मैंने कभी दो दिन भी बालों में तेल नहीं लगाया तो कितना गुस्सा आता था तुम्हें? मैं छेड़ता था तुम्हें जानबूझकर कि मुझे अपने चिपचिपे बाल नहीं अच्छे लगते और तुम्हारा कहना था कि मैं कौन होता हूँ इस बारे में फ़ैसला करने वाला। कितना मन होता था तुम्हारा कि अपनी गोद में मेरा सर रखकर मेरे सर की मालिश करो। पिछली सर्दियों में नारियल के तेल में डालने के लिये camphor की टिकिया लेकर आया था। रैपर भी खोल दिया फ़िर देखा कि तेल जमा हुआ है। फ़िर कभी डाल देंगे, ऐसा सोचकर वो टिकिया ऐसे ही रख छोड़ी थी। अभी शिफ़्टिंग करते हुये जब सामान समेट रहा था तो अलमारी खोलने पर एक भीनी सी खुशबू आई तो सब याद आ गया। पदारथ गायब हो चुका था, एक हल्की सी खुशबू बाकी थी। अलमारी कुछ देर खुली रही तो वो खुशबू भी हवाओं में गुम हो गई।
आजकल आँखों में नींद भरी रहती है। कभी ऐसा समां था कि दिन में भी आँखों में ख्वाब तैरते रहते थे और अब रातों के ख्वाब भी ख्वाब सरीखे हो गये हैं। पहले सोते हुये भी मानो जगा रहता था मैं और अब जैसे जागते में भी हरदम सोया रहता हूँ। कल तक तो लगता था कि अभी उम्र ही क्या है? और अब लगने लगा है कि अब रहा ही क्या है? बैकुंठ का एक पल, इस धरती के जाने कितने युगों के बराबर होता है, ऐसा सुना था। लेकिन इस धरती पर भी कभी तो युग भी पलों के बराबर लगते थे और अब पल भी युगों में बदल गये हैं।
कभी ऐसा भी हो कि हमेशा की तरह सुबह सूरज निकले, पंछी चहचहायें, बच्चे स्कूल के लिये और बड़े अपनी रोजी रोटी की दौड़ के लिये निकल पड़ें। रसोई से कुछ बनने की आवाज और मसालों की महक एक दूसरे से होड़ ले रही हों, ट्रैफ़िक की चिल्ल-पों हमेशा की तरह बदस्तूर अपने होने की आपाधापी का अहसास करवा रही हो। सब किसी न किसी काम में, सोच में व्यस्त हों। काश कभी ऐसा हो कि किसी को भनक भी न लगे और मैं यहाँ से हटकर वहीं चला जाऊँ, उसी वीरान दुनिया में। यूँ भी बहुत भीड़ है यहाँ। जितने जाने पहचाने लोग, उतने ही अनजाने अनचीन्हे लोग, मशहूरी और तरक्की के लिये तरसते, बरसते, दमकते, बमकते लोग। एक दूसरे को धकियाते, गरियाते. लतियाते लोग।
काश ऐसा हो कि सब जरूरी वाले काम निबटाकर तुम आओ, दरवाजा खोलो और यकायक ठिठकना पढ़ जाये तुम्हें। एक भीनी सी महक तुम्हारे अंदर तक समा जाये, फ़िर शायद तुम्हें भी एकदम से याद आयेगा कि कभी कुछ रख छोड़ा था तुमने और फ़िर ध्यान नहीं रहा था। रोशनी की दुनिया से आना होगा न तुम्हारा, एकदम अंधेरे में आकर तुम्हें ऐसा लगे कि जो पदारथ था, वो तो गायब हो चुका है, बस यही खुशबू है जो बची है। गहरी साँसों में समेटना होगे इसे ही, जितनी समेटी जाये क्योंकि दरवाजा खुला रहा तो ये भी हवाओं में घुल ही जायेगी। बस इतना और जान लेना कि ये खुशबू तुम्हारी ही थी, तुमसे ही थी। बहुत आँसू बहाने का शौक है ना तुम्हें? जी भर के रोना फ़िर और उसके बाद एकदम से दरवाजे के पीछे छुपा हुआ मैं सामने आकर तुम्हें हैरान कर दूँगा। हँसूंगा उस दिन जोरों से और तुम्हारे आँसू फ़िर बहने लगेंगे लेकिन तासीर कुछ और होगी उन आँसुओं की, कुछ और ही होगी।
काश ऐसा हो कभी कि ये दुनिया यूँ ही चलती रहे, सुबह शाम, दिन रात और ….और यूँ ही बरसात भिगोती रहे.
sir jee, aaj to maidaan maar liyaa, pahlee tippanee apnee hai. bacchon aur patnee ko chhod kar lautane par yah monologue aksar hote hain :)
जवाब देंहटाएंbahut bahut bahut hi badhiyaa ... ise vatvriksh ke liye bhejen parichay tasweer blog link ke saath rasprabha@gmail.com per
जवाब देंहटाएंआपका स्वयं से बात करना बड़ा अपना सा लगता है।
जवाब देंहटाएंaapkee lekhan shailee laajawaab hai.......bahut bhavuk samvedansheel lekhan......
जवाब देंहटाएंateet kee khushbu jeevan mahkatee rahe aapka.......isee tarah .
beeta samay to nahee loutata yade peecha kartee rahtee hai......
सच्ची बताना इस पोस्ट को लिखने से पहले कितना रोये थे .....................................
जवाब देंहटाएं@ एक भीनी सी खुशबू आई तो सब याद आ गया। पदारथ गायब हो चुका था, एक हल्की सी खुशबू बाकी थी
जवाब देंहटाएं# यही तो होता है जीवन की आपाधापी में हम खुबसूरत लम्हों को समय की आलमारी में बंद कर देतें है लेकिन जब कभी यह आलमारी खुलतीं है तो यादों की खुशबु नयी जिन्दगी दे जाती है.
विचारों का काव्यमय प्रवाह!!!!
जवाब देंहटाएंयादों और अनुभूतियों की कल कल बहती सरीता।
आपका स्वयं से बात करना बड़ा अपना सा लगता है।
जवाब देंहटाएंKaash! Kaash! Kaash!
जवाब देंहटाएंBaha le gaye aap hame apne saath! Gazab likhte hain!
"काश ऐसा हो कभी कि ये दुनिया यूँ ही चलती रहे, सुबह शाम, दिन रात और ….और यूँ ही बरसात भिगोती रहे..."...
जवाब देंहटाएंऔर हुकुम आपके साथ उस बरसात में हम भी भीगते रहें…… यूँ लगा कि ज्यों खुद में से खुद को निकाल कर सामने बैठा दिया हो… ज्यादा कुछ कहने से ख़ुशबू चली जायेगी बातों की…… अभी तो बस इसे आत्मसात करने दीजिये !
नमन !
आज़ सञ्जय को क्या हो गया? घर बदलने में सामान की शिफ्टिंग में थकान इतनी भरी शरीर में कि मस्तिष्क की (जंग लगी) खिड़की खुल गयी और आ गया एक सुगन्धित झोंका.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी के शब्द चुराकर कहूँ तो 'काव्यमय भावों का प्रवाह'.
पूरा चित्र बयाँ कर दिया आपने सुबह की भागम-भाग का.
मौसम खुशगँवार हो गया है आज जिसको देखो कविताई कर रहा है.
सञ्जय जी सच में आप भावों को श्रेष्ठतम तरीके से व्यक्त करते हैं.
चोरी-छिपे सीखने वाले सीख लेते हैं कि अंदाजे बयाँ कैसा हो.
कोई तो बताओ संजय ऐसा कैसे हो गया
जवाब देंहटाएंट्वेंटी-ट्वेंटी देख रहा था सेंटी-सेंटी हो गया
ऐसा मजाक मत करना भाई भारी पड़ेगा
फैंटम से तू क्यों इतना फेंटी-फेंटी हो गया
(फेंटी का मतलब फैंटम का उल्टा)
कोई तो बताओ.....
ऊपर का कमेंट पोस्ट पढ़कर तुरत-फुरत निकले मन के उद्गार हैं जिसे ज्यों का त्यों टीप दिया। गंभीरता से कहूँ तो इस काव्यमय अभिव्यक्ति के आगे नतमस्तक हूँ। कमाल की अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंतुम सम कौन मृदुल कल्याणी!
अपने आप से भी बात करना बड़ा संवेदनात्मक अनुभव होता है..
जवाब देंहटाएंहमारे दोस्त ऐसे बदले मूड में होते हैं तो हम अक्सर पूछ लिया करते हैं कि तबियत तो ठीक है न ?
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील हो यार ...शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंक्या बात है ! सरजी, इस बार तो आपने एकदम हटके लिखा है . खुद के साथ साथ पढ़ने वालों का भी मूड बदल दिया. ये बदलाव बढ़िया लगा.
जवाब देंहटाएंसंजय जी,
जवाब देंहटाएंआज तो कविता हो गयी.
जीवन दर्शन के साथ.
बहुत खूब लिखा है
बार बार इस ब्लॉग पर आने को मजबूर करती पोस्ट--monologue करते हुए--एक बार फ़िर देख-सुन लें,और अब फ़िर बाकी है... प्रतिटिप्पणियाँ जो इसकी खासियत है....
जवाब देंहटाएं"काश ऐसा हो कि सब जरूरी वाले काम निबटाकर तुम आओ......
बस यही खुशबू है जो बची है। गहरी साँसों में समेटना होगा इसे भी, जितनी समेटी जाये"...पोस्ट से बेहतर जो होती है वे....
हाय दाढी ने तिकोना कर दिया,
जवाब देंहटाएंवरना हम भी आदमी चौकोर था
(काका हाथरसी)
भावनात्मक कहानियाँ पढते पढते लेखनी की कुव्वत का अन्दाज़ तो हो ही गया था। सुन्दर पोस्ट, समुचित गीत!
आपकी खुशबू कोई और महसूस करे,उससे पहले स्वयं को उसे महसूस करना पड़ता है।
जवाब देंहटाएं*
बढि़या है।
गुरुदेव, काफी रोमांटिक मूड में हो ! वो कौन सा गाना है ;दूरी सही ना जाए ....... होता है -होता है मैं आपकी अंतर्मन की व्यथा समझ सकता हूँ :) :)
जवाब देंहटाएंकल तक तो लगता था कि अभी उम्र ही क्या है? और अब लगने लगा है कि अब रहा ही क्या gaya है? .......... ye line dil ko
जवाब देंहटाएंspark kar gaya...........kafi kuch likh gaye hain
.... priy-jan........kahne ko kuch bacha kya hai..
pranam.
क्या भावों की रसधार ही बहा दी है संजय भाई.ख्यालों में जीना भी अच्छा लगता है.गजल अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आलेख जीतनी भी तारीफ करो कम है| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंशब्दों के साथ फिसलना है यहाँ, और ये फिसलन मुबारक है।
जवाब देंहटाएंहर भीनी सी खुशबू समेटे रहती है एक काश, और हर काश को उम्मीद है एक खुशबू की।
लाजवाब हमेशा ही की तरह।
P.S.:
1) A dialog is nothing but a set of intersecting monologues.
2) If a set A is sweet, its intersection with another set B will certainly be sweet.
:))
कभी कभी सैंटी भी होना चाहिए, मन हल्का हो जाता है
जवाब देंहटाएं"बस
इतना और जान लेना
कि ये खुशबू
तुम्हारी ही थी,
तुमसे ही थी। "
आप तो कहते है आपको कविता नहीं आती, तो ये क्या है?
@तुम्हारा कहना था कि मैं कौन होता हूँ इस बारे में फ़ैसला करने वाला।
जवाब देंहटाएंसंजय सच बताना, किसको सम्भोधित कर रहे हो.......... मित्र नाराज़ मत होता....... कई बार लगता है सामने वाला सत्य बोल रहा है......
बकिया लिखे बहुत नीके हो ...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबस कुछ दिनों का मोनोलॉग है संजय बाउजी! फिर से कोरस गूंजेंगे कमरे में... फिर से फैलेगी सुवास!! मेरे लिए तो ये फ्लैश-बैक था.. मई २००४ से अक्टूबर २००४...
जवाब देंहटाएं(सलिल)
तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे ...
जवाब देंहटाएंक्या संजय भाई तुसी तो कमाल करते हो यार .आज अर्चना जी के ब्लॉग पर जाकर,तुम्हारा एक अलग ही रूप देखा.जो भी हो जानदार हो,शानदार हो ईमानदार हो.
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर अभी तक क्यूँ नहीं आये? अबकी बार किलो के हिसाब से नहीं टनों के हिसाब में होगी माफ़ी.जिसके लिए दिल खोल कर कलम चलानी होगी.वर्ना तो .........बस देख लेना.एक मुकदमा मेरी तरफ से भी.
[ कल शाम टिप्पणी बाक्स ने ठुकरा दिया तो मेल करने पहुंचा अपनी शुभेच्छायें टाइप करके सन्देश सेंड पर क्लिक ही किया था कि नेट कनेक्शन गोल ...सारी मेहनत स्वाहा ! उस टिप्पणी को हूबहू तो दोहरा नहीं सकता पर कोशिश करता हूं :) ]
जवाब देंहटाएंबड़ा ही फिलासॉफिकल माहौल बना रखा है आपने ! ऐसा क्या कहा /सुना / किया आपने जो भाभी जान गमज़दा हो गईं ? ये क्या बात हुई जो ब्लॉग पर खुश्बुओं और पदारथ की बातें की जा रही हैं! उजाले वाली को अंधेरो और दरवाज़ों की ओट से निकल कर चौंकाने वाला सुख देने का आश्वासन दिया जा रहा! जनाबे आली ब्लाग में सफाइयां देने से तो बेहतर है कि खुद बखुद जाके शिखर वार्ता कर लें !
वैसे तो गुलाम अली साहब ने गाया कुछ और है पर आपके लिए थोड़ी बहुत तोड़ मरोड़ करके शुभकामनायें दे रहे हैं ...
रंज की जब गुफ्तगू हो जायेगी
खुश्बू पदारथ सब वहीं मिल जायेंगे :)
'मो' की जो छवि आमतौर पर है, उस 'सम' नहीं, लेकिन वही पकड़, वही रवानी.
जवाब देंहटाएंऐसी कोमल भावनाएं जिनकी सहचरी हों, वे सौभाग्यशाली होते हैं। मैं महसूस कर सकता हूं कि इन सुकुमार भावनाओं ने आपको घंटों तक दुलराया है।
जवाब देंहटाएंजिनके अंतस् में ऐसी भावनाएं उपजती हैं उनका जीवन सार्थक है।
अकथ को भी कितनी सहजता से सुंदर शब्द दिए हैं आपने।
@ prkant:
जवाब देंहटाएंप्रोफ़ैसर साहब, ये मैदान तो आपका मारा हुआ ही है, निशाखातिर रखिए।
@ रश्मि प्रभा जी:
आपको यहाँ देखकर अपना कद बढ़ गया मालूम होता है। आभारी हैं आपकी सदाशयता के।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
धन्यवाद पाण्डेय साहब।
@ Apanatva:
सरिता दी, शुभाकांक्षाओं के लिये शुक्रिया।
@ अमित शर्मा---Amit Sharma:
मैं और कितना रोया? अमां जाओ, बड़े आये:)
सही कहा अमित, अलमारी प्राय: खुलती ही नहीं है।
@ सुज्ञ जी:
जवाब देंहटाएंबेतरतीब प्रवाह को काव्यमय देखना आपका बड़प्पन है।
@ अरूण कुमार राय:
धन्यवाद राय साहब।
@ kshama ji:
आपका आना हमेशा सुखकर रहता है। शुक्रिया।
@ Ravi Shankar:
अनुज, तुम्हारी एंडोर्समेंट बहुत मायने रखती है। पार्टी पक्की:))
@ प्रतुल वशिष्ठ:
जवाब देंहटाएंप्रतुल भाई, स्नेह है आप लोगों का जो नाकुछ में भी कुछ ढूंढ लेता है।
@ देवेन्द्र पाण्डेय:
कोई क्या बतायेगा, हमीं बताते हैं - ड्रामा था सब, अब फ़िर वही फ़ेंटी का उल्टा:))
गंभीर होकर काहे को शर्मिंदा करते हो देवेन्द्र भाई, फ़िर बनारस की सड़कों के बारे में कैसे छेड़ेंगे आपको?:))
@ भारतीय नागरिक:
आजकल तो ऐसे अनुभव होलसेल में मिल रहे हैं और मजा आ रहा है, कसम से।
@ Abhishek Ojha:
हां दोस्त, अब ठीक है तबियत:)
@ सतीश सक्सेना जी:
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाईजी।
@ VICHAAR SHOONYA:
हां सरजी, बदलाव प्राय: स्वागतयोग्य ही होता है।
@ विशाल:
अब आप भी कविता कह रहे हैं विशाल भाई, तो मान लेते हैं।
@ Archana ji:
ज्यादा अपेक्षा दुख का कारण होती है, याद रखियेगा। वैसे कड़वी बातें कड़वी दवाओं की तरह तुरंत असर करती हैं:)
@ Smart Indian:
हम तो गोया त्रिकोण के चौथे कोण हुये जाते हैं, देखी जायेगी(बहुत दिनों के बाद)।
@ राजेश उत्साही जी:
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं राजेश भाई। खुद के अनुभव होना बहुत जरूरी है।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत":
देवाधिदेव, आप मेरी व्यथा न समझेंगे तो कौन समझेगा? एक और बंधु मेल में गिला कर गये हैं कुछ और मैं निवेदन आवेदन करता ही जा रहा हूं उनसे कि ’तुम्हारी कसम मैंने पी ही नहीं’
http://www.youtube.com/watch?v=eHWL7uGg3jk
जरा देखिए तो:)
@ सञ्जय झा:
अभी तो बहुत पकाना है नामराशि, घबराते काहे हो?:)
@ Rakesh Kumar:
शुक्रिया राकेश साहब। गज़ल तो मालिक लोगों की है, हम तो बस अपनी पसंद शेयर कर लेते हैं आप जैसे दिग्गजों से।
और साहब मन-टन वाली बात तो ठीक है लेकिन सारे वकील मुझ गरीब के पीछे ही क्यों पड़ गये हैं? :)) मैंने पहले ही एक पोस्ट लिख दी थी ’मैं देर करता नहीं देर हो जाती है’ उसे अग्रिम जमानत नहीं माना जा सकता?
आपके प्यार से अभिभूत हूं सर, बनाये रखियेगा।
@ Patali-The-Village:
आपका भी जीतना भी धन्यवाद करें, कम है जी।
@ Avinash Chandra:
जवाब देंहटाएंछोटे वीर, तुम्हारे कमेंट्स की तो किताब छपवाऊंगा मैं और सबको दिखाऊंगा ताकि अपनी भी कदर हो सके।
बहुत बहुत बहुत आशीष। मुझपर कुछ बाकी है, याद है मुझे।
@ Deepak Saini:
दीपक प्यारे, इसे कविता कहते हैं? :))
@ दीपक बाबा:
मित्र भी कहते हो नाराज होने से भी डरते हो? मुझे तो मजा आता है नाराज करके। बकिया टीपे बहुत नीके हो ...:)
@ सलिल भाई:
आप फ़ोन क्यों नहीं उठाते हैं?
छै दिन का मतलब छै टन की माफ़ी,और उसके लिए छै किलोमीटर
जवाब देंहटाएंकी टिपण्णी करनी होगी संजय भाई.
चलिए सब छोडिये और आ जाईये मेरे ब्लॉग पर.
रामजन्म पर आपको सादर बुलावा है.भूलिएगा नहीं.
@ नीरज बसलियाल:
जवाब देंहटाएंआग बहते हुये पानी...
@ अली साहब:
अजी साहब कैसी भी वार्ता के लिये हम तो एवररैडी हैं:)
आपकी तोड़ मरोड़ सब समेंटे है, शुक्रिया।
@ राहुल सिंह जी:
छवि परिवर्तन कर रिया हूँ जी खरामा खरामा, पर दीखे है कि होगी नहीं:)
@ mahendra verma:
आपके सरल शब्द प्रयोग के तो हम खुद मुरीद हैं वर्मा साहब, बहुत मेहरबानी आपके द्वारा हौसला अफ़जाई करने की।
@
आदरणीया निर्मला कपिला जी की मेल से प्राप्त टिप्पणी:
जवाब देंहटाएंसंजय जी नमस्कार। आपके ब्लाग पर कमेन्ट नही हो रहा देखें। मेरा ये कमेन्ट वहाँ पोस्ट कर दें। धन्यवाद
खुश्बूयें भी कई बार इतनी तीखी होती हैं कि बरबस ही आंखें भीग जाती हैं। भावनाओं के इस प्रवाह पर कुछ कहते नही बनता। दूरिओं को भी कितने करीब से महसूस किया जा सकता है--- इतना करीब तो शायद कोई पास रहते हुये भी महसूस नही कर सकता।--- ये रूह का शहर भी कितना अजीब है लेकिन खुद का खुद से बात करना कई बार बहुत सकून देता है। शुभकामनायें।
संजय जी,
जवाब देंहटाएंजीवन दर्शन के साथ.
...........बहुत खूब लिखा है
पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंहँसूंगा उस दिन जोरों से और तुम्हारे आँसू फ़िर बहने लगेंगे लेकिन तासीर कुछ और होगी उन आँसुओं की, कुछ और ही होगी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी.....
@ संजय भास्कर:
जवाब देंहटाएंपहली बार तो खैर नहीं पढ़ रहे हो और "भविष्य में भी पढना चाहूँगा" के लिये शुभकामनायें आपको:)
@ वीनाजी:
शुक्रिया वीनाजी बहुत बहुत।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ अदा जी:
जवाब देंहटाएंअब उस समय कमेंट आता तो उसी समय सावधान रहने की सलाह दे देते, अभी तो आप अपनों के बीच हैं ही। दोबारा जाना हो तो और सावधान रहियेगा, रात के समय और भी ज्यादा - आप IAS नहीं हैं न, इसलिये। हा हा हा
अपनी सी लगी तो आप ही की पोस्ट है। आपकी उम्मीद के लिये ’आमीन’ कहता हूँ, धनबाद सहित:)
वो के खुशबू की तरह फैला था मेरे चारसू,
जवाब देंहटाएंमैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था।
@ सोमेश सक्सेना:
जवाब देंहटाएंछूने पर ही एक और गज़ल है कृष्ण अदीब की - हाथ जो तुझको लगाऊं तो फ़ना हो जाऊं, कभी पढ़ना, सुनना मिले तो।
जो बात अहसास में है, वो पाने में नहीं।
yah to doosra hi roop dekh rahi hoon aaj aapka ....
जवाब देंहटाएंदीपावली की शुभकामना
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