एक लड़का अनेक वर्ष से एकाधिक राज्यों में मोस्ट वांटेड अपराधी था। राजनैतिक और धार्मिक कारणों के चलते निवर्तमान मुख्यमंत्री को मारने की सुपारी उसी लड़के को दिये जाने की अफ़वाह फ़ैल गई। पत्रकारों ने मुख्यमंत्री से पूछा, "हमने सुना है कि आपकी हत्या की सुपारी .......... को दे दी गई है?" नेताजी भी अपने समय के दबंग ही थे, पलटकर बोले, "जाको राखे साईयां मार सकै न कोय" अगले दिन की अखबारों में पहले पन्ने पर मुख्यमंत्री जी का यह इंटरव्यू था। और उससे अगले दिन उसी अखबार में फ़्रंटपेज पर खबर थी - ’पुलिस के साथ मुठभेड़ में कई वर्षों से फ़रार चल रहा कुख्यात अपराधी .............. मारा गया’
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एक हाई सिक्योरिटी जेल से कुछ अपराधी सुरंग के रास्ते फ़रार हो गये। सुरक्षा एवं जाँच एजेंसियों के लिये यह जेल और वहाँ का स्टाफ़ प्रतिष्ठा का विषय था। लेकिन फ़रारी हुई है तो कोई तो भीतर का आदमी मिला हुआ होगा ही। जाँच कमेटी अपना काम करती रही, नये कैदी आते रहे और पुराने सजा काटकर जाते रहे। कुछ महीनों के बाद फ़िर से वही कारनामा दोहराया गया, सुरंग के रास्ते फ़रारी। लेकिन इस बार कोई जाँच कमेटी नहीं बनी, फ़रारी के अगले दिन रुटीन पूछताछ हुई और जेल सुरक्षा में तैनात कुछ सेलेक्टेड कर्मियों को अलग निकाल लिया गया। पता चला कि जिन दो कैदियों को उन्होंने फ़रार होने में मदद की थी वो गुप्तचर विभाग के अधिकारी थे जो मामले की तह तक पहुँचने के लिये कैदी बनकर जेल पहुँचे थे।
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एक कुख्यात वन्य तस्कर व शिकारी कहीं दिल्ली में छुपा है। उस पर अधिकाँश मामले राजस्थान में चल रहे थे। जानकारी थी कि वो अखबार पढ़ने में रुचि रखता है। उंगलियों पर गिनी जा सकने वाले राजस्थान के समाचारपत्र नियमित रूप से दिल्ली में बिक्री के लिये आते थे। अलग-अलग टीमें बनाई गईं और रेकी की गई। छंटनी होते होते ऐसे एक पाठक पर शक गहराने लगा। एक बच्चा आया, उसने अखबार खरीदी और कमीज के अंदर खोंसकर चल दिया। उसके पीछे-पीछे सादी वर्दी में पुलिस। बच्चा पार्क में गया तो फ़ॉलो करने वाला उसके पीछे, किसी दुकान से लेकर बिस्कुट खा रहा है तो उसके पीछे। बच्चा मंदिर में गया तो बाहर खड़े होकर उसका इंतजार, बच्चा फ़िर किसी तरफ़ निकल गया तो उसके पीछे। दोपहर तक यही चलता रहा, गौर किया तो पाया कि अखबार बच्चे के पास नहीं है।
अगले दिन फ़िर वही रुटीन, इस बार मंदिर से आकर बच्चा चला तो किसीने उसका पीछा नहीं किया। पीछा हुआ उसका जो मंदिर में बच्चे द्वारा छोड़ी गई अखबार को उठाकर असली पाठक तक ले जा रहा था। अगले दिन अखबार में वर्षों से फ़रार चल रहे शिकारी और वन्य तस्कर की गिरफ़्तारी की खबर थी।
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पुलिस पार्टी भेष बदलकर तैयार है। आने जाने वालों/वालियों पर पैनी नजर है। इंतजार की ऐसी घड़ियाँ महबूबा के इंतजार की घड़ियों जैसी रुमानी नहीं होतीं। वहाँ ताजमहल बनाने और आसमान से तारे तोड़ लाने की BC करके बिगड़े काम बन जाते हैं, यहाँ एक error of judgement आपका कैरियर बिगाड़ भी सकता है और भूत बनने की संभाव्यता अलग। एकदम से चौकस निगाहों ने एक बुर्कानशीन को देखा और साथी को आँखों में इशारा ........................आप भी कहेंगे क्या साहब फ़िल्म गंगाजल का सीन बता रहे हो, हमने भी फ़िल्म देख रखी है।
नहीं साहब, ये फ़िल्मी दृश्य नहीं बता रहा। राजधानी के एक भीड़ भरे बस स्टॉप पर जब एक सादी वर्दी में पुलिस वाले ने किसी के चेहरे से नकाब उलटा था तो सोच देखिये कि उस नकाब के नीचे ब्लैकमेलिंग के सबसे बड़े मामले के मुजरिम की जगह कोई मोहतरमा निकलती और नकाब उलटने वाले की जगह आप होते तो क्या होता?
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ये चंद उदाहरण हैं कि कैसे हमारे समाज के अपराधियों को पकड़ने में पुलिस और गुप्तचर एजेंसियाँ जी जान लगा देती हैं। सोचिये, एक छोटी सी चूक और सारी मेहनत खराब, एक झूठा इल्जाम और बरसों मुकदमेबाजी में खुद अभियुक्त बनकर जलालत झेलनी पड़ती होगी। मानवधिक्कार वाले अलग से दबाव बनाये रहते हैं। प्रतिभा, निष्ठा की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता होती है शासन की इच्छाशक्ति की। सही और गलत हर विभाग में हैं, यहाँ भी होंगे। हो सके तो जो सही है उसकी प्रशंसा करें, गलत को बढ़ावा न दें।
वर्दी के दुरुपयोग की बातें तो अखबार वाले और चैनल वाले आपको बताते ही रहते हैं, आज सोचा कि कुछ अच्छा अच्छा मैं बता दूँ। विश्वास बेशक न करियेगा क्योंकि ये कहानियाँ अकल्पनीय ही लगती हैं, यहाँ तक कि इनमें से कुछ प्रकरण विकीपीडिया पर भी दूसरे तरीकों से अंकित हैं।
अखबार वाले/टीवी वाले अच्छा भी बताते हैं। क्या करें नजर ही पड़ती। खैर टीवी की मजबूरी भी है। पुलिस की हर कार्यप्रणाली को इसतरह बता भी नहीं सकते, अपराधी चौकन्ने हो जाते हैं। किसी पुलिस वाले की, खासकर अगर वो सिपाही हो, टीवी पर प्रशंसा करते भी हैं तो उस बुलेटिन की टीआरपी नीचे जाने की होड़ में लग जाती है। एक और उदाहरण है, हमारे ही एक रिपोर्टर ने दुनिया की सबसे खतरनाक सरहदों में शुमार जगहों पर जांबाजों के साथ समय गुजारा, और घंटे भर की डॉक्युमेंटरी टाइप रिपोर्ट दी। उसे जो टीआरपी मिली वो तो खैर, यूट्यूब पर चंद हजार लोगो ने देखी। वहीं अपराध और भूत से जुड़ी प्रोग्राम की संख्या यू टूयूब पर लाखों पार कर गई। अब बताइए क्या करें, हमारी जनता भी कम नहीं।
जवाब देंहटाएंजनता तो जनार्दन है ही :)
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