बुधवार, मार्च 17, 2010

डुबोया मुझको होने ने(३)

वो एक गाना था न जी, “रेशमा जवान हो गई” उसी तर्ज पर हमारे पंख निकलने लगे थे और निकलते ही जा रहे थे। इतनी पुख्ता न्याय व्यवस्था की पचलित परंपराओं को डुबोने के बाद हमारा मन भी ऐसा उचाट हो गया था कि यहां तो लक्ष्य प्राप्ति हो चुकी, अब जीकर क्या करेंगे। पर रामजी को तो हमसे अभी और बड़े काम(कम से कम हमारी नजर में) करवाने थे। एक दिन हॉट सीट पर बैठे थे कि पिताजी का फ़ोन आ गया। उन्होंने जब ये सूचित किया कि हमारी नियुक्ति एक बैंक में हो गई है तो हमारा मन बल्लियॊं उछलने लगा। हम तो मन ही मन नोटों में बैठना, लेटना, कूदना, उछलना और पता नहीं क्या-क्या करने लगे। मां-बाप चिंतित होने लगे कि कैसे उनका बालक घर से दूर अकेले रहेगा क्योंकि नियुक्ति घर से ३०० कि.मी. दूर थी, और ये भी पता था कि अब उनका ये कर्मयोगी बालक रुकने वाला नहीं, जैसे सरकार के कड़े बयानों से आतंकवाद नहीं रुकते। वैसे तो हमारे हाथों पता नहीं अब तक कितने सफ़ीने डूब चुके थे, पर मां-बाप के लिये तो हम नादान बालक ही थे।

खैर जी, अबके दिल्ली से निकली गाड़ी तो जा पहुंची चंबल की बीहड़ों के पास हल्ले हल्ले। फ़िर मिले नये दोस्त, शुरू हुये नये दोस्ताने(डिस्क्लेमर – ये करण जौहर वाले दोस्ताने नहीं थे)। हम शायद शक्ल से ही ऐसे बावले थे कि हम से कई कई साल बड़े हमारे बैचमेट्स ने हमें अघोषित ग्रुप लीडर बना लिया, और हम बेचारे उम्र में सबसे छोटे होने की सजा भुगतते रहे। आलम ये था कि हम चलते तो हमारे आस पास ब्लैक कैट कमांडोज की तरह चार-पांच साथी चला करते। नेता होने के कारण वहां पर हुई सारी गुस्ताखियां, गड़बड़ियां और यहां तक की किराने वाले, होटल वाले, पान-सिगरेट वाले के यहां चलने वाले उधार खाते दिल्ली वाले भाई साहब के नाम दर्ज होते थे। लगे हाथों बता दें कि रहने वाले भले ही हम दिल्ली के सबसे पिछड़े इलाके के सबसे पोश मोहल्ले के मध्यमवर्गीय परिवार से हों, पर वहां भाई लोगों ने सब संबंधित पक्षों के सामने हमारा नाम ’दिल्ली वाले’ मशहूर कर रखा था। , लोग बाग भाव खा जाते थे और हम टंकी पर चढ़ जाते थे। साथियों से और वहां के सभी लोगों से बहुत प्यार मिला। यहां तक कि खड़ूस मकान मालिक से भी हमें वी.आई.पी. ट्रीटमेंट मिलता था।

शहर काफ़ी पिछड़ा हुआ था, काफ़ी कुछ हमारी तरह, सो मिजाज खूब मिलने लगा। शहर का माहौल ऐसा, कि रात आठ बजे के बाद सड़्कों पर इक्का दुक्का लोग दिखाई देते। किसी के घर यदि रात आठ-नौ बजे के बाद कोई किवाड़ खटखटाते तो पहले अंदर से आवाज लेकर परिचय पूछा जाता, काम दरियाफ़्त किया जाता और उसी हिसाब से खिड़की या दरवाजा खुलता, और हम अपने कमरे से अंदाजा लगाते कि अब खिड़की खुलेगी या दरवाजा। खिड़की का मतलब कि बंदे को बाहर से ही टाला जाना और दरवाजा खुलने का मतलब था, आना है तो फ़टाफ़ट आ जा वरना फ़िर नहीं मौका मिलेगा और खट से दरवाजा बंद। किरायेदारों के लिये रात दस बजे तक मेनगेट में प्रवेश कर लेने का नियम था। अब हम ठहरे शुरू के हिलेले, बैंक से लौटते और खटिया पर लोट जाते। खटिया के खटमल तब काटते जब दुनिया के लोग सोने की तैयारी करते होते। पूर्ण जाग्रतावस्था में आते ही बाहर के वीराने हमें ऐसे आवाजें लगाते और उकसाते जैसे इस ब्लॉग दुनिया के मजह्बी ठेकेदार सेंसेशनल पोस्ट और उससे भी ज्याद भड़काऊ शीर्षक लिखकर टिप्पणियां खींचते हैं। उस शहर में ले देकर एक स्टेशन था, जहां चहल पहल हुआ करती थी। हम रेलवे के तभी से इतने आभारी हो गये थे कि हम यहां ब्लॉग पर आते ही शिवकुमार मिश्रा जी और ज्ञानदत्त पांडे साहब के मुरीद हो गये(रेलवे के कारण)। तो उस स्टेशन पर एक गाड़ी रात आठ पचास पर आती थी और नौ पाच पर चलती थी। उस गाड़ी के सारे सजीव जीवजगत का सूक्ष्म निरीक्षण हम प्रतिदिन करते थे और इतनी कर्तव्यनिष्ठा से करते थे कि बहुधा हम रेलवे कर्मचारी या जी.आर.पी. वाले समझ लिये जाते थे।

अब घर वापिस पहुंचने पर साढ़े दस-ग्यारह बज जाते लेकिन मकान मालिक हमें फ़ट से एंटरी अलाऊ कर देते, देखे तो होंगे सभी ने वो ट्रैफ़िक पुलिस वाले, जो ट्रकों को नो-एण्ट्री ज़ोन में जाने देने की दयालुता दिखा देते। जब विपक्ष की तरह दूसरे किरायेदारों ने इस सुविधा के सामान्यीकरण की मांग की तो मकानमालकिन द्वारा यह कहकर ठुकरा दी गई कि ’बैंक वालों से मुकाबला मत करो। हमारे दिल्ली वाले भाई साहब हमारे किरायेदार नहीं है, घर के ही हैं”। और सबके सामने हमें मकान की डुप्लिकेट चाबी पेश की गई। ये तो जी बाद में सरकार ने इसी को नजीर मानकर हर ईर-बीर-फ़त्ते को रत्न वगैरह देने की बजाय सिर्फ़ और सिर्फ़ डिज़र्विंग लोगों को पुरस्कृत करने की परिपाटी अपनाई। इतनी इज्जत थी जी हमारी। पर इन्हीं मकानमालकिन भाभीजी ने हमारा मन उस खूबसूरत शहर से उखाड़ दिया। हुआ यूं कि उनके इकलौते बेटे का जन्मदिन था। हम तो इस माया ममता से निरपेक्ष थे, पर हमारे साथी कब से इस बुलौवे की बाट देख रहे थे। हम तो बुलौवे का नाम पहली बार सुनकर डर ही गये थे कि ये क्या बला है। एक दिन पहले हमारी भाभीजी आई और कहने लगीं कि कल हमारे मोड़े का बड्डे है, रात का खाना सब हमारे यहा खायेंगे।

अब साहब जब वहां पहुंचे तो देखा कि दे पंगत पे पंगत। हमने पहली बार ऐसी दावत देखी, जिसमें सभी नीचे जमीन पर बैठकर खाना खा रहे थे। बैठ ही गये पंगत में। जब डॉन बैठ गया तो चेले भी बैठ गये। खाने में हमें तो जो आनंद आया, वो फ़िर दुबारा नहीं आया। अब जब उठे तो हाथ, मुंह, कपड़े सब सने हुये थे। कहीं रायता छ्लक रहा था, कहीं रसा चमक रहा था, मूंछों में बूंदी शोभायमान थी। यूं लग रहा था कि जन्मों के भूखे को पहली बार खाना मिला हो। और ये हाल सिर्फ़ अपना था, बाकी साथी तो ऐसी दावतों के आदी थे। इतने में भाभीजी की आवाज आई कि इधर कमरे में होकर जाना। टोली चल पड़ी मकतल की तरफ़। एंट्री मिली सिर्फ़ हमें, अंदर गये तो उनके कुछ मेहमान बैठे थे। हमारी हालत देखकर भाभीजी चौंकीं, मेहमान सहम गये और एक सोने की मूरत हंसी। हम पहले तो उस बुत के रूप से मदहोश से होने लगे, फ़िर हंसी से बेहोश होने लगे और जब आवाज सुनी कि,”आंटीजी, मैं सारी उमर कुंवारी ही रहना पसंद करूंगी”, हम मर ही गये। लेकिन मरे शायद नहीं थे क्योंकि दूर कहीं से भाभीजी की आवाज आ रही थी, “भैया, तुमने तो दिल्ली का नाम डुबो दिया।” हाय अल्ला, ये दिन भी देखने थे।

हमने भी गुनगुनाया, “चल खुसरो घर आपने, भलो नहीं ये देश।”

नोट:- खुशखबरी, अब आप कुछ दिन हमें झेलने से बचे रहेंगे। काहे से कि अब चार-पांच दिन हम बीमार रहेंगे। हमें तो पहले से ही अपनी बीमारी की अवधि का पता चल जाता है, हम तो शुरू से ऐसे ही प्रार्थनापत्र दिया करते हैं।

कितना झूठ बोलना पड़ता है यार, ये जरा सी वाहवाही के लिये।

5 टिप्‍पणियां:

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  2. बहुत लाजवाब लिखा भाई, मजा आगया.

    रामराम.

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  3. वाह भई वाह. मज़ा आ गया. आभार इतना हंसाने के लिये.

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  4. badhiya tha ji,


    keep it up hi kehte hai na......?

    wo hi hai...

    kunwar ji,

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  5. @ अदा जी,ताऊ जी एवं वन्दना जी:
    -------------------------
    पहले से ही आपका आभारी हूं, आगे भी स्नेह की आशा रहेगी।

    @संजय भास्कर जी:
    -------------
    पधारने का और उत्साह बढ़ाने का धन्यवाद।
    आभार

    @कुंवर जी:
    -------
    आपके पधारने का धन्यवाद, एक गैर ब्लॉगीय प्रिय मित्र भंवर जी की याद ताजा हो गई। वो तो पता नहीं कहां है, पर आप ने उसकी याद ताजा करवा दी। और हां, कीप इट अप ही कहते है जी, हिंदी में जैसे लगे रहो मुन्ना भाई, ठीक है न?
    आभार

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