बड़ी पुरानी गल्ल है जी, हमारी पहली नौकरी के टाईम की। पहली नौकरी का महत्व आप सब जानते ही होंगे, पहली मोहब्बत आदमी एक बार को भुला सकता है लेकिन पहली नौकरी की यादें नहीं। कोई जरूरी नोटिस सर्व किये जाने थे और जिस कर्मचारी की नोटिस सर्व करने की ड्यूटी थी. वो बिना सूचना के दो दिन से ऑफ़िस नहीं आ रहा था। शाम के समय बॉस काफ़ी गुस्से में थे और कहने लगे कि इसे सबक सिखाया जायेगा। शाम को मैं ढूँढते-ढाँढते उनके घर पहुँचा। मालूम चला कि उनकी तबियत कुछ खराब थी। कम से कम ऑफ़िस में जानकारी देने की सीख देकर और बॉस के गुस्से की बात बताकर अपने घर लौट आया।
ओम प्रकाश नाम था उनका, उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े थे तो मैं उन्हें चाचा कहकर बुलाया करता था। अगले दिन सुबह ड्यूटी पर पहुँचा तो चाचा पहले से मौजूद थे, घबराये हुये तो थे ही। बॉस थे भी अभी नये नये, एकदम यंग, डाईनैमिक और चूँकि बहुत बड़ा पेपर पास करके आये थे तो रौब दाब तो था ही उनका। चाचा मुझसे पूछने लगे कि क्या किया जाये। था तो मैं बॉस से भी यंगर लेकिन डाईनैमिक भी नहीं था और पेपर भी तो छोटे वाला ही पास करके भर्ती हुआ था, तो इतनी तो अपनी चलती नहीं थी कि सीधे सिफ़ारिश कर दें, लेकिन मौके पर पहुँचकर थोड़ी सी जेनुईननेस तो बता ही सकता था, यही सलाह दी। ओम प्रकाश जी से कहा कि झूठ मूठ कुछ कहने की बजाय जो सच है, उसे अपनी प्रार्थनापत्र में लिखकर साहब के सामने पेश हो जाओ, पीछे-पीछे मैं आकर जो संभव होगा, सिफ़ारिश कर दूँगा। यही जून- जुलाई के दिन थे , चाचा के पसीने तो टपाटप आ ही रहे थे, फ़ट से कागज कलम लेकर अर्जी लिखी और काँपते कदमों से साहब के केबिन की तरफ़ कूच किया। जाते जाते मुझसे कह गये कि देर न करूँ, जल्दी से आ जाऊँ।
केबिन के दरवाजे तक मैं साथ गया और उन्हें अंदर भेजकर वहीं साईड में खड़ा हो गया। उनकी साहब को नमस्ते करने की आवाज सुनाई दी और अगले मिनट के बाद मैं भी केबिन में जाकर अभिवादन करके खड़ा हो गया। तब तक ओम प्रकाश जी अपनी अर्जी पेश कर चुके थे और साहब उसे पढ़ रहे थे। दम साधे हम दोनों खड़े थे कि एकदम से साहब के चेहरे पर मुस्कान आ गई, चेहरा ऊपर उठाकर ओम प्रकाश जी से बोले, “जाओ, आगे से ध्यान रखना।” चाचा की साँस में साँस आई और बड़ी सी नमस्ते करके वो बाहर भागे। बॉस ने अर्जी मेरी तरफ़ बढ़ा दी, चेहरे पर मुस्कान दबाये नहीं दबती थी। अपना ट्रांसमीटर एसीपी प्रद्युम्न की तरह सिग्नल दे रहा था, ’कुछ तो है।’ बाहर आकर अर्जी पढ़ी तो जोरों से हँसी आ गई। बड़े जहाँ मुस्कान में भी कँजूसी बरतने पर मजबूर होते हैं, छोटे वहाँ खिलखिला कर हँस सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि इसे फ़ूहड़ता समझ लिया जायेगा। और ये वो हासिलात है जो छोटों को बड़ों से भी बड़ा कर देते हैं, अगर कोई समझे तो।
अब रोल बदल गये थे, अब चाचा मुझसे पूछ रहे थे कि हँस क्यों रहे हो? साहब भी हँस रहे थे, कुछ गलत लिखा है क्या?”
मैं क्या बताता, बता ही नहीं पा रहा था। हँसी रुके तो कुछ बोलता। बॉस द्वारा अंडरलाईन की गई लाईन चाचा को पढ़ा दी, आप भी पढ़ लीजिये -
“प्रार्थी के नीचे दो फ़ोड़े निकल आये थे, जिस कारण प्रार्थी दो दिन ऑफ़िस नहीं आ सका।”
आपको आये न आये लेकिन उस समय मेरा हँस हँसकर बुरा हाल था। चाचा पहले तो शर्मिंदा से हुये फ़िर मुझपर ही नाराज होने लगे, “तुमने ही तो कहा था कि सच सच लिख दूँ अर्जी में।”
“सच कहता है चाचा, कसूर तो मेरा ही था, है और रहेगा।”
वो अर्जी फ़ाड़कर दोबारा लिखवाई, साहब से स्वीकृत करवाकर लाया। उस दिन के बाद साहब ने और मैंने हमेशा ओम प्रकाश जी को प्रार्थी कहकर बुलाया, ऑफ़िस वाले इस बात को कभी समझ ही नहीं सके।
इतने सालों के बाद ये बात अब जाकर क्यों याद आई? पिछले ढाई महीने से दोपहर में खाना खाने रूम पर आता हूँ। तीन चार दिन से मोटर साईकिल पर बैठते ही जान निकल जाती है। इस प्रार्थी के नीचे कोई फ़ोड़ा-वोड़ा नहीं निकला है, धूप में खड़ी मोटर साईकिल इतनी गर्म हो चुकी होती है कि ये हालत हो जाती है। अब ध्यान आ रहा है कि जसवंत, हमारे ऑफ़िस में काम करने वाला सफ़ाई कर्मचारी रोज बिना नागा बारह-साढे बारह बजे मेरी सीट पर आता था, “साब, चाबी।” जब उसने पहली बार चाबी माँगी तो मैंने सोचा था कि इसे कहीं जाना होगा, फ़िर धीरे धीरे बात इतनी साधारण हो गई कि इस पर गौर ही नहीं जाता था। सूरज महाराज के स्थिति बदलने के अनुसार वो मोटर साईकिल सड़क के उस पार से इस पार लाकर खड़ी कर देता था, हमें पता ही नहीं चलता था कि उसके ये करने से हमें कितना सुख मिल रहा है। आजकल वो नहीं है तो प्रार्थी को पता चल रहा है कि कैसे होती है शेर की सवारी:)
जसवंत जैसे और कितने ही हमसे जूनियर हैं जो हमारा ध्यान रखते हैं, मदद करते हैं। हमारे सुख-दुख में साथ रहते हैं,जरूरत पड़ने पर हमें काम भी सिखाते हैं। जब पुरानी ब्रांच में था और ऑफ़िस से घर के लिये निकलने लगता था तो अपना भोला रोज कहता था, “अच्छा, ध्यान से जाईयो घर।” मैं हंसता था, “पागल, मैं मोर्चे पर जा रहा हूँ क्या?” वो फ़िर भी रोज ऐसा ही कहता। कल भी फ़ोन आया था उसका, “कब आना है वापिस? हरिद्वार नहीं चलना?” कोई जवाब नहीं सूझता, टरका देता हूँ उसे भी:)
किस किस का नाम लें, कितने ही हैं जो छोटे छोटे कामों से, छोटी-छोटी बातों से हमें अपने से बड़ा बनाते हैं। कहाँ किसी का आभार व्यक्त किया? जो ये करते रहे, उसे उनकी ड्यूटी मानकर taken for granted लेना अपनी आदत भी बन गई है और फ़ैशन भी। यूँ भी ये जसवंत, भोला, नत्थू , ओम प्रकाश जैसे आकर मेरी कमेंट संख्या थोड़े ही बढ़ा देने वाले हैं। खैर, आभार तो हमने ऊपर वाले का नहीं माना तो ये क्या चीजें हैं? जब उससे नमकहरामी कर सकते हैं तो जसवंत, भोला और दूसरे क्या मायना रखते हैं? अपना नाम ’मो सम कौन कुटिल… ऐवें ही थोड़े है:) चार छह कदरदान द्रवित होकर वाह-वाह कर जायेंगे, कुछ छेड़ जायेंगे, हो गया अपना टार्गेट पूरा। हींग लगी न फ़िटकरी, हो गई हिन्दी की सेवा:)
और कल्लो बात..... अब तो हमसे ही सवाल भी किये जाने लगे हैं। भैय्ये हाथ जुड़वा लो, बड़े वाले सवाल मत पूछो अपने से। अभी न अपने पास बीवी है, न टीवी। जब होंगे तब पूछ लेना, तब का बहाना तब सही:) इससे तो बेहतर है कि मैं ही सवाल पूछ लिया करूँ। ये रहा आज का होमवर्क -
’प्रार्थी को कितने दिन का अवकाश लेना चाहिये था कि साहब को गुस्सा न आता?’
संकेत: १. ’मेरे हाथों मे नौ-नौ चूडि़याँ हैं…मेरे पीछे पड़े हैं आठ-दस लड़के’
ऐसे पूछते हैं सवाल:)
अब चूड़ियों की बात आ ही गई है तो लगें हाथों……..
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संजय जी बहुत बढ़िया संस्मरण..आज कहाँ मिलेंगे ऐसे भोले लोग.....प्रार्थी गलत भी नहीं था क्योंकि किसी भी लीगल डाक्यूमेंट में देखिये लिखा होता है mr.so and so, hereby known as applicant.... और फिर पूरे दस्ताबेज में वे एप्लिकेंट ही रहते हैं... ऐसे में कहिये प्रार्थी कहाँ गलत था...सरकारी भासः ऐसी ही होती है...
जवाब देंहटाएंदस मिनट से हँस रहा हूँ, बस इतना ही।
जवाब देंहटाएंइस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा.. प्रार्थी ने मन मोह लिया, चचा को भतीजा जो मिल गया था ज्ञानी!!
जवाब देंहटाएंसंजय बाऊजी! अपनी तीस साल की नौकरी में सचमुच बॉस लोगों की गिनती तो याद नहीं, मगर गिनती के कुछ ऐसे ही भोला, ओम प्रकाश आज भी दिल के करीब हैं.. जब मैं ख़ुद बॉस बना बैठा हूँ..
तशरीफ रखिए.. सॉरी तशरीफ का ख्याल रखिये!!
प्रार्थी खुश हुआ ...........:-)
जवाब देंहटाएंपार्थना पत्र की लाइन पढ़ के तो वाकई बहुत हंसा हूँ
जवाब देंहटाएंअपनी जिंदगी में तो कभी भोला आदि कभी आये ही नहीं ( कभी नोकरी ही नहीं की)
@ साहब लोगो को तो हमेशा ही गुस्सा आता है छुट्टी लो या न लो
एक बार मैं भी प्रार्थी हुआ था तो आठ दस दिन कॉलेज नहीं गया था
हा हा हा
संजय भाई,
जवाब देंहटाएंआज सोचा था कि आप का आलेख गंभीरता से पढूंगा .लेकिन आपके प्रार्थी ने सब गुड़ गोबर कर दिया.
फिर भी मैंने अपनी पसंद की लाइन छांट ली है.
"कितने ही हैं जो छोटे छोटे कामों से, छोटी-छोटी बातों से हमें अपने से बड़ा बनाते हैं"
और कितने हैं जो इन छोटे छोटे लोगों को याद रखते हैं.
आपकी कलम को प्रणाम.
मुसीबत में फ़ंसे लोगों की सहायता करने के बुरी आदत काफी पुरानी लगती है। उनके बहाने पाठकों का काम भी हो गया। प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि गीत की एम्बैडिंग डिसेब्ल कर दी गयी है।
जवाब देंहटाएंसच लिख देने से सब स्पष्ट हो जाता है। कई बार ऐसा हुआ कि सामने वाले ने तुरन्त गलती मान ली और उसे कुछ भी दण्ड नहीं मिला।
जवाब देंहटाएं(आफिस को अर्जी) लिखने से कुछ नहीं होता, लेकिन बिना लिखे कुछ नहीं होता.
जवाब देंहटाएंभोलापन और सत्यता मुग्ध ही करती है...
जवाब देंहटाएंसुन्दर संस्मरण। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंअब आपकी तबियत तो ठीक है?
जवाब देंहटाएंल्लोजी जिसे कहते हैं न स्वाद...वो आगया जी आपकी पोस्ट को पढ़ कर...कमाल का लिखते हैं जी आप...हँसते भी हैं और साथ में हंसाते भी हैं...ऐसे लोग हमें बहुत पसंद हैं जी...कदी साडी गल्ली पुल्ल के वी आया करो जी कदी...
जवाब देंहटाएंनीरज
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जवाब देंहटाएं.
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“प्रार्थी के नीचे दो फ़ोड़े निकल आये थे, जिस कारण प्रार्थी दो दिन ऑफ़िस नहीं आ सका।”
हा हा हा हा,
इस सचाई होर भोलेपन पे वारी जांवा !
एक ऐसा ही था अपने साथ भी... एक हफ्ते बाद आया और अर्जी लिखी " प्यार-मोहब्बत में बीबी ने नाक और गाल दोनों चबा दिये, जैसे ही चेहरा दिखाने काबिल हुआ, प्रार्थी सेवा में हाजिर हो गया, छुट्टी मंजूरी की फरियाद है। "... क्या करते सबूत सामने था, हंसते-हंसते छुट्टी मंजूर की गई...
...
बाक़ी बातें तो अपनी जगह...
जवाब देंहटाएंहिन्दुस्तान के सबसे बड़े पेपर पास करने वाले भी इस तरह के बुर्जुआ काम नहीं करते जैसे कि ये कुछ दोयम दर्ज़े के पेपर पास करने वाले करते हैं...कई बात तो रश्क होता है कि हाय हम ऐसे क्यों न हुए... काहे बड़े पेपर पास करके भी छोटे के छोटे ही रह गए :)
प्रार्थी को अवकाश की सूचना देनी चाहिए न की स्वीकृति पत्र ले कर घूमना चाहिए..
जवाब देंहटाएंअवकाश लेना हमारा अधिकार है बड़ा पेपर पास करने वाले को गुस्सा आये तो आये ..
हम तो १० दिन की छुट्टी ले रहे हैं..८ दिन असली वाली २ दिन शनिवार और रविवार की अपने आप जुड़ जाएगी..
जब भी हँसने का मन करे, तो ये दो लाईने याद कर लो, फ़िर लगे रहो, हंसने में
जवाब देंहटाएंबचपन में मिले कई बड़े महान ज्ञान जो हम बड़े होने के बाद भुला बिसरा देते है और अफसोस हम शहर में एकल परिवारों में रहने वालो के बच्चो को ये ज्ञान कभी मिल ही नहीं पाता है | दो महीने पहले एक ऐसा ही भुला बिसरा ज्ञान हमारी गांव से आई ननद की बेटी ने हमारी बच्ची को दिया " तकिये के ऊपर न बैठो वरना नीचे फुडिया हो जायेगा " :)))))
जवाब देंहटाएंआप का प्रार्थी भी लगता है की तकिये पर बैठा गया था और हा आप भी फटफटिया पर बैठने के लिए कुसन या रुमाल का उपयोग कर सकते है पर याद रखियेगा की मुंह पोछने के लिए एक अलग रुमाल रखियेगा " डर्टी हैबिट " न अपनाईयेगा :)))
आपकी हिंदी सेवा वाली बात अच्छी लगी. मुझे लगता है की हम सभी ऐसी ही हिंदी सेवा में व्यस्त हैं.
जवाब देंहटाएं@ अरुण जी:
जवाब देंहटाएंआज के युग में भोलापन छोटा कसूर नहीं है अरुण भाई।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन:
बुरी आदत है तो भी जिम्मेदार दुनियावाले हैं, जो अपने को मिला है वो ही लौटा रहे हैं। सही तरीके से असली लुधियानवी(साहिर लुधियानवी) कह चुके हैं, यूँ भी आईने में छवि धुंधली बेशक दिखे, मूल का ही प्रतिबिंब होता है।
@ ajit gupta ji:
चिंता न करें जी, बिल्कुल ठीक नहीं है:) ठीक रहने पर डर लगता है हमें तो।
@ नीरज गोस्वामी जी:
भाईजी, शर्मिंदा मत करें। बिना नागा आता हूँ, आगे से निशानी छोड़कर आया करूँगा ताकि सनद रहे:) एक मेल भेजता हूँ आपको अलग से।
ऐसे कितने लोग हैं.....इन किसी स्वार्थ के कितना कुछ कर जाते हैं, हमारे लिए
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट के बहाने हमें भी कितने ही लोग याद आ गए....
@ प्रवीण शाह:
जवाब देंहटाएंप्रवीण भाई, आप वाला अपने से इक्कीस। बंदे के पास शहादत की शहादत जो थी:)
जानते हैं, मुझे लग रहा था कि लोग इसे सच नहीं समझेंगे, लेकिन सच्चाई की क्समें खाने की जरूरत नहीं पढ़ी और आप के बताये वाकये ने और मुहर लगा दी कि ऐसी घटनायें होती हैं। शुक्रिया।
@ Kajal Kumar ji:
काजल भाई, आप छोटे हैं तो ऐसे छोटे ही रहिये, बहुत जरूरत है। वैसे ’हिमसुत्ता’ वाला किस्सा याद है आपको?
@ आशुतोष:
ये हुई न बात, दबंग प्रार्थी:)
@ जाट देवता (संदीप पवाँर):
पड़ौसी भाई, इन दो लाईनां के साथ प्रवीण जी का बताया वाकया भी जोड़ लो, और मजा आयेगा।
logo ko saheed karane ki purani aadat hai....ab samajh main aaya ....
जवाब देंहटाएंjai baba banaras...
pichle 15 dino se netgear ne tippani dena band kar rakhha tha...........halat 'susheel' jaisa ho raha tha.........khair.........'prarthi' ki prarthana bhi sahi tha............
जवाब देंहटाएंpranam.
प्रार्थी की प्रार्थना तो स्वीकार करनी ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंवन फोड़ा पर डे के हिसाब से तो ठीक ही लग रहा है जी प्रार्थी का निवेदन :)
जवाब देंहटाएंवाह संजय जी आपने तो हँसने पर मजबूर कर दिया| सरकारी भाषा पर भी काफी व्यंगात्मक सोंच पैदा की| ब्लॉग पढकर बहुत ही अच्छा लगा| बहुत बहुत शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंकाफी वयस्त और परेशानी की वजह से ब्लॉग से दूर रहा....ये अखर भी रहा था...पर शांत पानी में पत्थर के पढ़ने से उठी लहरों को शांत होने में समय लग ही जाता है......आसपास की कई चीजें उस नजर से नहीं देख पाता जिसे सामान्य हालात में देखता है...बस ऐसी ही चीजें थी ..पर जीवन रुकता नहीं. खैर वापसी की है औऱ आपका हौसलाअफजाई पाकर खुशी हुई की चंद लोग ही सही कहीं तो जुड़ें हैं जो भूले नहीं....
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट पढ़कर काफी मजा भी आया...खैर अपन तो लोगो को भूलते नहीं जल्दी सो इस तरह का अफसोस ज्यादा होता नहीं.....खशी रहती है इस बात की जीवन के पबड़े पेपर को पास करने वाले लोगो से मिलना ज्यादा होता है....जहां तक दोस्ती की बात है दोस्तों का इस तरह से नजर चुराना मुझे कभी रास नहीं आता..यार अगर दोस्त हैं तो कम से कम भावनात्मक सहयोग तो दे ही सकते हैं न....नजर चुराने से बेहतर है अपने को वापस खोजने की.....जो लम्हे हैं उन को जीने की.....वैसे भी इंसान आधा अधूरा ही होता है.....कहते हैं कि पूर्ण तो सिर्फ कान्हा थे पूर्ण सोलह कलाओं के साथ....
हाँ हाँ...काहे नहीं..
जवाब देंहटाएंआप भला किसी सीधे-सादे इंसान का भांडा फोड़ने से काहे बाज आयेंगे....फोड़ीये-फोड़ीये...
हाँ नहीं तो...!
कुछ आँग्ल भाषा के चमत्कार हम भी ले आये हैं, अंतरजाल से...
1. Infosys, Bangalore: An employee applied for leave as follows: "Since I have to go to my village to sell my land along with my wife, please sanction me one-week leave."
2. This is from Oracle Bangalore. From an employee who was performing the "mundan" ceremony of his 10 year old son: "As I want to shave my son's head, please leave me for two days''.
3. Another gem from CDAC. Leave-letter from an employee who was performing his daughter's wedding: "As I am marrying my daughter, please grant a week's leave.."
4. From H.A.L. Administration dept: "As my mother-in-law has expired and I am only one responsible for it, please grant me 10 days leave."
5. Another employee applied for half day leave as follows: "Since I've to go to the cremation ground at 10 o'clock and I may not return, please grant me half day casual leave"
6. An incident of a leave letter "I am suffering from fever, please declare one day holiday."
7. A leave letter to the headmaster: "As I am studying in this school I am suffering from headache. I request you to leave me today"
8. Another leave letter written to the headmaster: "As my headache is paining, please grant me leave for the day."
9. Covering note: "I am enclosed herewith..."
10. Another one: "Dear Sir: with reference to the above, please refer to my below..."
11. Actual letter written for application of leave: "My wife is suffering from sickness and as I am her only husband at home I may be granted leave".
12. Letter writing: - "I am in well here and hope you are also in the same well."
13. A candidate's job application: "This has reference to your advertisement calling for a ' Typist and an Accountant - Male or Female'... As I am both(!! )for the past several years and I can handle both with good experience, I am applying for the post.
क्या बात है संजय जी !
जवाब देंहटाएंआप खुद को 'मो सम कौन कुटिल..' लिखते रहें.
मै तो आपको 'तो सम कौन चुटील गल ज्ञानी' ही कहूँगा.
ज्ञान की बात बड़े चुताले ढंग से पेश करते हैं आप.
चुताले को चुटीले पढ़ें
जवाब देंहटाएंसरल और धाराप्रवाह आम आदमी की भाषा आपकी रचनाओं की खासियत रहती है ! शुभकामनायें संजय !
जवाब देंहटाएंसर जी , नीचे के फोडे पर भी ऐसी पोस्ट लिखी जा सकती है , यह आज ही जाना. उससे उत्पन्न तकलीफ़ का अनुभव जिसने किया हो वही समझ सकता है कि "बताए न बने" की मजबूरी क्या होती है.
जवाब देंहटाएं@ बड़े जहाँ मुस्कान में भी कँजूसी बरतने पर मजबूर होते हैं, छोटे वहाँ खिलखिला कर हँस सकते हैं।
जवाब देंहटाएंआपके हर आलेख में मौजूद इस तरह की सूक्तियां मेरा ध्यान आकर्षित करती हैं।
रोचक संस्मरण पढ़कर मैं बस मुस्कराया भर। सूक्ति का सम्मान करते हुए हंसी को काबू में करना पड़ा।
aapka yah sansmaran bahut hi rochak laga..baise main aap ke blog tak pahucha hoon aapki in panktiyon ki bajah seहम लोग बराबरी के आदी भी नहीं और कायल भी नहीं, या तो हमें दबा लिया जाये या फ़िर हम दूसरे को दबा लेंगे।
जवाब देंहटाएंहोता ये है कि उत्पीड़न होगा, फ़िर उसका प्रतिकार होगा। और जब पीड़ित सशक्त हो जाते हैं तो कल का शोषित आज का शोषक बन जाता है।...maine bhi bahut chintan kiya tha..lekin aap ke bicharon ne ek nayi taswir bana di....lekin sanjay ji tippdi bhejne se pahle block ke upar likhe shabdon ko padkar ek baat to jarur jaan gaya ki aap aaknath dube hai..sahitya prem mahaj bartman ka samajik faishan matra nahin hai.... aapka blog aur usper tippadi karne wale log sahityik hain..main padhne ka shaukin hooon aur thoda bahut hi likh pata hoon.......
.....binamarta ke sath ek baat aur kah raha hoon..waqt ke sath doston ki sankhya badhti jati hai..unko diya jaane wala samay kam hota jata hai..naye naye blogs per visit ki iccha kai baar link bikherne ka bhram bhi kara sakti..lekin hamesha yah sach nahi hota......phir kisi roj eun hi mulakat hogi..phir baithege phir baat hogi..namaskar
शानदार और जानदार संस्मरण, मजा आ गया पढकर।
जवाब देंहटाएं------
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।
haasy vyang shaleenata sadgee apanapan chalak raha hai ise sansmaran se .
जवाब देंहटाएंAnjane hee kai sandesh mil jate hai hume.
Aabhar
मजेदार,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंoh - ada ji has already shared these here :) - no need to go to that post now :)
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