सर्वप्रथम सभी भारतीय नागरिकों को भारतीय गणतंत्र की साठवीं वर्षगांठ पर हार्दिक बधाई।
साठ वर्ष का समय कम है या ज्यादा, इस चीज को निर्धारित किया जायेगा इस बात से कि यह कालखंड किस संदर्भ में है। इस कोण से देखें तो एक राष्ट्र के लिये साठ वर्ष कुछ विशेष मायना नहीं रखते, परंतु देखने वाले जब मनुष्य हों तो यह बहुत छोटी अवधि भी नहीं है। एक इन्सान, यदि वह सौभग्यशाली हो तो इतने समय में जीवन की अनेक अवस्थाओं से गुजरता हुआ, विभिन्न झंझावातों से जूझता हुआ खासा अनुभवी हो चुका होता है। उधर एक देश के हिसाब से, वो भी भारत जैसे देश के लिये, अपने गणतंत्र की साठवीं या सतरवीं वर्षगांठ मनाना अधिक से अधिक अपनी शैशवावस्था से किशोरावस्था में पदार्पण ही लगता है।
देशनामा पर खुशदीप सहगल जी का इसी संदर्भ में लिखा गया पोस्ट बहुत अच्छा लगा। उन्होंने कई सवाल उठाये जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि इस उपलब्धि पर हमें संतुष्ट होना चाहिये या नहीं। वैसे तो साठवें साल का बहुत महत्व है, लेकिन मायने ’मैन टू मैन एंड सिच्युएशन टू सिच्युएशन’ बदलते हैं। कोई खाया-अघाया व्यक्ति जहां साठ साल पूरे करने को ’सीनियर सिटीजन’ बनने की खुशी मनाने का अवसर समझता है, एक निम्नवर्गीय कर्मचारी के लिये इस उम्र में पहुंचने का मतलब होगा कि अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में वह पहले से भी ज्यादा अक्षम हो जायेगा। लेकिन यहां बात हम अपने देश के गणतंत्र के साठ साल पूरे करने की बात कर रहे हैं तो वही बात है कि ’आधा गिलास खाली है या आधा गिलास भरा।’ आज हमें अपने देश पर इतराने के लिये बहुत बातें हैं तो मंथन करने के लिये भी बातों की कमी नहीं है। जी.डी.पी. विकास दर, सर्विस एंड मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में विपुल कार्यबल, चमकते और जगमगाते नगर, रिसर्च क्षेत्र में प्रभावशाली उपस्थिति आदि कुछ बातें जहां हमें अपनी तरक्की के गीत गाने के लिये उकसा रहे हैं, पर्दे के पीछे से अशिक्षा, कुपोषण, भ्रष्टाचार, गरीबी, महंगाई, कट्रटरवादिता, आतंकवाद, बिजली-पानी और आवास जैसी मूलभूत जरूरतों की अनुपलब्धता जैसी समस्यायें और भी ऊंची आवाज में चीखकर इस ’इंडिया शाईनिंग’ की छवि को धूमिल कर रही हैं। तरक्की तो हुई है पर क्या इस तरक्की का असर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचा है, इस सवाल पर ईमानदारी से सोचें तो शायद दिमाग चकरा जाये। अरबपतियों की संख्या ज्यादा होना, उड्डयन सुविधायें ज्यादा सुलभ होना या ब्रांडेड उपभोग्य वस्तुओं की मांग बडना इस बात का पैमाना नहीं कि भारत ने समग्र विकास कर लिया है, जिस दिन इस देश का हर नागरिक भरपेट भोजन सम्मानजनक तरीके से प्राप्त करते हुये अपने परिवार का भली-भांति पोषण करने में सफल होगा, उसी दिन सही मायने में हमारे लिये होली, दिवाली, ईद, स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस होगा। और हमें आशा रखनी चाहिये कि ’वो सुबह कभी तो आयेगी’ बल्कि ’वो सुबह लाई जायेगी’।
ऐसे ही किसी गणतंत्र दिवस की कामना करते हुये, पुन: सभी भारतवासियों को बधाई।
आमीन. संजय जी बहुत ही सुन्दर आशावादी रचना. बधाई.
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआशा ही नहीं विश्वास सा है कि हिन्दी ब्लॉगरी से एक नया चमकदार व्यक्तित्त्व जुड़ा है। ढेर सारी शुभकामनाएँ। कल जल्दी में था इसलिए बस 'समर्थक' बन कर चला गया था। आज पढने के पश्चात टिप्पणी कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंकहीं कहीं वर्तनी की त्रुटियाँ हैं, ठीक कर लीजिए। मुझे टोकने की आदत है, आशा है बुरा नहीं मानेंगे।
बहुत स्वस्थ और सुंदर भाव, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
संजय जी,
जवाब देंहटाएंमैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि २०० साल के राज में अंग्रेजों ने हमसे १०००००००००००० (एक लाख करोड़) लुटा और सिर्फ ६४ साल के राज में नेताओं ने हमसे ४०००००००००००००० (चार सौ लाख करोड) लुटा. आपका पोस्ट पढ़ने लायक है. कुछ सुझाव है: लेबल कहीं नहीं दिख रहा. अगर उसे लगाएं तो आसानी होगी. साथ हीं आपका जो दाहिने ओर का लेआउट है उसे दो के बजाय एक कालम का बना दें. ऐसे हीं लिखते रहें.
नीलाभ वर्मा
www.itsmycountdown.com | www.nilabh.in | www.dharmsansar.com