते हैं तो सुनने को मिला कि चिड़िया ही तो बैठानी है, बैठा दो। अगली बार कुछ पूछने बताने गए कि इस काम के लिए अधिकारी आ जाएं तो ही सेफ रहेगा, सुनने को मिला कि आप आज ऑफिशिएट कर रहे हो, आज आप ही अधिकारी हो। उधर घड़ी पांच बजाने को आई तो भाईसाहब स्वभाववश बैग सेट करने लगे। इतने में मैनेजर साहब भी बाहर हॉल में आ गए, केबिन से कुछ कागजों का छोटा सा एक गट्ठर लाए थे जो भाईसाहब की टेबल पर रख दिया कि ये रिकन्साइल करने हैं और स्वयं हॉल में ही दूसरी टेबल पर बैठकर काम करने लगे। हॉल में अब तक कोई पब्लिक नहीं बची थी, भाईसाहब दोनों हाथ से सिर थामकर सामने शून्य में ताक रहे थे। दूसरे स्टाफ घर जाने को उठ खड़े हुए। मैनेजर साहब ने भाईसाहब की ओर एक फाइल बढ़ाई, "अरे यार, ये और देखना।"
भाईसाहब थोड़ा सा झल्लाकर बोले, "ये भी?"
एक स्टाफ ने चुहल कर दी, "हाँ भाई, आज तू ऑफिशिएट कर रहा है। अफसर है, अलाउन्स भी मिलेगा।"
(आप आगे पढ़ने जा रहे हैं एक कालजयी संवाद। निवेदन इतना ही है कि सस्ते समय की बात बता रहा हूँ, कुछ उन्नीस बीस हो तो पाठकवृन्द एडजस्ट कर लें)
भाईसाहब थोड़ा सा झल्लाकर बोले, "ये भी?"
एक स्टाफ ने चुहल कर दी, "हाँ भाई, आज तू ऑफिशिएट कर रहा है। अफसर है, अलाउन्स भी मिलेगा।" और मैनेजर से हँसते हुए पूछा भी, "है न सर?"
मैनेजर सहित सब हँस रहे थे।
भाईसाहब सीट से उठे, मैनेजर साहब के सामने जाकर पलट गए। पैंट खोलकर गिरा दी और पीछे देखते हुए अपनी बैकग्राउंड की ओर संकेत करते हुए बोले, "सरजी, पूरे साढ़े छः रुपए का एलाउन्स बनता है आज का। एक ये काम और बच रहा है, इसे भी निबटा ही दो।"