बुधवार, अगस्त 22, 2018

दो निर्णय

उस दिन हमें सपरिवार कहीं जाना था। सब तैयार हो रहे थे, इस काम में मैं हमेशा फर्स्ट आता हूँ। जो शर्ट सामने पड़ गई वो पहन ली, जो पैंट दिख गई वो चढ़ा ली। न मैचिंग का झंझट और न कंट्रास्ट का। ये वैसे भी अच्छा ही है कि पुरुषों के लिए लिपस्टिक, नेलपॉलिश, बिंदी, चूड़ी आदि-आदि का लफड़ा नहीं है। तो हुआ यह कि मैंने एक काम जानबूझकर पेंडिंग रखा हुआ था, मिठाई खरीदने का। विचार था कि जब अन्य सदस्य तैयार हो रहे होंगे तो मैं उतनी देर में मिठाई खरीद लाऊँगा। मैं गया और मिठाई लाकर लौट रहा था किंतु उससे पहले कुछ और बताना आवश्यक है।
हमारे घर से कुछ ही घर छोड़कर एक परिवार है जिसकी बात यहाँ आएगी। आज से सत्तर वर्ष पहले हमारे यहाँ के सभी निवासी लगभग एक ही आर्थिक और सामाजिक स्थिति के थे, ४७ में उधर से आए हुए। जिसे जो काम समझ आया होगा, उसमें जुट गया। मेरा जन्म सत्तर का है, तब तक लोग आर्थिक रूप से ठीकठाक स्थिति में आ गए थे। मैं तब दसवीं में था तो पता चला कि उस परिवार में से एक भाई ने कुछ दूरी पर एक प्लॉट जिसमें दो कमरे भी बने हैं और खरीद लिया है, तब तक जमीन सोना नहीं बनी थी। किंतु एक बात थी, उस प्लॉट/मकान को उन्होंने खाली ही रख छोड़ा और रहना उसी पुराने पारिवारिक मकान के एक कमरे वाले उनके भाग में जारी रखा जिसमें पहले से रहते आ रहे थे ताकि हिस्सेदारी बनी रहे। ऐसे केस देखने के बाद मुझे पाकिस्तान पर कई बार हँसी जरूर आती है जो हमें कश्मीर छोड़ने को कहता है ☺
जो भी हो, कालांतर में ऐसा हुआ कि इनकी मेहनत से परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होती गई और उस साझे घर से उनके दूसरे भाई अपना हिस्सा लेकर कहीं और चले गए, पुराना घर भी इनके अकेले के स्वामित्व में आ गया। कुछ समय और बीता तो इसी घर के साथ लगता एक और घर इन्होंने खरीद लिया, दोनों को मिलाकर अच्छे से प्लानिंग करके पुनर्निर्माण करवाया और पूरा परिवार एक साथ इसी घर में रह रहा है। वो जो कुछ दूरी पर प्लॉट/मकान चुपके से खरीदा था, अब भी वैसे ही चुपचाप पड़ा है। कभी-कभी बूढ़े अंकल जी जाते हैं, ताला खोलकर थोड़ी बहुत सफाई जैसी हो पाती है कर आते हैं और पड़ौस वालों को सुनाकर दो चार गालियाँ बोल आते हैं। इस बहाने सब लोगों को पता रहता है कि मकान लावारिस नहीं है।
तो उस दिन मैं मिठाई लेकर लौट रहा था, भाई का फोन आ चुका था कि सब तैयार हैं और वो गाड़ी बाहर निकाल रहा है। रास्ते में वही प्लॉट/मकान पड़ता है जिसकी बात आपको बता चुका हूँ। वहाँ कुछ लोग इकट्ठे थे और  ये जो गलियों में कूड़ा उठाने ठेली रिक्शा वाले आते हैं, उनमें से एक जोड़े से अंकल जी बहुत गुस्से में भिड़े हुए थे, दे गाली-गलौज जारी था। लोग खड़े तमाशा देख रहे थे। मैंने मोटरसाइकिल स्टैंड पर लगाई और मौके पर पहुँच गया.....
चालण दूँ न्यूए अक ..?

9 टिप्‍पणियां:

  1. इसलिए ब्लॉग नहीं पढता , इंतज़ार कौन करे

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, छाता और आत्मविश्वास “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. कश्मीर वाली और अपना मालिकाना हक़ जताने के लिए गरियाना वाली बात सही कही |

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  4. लिपस्टिक,बिन्दी,चूड़ी,नेलपोलिश को लफडा़ कहने पर हमको सख़्त एतराज़ है...क्योंकि बिना कंघी पाटी के तो आप भी कहीं नहिये जाते हैं फिर हमलोगों को नज़र काहे लगाते हैं...? और हाँ मिठाई पर एतना जोर मत दिया किजिये, उमर हो गई है,इससे परहेज करें... ;) ;)

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