बात शायद 1994-95 की है। नौकरी के सिलसिले में मैं घर से दूर उ.प्र. के एक शहर में रहता था। तीन-चार दोस्त किराये के मकान में इकट्ठे रहते थे। अनजान जगह पर, वो भी उस दौर में, जब कम्पयूटर अभी इतना आम नहीं हुआ था, हम जैसों के लिये यार-दोस्तों का ही सहारा था और ऐसी ही कुछ सोच यार लोग भी रखते थे। उ.प्र. का एक साधारण सा शहर, घर परिवार और रिश्तेदारों से दूर समय काटने के लिये ताश, सिनेमा जैसी चीजें तो थीं, लेकिन सिनेमाघर कुल चार थे। ले देकर साल में दो महीने के लिये एक नुमाईश आया करती थी जो शहर में दो महीने लगती थी लेकिन चार महीने पहले से और चार महीने बाद तक हमारे जैसे छड़ों के दिमाग में लगी रहती थी। न कोई पार्क, न कोई घूमने की जगह, ले देकर एक स्टेशन ही था जहां रात ग्यारह बजे तक हम घूमते रहते थे।
शुरू में जब वहां पहुंचे, तो हमारे सीनियर्स ने हमें ऑफ़िस के पास ही मकान किराये पर लेने की सलाह दी। एक बार तो मन किया कि मान लेते हैं, पर फ़िर अपने संस्कार न भूलते हुये बड़ों की बात न मानने की अपनी परंपरा कायम रखी और रेलवे स्टेशन के दूसरी तरफ़ यानि शहर के एकदम दूसरे कोने में जाकर डेरा जमा लिया। मचाई हाय-तौबा यारों ने भी ऐर सीनियर्स ने भी कि कहां जंगल बियाबान में रहोगे जाकर(कॉलोनी अभी बन ही रही थी), पर कर्मयोद्धा इन छोटी मोटी बातों की कहां परवाह करते हैं। खुदी को बुलंद करके फ़ैसला सुना दिया कि बेशक वो जगह ऑफ़िस से दूर है, स्टेशन के बाद वहां तक पहुंचने में एक सुनसान लंबा गलियारा भी पार करना पड़ेगा, रात में ग्यारह बजे से पहले कमरे पर लौटना भी नहीं है और चाहे अकेले ही रहना पड़े, लेकिन डेरा वहीं जमेगा अपना। अब यार-दोस्त भी ऐसे निकम्मे मिले कि फ़ट से हां में हां मिलाने वाले। तो जी हो गया आबाद हमारा ’छड़ेयां दा वेहड़ा’ और हमने कुछ और किया हो या न किया हो, बुजुर्गों की बनाई कहावत ’जंगल में मंगल’ को सही करके दिखा दिया।
किस्सों की कमी नहीं है, पर ये ससुरी बिल्लो रानी, सॉरी बिजली रानी हमारे हाथ रोक लेती है नहीं तो ’किस्सा चार दरवेश’ की तर्ज पर एकाध किताब हम भी लिख मारते और हो जाते अमर। चलो, आप तो बच जाओगे सारे किस्से झेलने से, एकाध तो खैर शरम लिहाज में गैर भी बरदाश्त कर लेते हैं, फ़िर आप तो हमारे अपने ही हैं।
एक बार कुछ ऐसा हिसाब बना कि हम दो मित्र ही वहां रह गये। अब दो जनों में मंगल भी कितना मनाते(जमाना अभी पुराना ही था, बोल्डनेस आई नहीं थी)। ऑफ़िस से आकर खाना वाना भी बना खा लिया, गाने भी सुन सुना लिये, ताश के भी पत्ते पीट लिये, फ़ूंका-फ़ुंकाई भी कर ली(दधीचि से कम मत जानिये हमे, अपने फ़ेफ़ड़े फ़ूंककर आई.टी.सी. जैसी कंपनियां, डाक्टर, कैमिस्ट, पैथ लैब, पनवाड़ी गरज कि पूँजीपतियों, मध्यम वर्ग और सर्वहारा सबको ऑब्लाईज करते रहे हैं), लेकिन रात अभी दूर थी। चल दिये दोनो स्टेशन की तरफ़। प्रतिदिन वाली सांझचर्या करने के बाद जब लौटने लगे, तो स्टेशन के मेन गेट की तरफ़ से किसी के गाने की आवाज सुनाई दी। मुफ़्त में किसी की तारीफ़ करनी हो तो जी हम अपने आपको रहीम खानखाना से कम नहीं समझते, ’ज्यूं-ज्यूं कर ऊंचा उठें, त्यूं-त्यूं नीचे नैन।’ कितनी भी करवा लो हमसे। हम करेंगे किसी की तारीफ़, तभी तो कोई हमारी करेगा वरना हममें कौन से सुरखाब के पर लगे हैं। ग्यारह नंबर की गाड़ी को रिवर्स गेयर में डाला और उधर चल दिये जहाँ से आवाज आ रही थी। दोस्त हमारा, उम्र में लगभग बराबर, अक्ल में हमसे ज्यादा और पगलैटी में हमसे काफ़ी कम था। उसने घड़ी दिखाई भी कि ग्यारह बज गये हैं, देर हो जायेगी। लेकिन हम तो हम थे जी उस समय(अब नहीं रहे), नहीं सुनी उसकी फ़रियाद। नतीजतन वो भी बेचारा हमारे साथ घिसटता हुआ चल दिया मंज़िले मकसूद की तरफ़।
वहां पहुंच कर देखा तो चार पाँच रिक्शेवाले बैठे हुये थे और एक बीस बाईस साल का लड़का पूरे खुले गले से गाना गा रहा था। हमारे वहां पहुंचने तक उसका गाना आधे के लगभग खत्म हो चुका था। मैं भी वहीं एक ईंट पर बैठकर उसका गाना सुनने लगा। आज पन्द्रह सोलह साल बीतने के बाद भी कानों में वो आवाज गूंजती है।
यादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
आते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
लकड़ी के घरों को, चिरागों से न करो रोशन,
लग जाती है जब आग, वो बुझाने नहीं आते।
यादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
आते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
उस लड़के के बिना कमीज के काले-दुबले बदन से एक-एक हड्डी-पसली गिनी जा सकती थी। दर्दभरी आवाज उसकी गूंज रही थी, लेकिन वो खुद जैसे वहां मौजूद ही नहीं था। गाना खत्म करके जब उसने मुंह हमारी तरफ़ किया तो उसकी आँखे पथराई हुई थीं, आँसू सारे चेहरे को भिगोकर गर्दन तक पहुँच रहे थे। मैंने उसका नाम पूछा तो वो ऐसे भावशून्य सा बैठा हुआ था जैसे कि उसे सुनाई ही न देता हो। साथी रिक्शेवालों में से एक ने बताया, “बाबूजी, ये ऐसा ही है। न किसी से कुछ माँगता है, न कुछ बताता है।” मैंने पूछा भी कि खाना-वाना खिला देते हैं इसको तो उन्होंने मना कर दिया कि नहीं खायेगा। मैंने जब उसकी इतनी अच्छी आवाज और उसके रोने के बारे में पूछा तो उसी साथी ने बताया, “जी, वही प्यार-व्यार के चक्कर में दिल पे चोट खा गया है। इसकी आवाज सुनकर एक बार एक कैसेट कंपनी के बाबूजी भी इसको ले जाना चाहते थे, पर गया नहीं। चला जाता तो जिन्दगी बन जाती इसकी, पर पागल ही है, नहीं माना।” उस दिन मैंने दिल से उसकी मदद करनी चाही कि कुछ खा ले, या इसकी जिन्दगी कुछ व्यवस्थित सी हो सके, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उधर मेरा मित्र बार बार और हर दो मिनट में मुझे वहाँ से ले चलने में लगा हुआ था। शायद इन बातों में उसे अपना स्टैंडर्ड गिरता हुआ दिख रहा था। और मैं भी कहां कुछ कर पाया था? उठकर चल ही तो दिया आराम से सोने के लिये। शायद उम्र का तकाज़ा था कि मन में कुछ कर गुजरने की आती जरूर थी पर फ़ैसला नहीं ले पाता था।
आज भी मुझे उस लड़के की आवाज, आंसू, आँखें हांट करती हैं, भूल नहीं पा रहा हूं और न समझ पाया हूं आज तक कि उसकी आवाज और आँखों में से ज्यादा दर्द कहाँ से छलक रहा था। अभी तीन चार दिन पहले अचानक ही उस पुराने मित्र का फ़ोन आया तो मैंने उसे इस घटना की याद दिलाई, वो अच्छी तरह से याद नहीं कर पाया। कहने लगा कि कुछ कुछ याद तो आ रहा है पर पूरी तरह से नहीं और फ़िर मेरी बात बीच में ही काटकर खुशखबरी देने लगा कि छोड़ यार वो बात, अपना वेज रिवीज़न हो गया है, सेलरी पता नहीं कितनी बता रहा था कि बढ़ जायेगी। मैं क्या कहता, कह दिया कि यारा अपनी भूख और भी ज्यादा बढ़ जायेगी।
तभी तो मैं पुराने लोगों से और पुराने लोग मुझसे बात नहीं करते। मेरी कमियाँ सब जाहिर हैं न उनके आगे।
अब आज का सवाल: ईनाम विनाम कोई नहीं मिलता है हमारे यहां, कोई जवाब देना चाहे तो बेशक दे दे। आज का प्रलाप क्या कहलायेगा, कॉमेडी, ट्रैजेडी, कॉटटेल या नन ऑफ़ दीज़?
:) फ़त्तू ने कंधे पर अपनी जेली(भालानुमा लाठी, जिसके सिरे पर तीखे फ़लक लगे होते हैं, और जो बनी तो तूड़ी वगैरह निकालने के लिये थी पर उसका उपयोग सबसे ज्यादा लड़ाई झगड़े में किया जाता है) रखी हुई थी और वो शहर में पहुंचा। एक दुकान पर उसने देखा कि एक मोटा ताजा लालाजी(हलवाई) चुपचाप बैठा है और उसके सामने बर्फ़ी से भरा थाल रखा था। फ़त्तू ने देखा कि लालाजी बिना हिले डुले बैठा है तो वो अपनी जेली का नुकीला हिस्सा एकदम से लालाजी की आंखों के पास ले गया।
लालाजी ने डरकर अपना सिर पीछे किया और बोले, "क्यूं रे, आंख फ़ोड़ेगा क्या?"
फ़त्तू बोला, "अच्छा, इसका मतलब दीखे है तन्ने, आन्धा ना है तू।"
लालाजी, "तो और, मन्ने दीखता ना है के?"
फ़त्तू, "फ़ेर यो बर्फ़ी धरी है तेरे सामने इत्ती सारी, खाता क्यूं नहीं?"
लालाजी, "सारी खाके मरना थोड़े ही है मन्ने।"
फ़त्तू, "अच्छा, खायेगा तो मर जायेगा?"
लालाजी, "और क्या?"
फ़त्तू ने बर्फ़ी का थाल अपनी तरफ़ खींचा और बोला, "ठीक सै लालाजी, हम ही मर लेते हैं फ़िर।"
सबक: सब का माईंडसेट अलग है। फ़त्तू के लिये ये सोचना भी दुश्वार है कि बर्फ़ी सामने रखी है तो कोई आदमी खाये बिना रह सकता है। फ़त्तू विद्वान है, या फ़िर घोषित विद्वान फ़त्तू होते हैं। हम तो मान चुके हैं, आप भी मान लेंगे तो सुखी रहेंगे।
लकड़ी के घरों को, चिरागों से न करो रोशन,
जवाब देंहटाएंलग जाती है जब आग, वो बुझाने नहीं आते।
Wah,
एक बार तो मन किया कि मान लेते हैं, पर फ़िर अपने संस्कार न भूलते हुये बड़ों की बात न मानने की अपनी परंपरा कायम रखी और रेलवे स्टेशन के दूसरी तरफ़ यानि शहर के एकदम दूसरे कोने में जाकर डेरा जमा लिया। -कॉमेडी
आज भी मुझे उस लड़के की आवाज, आंसू, आँखें हांट करती हैं, भूल नहीं पा रहा हूं और न समझ पाया हूं आज तक कि उसकी आवाज और आँखों में से ज्यादा दर्द कहाँ से छलक रहा था। -ट्रैजेडी
लालाजी, "तो और, मन्ने दीखता ना है के?"
फ़त्तू, "फ़ेर यो बर्फ़ी धरी है तेरे सामने इत्ती सारी, खाता क्यूं नहीं?"-कॉटटेल
सबक: सब का माईंडसेट अलग है। फ़त्तू के लिये ये सोचना भी दुश्वार है कि बर्फ़ी सामने रखी है तो कोई आदमी खाये बिना रह सकता है। फ़त्तू विद्वान है, या फ़िर घोषित विद्वान फ़त्तू होते हैं। हम तो मान चुके हैं, आप भी मान लेंगे तो सुखी रहेंगे।-नन ऑफ़ दीज़?
:) :)
बहुत रोचक पोस्ट...आपकी लेखन शैली इतनी प्रभाव शाली है के पोस्ट पूरी किये बिना बीच में उठना असंभव हो जाता है...तंज़ और गहराई लिए हुए कही बात सीधे दिल पर चोट करती है...आपकी लेखनी को नमन करता हूँ...
जवाब देंहटाएंनीरज .
अच्छा संस्मरण रहा.
जवाब देंहटाएंकुछ यादें ता जिन्दगी पीछा नहीं छोड़ती...
अब हम क्या कहें? वैसे लिखना तो वही है जो कुछ भी कहने लायक ही न छोड़े. (फत्तू की ज़रुरत भी समझ में आयी. सही combination है.)
जवाब देंहटाएंजवानी में ऐसी बहुत बातें हो जाती है जो जिंदगी भर याद रहती है ...
जवाब देंहटाएंयादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
जवाब देंहटाएंआते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
बहुत सही... मजा आ गया... बेह्तरीन संस्मरण...
Jo bhi hai...aapne nishabd kar diya...aapke saaath,aapkee yadon me ham gote khate rahe!
जवाब देंहटाएंA little bit of tragedy what i see
जवाब देंहटाएंA little bit of commedy bhi hai jee
A little bit of cocktail that i found
A little bit को छोडो पूरा लेख है sound
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जवाब देंहटाएंbahtrin
जवाब देंहटाएंbahut sundar geet
पुराने दोस्त कभी तो इतने याद आते हैं, इतने याद आते हैं कि दिलोदिमाग पे छा जाते हैं। और आपके दोस्त हैं कि आप उन्हे भूलने की कोशिश करते हो। बढिया है जी।
जवाब देंहटाएं"मो सम कौन " ठीक ही है ! वाकई तुम्हारे जैसा कोई नहीं .....ऐसे ही बने रहो, यह धरती सुन्दर लगेगी ! शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंयादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
जवाब देंहटाएंआते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
लकड़ी के घरों को, चिरागों से न करो रोशन,
लग जाती है जब आग, वो बुझाने नहीं आते।
यादों से वो गुज़रे जमाने नहीं जाते,
आते हैं नये लोग, पुराने नहीं आते।
बेहद दिलचस्प...
आनन्ददायक ।
जवाब देंहटाएंसंस्मरणात्मक रूप से यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी... दिल को छू गई... और फत्तू के तो क्या कहने .........हम तो फत्तू फैन हो गए हैं.... उसका भोलापन देख कर मज़ा आ जाता है... किशोर दा को सुन कर और भी अच्छा लगा.... यह मेरा पसंदीदा गाना है... आपका लेवल बहुत हाई है... .
जवाब देंहटाएंपता नहीं मैं कैसे लेट हो गया....?
जवाब देंहटाएंसंस्मरणात्मक रूप से यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी... दिल को छू गई
जवाब देंहटाएंएक बच्चा मेरी भी आँखों से ओझल नही हो पाता .........राँची मे देखा था मैने ....१९९०-१९९१ मे उसे ............तब कुछ कर नहीं पाई......और आज तक कुछ कह नहीं पाई ........
जवाब देंहटाएंबीयर, रम, व्हिस्की, वाईन, वोदका अर इसमै जगाधरी नंO वन सारी मिला राखीं सै आपनै
जवाब देंहटाएंपोस्ट बहुत अच्छी लगी जी
राम-राम
यकीन मानिए, हिन्दी ब्लॉगरी कई नई अनाम विधाओं को चुपचाप सँवार रही है। जन्म भी इसी ने दिया।
जवाब देंहटाएंकमाल का लिखे हैं आप ! अधिक लिखूँगा तो फत्तू की उपाधि मिल जाएगी :)
हमेशा की तरह एक ठो सवाल दिमाग में आ गया सो कहते हैं (पूछने की हिमाकत ब्लॉग जगत में, वह भी अल्ल सुबह!, कौन करे?)
प्यार में सताए/हुटकाए पुरुष ही क्यों गली गली पगलाए फिरते पाए जाते हैं, नारियाँ क्यों नहीं? नारीवादी बातों की प्रतीक्षा रहेगी। अपना दिमाग तो कह रहा है," क्यों कि नारी कुछ अधिक ही सहन कर लेती है। शिव का विषपायी चरित्र अर्धनारीश्वर के नारी वाले हिस्से से आया होगा।"
..आप के लेखन की आत्मीयता ने बहुत प्रभावित किया।
संजय ,पहली बार आपके ब्लॉग पर आया -बहुत अच्छा लिखते हैं आप -यह लेखनी इसी तरह सुरसरि सम सबका कल्याण करती रहे ....
जवाब देंहटाएंविकल असहाय अनुभूति तब होती है जब हम सड़क के इन असली "अर्चिंस " के लिए कुछ नहीं कर पाते .....यद्यपि उन्हें इस बात की अपेक्षा नहीं रहती मगर फिर भी मानवता न जाने क्यूं उनके लिए दर्वाज्र बंद रखती है -मैं ८७-८९ के दौरान झांसी में था एक
मजदूर जो दिन भर गारा माटी धोता था ..शाम को इतना सस्वर गायन करता था की लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे -आला अधिकारियों के कान तक खबर गयी -उसे सुना गया -सबने कहा कि उसके लिए कुछ जरूर किया जाएगा ...मगर फिर वही धाक के तीन पात -
जिसकी कुदरत ही बिगाड़ देती है उसका भला कौन करे भला !
गिरिजेश जी ,आपको सड़कों पर यदा कदा पगलाई औरतें नहीं दिखती ? अब ऐसे पुरुषवादी भी मत बनिए !
यादों को व्यक्त करने का बेहतर तरीका... बढ़िया पोस्ट, बढ़िया रचना....
जवाब देंहटाएंaap ko padhkar to nahin lagta ki aawaragi ke din lad gaye hai. dhanyvad.
जवाब देंहटाएंसब कुछ!
जवाब देंहटाएंउम्दा संस्मरण! इसे किसी एक शैली में बांधना अन्याय होगा!
आप मेरे प्रदेश में रह आये, मैं आपके प्रदेश में रह रहा हूँ!
सब कुछ!
जवाब देंहटाएंउम्दा संस्मरण! इसे किसी एक शैली में बांधना अन्याय होगा!
आप मेरे प्रदेश में रह आये, मैं आपके प्रदेश में रह रहा हूँ!
@गिरिजेश राव
जवाब देंहटाएंप्यार में सताए/हुटकाए पुरुष ही क्यों गली गली पगलाए फिरते पाए जाते हैं, नारियाँ क्यों नहीं?
पगली के बारे में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की मानसिक हलचल भूल गए क्या?
संजय जी ,
जवाब देंहटाएंकिसी अंग्रेजी विद्वान ने कहा है style is the man या ऐसा ही कुछ. आपकी पोस्ट पढकर कह सकता हूँ-- आपकी शैली नितांत मौलिक है. विशुद्ध हास्य का उदाहरण . बधाई .
हाँ भाई आपसे रिश्तेदारी पक्की ।
जवाब देंहटाएंहवा के साथ उडे तो क्या उडे , खिलाफ़ उडे तभी तो लोग कहे कोइ उडता है .
जवाब देंहटाएंबहुत खूब तो लिखते ही हो आप पहले से . रोज़ धार दार भी हुये जाते हो .
आपकी रोचक लेखनशैली ने बहुत प्रभावित किया. पढ़ना जब बंद किया तो रेलवेस्टेशन के लड़के का काल्पनिक चित्र आँखों के सामने घूमता रहा.
जवाब देंहटाएंहोश आया तो सोंचा बधाई दे दूं.
..वाह!
अरे वाह, आप तो गागर में सागर भर लाए हैं।
जवाब देंहटाएं--------
कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
चिट्ठी का कुछ भाग गुलाबी रंग से लिखा है। लेकिन वह मेरी पढ़ाई में ठीक से नहीं आ रहा है। शायद उम्र के कारण आंखें कमजोर हैं।
जवाब देंहटाएंलेकिन काले रंग से ही लिखें चाहें तो इटैलिक्स में कर दें तो शायद ज्यादा अच्छा हो।
🙏
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