नौकरी के सिलसिले में पहली बार अनजान शहर में जा रहा था तो पिताजी ने एक नाम बताया और कहा कि वहाँ जाकर उनसे संपर्क करना, बहुत बड़ी शख्सियत हैं और उनसे संपर्क रखने से नई जगह पर बहुत सहारा मिलेगा। एक तो उस समय हम खुद को हिमालय से ऊंचा और सागर से गहरा समझते थे और दूसरा हमें अपना कुँआ छोड़कर बाहर की दुनिया देखने की जल्दबाजी थी तो चुपचाप मुंडी हिलाकर और बिना बहस किये निकल लिये। नई जगह, नई नौकरी, नये दोस्तों की चकाचौंध में हम ऐसे मगन हुये कि पिताजी के बताये नाम के बारे में किसी से पूछा भी नहीं।
पन्द्रह-बीस दिन में घर आना होता तो पिताजी ने एक-दो बार उस बारे में पूछा भी लेकिन हम टाल गये, वो समझ गये। कई मौसम बदल गये, उस नाम की हस्ती के पते के बारे में मैंने किसी से पूछा नहीं और खुद से कोई बताता भी क्यों लेकिन मन में एक फ़ांस रह गई कि पिताजी ने कुछ कहा और मैंने किया नहीं। स्वयं ही अपने आप से सवाल-जवाब करता रहता कि पिताजी ने कोई आदेश तो दिया नहीं था, सरसरी तौर पर कहा था। फ़िर उन्होंने अपने लिये तो कुछ मांगा नहीं था, मेरे हित के बारे में सोचकर ही कहा था तो मैं तो यहाँ आकर मस्त हूँ ही फ़िर अगर इस काम में लापरवाही हो भी गई तो कोई बड़ी बात तो नहीं। एक बड़ी वजह और भी थी जो किसी से कह नहीं सकता था, माना कि पिताजी की दृष्टि में जो बहुत बड़ी शख्सियत है, उस अनजान शहर में हो सकता है कि उनसे कोई परिचित न हो। मैं किसी से पूछूँ और जवाब में सुनने को मिले कि हम तो नहीं जानते इस नाम वाले सज्जन को और फ़िर पिताजी तक ये बात पहुँचे तो उन्हें ठेस पहुँचेगी। इससे बेहतर तो यही है कि खुद लापरवाह बने रहो। जिंदगी मस्त गुजर रही थी, जंगल में मंगल हो रहा था जिसके सच्चे-झूठे किस्से इस ब्लॉग पर शुरू में बहुत सुनाये गये थे और अब भी बीच बीच में जिक्र चलता ही रहता है।
एक बार ऐसा हुआ कि यही दिसंबर या जनवरी के दिन थे और शाम के समय मैं अकेला ही(अपवादस्वरूप ही) टहलता हुआ शहर के बाहरी हिस्से तक पहुँच गया। जब सब साथ होते थे तो हम शहर में ही घूमते थे लेकिन अकेला था तो आज उधर निकल पड़ा जिधर सब नहीं जाते थे। अंधेरा घिर आया था और सड़क पर कोई रोशनी भी नहीं थी, सोचा कि वापिस चला जाये। फ़िर पता नहीं क्यूँ मन ही मन फ़ैसला किया कि आगे सड़क जहाँ मुड़ रही है, वहाँ तक जाकर लौटूँगा। मैं चलता रहा, जब उस मोड़ के पास पहुँचा तो पीछे से एक ट्रक आया। मैं सड़क से हटकर साईड में खड़ा हो गया। ट्रक मोड़ से मुड़कर आगे चला गया और मैं सिर्फ़ एक पल के लिये वहीं ठिठककर रह गया। मुड़ते समय ट्रक की हेडलाईट की रोशनी एक पल के लिये सड़क किनारे लगे एक बोर्ड पर से होकर गुजरी थी और उस बोर्ड पर वही नाम लिखा था जो पिताजी ने मुझे बताया था। अगली बार घर लौटा तो पिताजी को सारी बात बताई और बिना कुछ खास किये भी वाहवाही पाई, बिल्कुल वैसे ही जैसे कई बार बिना कुछ खास किये ऐसी-तैसी भी करवाई है।
ब्लॉग लिखने के शुरुआती समय की ही बात है, अंदाजन साढ़े तीन साल पहले एक पोस्ट लिखी थी। कुछ दिन पहले किसी मित्र से बात हो रही थी तो ढूँढते-ढूँढते उस पोस्ट तक पहुँचा। गया किसी और सन्दर्भ में था लेकिन वहाँ जाकर ठीक वैसे ही ठिठक गया जैसे उस ट्रक की हेडलाईट की रोशनी पड़ते बोर्ड को देखकर ठिठका था। मसाला फ़िल्म की तरह मसाला पोस्ट बनाने के चक्कर में फ़त्तू का आईटम नंबर पोस्ट में जोड़ देता था तो उस पोस्ट में आईटम नंबर में एक जगह का नाम इस्तेमाल किया था। उस जगह से न अपना कोई वास्ता था न अपने दादा-परदादा का। न कोई मित्र-मित्राणी वहाँ से थे न कोई व्यापारिक या आधिकारिक संबंध। सिर्फ़ आईटम नंबर में दूरी, समय के हिसाब से वो स्थान वहाँ फ़िट होता था और हमने वही कर दिया था। अभी से एक साल पहले तक उस स्थान में हमारे बैंक की जो शाखा थी वो किसी दूसरे प्रशासनिक कार्यालय के अधीन थी। एक साल पहले ही वह शाखा इसी प्रशासनिक कार्यालय के अधीन आई और चारेक महीने पहले एकदम अप्रत्याशित रूप से हम भी उस जगह पर पदस्थापित हो गये।
अब अपने से अलावा लेकिन अपने ही दो स्टाफ़ सदस्यों की बात। एक स्टाफ़ सदस्य प्रोमोशन पर अक्टूबर में मेरी शाखा में आये तो उन्होंने बताया कि वो अपने पूर्वपरिचित (एक और) संजय जी की ब्रांच में जाना चाहते थे। मैंने हँसकर इसे संयोग ही बताया कि आपको साथ में काम करने के लिये ’संजय’ तो मिल गये लेकिन मनचाहे वाले नहीं बल्कि अनचाहे वाले। एक दूसरे स्टाफ़ सदस्य उन्हें किसी ’संजय’ से मतलब नहीं था बल्कि उन्हें अपनी पोस्टिंग इस स्थान विशेष पर चाहिये थी लेकिन उन्हें मिली दूसरी ब्रांच, जहाँ वही दूसरे वाले ’संजय जी’ हैं। सबके सामूहिक प्रयास से और प्रबंधन की सदाशयता के चलते पिछले सप्ताह दोनों स्टाफ़ सदस्यों का स्थानांतरण कर दिया गया। जिन्हें अपने वाले ’संजय’ चाहिये थे वो ’संजयजी’ के पास और जिन्हें व्यक्तिविशेष से काम नहीं था बल्कि स्थानविशेष से मतलब था, वो अपनी पसंद की जगह पर। मतलब हुण ऑल इज़ वैल :)
ये नमूने हैं कुछ उन बातों और घटनाओं के जिन्हें हम संयोग मानते हैं। उस रात मेरा अकेले घूमने जाना, अंधेरा घिरने के बावजूद एक पल के लिये बोर्ड पर हेडलाईट की रोशनी पड़ना वगैरह वगैरह, जितना महीन सोचते जायेंगे उतने ही छोर मिलते-छूटते जायेंगे। अब से चार साल पहले किसी अनजान सी जगह का नाम अनायास ही लिख देना और फ़िर कालक्रम में चाहे अनचाहे उसी जगह पहुँच जाना, सब संयोग है या पहले से लिखे किसी घटनाक्रम के अग्रिम संकेत। ज्ञानियों के पास हर सवाल के जवाब होते हैं लेकिन हमारे पास तो सवाल ही हैं। हम इस ब्रह्मांड के सबसी शक्तिशाली जीव हैं या पहले से लिखी किसी पटकथा के अदना से किरदार? या फ़िर दोनों, बहुतों से शक्तिशाली लेकिन किसी के हाथों विवश, क्या हैं हम?
आप सवाल कर सकते हैं कि पोस्ट-शीर्षक से इसका क्या लेना देना तो इस सवाल का जवाब है मेरे पास। वो क्या है कि हमने सोचा है कि थोड़ा सा भाषा-ज्ञान आपसे साझा कर लेते हैं। कल को आप ये न कहें कि खाली-पीली टाईम खोटी करवाता रहता है। शीर्षक वाक्य असल में पंजाबी की एक कहावत है। जब हम छोटे थे तो कभी कभार माँ-पिताजी की नोक-झोंक में पिताजी यह वाक्य कहा करते - ’खम्म दा कां बनाना’ - मैं ठेठ पंजाबी नहीं समझता था। खम्म का मतलब नहीं समझ आता था, इसका हिंदी अनुवाद करता तो बनता - खम्भे का कौआ बनाना। लेकिन बात जमती नहीं थी, अभी कुछ दिन पहले पिताजी से इसका मतलब पूछा तो उन्होंने समझाया कि ’खम्म’ का मतलब है पंख। कहीं पर किसी चिड़िया का पंख देखकर कोई दूसरे को बतायेगा कि वहाँ किसी पखेरू का पंख पड़ा था। तीसरे तक जाते-जाते वो पंख कौए का हो जायेगा और आगे बढ़ते-बढ़ते बताने वाला बतायेगा कि उसने खुद वहाँ बड़े से काले कौए को देखा था। तो इसका सरलार्थ हुआ कि छोटी सी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताना।
अब अपने जीवन से संबंधित एक दो घटनाओं पर हमारे गंभीरता से सोचने को आप बात का बतंगड़ बनाने, राई का पहाड़ बनाने, झूठे सच्चे किस्से सुनाने की जगह ठेठ पंजाबी में ’खम्मा दा कां बनाना’ भी कह सकते हैं। आगे किसी पोस्ट में आप को हमारे एक और तकियाकलाम ’होर वड़ो’ का भी अर्थ सोदाहरण समझाया जायेगा।
संजय जी आपकी पोस्ट को पढ़कर मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि आप खम्म दा कां बनाते हो।
जवाब देंहटाएंबाउजी तुस्सी ते हमेशा खम्म दा मोर बनाते हो ।
बंधु, हम क्या मोर बनायेंगे, मोर तो इस बार झाड़ूवालों ने बनाया है :)
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जवाब देंहटाएंहमारी महारत तो हमें पता ही है जी, इसीलिये तो पुराने के साथ-साथ, नया वाला विकल्प भी दिया था लेकिन विकल्प होते हुये भी जो इस्तेमाल न करें, ’आप’ वही हैं:)
हटाएंथोड़ी सी पंजाबी से काम चलने वाला नहीं है, सारी सिखा देनी है।
’आप’ एक्केदम ग्रेट ग्रेटर ग्रेटेसेस्ट हैं जी:)
बात बढ़ते बढ़ते आप हो जाते हैं, हम तो पहले ही मिल लेते हैं, बाद के लिये कोई संशय नहीं छोड़ते हैं।
जवाब देंहटाएंघड़ी खम्मा -हम तो ये समझ बैठे थे (अब ये क्या है मुझे भी पता नहीं एक राजस्थान पृष्ठभूमि के सीरियल में सुनता हूँ! )
जवाब देंहटाएंइन दिनों मैं भी कुछ ऐसे ही संयोगों से जूझ रहा हूँ और संयोगों का यह संयोग कि आटोबायोग्राफी आफ अ योगी पढ़ रहा हूँ
जो खुद भी ऐसे ही अनेक संयोगों का दास्ताँ कहती है -ईश्वर को मान ही लिया जाय क्या ?
पण्डित जी कई बार हम अपना पूरा जीवन किसी बात को गलत साबित करने में लगा देते हैं.. और साबित कर भी लें तो मिलता कुछ नहीं 'बाबा जी के ठुल्लू' के सिवा... इससे अच्छा तो मान लेते, कम से कम टाइम खोटी तो नहीं होता!!
हटाएंअपुन तो संजोग पर बड़ा स्ट्रॉंगली बिलीव करते हैं!!
अरविंद जी, आपकी समझ वाली घड़ी खम्मा फ़िर नजदीक है, मेरा पांच साल का भतीजा घणी खम्मा को खड़ी खम्मा बोलता है:)
हटाएंसर, मैं बिल्कुल यह तज़वीज़ नहीं करूंगा कि मान ही लीजिये। मानने न मानने का विकल्प खुला रखना भी अपने आप में हठधर्मिता न होने का लक्षण है, खुले दिल से आपकी इस फ़्लेक्सिबिलिटी का स्वागत करता हूँ।
सलिल भाई,
ये ’बाबाजी के ठुल्लू’ की शुरुआत कहाँ से हुई, मौका लगे तो बताईयेगा!!
बात का बतंगड़ तो बनता ही है समाज में, पर आपने तो संयोगवश घटनेवाली घटनाओं के जरिए अपने पिताजी की बात का सम्मान रख ही लिया।
जवाब देंहटाएंचार मिंट दी हेडलाइट फेर अंधेरी रात ...
जवाब देंहटाएंजितनी अंधेरी रात उतनी ही लाईट की महत्ता।
हटाएंसंजय बाउजी!! बात का बतंगड़ हो या तिल का ताड़, या हो राई का परबत या पूज्य बाबूजी के मुताबिक पंख का कौवा... सारा हिन्दुस्तान जब सोमवार से शुक्रवार से वही देखकर मस्त है, तो आपकी बातें तो सौ टका सच्ची हैं!! और मैं तो इतनी सारी घटनाओं से इतनी बार गुज़र चुका हूँ कि कई अपने लोग वे खुदरा किस्से सुनकर धीरे से व्हिस्पर करते हैं - अच्छी कहानियाँ गढ़ लेते हो आप!!
जवाब देंहटाएंसंजोग अगर होते नहीं तो इस शब्द को कौन जानता कि हमारे शब्दकोष में है भी या नहीं.. होते हैं तभी तो है यह शब्द.. अच्छा लगा... सॉरी अच्छे लगे उस खूबसूरत कौवे के कुछ पंख जो आपने आज यहाँ बतौर बानगी साझा किये!!
सलिल भैया,
हटाएंआपका कमेंट हमेशा एक नया आयाम देता है, शुक्रिया तो खैर मैं कहने से रहा :)
अच्छा उदाहरण दे कर समझाया मुहावरा...
जवाब देंहटाएंकहने कि कला को शायद किस्सा गोई कहे जाएँ , आपने लिखकर सकेतों को भी नाम दे दिया , ये भी तरीका है समझने का इसे आप यह न समझें , जैसे पोलिस लिखती है इसे न पढ़ें भैया जी सुप्रभात संग प्रणाम हैम भी पूरी बात अपने आप के हिसाब से समझे
जवाब देंहटाएंजिन सज्जन का जिक्र किया था, उनका क्या हुआ? यहां तो कौवा ही उड़ गया लगता है।
जवाब देंहटाएंयह प्रश्न मेरा भी है महाराज ,
हटाएंतुसी खम्म दा कां बनाने में माहिर हो !
अजित दी,
हटाएंसज्जन ने बखूबी संभाला मुझे, संभालना ही था।
हाँ होते हैं संयोग , और ऐसे ही नहीं होते ... मेरा आड़ा-तेड़ा गाकर आपको और सलिल भैया को सुनाना...सलिल भैया से बातचीत मे ही (बिना मिले ही) बड़े भैया बन जाना ... मेरे समधी जी से मुझसे पहले भेंट कर लेना .... ..फिर हम तीनों का "इंतजार" मेरे साथ छोटू का जुड़ना ..मेरा माताजी और भाभी से मिलकर आना ...भैया से मिले बगैर....
जवाब देंहटाएंअरे! ये तो सिर्फ़ एक नमूना भर है ......
और हाँ जरा याद करियेगा तो आपका और मेरा दूर-दूर का कोई रिश्ता -नाता तो नहीं कहीं .... :-)
सिर्फ़ आपसे ही नहीं, हर कोई जो मिलता है तो कोई न कोई नाता तो है ही।
हटाएंआपको लगता है कि मैं सुनकर सलाह देने वाला हूँ? मेरा तो साऊंड सिस्टम\ऑडियो सिस्टम ही कब से बिगड़ा हुआ है:) ’इंतज़ार’ वाली बात खूब याद दिलाई, वो मेरी पहली ऐसी कृति थी जो एक ख्वाब से शुरू हुई थी और अंत तक ऐसी चली जैसे किसी ने आर्डर देकर लिखवाई हो। लेकिन उस संयोग की बात मेरे सिवा सिर्फ़ उसे पता है, जिसने ख्वाब में आर्डर दिया था। संयोग वो भी तगड़ा ही था:) आपने, सलिल भैया ने और पद्म सिंह्जी ने उसमें रंग भरकर नया रूप दे दिया था, मेरे लिय वो सरप्राईज़ ही था। सबका बहुत बहुत आभार।
आपको क्या पता बिगड़े साउंड सिस्टम वाले को सुनाने मे कितना मजा आता है ...:-D
हटाएंब्लॉग का नाम अब पूरा हुआ .... गिरिजेश जी ...से समझा मैंने भी .... :- )
जवाब देंहटाएंपूर्णता अपूर्णता दोनों का अपना सुख है न!
हटाएं................
जवाब देंहटाएंजय बाबा बनारस ....
जवाब देंहटाएंबहुत ध्यान से पढ़ा आप की पोस्ट लेकिन आप की ही तरह हम भी लाइनो के बिच छुपा कर लिखी गई बाते कई बार नहीं पढ़ पाते है , उम्मीद में आये थे कि आप सीधा सीधा लिखेंगे और हम खुल कर बात करेंगे ताकि पोस्ट में लिखे विषय से अलग बहस करने पर को ई ये इल्जाम न लगाये की हमने तो उनकी पोस्ट की "ऐसी की तैसी कर दी " :) किन्तु पढने के बाद ये कुछ कुछ समझ आ रहा है की आप नई जगह, नई नौकरी, नये दोस्तों की चकाचौंध में मगन होने वाले व्यक्ति है और उस विषय को भूल गए है किसी दिन अचानक किसी ट्रक कि लाईट पड़ेगी तो आप उस विषय में लिखेंगे तब तक मुझे इंतज़ार करना चाहिए , लेकिन याद रखियेगा की ट्रक की रोशनी देखने के लिए सड़क पर आना होगा घर में बैठे रहेंगे तो कैसे देखेंगे , तो खुदा करे की राम जी भी करे की आप घर से बाहर आये ( क़यामत नहीं , इतनी सी बात के लिए क़यामत न बुलाऊंगी ) और कोई ट्रक गुजरे और आप को वो विषय याद आये और हम मिल कर आप हम तुम सब कि ऐसी की तैसी करे :)))
अब तो आप को मौका जल्द ही मिलने वाला है आप की इच्छानुसार "आप " सरकार बनने जा रही है , उसकी उलटी गिनती शुरू कर दीजिये :)
उम्मीद से रहिये, छोड़िये मत:) सही मौके पर मौका अवश्य मिलेगा, वो भी बिना इल्ज़ाम के। ऐसी की तैसी करियेगा जरूर:)
हटाएंजब तक ’आआपा’ अच्छे काम करते दिखेगी, अपनी गिनती सीधी ही चलेगी। विचलन या पाखंड जाहिर होते ही आ जायेगी अपनी पोस्ट, फ़िर कर लीजियेगा ’आप’ भी अपने मन की। हमारी तो देखी जायेगी..
संयोग हमारे अनचाहे भी हमसे जुड़ते ही हैं। कई बार एहसास किया है !
जवाब देंहटाएंआपके संस्मरण बताते हैं कि बहुत लोगों के साथ है ये एहसास !
संजय बाऊ..बस असी ते टीप ते टीप कर के जा रहे हैं...
जवाब देंहटाएं@उम्मीद में आये थे कि आप सीधा सीधा लिखेंगे और हम खुल कर बात करेंगे ताकि पोस्ट में लिखे विषय से अलग बहस करने पर को ई ये इल्जाम न लगाये
बाकी आपके सीधा सीधा लिखने की कोशिश को मैं दिल से निकाल चूका हूँ, :)
एक बार आपकी पोस्ट को पढ़कर मैने लिखा था कि शब्द आपकी पोस्ट में ऐसे खिलते चले जाते हैं जैसे भड़भूजे की कड़ाही पर जुनरी फूटती चली जाती है। अब इसे तिल का ताड़ बनाना कहें या कुछ और ..मुझे लगता है आपको समय मिले तो जब चाहेँ ऐसी पोस्ट लिख सकते हैं।
जवाब देंहटाएंतुसी ग्रेट हो जी..
जवाब देंहटाएंसंयोग तो संयोग से ही होते है....
जवाब देंहटाएंHello Admin Sir,
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