मई माह में एक फ्लैट किराए पर लेना था। संयोगवश एक फ्लैट के बारे में सूचना मिली जो लोकेशन, लोकेलिटी व उपलब्ध फर्नीचर आदि के स्तर पर उचित लगा। मुम्बई का सिस्टम ऐसा है कि बिना ब्रोकर के ऐसी बात बनती नहीं और ब्रोकर अपने गांव जो महाराष्ट्र में ही कहीं है, गया हुआ था। पूर्व किराएदार जोकि मेरे सहकर्मी ही हैं, और फ्लैटमालिक की उससे बात फोन पर ही हुई और उसकी सहमति मिलने के बाद फ्लैटमालिक ने अन्य औपचारिकताएं पूरी करके फ्लैट की चाबी दे दी, मैं शिफ्ट हो गया। ब्रोकरेज आदि देने, फ्लैट में बिजली-पानी तथा सोसायटी के अन्य नियम आदि के बारे में बात करने के लिए कॉल किया तो ब्रोकर महोदय ने बताया कि वो बद्री-केदार दर्शन के लिए निकल चुका है और लौटकर भेंट करने आएंगे। अगले दिन व्हाट्सएप्प स्टेटस में श्रीमान जी के माथे पर 'जय बद्रीविशाल' का छापा और पृष्ठभूमि में हेलीकॉप्टर दिख गया। अर्थात बद्रीनाथ दर्शन कर आए थे और अब उनकी केदारनाथ की तैयारी थी। अगले सप्ताह फोन पर समय तय करके मुझसे मिलने आए, रुमाल में लपेटकर प्रशाद भी लाए थे। दर्शन अच्छे होने की जिज्ञासा के उत्तर में मिश्रित प्रतिक्रिया मिली, "बद्रीनाथ धाम में बहुत अच्छे से दर्शन हो गए लेकिन सरजी हम केदारनाथ धाम नहीं जा सके। हेलीकॉप्टर का टिकट मिला नहीं औऱ पैदल जाने का साहस नहीं हुआ।" मैंने भी अपनी दिल्ली(+ पंजाबियों वाली भी) टिपिकल गोली दे दी, "अरे तो क्या हुआ, केदारनाथ के दर्शन हम करवा देंगे। ये भी भला कोई बड़ी बात है?" भोले आदमी ने गोली तुरन्त गटक ली, "पक्का न, सरजी?"
"पक्का।"
अब यह साप्ताहिक कार्यक्रम हो गया कि पिसल भाई का फोन आए और वो पूछे कि कैसे जाएंगे, और कौन होगा, और पक्का न? मैं कहता कि ये सब इतना सोचने का मैटर नहीं है लेकिन है पक्का। महीने भर में पिसल भाई ने जाने की टेण्टेटिव तिथि भी तय कर ली, मुझसे छुट्टी स्वीकृत करवाने और टिकट बुक करवाने के परामर्श भी देने लगे। अब मैं सोचने लगा कि ये भी मुझे सीरियसली लेने लगे!
इस बीच मुझे मेरे नियोक्ता की ओर से फ्लैट एलॉट हो गया और मात्र डेढ़ माह के बाद मैं वह फ्लैट छोड़कर अन्य क्षेत्र में शिफ्ट हो गया। मुझे लगा कि अब केदारनाथ वाली गोली आई-गई हो जाएगी लेकिन पिसल भाई के साथ ये नहीं था, वो गोली को कसकर धँसाए था। आते-आते सितम्बर भी आ गया।
अब तक प्रफुल्ल और सुभाष जी मुम्बई आकर जा चुके थे और संयोग ऐसे बने कि पिसल भाई की इन दोनों से भेंट भी हो गई और उसे यह भी परिचय मिल गया कि हम इकट्ठे अनेक यात्राओं पर जा चुके हैं, भाई का टेम्पो अब higher than high हो चुका था। सम्भावित टूर की चर्चा अब इन दो से भी होने लगी थी। दिल्ली से अपनी गाड़ी द्वारा जाने की हमारी योजना जानकर पिसल भाई बहुत उत्साहित था और अपने साथ अपने एक और मित्र को भी ले जाने का आग्रह कर चुका था।
इधर मेरे विभाग में कार्य सहसा इतना बढ़ गया कि मेरा जा पाना मुझे ही संदिग्ध लगने लगा था। यह बताना रह गया कि बहुत प्रयास करने के उपरांत भी हेलीकॉप्टर के दो टिकट ऑनलाइन उपलब्ध नहीं हो सके थे। मैंने सोच लिया कि मेरा जाना न हो सका तो हरिद्वार से इन दोनों लोगों का पैकेज टूर प्रबन्ध करवा देंगे। इस बीच सुभाष जी ने आश्वस्त किया कि मैं साथ चलूं तो अच्छा ही है अन्यथा वो ही दो मराठों को केदारनाथ धाम के दर्शन करवा देंगे। मराठों को कह दिया गया कि वो 30 सितम्बर दोपहर तक हरिद्वार पहुँच जाएं, उनके हुड़क इतनी थी कि उन्होंने रेल के टिकट तुरन्त बुक कर लिए। उधर प्रफुल्ल ने भी अवकाश का जुगाड़ कर रखा था, अनिश्चित था तो मेरा कार्यक्रम।
सत्ताईस सितम्बर को जैसे तैसे हाथ पैर जोड़कर मैंने भी 28 सितम्बर से अवकाश की मौखिक स्वीकृति पा ही ली। 29 को घर पहुंचकर फिर से हाथ पैर जोड़ने पड़े और 30 की प्रातः झोला उठाकर हिमालय की ओर निकल लिया। प्रफुल्ल भी अपना ट्रॉली बैग लेकर मेट्रो में मिला और गाजियाबाद से सुभाष जी की गाड़ी में बैठकर हम तीनों चल दिए, चलो केदारनाथ।
मराठों की ट्रेन की स्थिति पर पिछले दिन से ही निरंतर अपना ध्यान था। रास्ते में सुभाष गुरुजी को नाना विधि से बहला-फुसलाकर 'कार को कार ही रहने दो, वन्देभारत न करो' अभियान चलाया गया जो लगभग सफल भी रहा। मराठों की ट्रेन हरिद्वार पहुंचनी थी दोपहर साढ़े बारह, हम पहुंच गए साढ़े ग्यारह। हाईवे पर ही नाश्ता आदि निबटाने तक ट्रेन भी हरिद्वार पहुंच गई थी, नियत समय से कुछ पूर्व ही। गंगा किनारे उनसे भेंट हुई, विधिवत यात्रा आरम्भ करने से पूर्व सबने गंगा जी में स्नान किया और 'हर हर महादेव' कहते हुए चल दिए।