शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2016

हैलो हैलो...

"हैलो"
"हाँ जी, कूण बोल रहे हो?"
"अबे बावले, मैं हूँ ....। बोल के बात थी?"
"नमस्ते ... साब, मैं नूं कहूँ था जी अक आज मैं आऊँ के न आऊँ। मैंने सोची फोन पे.."
"लै भाई, मैं किस तरयां बता दूं कि तू आ या न आ?"
"जी मेरा मतबल था कि बेरा तो होना चाहिए न? म्हारे अफसर हो आप।"
"भाई, तू देख ये तो।"
"न जी, वो बात न है। देखणा तो मन्ने ही है पर फोन करना तो मेरा बने ही था न कि आज आऊं के न आऊं?"
"अरे बावले, फेर वाई बात। मैं कह दूं कि आ जा और तैने न आना हो तो? और मैं कहूँ कि न आ और तैने आना हो, फेर? तूए देख ये।"
"आप समझो तो हो न बात को, शुरू हो जाओ हो। भड़क जाओ हो तावले सी।"
"लै! मैं के न्यूए भड़क गया? बाउली बात पूछेगा तो तेरे गीत गाऊंगा?"
"मन्ने के पूछ ली आपते? मैं तो नूं कह रा था कि आज मेरा ड्यूटी पे आण का पक्का न है। आ भी सकूँ हूँ और न भी आ सकूँ हूँ। कैश में किसी को बैठा दियो आप, कदे मेरीए बाट देखे जाओ।"
"सच में बावली ... है, शुरुए में न कह देता ये बात?"
"और के कहण खातर फोन करया था? न्यौता देऊँ था के? यही तो कहण लग रया हूँ सुरु से कि आज आऊँ के न आऊँ"
"अच्छा छोड़ बाउली बात, नूं बता के आएगा ड्यूटी पे अक नहीं?"
"ह्ह्ह्ह, जी आ भी सकूँ हूँ और हो सके न भी आऊँ।"
.................
मोबाइल पीढी को इस लैण्डलाईनिया वार्ता को समझना शायद पकाऊ काम लगे, पर अपनी ऐसी कई यादें लैंडलाइन से जुडी हैं।
एक पुराना पोलिटिकली करेक्ट वार्तालाप अचानक याद आ गया।

3 टिप्‍पणियां:

  1. वार्ता अत्यंत रोचक है... कुछ याद दिला गई... लेकिन इस घटना उर्फ दूरभाष संभाषण के पीछे की यदि कोई घटना हो तो नहीं समझ पाया. मज़ा पूरा आया...!!

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