सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

कुछ बात है कि हस्ती मिटनी नहीं हमारी……जियो सरदार जी

पिछले कुछ दिन बहुत व्यस्त बीते। घर में ४-५ दिन का आवश्यक काम होने के कारण ओफिस से अवकाश लेकर बीबी-बच्चों के साथ अपनी होमटाऊन दिल्ली जाना था। एक घंटा लुधियाना तक और लगभग पांच घंटे दिल्ली तक। कुल मिलाकर होम टू होम सात घंटे। ओफ़िस में स्टाफ़ की कमी होने के कारण छुट्टी मिल पाना भी एक तोहफ़ा सा लगता है। कोई भी चीज जो कठिनाई से प्राप्त होती है, अच्छी ही लगती है। ऐसा भी कह सकते हैं कि जो भी सहज और सुलभ है, उसका हम लोग महत्व नहीं समझते। अब यही छुट्टी की ही बात करें तो पहले राशनिंग नहीं थी तो कोई बात ही नहीं थी, अब कुछ पाबंदी हैं तो हमें भी ध्यान रखना होता है कि प्रोग्राम ऐसा बनायें कि किसी को खटके न। तो छुट्टियां मंजूर हुईं शुक्रवार से लेकर बुधवार तक की यानि रविवार का दिन पेनल्टी में जायेगा। खैर, तदानुसार रिजर्वेशन भी करा लिया।

शुक्रवार को बच्चे स्कूल गये और हम जुट गये पैकिंग में। ग्यारह बजे ओफ़िस से फ़ोन आया, मैनेजर साहब ने कुछ शर्मसार सा होते हुये सूचित किया कि रविवार को जालंधर में एक कार्यशाला है और उसके लिये कंट्रोलिंग-ओफ़िस ने इस खाकसार को नामित किया है और इस कार्यशाला में प्रतिभागिता आवश्यक है। मैनेजर साहब ने बताया कि उन्होंने ऊपरवालों से बात की है लेकिन वहां से यही निर्देश मिला है कि उपस्थिति आवश्यक है। दिमाग तो भन्ना गया लेकिन फ़िर खुद को भी समझाया कि नौकरी को बुजुर्गों ने खेती और व्यापार के बाद वाले पायदान पर ऐसे ही नही रखा था और अपने सह्रदय सीनियर को भी आशवस्त किया कि आदेश पालन किया जायेगा। तो साहब, प्रोग्राम अब ये हो गया कि बजाय ३-४ दिन आराम से घर पर बिताने के बजाय कम से कम २४ घंटे और पंजाब रोडवेज के नाम कुर्बान करेंगे। दिल्ली में घर पहुंचते-पहुंचते ११ बज गये। खाते-पीते और मां-पिताजी व छोटे भाई के परिवार से बातचीत करते हुये रान के तीन तो बज ही गये। आखिर २-३ महीने के बाद पुन: परिवार एकत्रित हुआ था। अगले दिन देर से सोकर उठे और खाने के समय पर मां के हाथ से परांठों का नाश्ता और डिनर के समय से थोडा पहले लंच किया ही था कि फ़िर सफ़र का समय हो गया।

रात नौ बजे दिल्ली आई.एस.बी.टी. से जालंधर की बस ली और विंडो सीट संभाल ली। आपको बता दूं पंजाब रोडवेज की बसों की गिनती अच्छी बसों में की जाती है(भारतीय स्तरानुसार)। सामने नजर गई हिमाचल रोड्वेज की एक सही मायने में एक शानदार बस पर। वहां मौजूद ५०-६० बसों में वह बस ऐसी लग रही थी जैसी कजरारे-कजरारे वाले गाने में एक्स्ट्रास के साथ हमारी अभिषेक/अमिताभ की पद्म्श्री। बस का पेंट यदि हरा न होकर कुछ और होता तो शायद वह बस और भी सुंदर लगती, लेकिन उस पेंट में भी वह एक नवविवाहिता की तरह लग रही थी। अचानक दिखाई दिया कि सजावटी अंदाज में लिखा था – ’हिमसुत्ता’। हिमाचल प्रदेश की संपत्ति होने के कारण नाम यदि ’हिमसुता’ रखा जाता तो गौरव बढता, लेकिन इस जरा सी गलती ने मखमल में टाट का पैबंद लगा दिया। मुझे ऐसा भी लगा कि हो सकता है क्षेत्रीय भाषा में शायद सुता को सुत्ता ही बोला-लिखा जाता होगा, तो आकर हिमाचल के ब्लोगर बंधु को मेल करके पूछा। भाई काजल कुमार ने फ़ौरन मेल का जवाब दिया और अपनी जानकारी में ऐसा होने से इम्कार किया। इससे तो यही लगता है कि लाखों खर्च करके सरकार ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया लेकिन किसी भी संबद्ध अधिकारी ने यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि कैसे एक छोटी सी गलती करे कराये पर पानी फ़ेर सकती है। सर्दियों की रात बस की सीट पर काटकर पहुंच गये प्रतिभागी सुबह पांच बजे जालंधर। रात भर के जगे बंदे को चार घंटे में ट्रेन्ड करने का ड्रामा दो-ढाई बजे खत्म हुआ और हम बैक टू जालंधर बस-स्टैंड।

जालंधर से ३.३० अपरान्ह की बस ली और सर टिका दिया पीछे को। लगातार जागते हुये लगभग ३० घंटे हो चुके थे। आंखे नींद से भरी हुई थीं और बस के चलने से और सवारियों के शोर से नींद आ नहीं रही थी। दिल्ली पहुंचने में अभी कम से कम आठ घंटे लगने वाले थे। शरीर थका हुआ, मन बोझिल। कब ये सफ़र पूरा हो और जाके लंबी तान के सोने को मिले, उस समय बस एक यही सोच चल रही थी। काफ़ी देर तक आंखें बंद रखकर सोने की कोशिश की पर नींद थी कि दिखती थी पर आती नहीं थी। खन्ना नामक स्टेशन तक तो होश रहा, उसके बाद नींद ने थकान पर विजय पा ली। घंटे भर में जब बस अंबाला पहुंची तो शोर शराबे से आंख खुली। बस अंबाला से चली ही थी और लगभग सभी सीटें भर चुकी थीं। मेरे साथ वाली सीट पर एक सरदार जी अपनी धर्मपत्नी के साथ विराजमान थे, आयु लगभग ५० वर्ष। आंखे फ़िर से मुंदने लगी थीं। अपना हाल ऐसा हो रहा था जैसे सदियों के प्यासे को गला तर करने को तो मिल गया लेकिन प्यास और जयादा तीव्र हो गई हो। बाहर अंधेरा होना शुरू हो गया था और हवा में ठंडक और बढ गई थी। बस के सभी शीशे बंद, अपने पास गरम चादर और नींद दोनों मौजूद थे यानि की कामचलाऊ झपकी का पूर माहौल बन चुका था और शरीर भी बस की गति से तारतम्य बैठा चुका था। कुछ ही पलों में सरदारजी की बुलंद आवाज से नींद उचट गई। सरदारजी फ़ोन पर बात कर रहे थे और मैं भुनभुना रहा था।

“हां जी, सत श्री अकाल, ठीक-ठाक है जी। खुशखबरी है, किट्टी दे घर एक और किट्टी आ गई है जी। मैं नाना बन गया हां। त्वानूं वी मुबारकां जी, सत श्री अकाल।” स्वाभाविक रूप से खुश होने के कारण और बस के शोर के कारण भी सरदारजी काफ़ी तेज आवाज में बात कर रहे थे और मैं अपनी नींद खराब होने के कारण परेशान हो रहा था। इतने में उन्होंने फ़िर एक नंबर मिलाया और खुशखबरी दी और बधाई ली। फ़िर एक और नंबर, फ़िर एक और नंबर और इस तरह से बस पिपली, कुरुक्षेत्र, करनाल और पानीपत पार कर गई लेकिन फ़ोन काल्स चैन स्मोकिंग की तर्ज पर चैन कालिंग के रूप में जारी रहे। जुमला वही एक, “हां जी, सत श्री अकाल, ठीक-ठाक है जी। खुशखबरी है, किट्टी दे घर एक और किट्टी आ गई है जी। मैं नाना बन गया हां। त्वानूं वी मुबारकां जी, सत श्री अकाल।” मेरी नींद ऐसे भागी जैसे गधे के सर से सींग। मेरा मूड कई शेड्स से होकर गुजर रहा था। पहले झल्लाहट, खीझ, गुस्सा और फ़िर कुछ सहज होते हुये मजा सा आने लगा। इधर सरदार जी नया नंबर मिलाते, बातचीत शुरू करते और मैं भी उनके डायलाग साथ ही साथ बुदबुदाने लगा और मैने मन ही मन उनकी काफ़ी मिमिक्री की। वही वाक्य, वही अंदाज। अब मेरे ध्यान आया कि वो अपनी कन्या की कन्या के पैदा होने पर इतने खुश हैं और मौका मिलते ही मैने पूछ डाला कि दोहता होता तो शायद आप और ज्यादा खुश होते। सरदारजी बोले, “पुत्तर, मेरी बेटी दी शादी नूं कई साल हो गये सी ते उसदी कोइ औलाद नहीं होई सी। जे उसदे व्याह दे फ़ौरन बाद दोहती पैदा हुंदी ते शायद तेरी गल सच हुंदी पर हुण तां असी वाहेगुरू दे शुक्रगुजार हां कि उसने कुडी दित्ती ते यकीन करीं असी वाहेगुरू अगे एही अरदास करदे सी कि देर नाल सही देवीं पर स्वस्थ गुड्डी देवीं। अज दे टाईम विच धीयां दी जरूरत होर वी वध रही है। ऐ जो खून खराबा, नफ़रत दा महौल चल रया है, कल्ली कुढी ढंग नाल पढ-लिख के तीन घरां नूं सुधार सकदी है।” धीरे-धीरे मेरे मन में उन सज्जन के प्रति श्रद्धा सी होने लगी।

भारत में और विशेषकर उत्तरी भारत में लिंगानुपात के बढते फ़र्क के मद्देनजर ऐसी बातें बहुत सुखद हैं। कुछ मिनट पहले मैं अपनी कुछ घंटों की नींद खराब होने पर खीझ रहा था, ऐसे लोगों पर तो दस-बीस रातों की नींद कुर्बान की जायें तो कम हैं। दिल्ली पहुंचने तक मैं मन ही मन उस अनदेखी किट्टी, उसकी नवजात किट्टी को जाने कितनी शुभकमनायें दे चुका था और उन सरदारजी के ऊपर तो मुझे मान सा होने लगा था, जब तक ऐसा सोचने वाले हमारे देश में रह रहे हैं, हम फ़ख्र से कह सकते हैं कि ’कुछ बात है कि हस्ती मिटनी नहीं हमारी, सदियों रहे चाहे दुश्मन दौरे-जहां हमारा।’

’जियो सरदारजी ते जिये त्वाडी सोच"’

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत रोचक और सुंदर आलेख, सरदार जी की बात ने तो मन मोह लिया. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  2. ’सच में’ पर आकर उत्साह बढाने के लिये आप का दिल से शुक्रिया! आते रहिये ’सच में’ (www.sachmein.blogspot.com

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. @ ऐ जो खून खराबा, नफ़रत दा महौल चल रया है, कल्ली कुढी ढंग नाल पढ-लिख के तीन घरां नूं सुधार सकदी है।

    छलका दिए आप सब कुछ! इन कड़क सरदारों की कोमलता में एक अलग सा 'मोहन' होता है।

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