रविवार, सितंबर 08, 2013

कभी सोचता हूँ...

                                                             



बात लगभग पाँच साल पहले की है, हम लोगों की नये प्रोफ़ाईल में पोस्टिंग  होने को थी।  लगभग तीस रंगरूट एक हॉल में बैठे इंतजार कर रहे थे कि किसे कहाँ पोस्टिंग मिलती है। पोस्टिंग जिन साहब लोगों के हाथ में थी,  वो हम लोगों की उत्कंठा का पूरा मजा ले रहे थे। कुछ चुनिंदा लोगों का उत्साह बढ़ाया गया कि आप लोग खुशकिस्मत हैं जो आपको इसी ज़ोन में रखा जा रहा है। (आपके रेडीरेफ़रेंस के लिये बता दूँ कि प्रशासनिक नियंत्रण के लिये बैंक की  देश भर की शाखाओं को सत्रह ज़ोन में बाँटा गया है और फ़िर हर ज़ोन को चार से छह क्षेत्र में वर्गीकृत किया गया  है)    खुशी, डर, उत्साह वगैरह की मिश्रित भावनाओं के बारे में बाद में सोचा तो तुलना के लायक एक ही चीज मिली। इस चीज के बारे में भी विश्वास के साथ नहीं कह सकता, बस अंदाजा ही है। ऐसी मिश्रित भावनायें शायद पहली ज़चगी के समय होती होंगी। खैर, खुशकिस्मती वाला लिफ़ाफ़ा खुला और मजमून से पता चला कि हमारी पोस्टिंग घर से चार सौ किलोमीटर दूर हुई और जो बेचारे खुशकिस्मत नहीं थे, उनमें से अधिकतर सौ-सवा सौ किलोमीटर दूर पहुँचे। बेचारे बदकिस्मत लोग:(

पंजाब और पंजाबियों का लोहा  हुकूमते बरतानिया तक ने माना है, आज हम भी उसकी तसदीक कर देते हैं। वो ऐसे कि पंजाब की एक छोटी सी ब्रांच ने तीन साल से ज्यादा हमें झेला, दिल्ली की दो बड़ी  शाखायें हमें दो साल से ज्यादा नहीं झेल सकीं।  एक साल में एक ब्रांच के हिसाब से साल पूरा होते न होते एक गिफ़्ट टिकाकर और ’बड़े अच्छे आदमी थे’ जैसे दो चार जुमले पेलकर अगली ब्रांच का रास्ता दिखा दिया जाता रहा और हम खींसे निपोरते चरैवैति-चरैवैति करते रहे।

इस बार फ़िर वैसा ही हॉल था और वैसे ही रंगरूट थे, नहीं थी तो बस वो पहली डिलीवरी वाली मिक्सड फ़ीलिंग्स।  पोस्टिंग वाले झोले के मालिकों में से एक साहब ने कहा, "कांग्रेच्युलेशंस  संजय जी। यू आर लक्की।"  मेरे एक सहकर्मी धीरे से मुझे कहने लगे, "बधाई हो, पोस्टिंग सही मिलेगी।" मैंने अपना ज्ञान बघारा, "ये बधाई वाला जुमला डॉक्टर के यहाँ जाने पर उम्र के हिसाब से बाजू या पिछवाड़े में मला जानेवाला अल्कोहल में भीगा कॉटन का ठंडा-ठंडा कूल-कूल टुकड़ा है। इस ठंडे और भीने अहसास का मतलब है कि सुई चुभने ही वाली है।" मित्र हँसने लगे। 

हमारे बुजुर्ग सिखाते रहे हैं कि हमेशा शुभ-शुभ बोलना चाहिये, दिन में एक वक्त ऐसा आता है कि हमारे मुँह से निकली बात सच निकलती है। शायद वो वही वक्त था  इसीलिये इस बार हमारी खुशकिस्मती कुछ कम डिग्री की निकली, सिर्फ़ सत्तर किलोमीटर दूर की ब्रांच मिली है। ये अलग बात है कि जो खुशकिस्मत नहीं थे, उन्हें यहीं दिल्ली में चाकरी करनी पड़ेगी।

कुछ साल पहले जब हम ट्रेन से डेली-पैसेंजरी करते थे तो एक साथी के बारे में मशहूर था कि वो चुप नहीं रह सकता। और कुछ टॉपिक न मिले तो यही बताने लगता था कि घरवाली ने सब्जी में नमक ज्यादा डाल दिया या आलू के  टुकड़े बड़े-बड़े काट दिये। मुझे लगता है कि अब मेरा भी यही हाल हो गया है, बस मैं आपको लिखकर बता देता हूँ कि अब ऐसा हुआ या वैसा हुआ लेकिन शायद यह भी जरूरी ही है। हमारा और आपका काफ़ी पुराना साथ है, इतना तो बताने\जानने का रिश्ता बनता ही है। 

इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि अपनी नियमितता प्रभावित हो सकती है लेकिन मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई, कुछ और झेलिये। एक सप्ताह पहले नई जगह के आदेश मिले।  पुराने साथी और पुरानी ब्रांच छूट गये, रूटीन भी बदल रहा है। नये रूटीन में खूब व्यस्त(सही मायने में तो अस्त-व्यस्त)  रहने के बाद भी अपने बारे में पहले से ज्यादा सोचने का समय मिल रहा है तो इस स्वावलोकन का आनंद क्यों न लिया जाये? 

एकदम से Odd man out  होने पर एकबारगी तो भौंचक्का सा रह जाता हूँ लेकिन पता नहीं कैसे थोड़ी ही देर में सामान्य हो जाता हूँ। शायद यही वजह है कि कहीं जाने के आदेश मिलते हैं तो पुरानी जगह छोड़ने के नाम से कोई तकलीफ़ नहीं होती। शायद पहले दिन से ही खुद को इस बात के लिये तैयार कर लेता हूँ कि ये ब्रांच मेरी नहीं है, मैं इसका नहीं हूँ। सोचता हूँ कि जैसे यहाँ हमेशा नहीं रहा, वैसे ही वहाँ भी तो हमेशा नहीं रहूँगा। इस सोच से आवाजाही आसानी से हो जाती है।

दो साल पहले जब ट्रांसफ़र पर दिल्ली आया तो सच ये था कि दिल्ली के स्टाफ़ में अपनी जान पहचान का कोई भी नहीं था। उस समय तक सारी नौकरी दिल्ली से बाहर करने और उअसे भी ज्यादा अपने आप में मगरूर रहने का शायद यह परिणाम होगा।  यहाँ आने के बाद थोड़ा बहुत परिचय हुआ भी तो अपने बराबर वालों से, ऊपरवालों के और हमारे कम्फ़र्ट ज़ोन अलग अलग हैं।  अलग अलग ब्रांच से यही मित्र कई दिन से कह रहे थे, ’हमारी ब्रांच में आ जाओ’ और मैं कहता था कि ये क्या अपने हाथ में है? और जब आदेश दिल्ली से बाहर के हुये तो फ़ोन पर इन्हीं दोस्तों से डांट भी मुझे ही खानी पड़ी। किसी ने कहा कि आप ने किसी से कहा ही नहीं होगा, एकाध ने तो बल्कि डपट कर इसे मेरी बहुत बड़ी कमी  बताई। मैं कौन सा कम था, मैंने भी कहा कि मेरे चाहने वाले बड़ी पोस्ट पर नहीं है तो इसमें मेरा क्या कसूर है?  तुम लोग ऊपर होते तो मेरा ध्यान रखते और अब मुझपर ही गुस्सा उतारते हो। 

सोचता हूँ कि ऐसे कितने हैं जिसकी थोड़ी सी तकलीफ़ को सोचकर भी दूसरे दुखी होते होंगे, मुझे खुद को यहाँ भी तो  odd man out मानना चाहिये। देखा है साथ काम करने वालों को कि पिछली ब्रांच से फ़ाईल मंगवाने या छोटे से छोटा काम करवाने के लिये उनलोगों को कितनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं और मैं किसी से फ़ोन पर एक बार जिक्र करता हूँ कि मेरे दोस्त वो काम कर देते हैं और करके खुश होते हैं कि मैंने उन्हें इस लायक समझा। यहाँ भी तो odd man out बनता रहा हूँ मैं।  ये भी सोचता हूँ कि सेलेक्शन के टाईम भी तो odd man out जैसा कुछ हुआ ही होगा, तभी तो अपनी नौकरी लगी।  इस बार भी ऐसा ही हुआ, शुरुआती झटके के बाद तनावपूर्ण स्थिति नियंत्रण में आ गई। 

कभी सोचता हूँ  कि शायद मैं इस दुनिया को समझ नहीं पाता हूँ(ये तो खैर हमेशा ही लगता रहता है)। मेरे दोस्त इतना दुखी और परेशान हो रहे हैं और मैं बात की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा हूँ। उस दिन कोई इंग्लिश मूवी आ रही थी जिसमें एक तलाकशुदा माँ का बच्चा अपनी माँ के मित्र के सामने किसी ऐसी मानसिक बीमारी का जिक्र कर रहा था जिसमें अरुचि, तटस्थता वगैरह लक्षण होते हैं। कहीं ऐसा ही कुछ मेरे साथ तो नहीं हो रहा कि मैं जिसे अपनी महानता समझ रहा हूँ, असल में वो कोई बीमारी हो।

कभी सोचता हूँ किसी अच्छे से डॉक्टर से दिमागी चैकअप करवाऊँ। फ़िर सोचता हूँ कि छुट्टी भी तो आसानी से नहीं मिलती। बीमार होने के बाद तो मेडिकल छुट्टी मिल जाती है लेकिन बीमारी की जाँच करवाने के नाम पर तो मेडिकल छुट्टी भी नहीं मिलने की। बड़ा पंगा है यार नौकरी वाली जिन्दगी में..

कभी सोचता हूँ कि उस्ताद ज़ौक या तो हमारे बैंक का कर्मचारी नहीं था या फ़िर उसका जुगाड़ तगड़ा रहा होगा जो कह गया कि ’कौन जाये अए ज़ौक दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’...

कभी सोचता हूँ कि बँधी-बँधाई नौकरी करके देख ली,  क्यूँ न कुछ फ़्रीलांसिंग कर ली जाये? कोई एनजीओ बनाकर थोड़ी सेवा हम भी जनता जनार्दन की कर लें, कम से कम ये लोक तो सुधर जाये। रही बात परलोक की तो वो फ़िर देखी जायेगी.....

कभी सोचता हूँ कि मैं लिख क्यूँ रहा हूँ, और अगर लिख ही रहा हूँ तो किसी ज्वलन्त विषय पर न लिखकर खुद के बारे में ही क्यों लिख रहा हूँ। फ़िर सोचता हूँ कि ऐसा इसलिये सही है क्योंकि अपने बारे में लिखने से किसी वाद\निरपेक्षता\तहज़ीब को चोट नहीं पहुँचेगी।


और कभी-कभी ये भी सोचता हूँ कि सोचने का सारा ठेका मैंने अकेले ने ही ले रखा है क्या? कदे कदार थोड़ा-घणा थम भी सोच ल्या करो.....

49 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [09.09.2013]
    चर्चामंच 1363 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. इन बदली वाली नौकरि‍यों के यूं ही चलाए रखने वाले ऊपर के ये गधे मुझे आज तक समझ नहीं आए कि‍ आखि‍र वे लोगों को आए दि‍न बोरि‍या बि‍स्‍तर क्‍यों बंधवाए रखने पर उतारू रहते हैं. अगर बदली करने से ही इनका पेट दर्द ठीक होता है तो क्‍यों नही बस इतनी ही दूर बदली करते कि‍ बंदा सुबह शाम घर आ जा सके. क्‍या इन्‍हें पता नहीं कि‍ हर दो एक साल में स्‍कूल बदलने वाले बच्‍चे कि‍स मानसि‍क दशा से गुजरते हैं, उनका कोमल मन हर बार मि‍त्र खोने का संत्रास झेलता है, और आगे चलकर वे अपने जीवन में पाते हैं कि‍ उनका कोई मि‍त्र नहीं है :-(

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    1. हमारे कर्णधार हमें मोह\माया\ममता जैसे अवगुणों से दूर रखने के लिये आलोचनारूपी गरल पीते हैं।

      :)

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  3. यह हमको भा कभी समझ नहीं आया कि किसलिये किसी स्थान विशेष में हमें पोस्टिंग मिली है। अपने लायक काम पर हम हर पोस्टिंग में निकाल लेते हैं और जुट जाते हैं।

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    1. कामी तो हम भी पक्के हैं प्रवीण जी, अपने लायक काम हम भी ढूँढ ही लेते हैं:)

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  4. एक शुरुआत मैंने भी कर दी है झेलने की

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    1. आपकी शुरुआत रोचक है अरविन्द जी, देखिये न वहाँ और भी पीछे से झिलवाने की फ़रमाईश हो गई है।

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  5. परिवर्तन प्रकृति की प्रकृति है और प्रगति का परिचायक भी है । जीवन में प्रवाह आवश्यक है ,रुका हुआ जल प्रदूषित हो जाता है ।

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    1. आपकी बात से बहुत हद तक सहमत हूँ, शकुंतला जी। वैसे तो ट्रांसफ़र वगैरह नौकरी के साधारण नियम और प्रथा है लेकिन ट्रांसपेरेंसी रह सके तो व्यक्ति, संस्था और समाज के लिये भी ज्यादा उचित होगा।

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  6. सोचते हैं जी हम भी, बहुत सोचते हैं और ये सोचा है कि फ्रिलांसिंग के बजाय कोई धर्म-प्रवचन टाईप का धंधा शुरु कर लो आप

    प्रणाम

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  7. odd man out होने की पीड़ा वो ही समझ सकते हैं, जिन पर बीती हो.
    संजय जी, आपने जो चित्र "गूगल से साभार" लिया है, उसपर 'वाटरमार्क' है. गूगल का उसपर कोई हक नहीं, जिनका है, वे इसे काॅपीराइट उल्लंघन मानेंगे. गूगल आपका ब्लॉग भी बंद कर सकता है. इस विषय पर जानकारी न होने के कारण, हमारे कई ब्लॉगर मित्र नाहक ही परेशान होते है. कई वेबसाइट्स पर नि:शुल्क चित्र उपलब्ध हैं. अपने ब्लॉग के लिए इन्हें प्रयोग में लाएं.
    कृपया पढ़ें - कॉपीराइट व वाटरमार्क के महत्व को समझें - 1
    कॉपीराइट व वाटरमार्क के महत्व को समझें - 2

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अनूषा जी, वाकई मैं इसी इम्प्रेशन में था कि गूगल का आभार व्यक्त करना पर्याप्त रहेगा। जानकारी देने और सावधान करने के लिये आपका आभार।

      आपके दिये लिंक जरूर देखूँगा ताकि और भी ज्ञानवर्धन हो सके।

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    1. दाशरथ की, कौशाल्यानंदन की, रघुनंदन की, सियापति की, ... मर्यादा पुरुषोत्तम की जय। आप कहीं भी पोस्टिंग ले लीजिये वे हर जगह किसी रूप में साथ जुड़े ही रहेंगे।

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  9. कमाल है !
    इतनी बदलियों के बाद भी आप नहीं बदले ?
    कहीं आप अंग्रेजों के ज़माने के……:)

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    1. हमें तो लगता है कि हम बदले हैं, आप कहती हैं तो हो सकता है न भी बदले हों :)

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  10. "ये बधाई वाला जुमला डॉक्टर के यहाँ जाने पर उम्र के हिसाब से बाजू या पिछवाड़े में मला जानेवाला अल्कोहल में भीगा कॉटन का ठंडा-ठंडा कूल-कूल टुकड़ा है। इस ठंडे और भीने अहसास का मतलब है कि सुई चुभने ही वाली है।"

    बदली वाली नोकरी के सुख.........।

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    1. सुख तो बहुत हैं बदली वाली नौकरी के, कोई शक नहीं।

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  11. बांटते रहने से मन हलका हो जाता है, फिर कोई पढ़े या ना पढ़े।

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    1. अगर उन्‍होंने पढ़ना शुरू कर दि‍या (जि‍न्हें नहीं पढ़ना चाहि‍ए ) तो सुख के दि‍न ज्‍यादा नहीं बचने देंगे

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    2. सहमत हूँ भाईजी, आपकी बात से भी :)

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  12. हर जगह हमें भी भाये ऐसा हमेशा नहीं होता ..... आपके मन की बात सभी पाठक समझ सकते हैं ...

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  13. ट्रांसफर होते रहना चाहिए ,वैसे १००-२०० किलोमीटर की डेली पैसेंजरी में भी बहुत आनंद हैं |असली चीज तो अपना नजरिया हैं ,जो चीजों कों देखने कों मजबूर करता हैं अच्छी पोस्ट-“अजेय-असीम "

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    1. इसी आनंद से तो डरते हैं हम डाक्टर साहब, फ़िर हम आनंद में ही डूब जाते हैं न :)

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  14. उस्ताद ज़ौक का जुगाड़ तगड़ा था और ग़ालिब का कमजोर शायद तभी कह गये - रहेंगे दिल्ली में तो खायेंगे क्या :)

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    1. अजी गालिब को फ़ॉलो करने के चक्कर में ही तो हम डूबते रहे हैं, वरना खाने की दिल्ली में क्या कमी? :)

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  15. आपके इस शानदार लेख पर आपको बधाई ..डॉ की काटन के अल्कोहल का ठंडा ठंडा कूल कूल का किसी आने वाली बिपदा को दर्शाने में किया गया प्रयोग मुझे बेहद रास आया ..इस विधा पर आपकी जबरदस्त पकड़ हर लेख को रोचक बनाती हैं ....आपके अगले लेख के इंतज़ार के साथ

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    1. आप हौंसला अफ़ज़ाई के भी डाक्टर हैं साहब, आभार स्वीकार करें।

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  16. आपके अस्तव्यस्त चिंतन के कारण को समझा जा सकता है !

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    1. समझदार पाठकों\पाठिकाओं से ऐसी ही अपेक्षा स्वाभाविक रहती है!

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  17. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  18. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  19. दादा ...अबतक की सभी पोस्टों से जितना आपके बारे में जाना है उससे ये पता चलता है कि आपकी किस्मत में यही तबादले वाली नौकरी लिखी थी। अगर आपको एक ही शहर में नौकरी मिलती तो आप वहां टिकते नहीं और नौकरी से त्यागपत्र देकर चलते बनते..। दरअसल भगवान ने आपकी फितरत और विचारों में कूट-कूट कर अनियमितता भरी है..। आप बंधी बाधाई समयसारणी में जिंदगी को कोल्हू के बैल की तरह चलाने वाली फितरत के साथ पैदा नहीं हुए। आपके अंदर विचार स्थायी तौर पर मौजूद रहते हैं...ठीक उसी तरह जिस तरह आपकी नौकरी स्थायी है..पर नौकरी में नियमित रुप से तबादले हैं...ठीक उसी तरह से जिस तरह से आपके अंदर एक बाद लगातार अलग-अलग विचार पैदा होते रहते हैं। यानि नौकरी तो आपकी आतंरिक प्रवृति की तरह स्थायी है....और तबादले गतिमान विचारों की तरह। समझे बड़े भाई.....इसलिए किसी डाक्टर के पास जाने की जरुरत नहीं है आपको... हां परिवार को परेशानी होती होगी....ठीक उसी तरह जैसे धड़ाधड़ आते विचारों से दूसरों को परेशानी होती है..पर परिवार तो अपना है....इसलिए सहयोग करेगा..बाकी लोग समझेंगे तो दोस्त कहलाएंगे...वरना जाए भाड़ में..सानू की फरक पैंदा है...हां नहीं तो।

    पुनश्च----इसे गंभीरता से लें..ये टिप्पणी तीसरी बार संपादित करके पोस्ट कर रहा हूं।

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    1. पहली बार घर छोड़ा था, उसी साल एक कस्बाई नुमाईश में अस्थाई मिठाई की दुकान पर एक शेर पढ़ा था -
      लिखा परदेस किस्मत में, वतन को याद क्या करना,
      जहाँ बेदर्द हाकिम हो, वहाँ फ़रियाद क्या करना।
      अपने को पसंद आया था, दिमाग में जम गया। तबसे हम याद नहीं करते, फ़रियाद भी नहीं करते। इशारा भर कर देते हैं कि यहाँ से हमारी दुकान बढ़ा दी गई है :)
      फ़ितरत और विचारों के बारे में काफ़ी हद तक सही हो, मेरी पहली नौकरी घर से कुछ छह किलोमीटर दूर, पांचदिनी सप्ताह वाली और अच्छी-खासी गीली समझी जाने वाली नौकरी थी लेकिन पहला मौका मिलते ही एक साल के अंदर हम उस स्थाई नौकरी से पलायन कर गये थे। मतलब ये कि जो होता है, उसीमें अपनी रजा है।
      जहाँ तक दोस्तों की बात है, इस मामले में हम खुशकिस्मत हैं। सब बहुत समझदार हैं, एक दूसरे को खूब समझते हैं और जब लगे कि हममें से कोई कुछ गलत सोच या कर रहा है तो ऊपरी हाँ में हाँ नहीं मिलाकर अपना पक्ष जरूर प्रकट करते हैं क्योंकि ’फ़र्क बहुत पैंदा है’ :)
      सिर्फ़ स्माईली पर न जाना ए दोस्त,
      हम अमूमन गंभीरता से ही लेते हैं :)

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    2. मतबल जै कि अपना आकलन यानि एनालिसिस यकदम ठीक था आपके बारे में...बचपन में ही आपकी किस्मत शेर के तौर पर आपको नजर आ गई थी....देखो जी जहां दोस्त हैं वहां तो फर्क पड़ता है औऱ आप बताइ देते हो कि का बुरा लगा का भला..आखिर आपसे ज्यादा कुटिल कौन है...औऱ जो नहीं समझते वो कभी दोस्त बन ही नहीं सकते...जाहिर है दोस्ती का मतबल जै है कि जो है साफ है आइने से भी जादा साफ स्वच्छ...

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  20. ६ दिन में तो आप जम गए होंगे, हम लोगों के लिए २-३ कहानियाँ भी निकल आई होंगी।
    लालची हूँ वरना कह देता कि आपके दुःख में शामिल हूँ, अभी तो odd हैं तो अच्छा है।
    कौन सा आपको बुरा मानना है मेरी बात का।
    वैसे इससे भी ज्वलन्त विषय होते है?
    पूरा यकीन हो गया - आपसे नहीं होनी अपनी पब्लिसिटी। :)

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    1. कहानियाँ खूब निकलेंगी, पैर जमने को ही हैं। दुख होगा तभी तो शामिल होने की सोचोगे? अभी तो मैं ही इल्जाम सुनता हूँ कि निर्मोही हूँ, और मैं अपना पॉज़िटिव एटीच्यूड बखानता रहता हूँ:)
      तो पब्लिसिटी चाहिये थी? I see...!!

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  21. अस्त व्यस्त फ़िर भी मस्त ...

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  22. उस्ताद तो बड़ा आदर्शवादी जनसेवक था. जब गलियाँ छोड़ने की नौबत आई तो उसने सेवावृत्ति ही छोड़कर सेवा का काम अपने ही एनजीओ को आउटसोर्स कर दिया. उन दिनों इलेक्शन लड़कर सेवा करने का चलन नहीं था.

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  23. अब कहाँ चले गए प्रभु..... वैसे अब ट्रेन के किस्से और ज्यादा पढने को मिलेंगे... है न

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  24. हम जैसो का दिल तोड़ के लोग चल देते हैं

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