हो सकता है यह कहानी आपने न सुनी हो, हो सकता है कि सुन रखी हो। ऐसा भी हो सकता है कि किसी और रूप में सुन रखी हो। यह सब महत्वपूर्ण नहीं, महत्व इस बात का होना चाहिये कि किसी कहानी से आप पाना क्या चाहते हैं और पाते क्या हैं। मनोरंजन, ज्ञान, प्रेरणा, अवसाद या ऐसा ही कुछ और भाव। महत्व इस बात का भी है कि इससे आप कितना प्रभावित होते हैं। इस भूमिका से सुधीजन समझ ही गये होंगे कि कुछ ऐसी बात पढ़ने को मिलेगी जिसे रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब आदि मान्यताप्राप्त और स्थापित ’कारों के रचे इतिहास में ढूँढने जायेंगे तो निश्चित ही निराशा हाथ लगेगी। आप सोच सकते हैं कि फ़िर ऐसी बातों को कोई लिखे भी क्यों और पढ़े भी क्यों? मेरे लिखने और आपके पढ़ने के पीछे एक विश्वास होगा। विश्वास मात्र लेखक पर नहीं, अपनी चेतना और अपने विवेक पर कि इसके सत्य होने की संभावना बनती भी है या नहीं। मानना या न मानना अपने हाथ में है, यह सनातन की भूमि है जिसपर विरोधी मत भी न सिर्फ़ सुने गये बल्कि उन्हें एक भिन्न शाखा के रूप में मान्यता भी मिली है। यहाँ अपनी बात मनवाने के लिये गर्दन पर तलवार नहीं रखी जाती।
यह वो समय था जब विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक कारणों के चलते सनातन से विमुख होकर आमजन नये धर्म की तरफ़ जा रहा था। ईश्वर को जानने और उसे पाने की पुरानी रीति-विधियों और नये तरीकों के बीच एक प्रतियोगिता रूपी संघर्ष चल रहा था। परिवारों में विमर्श का यह एक ज्वलंत विषय था, कुछ सदस्य अपने धर्म को त्यागना सही नहीं मानते थे वहीं कुछ सदस्य इसे केंचुली की तरह उतारने को तत्पर थे। नए धर्म को राज्याश्रय का लाभ भी था फ़लस्वरूप सनातनियों की संख्या कम हो रही थी।
उस समय के प्रचलन के अनुसार किसी सनातनी गुरुकुल में विद्याध्ययन कर रहा एक युवा भिक्षाटन के लिये नगर में निकला हुआ था। अचानक उसके हाथ पर कुछ उष्ण तरल पदार्थ की बूँदें गिरीं, युवक ने सिर उठाकर देखा तो गवाक्ष में खड़ी कोई स्त्री रो रही थी और उसीकी आँखों से गिरे आँसू ही थे जिन्होंने युवा का ध्यानाकृष्ट किया था।(अलग अलग मान्यताओं के अनुसार वह स्त्री नगर की रानी या गणिका बताई जाती है)
"हे देवी, आपको क्या कष्ट है?"
स्त्री ने रूंधे गले से कहा, "हमारे धर्म की रक्षा कौन करेगा?"
जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जो जीवन की दिशा को गति दे देते हैं और कई बार दिशा बदल भी देते हैं। कई बार हम अनिर्णय की स्थिति में लंबा समय निकाल देते हैं लेकिन कोई एक क्षण ऐसा आता है जब आर या पार का निर्णय लेने में किंचित मात्र भी विलंब नहीं होता। युवक के जीवन में संभवत: वही क्षण आ पहुँचा था। स्त्री के शब्द "हमारे धर्म की रक्षा कौन करेगा?" सुनकर युवक सहसा बोल उठा, "मैं करूंगा।" उसके जीवन की दिशा भावी द्वारा निर्धारित हो चुकी थी।
उस युवा ब्राह्मण का नाम था ’कुमारिल भट्ट’और वह वर्तमान के आसाम से विद्याध्ययन करने वाराणसी आया हुआ था। कुछ लोग इन्हें दक्षिण भारत से आया भी मानते हैं। उसी क्षण से कुमारिल भट्ट का मनन चिंतन इस समस्या के कारण-निवारण में लग गया। उसने अनुभव किया कि सनातन से पलायन के पीछे सनातन के विरुद्ध किये जा रहे नकारात्मक प्रचार की मुख्य भूमिका थी। जीवन का अच्छा खासा समय सनातन में बिताने के बाद जब कोई विपक्ष में जाता था तो उसके पास अपने पूर्व धर्म की अच्छाई-बुराई की भरपूर जानकारी होती थी। जिस घर में हम रहते हैं, उसका कौन सा कोना निरापद है और कौन सा कमजोर, कहाँ धूप बहुत आती है और कहाँ सीलन, ये हम अच्छे से जानते हैं। अराजकताप्रधान समाज तब भी नहीं था तो विवाद आदि या तो शास्त्रार्थ से सुलझाये जाते थे या प्रचलित न्याय नियमों के अनुसार। ऐसी स्थिति आने पर सनातन की कमियों को निर्ममता से उजागर किया जाता था और परिणाम यह होता था कि लोगों को अपने धर्म में कमियाँ ही कमियाँ दिखती थीं। साधारण शब्दों में ये समझिये कि सारी लड़ाई हमारी ही जमीन पर होती थी, वो जीत गये तो हमारी जमीन पायेंगे और हम अपनी जमीन बचा लेने को ही अपनी जीत मानने को बाध्य थे।
कुमारिल भट्ट ने निर्णय किया कि उन्हें टक्कर देने के लिये मुझे भी बौद्ध धर्म और उसकी पुस्तकों को समझना होगा। कुमारिल भट्ट बौद्ध बन गये, दत्तचित्त होकर शिक्षा प्राप्त की और उस दर्शन में पारंगत हुए। पुन: हिन्दु धर्म में प्रवेश किया और शास्त्रार्थ के क्षेत्र में पुन: सनातन की कीर्ति पताका फ़हराई। कुमारिल भट्ट का समय आदि शंकराचार्य और वाचस्पति मिश्र से पहले का है। भवभूति, मंडन मिश्र आदि उनके शिष्य रहे।
कुमारिल के दर्शन का तीन मुख्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है- ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा और आचारमीमांसा। उस सब में जिन्हें रुचि हो वो पैठ सकते हैं। पहले भी कह चुका कि सहमत होना या न होने की स्वतंत्रता है। मेरी रुचि इस बात में है कि स्थापित इतिहासकारों ने भले ही भारत के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की दशा आदि के बारे में कुछ भी लिख रखा हो, इस धरती की स्त्रियाँ कठिन समय में समाज को और धर्म को प्रेरणा देने में और हमारे पूर्वज चुनौतियों का सामना करने में सक्षम थे।
प्रस्तुत पोस्ट बहुत पहले पढ़ी किसी रचना और लोकजीवन में सुनी बातों के आधार पर लिखी है। कुमारिल भट्ट के बारे में बहुत अधिक विवरण उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि जिनके जिम्मे यह सब काम थे, उन्हें इतिहास लिखना नहीं बल्कि बनाना था। उनके हित कुछ वंशों का ही गौरवगान करने से सधने थे। उदाहरण के लिये मुगल साम्राज्य को हमारे इतिहास में आवश्यकता से अधिक ग्लोरीफ़ाई किया गया जबकि विजयनगर साम्राज्य के बारे में न्यूनतम बताया गया है।
अंत में यही कहूँगा कि किसी घटना के वर्णन या कहानी में महत्व इस बात का है कि इससे आप कितना प्रभावित होते हैं।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " दिल धड़कने दो ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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