आभारी हूँ दोस्त तुम्हारा, कि इतनी पुरानी पोस्ट को भी याद रखा और एकदम मैचिंग मूड की तस्वीर बिना कहे ही ढूंढ कर दी।
सलाम नमस्ते,
हमें सलाम नमस्ते करनी पड़ रही है, इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि समय कैसा चल रहा है हमारा। न तो था एक जमाना कि हम लिया भी नहीं करते थे नमस्ते वमस्ते किसी की। ये हिन्दी की सेवा करने का व्रत जो न करवा दे थोड़ा है। वैसे भी जब बाजार में उतर ही गये हैं बिकने के लिये तो मार्केटिंग का तकाजा है कि बिकने लायक दिखोगे तभी कोई भाव देगा। अच्छे कूदे भाई इस ब्लॉगिंग की दुनिया में। न दिन को चैन, न रातों का करार। सपना भी देखें तो लगता है कि कोई फ़ॉलोवर अपनी गलती सुधारने के नाम पर हमें अकेला छोड़ कर लौट गया है। और तो और अखबार भी देख लें कभी मजबूरी में तो आंखें स्टिंग आपरेशन में लगी रहती हैं कि कोई खबर दिख जाये ऐसी कि हमारी एक पोस्ट का मैटीरियल तो बन जाये। तो साहेबानों, कदरदानों और बन्धु-बांधवों, आज की पोस्ट का श्रेय जाता है 8 जून के दैनिक हिन्दुस्तान में छपी एक लघुकथा के लेखक विजय कुमार सिंह जी को(नाम शायद यही है, एकदम पक्का याद नहीं है)।
एक लघुकथा पढ़ी, मुझे बहुत पसंद आयी। सार कुछ इस तरह से था:-
रात घिर आने के बाद आसमान में पूर्णिमा का चांद अपने पूरे आकार और चमक के साथ दैदीप्यमान था। मनुष्य तो जितने भी थे, सभी उसकी निर्मलता और आलौकिकता के आगे नतमस्तक हो गये और मौन को प्राप्त हुये। सिर्फ़ कुत्ते थे जो सर उठाकर भौंक रहे थे, बस एक को छोड़कर। जब बहुत देर तक उनका शोर बन्द नहीं हुआ तो जो अब तक चुप था, वह शुरू हो गया। कहने लगा कि तुम सब कितना ही सर उठा कर शोर मचा लो लेकिन ये चांद तुम्हारे लिये जमीन पर नहीं उतरने वाला है। अब सारे बिरादर चुप हो गये, सिर्फ़ वही भौंकता रहा सारी रात। शांति बनाये रखने की अपील करते हुये वह शांति दूत सारी रात शोर मचाता रहा।
अब अपनी बात शुरू। अगर खुद को श्वान बिरादरी का सक्रिय कार्यकर्ता मानें तो अपनी कैफ़ियत है कि पता है चांद का मेरे लिये जमीन पर उतरना असंभव है, अपन तो इस लिये जोर जोर से भौंक रहे थे कि कहीं ये चांद किसी और के लिये नीचे न उतर आये। अपना अपना स्टाईल है जी, मुकेश ने इसी बात को ’तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी’ अपनी खूबसूरत आवाज में गाकर कह दिया, हमारे पास भौं भौं है तो हम अपनी भाषा में गा रहे थे।
वैसे हम सारे खुद ही हाकिम बने रहते हैं और फ़ैसले सुनाते रहते हैं। होती कोई ग्रह-उपग्रह-जूनियर ग्रह उपग्रह एसोसियेशन, तो शायद चांद को भी अपनी इच्छा बताने का हक मिल जाता। बनेगी जरूर कभी न कभी चांद तारों की यूनियन भी, देख लेना।
:) फ़त्तू को तैयार देखकर पंडित जी ने पूछा, “घणा चस(चमक) रया सै भाई, कित की तैयारी सै?”
फ़त्तू: हरद्वार जाऊं सूं, गंगा नहान का विचार सै।
पंडित जी ने मस्तक रेखायें देखीं और कहने लगे कि तेरी किस्मत में तो गंगा स्नान है ही नहीं। अब फ़त्तू का इरादा और पक्का हो गया। स्टेशन पर गया तो गाड़ी कैंसिल, बस स्टैंड पर गया तो हड़ताल। जैसे जैसे परेशानी बढ़ रही थी फ़त्तू के दिल में ज़िद भी बढ़ रही थी। कहीं पैदल चलके, कहीं लिफ़्ट लेकर, कहीं बैलगाड़ी में चढ़्कर आखिर अठारह दिन में फ़त्तू हरिद्वार में पहुंच ही गया। चैन उसे पड़ा घाट पर पहुंच कर ही। फ़िर मिलाया उसने फ़ोन पंडित जी को और सारी यात्रा क विवरण दिया। आखिरी वाक्य आप भी सुन लीजिये।
फ़त्तू: दादा, देख लै। तन्नै कही थी कि मेरी किस्मत में गंगा नहान की है नहीं। बेशक अठारह दिन लग गये. पर यो रही गंगा मेरी आंखों के सामने। तन्नै झूठा साबित करना हो तो बीस बार नहा लूं, पर जा दादा, तू भी के याद करेगा, नहीं नहाता जा।
सलाम नमस्ते,
हमें सलाम नमस्ते करनी पड़ रही है, इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि समय कैसा चल रहा है हमारा। न तो था एक जमाना कि हम लिया भी नहीं करते थे नमस्ते वमस्ते किसी की। ये हिन्दी की सेवा करने का व्रत जो न करवा दे थोड़ा है। वैसे भी जब बाजार में उतर ही गये हैं बिकने के लिये तो मार्केटिंग का तकाजा है कि बिकने लायक दिखोगे तभी कोई भाव देगा। अच्छे कूदे भाई इस ब्लॉगिंग की दुनिया में। न दिन को चैन, न रातों का करार। सपना भी देखें तो लगता है कि कोई फ़ॉलोवर अपनी गलती सुधारने के नाम पर हमें अकेला छोड़ कर लौट गया है। और तो और अखबार भी देख लें कभी मजबूरी में तो आंखें स्टिंग आपरेशन में लगी रहती हैं कि कोई खबर दिख जाये ऐसी कि हमारी एक पोस्ट का मैटीरियल तो बन जाये। तो साहेबानों, कदरदानों और बन्धु-बांधवों, आज की पोस्ट का श्रेय जाता है 8 जून के दैनिक हिन्दुस्तान में छपी एक लघुकथा के लेखक विजय कुमार सिंह जी को(नाम शायद यही है, एकदम पक्का याद नहीं है)।
एक लघुकथा पढ़ी, मुझे बहुत पसंद आयी। सार कुछ इस तरह से था:-
रात घिर आने के बाद आसमान में पूर्णिमा का चांद अपने पूरे आकार और चमक के साथ दैदीप्यमान था। मनुष्य तो जितने भी थे, सभी उसकी निर्मलता और आलौकिकता के आगे नतमस्तक हो गये और मौन को प्राप्त हुये। सिर्फ़ कुत्ते थे जो सर उठाकर भौंक रहे थे, बस एक को छोड़कर। जब बहुत देर तक उनका शोर बन्द नहीं हुआ तो जो अब तक चुप था, वह शुरू हो गया। कहने लगा कि तुम सब कितना ही सर उठा कर शोर मचा लो लेकिन ये चांद तुम्हारे लिये जमीन पर नहीं उतरने वाला है। अब सारे बिरादर चुप हो गये, सिर्फ़ वही भौंकता रहा सारी रात। शांति बनाये रखने की अपील करते हुये वह शांति दूत सारी रात शोर मचाता रहा।
अब अपनी बात शुरू। अगर खुद को श्वान बिरादरी का सक्रिय कार्यकर्ता मानें तो अपनी कैफ़ियत है कि पता है चांद का मेरे लिये जमीन पर उतरना असंभव है, अपन तो इस लिये जोर जोर से भौंक रहे थे कि कहीं ये चांद किसी और के लिये नीचे न उतर आये। अपना अपना स्टाईल है जी, मुकेश ने इसी बात को ’तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी’ अपनी खूबसूरत आवाज में गाकर कह दिया, हमारे पास भौं भौं है तो हम अपनी भाषा में गा रहे थे।
वैसे हम सारे खुद ही हाकिम बने रहते हैं और फ़ैसले सुनाते रहते हैं। होती कोई ग्रह-उपग्रह-जूनियर ग्रह उपग्रह एसोसियेशन, तो शायद चांद को भी अपनी इच्छा बताने का हक मिल जाता। बनेगी जरूर कभी न कभी चांद तारों की यूनियन भी, देख लेना।
:) फ़त्तू को तैयार देखकर पंडित जी ने पूछा, “घणा चस(चमक) रया सै भाई, कित की तैयारी सै?”
फ़त्तू: हरद्वार जाऊं सूं, गंगा नहान का विचार सै।
पंडित जी ने मस्तक रेखायें देखीं और कहने लगे कि तेरी किस्मत में तो गंगा स्नान है ही नहीं। अब फ़त्तू का इरादा और पक्का हो गया। स्टेशन पर गया तो गाड़ी कैंसिल, बस स्टैंड पर गया तो हड़ताल। जैसे जैसे परेशानी बढ़ रही थी फ़त्तू के दिल में ज़िद भी बढ़ रही थी। कहीं पैदल चलके, कहीं लिफ़्ट लेकर, कहीं बैलगाड़ी में चढ़्कर आखिर अठारह दिन में फ़त्तू हरिद्वार में पहुंच ही गया। चैन उसे पड़ा घाट पर पहुंच कर ही। फ़िर मिलाया उसने फ़ोन पंडित जी को और सारी यात्रा क विवरण दिया। आखिरी वाक्य आप भी सुन लीजिये।
फ़त्तू: दादा, देख लै। तन्नै कही थी कि मेरी किस्मत में गंगा नहान की है नहीं। बेशक अठारह दिन लग गये. पर यो रही गंगा मेरी आंखों के सामने। तन्नै झूठा साबित करना हो तो बीस बार नहा लूं, पर जा दादा, तू भी के याद करेगा, नहीं नहाता जा।
mazedar ganga snan .
जवाब देंहटाएंnice .
तू भी कै याद करेगा, नही नहाता जा । मजेदार ।
जवाब देंहटाएंha ha ha fattu ji bhi kamaal hi the...ant me sahi hi hui bhavishyvaani...rochak tareeke se likha...padh ke romanch ho gaya...
जवाब देंहटाएंभाई, यो गाना आड़े देख कै मन्ने फुल यकीन हो लिया है कि म्हारे फेवरिट राग-रागनियाँ की लिस्ट कड़े चोरी हो ली.
जवाब देंहटाएंश्वान्कथा पसंद आई जी.
बहुत मजेदार पोस्ट.
जवाब देंहटाएंउस शांतिदूत श्वान की जय हो. फत्तू की तो हमेशा ही जय है.
"हमें सलाम नमस्ते करनी पड़ रही है, इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि समय कैसा चल रहा है हमारा।"
जवाब देंहटाएंha-ha-ha, सोचने की बात तो है , बहुत मजेदार !!
बहुत मजेदार पोस्ट.
जवाब देंहटाएंमै पढना तो ना चाहता था खैर पढ ही लिया . अह्सान कर दिया
जवाब देंहटाएंअरे बाउजी आप तो कलम के धनी हैं आपको मुद्दा तलाशने के लिए किसी पेपर मेल या चैनल की खाक छानने की जरुरत नहीं है. यहाँ तो लोग तिल की पोस्ट बना देते हैं. अब देखें मेरे लिए तो आप ही एक उत्प्रेरक बन गए हैं नयी नयी पोस्ट लिखने के लिए . एक बार आपकी टिपण्णी पर कविता लिखी थी . एक बार आपसे बात की थी वही पोस्ट बना डाली. अब आप ने एक और मुद्दा दे दिया लिखने के लिए. अरे ये ब्लॉग्गिंग ही तो है. जो मन आए लिख डालो. बस फत्तू को वही रहने दो जो वो है. हर बार फत्तू कुछ ना कुछ नया कर देता है जिसका मुझे तो इंतजार ही रहता है. ..... चलो अब बहुत भोंक लिया अब कोई खम्भा ढूढ़ने का मन हो रहा है. ........... चलता हूँ. ......
जवाब देंहटाएंअरे बाउजी आप तो कलम के धनी हैं आपको मुद्दा तलाशने के लिए किसी पेपर मेल या चैनल की खाक छानने की जरुरत नहीं है. यहाँ तो लोग तिल की पोस्ट बना देते हैं. अब देखें मेरे लिए तो आप ही एक उत्प्रेरक बन गए हैं नयी नयी पोस्ट लिखने के लिए . एक बार आपकी टिपण्णी पर कविता लिखी थी . एक बार आपसे बात की थी वही पोस्ट बना डाली. अब आप ने एक और मुद्दा दे दिया लिखने के लिए. अरे ये ब्लॉग्गिंग ही तो है. जो मन आए लिख डालो. बस फत्तू को वही रहने दो जो वो है. हर बार फत्तू कुछ ना कुछ नया कर देता है जिसका मुझे तो इंतजार ही रहता है. ..... चलो अब बहुत भोंक लिया अब कोई खम्भा ढूढ़ने का मन हो रहा है. ........... चलता हूँ. ......
जवाब देंहटाएंअरे बाउजी आप तो कलम के धनी हैं आपको मुद्दा तलाशने के लिए किसी पेपर मेल या चैनल की खाक छानने की जरुरत नहीं है. यहाँ तो लोग तिल की पोस्ट बना देते हैं. अब देखें मेरे लिए तो आप ही एक उत्प्रेरक बन गए हैं नयी नयी पोस्ट लिखने के लिए . एक बार आपकी टिपण्णी पर कविता लिखी थी . एक बार आपसे बात की थी वही पोस्ट बना डाली. अब आप ने एक और मुद्दा दे दिया लिखने के लिए. अरे ये ब्लॉग्गिंग ही तो है. जो मन आए लिख डालो. बस फत्तू को वही रहने दो जो वो है. हर बार फत्तू कुछ ना कुछ नया कर देता है जिसका मुझे तो इंतजार ही रहता है. ..... चलो अब बहुत भोंक लिया अब कोई खम्भा ढूढ़ने का मन हो रहा है. ........... चलता हूँ. ......
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअरे बाउजी आप तो कलम के धनी हैं आपको मुद्दा तलाशने के लिए किसी पेपर मेल या चैनल की खाक छानने की जरुरत नहीं है. यहाँ तो लोग तिल की पोस्ट बना देते हैं. अब देखें मेरे लिए तो आप ही एक उत्प्रेरक बन गए हैं नयी नयी पोस्ट लिखने के लिए . एक बार आपकी टिपण्णी पर कविता लिखी थी . एक बार आपसे बात की थी वही पोस्ट बना डाली. अब आप ने एक और मुद्दा दे दिया लिखने के लिए. अरे ये ब्लॉग्गिंग ही तो है. जो मन आए लिख डालो. बस फत्तू को वही रहने दो जो वो है. हर बार फत्तू कुछ ना कुछ नया कर देता है जिसका मुझे तो इंतजार ही रहता है. ..... चलो अब बहुत भोंक लिया अब कोई खम्भा ढूढ़ने का मन हो रहा है. ........... चलता हूँ. ......
जवाब देंहटाएं@ आशा जोगलेकर जी:
जवाब देंहटाएं----------------
बहुत आभार आपका।
@ वड्डे उस्ताद जी:
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उस्ताद जी, तीन चार पोस्ट पहले हमने खुद ही रोशन कर दिया था बजाज, चोरी तो पकड़ी ही जानी थी। वैसे भी हम तो शुरू से ही बहुत जिम्मेवार रहे हैं(चोरी चकारी, उठाईगिरी, हानि, अपयश वगैरह के, यानी हर तरह की गड़बड़ के), पुराने पापी:)
@ anshumala jaiswal:
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दोहरा शुक्रिया आपका।
@ धीरू सिंह जी:
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आपने सोच में डाल दिया है। आरोप झेलने में तो मजा आता है, अहसान नहीं झेला जाता, कैसे उतारेंगे? कोई न, देखी जायेगी.....
@ blogspot.com:
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मेरे ब्लॉग पर लिखे हुए आ रहे हैं नौ कमेंट्स, दिखती हैं आठ टिप्पणियां, ब्लॉगवाणी और चिठाजगत पर तेरह तेरह कमेंटस दिख रहे हैं, विचार शून्य की एक टिप्पणी और अदा जी की एक टिप्पणी ब्लॉगवाणी पर मैं खुद देख चुका हूं, जबकि मेरी पोस्ट पर दिख नहीं रही है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
येस्स, अब ठीक हुआ है। और लो फ़िर(शायद और कोई टिप्पणी कहीं फ़ंसी हो और निकल आये)।
जवाब देंहटाएं@ विचारशून्य वाले बन्धु दीप पान्डेय:
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मित्र, हम उत्प्रेरक हो गये हैं तो अपना डूबना तय मानो। असर देख लो, हम तो भौं-भौं करते रहे और तुम खंभे की तलाश में निकल लिये। हम तो जो थे, वही हैं लेकिन तुम शक्कर बन गये हो।
ये टिप्पणी वाली दिक्कत शायद तुम्हें भी आ रही होगी, जो चार बार टिप्पणी करनी पड़ी। अब तो सोच रहे हैं कि काश ये दिक्कत सब के साथ आती तो अब तक चालीस के करीब टिप्पणियां हो जातीं :) धन्यवाद।
@ अदा जी:
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ये हम जैसे भौं-भौं गायक ही हैं जो प्रतियोगिता का अहसास करवाकर आप जैसी वास्तविक कलाकार का मान और भी बढ़ा देते हैं:) फ़त्तू सच में किस्मत का बुलंद है कि सब लोग उसे पसंद करते हैं(नखरे हमें उठाने पड़ रहे हैं)। दर्दनाक गाने के कारण नाक में दर्द हो गया? क्षमाप्रार्थी हूं, पूछता हूं फ़त्तू से कोई उपाय। लेकिन आपकी मसालेदार पोस्ट से जो हमारे पेट में हैडएक हो गया है, उसका क्या? खैर, कोई बात नहीं, आप कृपया अपना ध्यान रखें, हमारी तो देखी जायेगी।
सदैव आभारी हूं आपका।
हे हे हे... फत्तू भी कमाल हेगा जी.. लघुकथा ने आपको इस दुनिया में लाया अच्छा लगा.. गीत पहली बार सुना ये आभार..
जवाब देंहटाएं""वैसे भी हम तो शुरू से ही बहुत जिम्मेवार रहे हैं(चोरी चकारी, उठाईगिरी, हानि, अपयश वगैरह के, यानी हर तरह की गड़बड़ के), पुराने पापी:)"".......
जवाब देंहटाएंह्म्म्म्म्म्म सिर्फ़ "उस्ताद जी" को बताई ये बात ........
मेरा भी लें लें --------------
"सलाम-नमस्ते "
अरे भई संजय,
जवाब देंहटाएंआपने कहीं स्पेशल मिठाई तो नहीं खा ली है, वही वाली जो कुछ ब्लॉगरों को हर दूसरे तीसरे पोस्ट में ब्लॉगिंग मुद्दे पर चिंता में डाल देती है। लगता है कि कुछ की तो ब्लॉगिंग का मसाला ही ब्लॉगिंग के जरिए मिलता है....गरिष्ठ ब्लॉगर...तड़ित ब्लॉगर.....हरित ब्लॉगर वगैरह वगैरह :)
अपन आज आपकी खिंचाई इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आपने ब्लॉगिंग पर बहुत देर से लिखा है....औरों ने तो न जाने कितनी झड़ी लगा दी है :)
वैसे आपने लघुकथा के जरिए जो इशारा किया है और जहां तक मैं समझा हूँ कि केवल ब्लॉगिंग ब्लॉगिंग करने से पोस्ट की संख्या भले बढ़ जाय.......हत्त तेरे की धत्त तेरे की भले ही हो ले.....लंठई भले करे जाओ लेकिन सूकून कहां से लाओगे जो एक अच्छी और रोचक पोस्ट से प्राप्त होती है।
बढ़िया पोस्ट लिखी है। और मस्त अंदाज में।
फत्तू को जरा किसी पंडे से वहीं मिलवा देते गंगा तीरे तो और मजा आ जाता.... पंडा जी तो फत्तू को नहला भी देते ( पसीने से) और सूखे रखते...बिन गंगा में नहलाए सो अलग :)
@ दीपक:
जवाब देंहटाएं------
तुम्हारा आभार रख लेते हैं आज, पहली बार सुना है न ये गाना, इसलिये। पुराना गाना.........।
@ अर्चना जी:
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हाथ जुड़वा लो जी,ये सलाम-नमस्ते लेने की अभी गुंजाईश नहीं है।अभी तो हम खुद ही बांटते फ़िर रहे हैं ताकि पहचान बन जाये:)
आप इतने अच्छे गीत गाती हैं, हम नमस्कार करते हैं आपको।
@ सतीश भाईजी:
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आज एक कदम और बढ़ा दिया है जी, भाईजी कह दिया है आपको। नाम ’मो सम’ जरूर है जी, हैं हम बेमौसम के फ़ल। हमारा मेघ मल्हार तब शुरू होता है जब बाकी लोग ’राग दीपक’ आलाप रहे होते हैं। और सुकून तो भाईजी, हम इस दुनिया में ही नहीं तलाशते, हमें तो दुख की तलाश है।
और इतने चुगद भी नहीं हैं कि अपने फ़त्तू को गंगा किनारे ले जाकर हरवा देते,आप सरका देना कभी कोई पुछल्ला। आप अपना इलाका संभालो, हम अपने इलाके को देखते हैं। भाई जी, बहुत बहुत आभार।
मतलब महाराज जी ने सही कहा था। हमें भी उन महाराज का पता ठिकाना बताओ।
जवाब देंहटाएंआपकी एक बेहतरीन पोस्ट अभी पढ़ी.
जवाब देंहटाएंजून मास में परीक्षाएँ थीं. इसलिये इस पोस्ट का स्वाद अभी लिया. पोस्ट मेरे लिये ताज़ी ही थी, स्वाद कम नहीं हुआ है.
फत्तू-प्रकरण का तो घणा कमाल सै.