समय के साथ, वय के साथ समझ बदलती है।
'मेरा नाम जोकर' जब पहली बार देखी तो पूरी फिल्म में सिम्मी ग्रेवाल, पद्मिनी और सर्कस वाली रूसिन पर ही फोकस अटक कर रह गया था।
एकाध वर्ष पूर्व सहसा इस फिल्म की बात चली तो लगा कि सौन्दर्य दर्शन के चक्कर में कहीं न कहीं जोकर(एक पुरुष) के vision की उपेक्षा हो गई।
अनजाने में हुए इस अन्याय के प्रायश्चित के लिए सोचा कि सम्भव हुआ तो अपन भी कभी वो ट्राई करेंगे अर्थात कुछ विशिष्ट जोड़ों को बुलाकर एक gathering सी कर लेंगे। विश्वास था कि gathering सम्भव भी हो सकेगी क्योंकि सामने वालियों की(और उनके वालों की भी) समझ भी तो आयु के साथ बदली होगी और इसे friendly spirit में लिया जाएगा।
समय के साथ और भी बहुत कुछ बदलता है यथा तकनीक, सुविधाएं, रुकावटें। उदाहरण के लिए जब यह मूवी आई थी तब aids नहीं था। वो बाद में ही आया किन्तु aids बेचारा एक मामले में फिर भला था कि उसमें प्रायः जो करता था वो भरता था। अब नई नई बीमारियाँ आ गईं, अब आवश्यक नहीं कि करने वाला ही भरेगा।
फिर सोची कि नर हो न निराश करो मन को। रोने वाले हर बात में रोने के बहाने ढूँढ लेते हैं, हम क्या उनसे गए बीते हैं? तकनीक भी तो बदली है, प्लान इम्प्लीमेंट करने के लिए आवश्यक हुआ तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का सहारा ले लेंगे।
कोरोना आए या उसके फूफा-फूफी, हार नहीं माननी है।
हम आ गए हैं...सब को ढूंढा, बस आप ही दिखे! मजाज़ साहब फ़रमा गए- एक बादाकश तो है यकीनन, जो सुनते थे वो आलम नहीं है!!
जवाब देंहटाएंजय हो प्रोफेसर साहब
जवाब देंहटाएंकोरोना से तो क्या हार माननी थी खैर....
जवाब देंहटाएंबाकी एड्स के घमंड को खूब चकनाचूर किया आपने!
घर वापसी किया है शायद , हर महीने एक पोस्ट
जवाब देंहटाएंकिसी को वीडियो कॉल किया ?
जवाब देंहटाएंन ☺️
हटाएंबहुत खूब बढ़िया लिखा है
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