“हमेशा की तरह एक ठो सवाल दिमाग में आ गया सो कहते हैं (पूछने की हिमाकत ब्लॉग जगत में, वह भी अल्ल सुबह!, कौन करे?) प्यार में सताए/हुटकाए पुरुष ही क्यों गली गली पगलाए फिरते पाए जाते हैं, नारियाँ क्यों नहीं? नारीवादी बातों की प्रतीक्षा रहेगी। अपना दिमाग तो कह रहा है," क्यों कि नारी कुछ अधिक ही सहन कर लेती है। शिव का विषपायी चरित्र अर्धनारीश्वर के नारी वाले हिस्से से आया होगा।"
मेरी पिछली पोस्ट पर गिरिजेश राव जी के कमेंट का यह संपादित भाग है, और हमेशा की तरह अपना फ़्यूज़ उड़ गया। खुशी और तारीफ़ बरदाश्त नहीं होती है अब अपने से। उस पर तुर्रा ये कि अनुराग शर्मा जी भी कोंच गये दोबारा से। अब चांद सूरज को भी हम जैसे रोशनी दिखायेंगे? अब साहब, हम तो यहां खुद सवालों के जवाब तलाशते हुये अपनी तशरीफ़ का टोकरा लेकर आये थे, ऐसे जटिल सवाल पूछकर क्यूं पब्लिक में मेरा हैप्पी बड्डे करवाने पर तुले हुये हो? हमें इतनी समझ होती तो हमीं क्यों ऐसे पगलाये-पगलाये बस्ती-बस्ती, नगरी-नगरी घूम रहे होते? हमने कौन सा गधी को हाथ लगाया था? हां, एक परी को जरूर कभी पाया था अपने नजदीक, ये पाना या खोना ही तो हमें ले बैठा था। वैसे ज्ञानी लोग तो ये भी कहते हैं कि जवानी में गधी भी परी लगती है। अब हम इस बात में भी शुरू से ही कन्फ़्यूज थे कि जब गधी पर जवानी होती है तब वो परी लगती है या जब देखने वाले पर जवानी होती है तब हर गधी परी लगती है।ये खुलासा करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना बताना है जी कि हमारे लक्षण शुरू से ही ठीक नहीं थे। हर बात पर सवाल उठा देना हमारी बहुत पुरानी आदत है। ठीक है जी, समरथ को नहीं दोष गुंसाईं। बाकी इतना जान लीजिये बड़े भाईयों, हमें उलझाकर आप को इतनी आसानी से नहीं जाने देंगे। अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार जो सूझेगा, खिदमत में पेश करेंगे। लेकिन उससे पहले, हमें झेलो थोड़ा सा। मार्केटिंग का जमाना है, अब फ़ंसे हो तो पैकेज लेना ही पड़ेगा आपको। थोड़ी सी आपकी मनपसंद बात करेंगे और उससे पहले अपनी बहुत सी मनपसंद बकवास उंडेलेंगे।
एक बार की बात है कि हमारे एक अधिकारी के विरुद्ध स्टाफ़ के ही किसी ने ऊपर शिकायत कर दी कि वे लोगों को चैक-बुक देने की एवज में भी कुछ न कुछ हाथ गीले कर लेते हैं। अनौपचारिक बातचीत में मैंने उनसे सच्चाई पूछी तो उन्होंने और बातों के साथ एक बात और कही, “यार, ये लोग नहीं भेड़े हैं और इन्हें अपने बाल मुंडवाने ही हैं। मैं नहीं उतारता तो कहीं और से उतरवाते।” डॉयलाग मुझे पसंद आया। सोच लिया कि कहीं न कहीं इस्तेमाल करना है जरूर, आज मौका हाथ आ गया है। गिरिजेश सर और अनुराग सर, हम सब में ही शायद भेड़्त्व है, जिसमें मात्रा कुछ ज्यादा है वही पगलाया घूमता दिखता है और यह भी तय है कि प्यार के कारण नहीं तो किसी और कारण से होता पर अंजाम यही होना था। गिरिजेश जी की बात से मैं भी सहमत हूं और हो सकता है कि इन मामलों में सहानुभूति भी औरत के हिस्से में ज्यादा आती है जो शायद उद्वेग के सुरक्षित डिस्चार्ज में अहम रोल निभाती है। समय नारी मुक्ति का है, जमाने का फ़ोकस भी नारी के साथ होने वाले अन्याय पर ज्यादा है, लेकिन झेलता आदमी भी कम नहीं है। एक उदाहरण और देना चाहता हूं। यदि किसी दम्पत्ति के घर संतान नहीं होती है तो इस बात पर औरत को क्या क्या सुनना और सहना पड़ता है, हम सब जानते हैं। पति पर क्या बीत रही है, इस विषय पर फ़ोकस करते हुये मैंने आज तक कोई विशेष फ़िल्म, सीरियल, कहानी, उपन्यास, बहस नहीं देखी है। वास्तविक जीवन में मेरे ऑफ़िस में एक स्टाफ़ सदस्य ऐसे थे जिनकी शादी को कई साल बीतने के बाद भी कोई संतान नहीं थी। संयोग से हमारी ब्रांच में महिला सदस्य नहीं थीं, तो बोलचाल में कोई राशनिंग नहीं रहती थी। फ़ुर्सत के समय में सभी का मनपसंद विषय इसी मुद्दे पर चटखारे लेना होता था और किस हद तक वार किये जाते थे, ये अगर लिख दूं तो शायद ’मो सम कौन कुटिल, खल, कामी’ से कहीं बड़ी और सुपरलेटिव डिग्री से नवाज दिया जाऊंगा। मैं वहां सब से जूनियर था और मुंह बाये देखता रहता था कि लोग ऐसा कैसे बोल जाते हैं और जो पहले से ही परेशान है वो कैसे झेल जाते हैं? झेलना तो शायद स्त्रियों को इससे ज्यादा ही पड़ता होगा लेकिन उनके पास रोने की सुविधा तो है, आदमी के पास तो यह सेफ़्टी वाल्व भी नहीं है। वहां एक दिन फ़िर ऐसे ही बात छिड़ने पर जब हमारे एक साथी ने जब ’बिलो द बेल्ट’ प्रहार किया तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उससे ही पूछा, “………………., एक बात बताओ, तुम जो ये अपने बारे में बताते हो कि मेरे दो बच्चे हैं, क्या गारंटी है कि ये तुम्हारे ही हैं?” एकबारगी तो सन्नाटा छा गया, क्योंकि मैं बोलता बहुत कम था, बस उस दिन रहा नहीं गया था। तमतमाये चेहरे से उस मित्र ने पूछा, “क्या कहना चाहते हो?” मैं भी ऐसा ही बावला था, या तो बोलता नहीं था और शुरू हो गया तो अंजाम की कोई परवाह नहीं। मैंने कहा, “मैं ये जानना चाहता हूं कि जिन बच्चों को तुम अपना बताते हो, क्या गारंटी है कि ये तुम्हारे ही हैं? और साथ ही ये भी जानना चाहता हूं कि जिस आदमी का नाम तुम अपने पिता के नाम पर बताते हो, इस बात की क्या गारंटी है तुम्हारे पास कि वही तुम्हारा बाप है? जिस संतानोत्पादक क्षमता क दम पर तुम खुद को दूसरे से श्रेष्ठ मान रहे हो, इसके लिये तुम्हें खुद पर इतराने का और दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हो, इसमें तुम्हारा अकेले का योगदान शायद नाममात्र का ही है,।” बात आगे नहीं बढ़ी, और आगे भी इस मुद्दे पर खुलकर किसी ने कोई बात करनी बंद कर दी।
ये नाकाम प्यार जैसे मामलों में प्रभावित स्त्री या तो निरुपमा जैसी परिणति को प्राप्त होती है, या घरवालों के द्वारा आनन फ़ानन में कहीं और ठेल दी जाती है और वहां घर-गृहस्थी के कामकाज और संतान सृजन, लालन पालन जैसी प्रक्रिया से गुजरते हुये अपने संताप को सकारात्मकता की ओर ले जा पाती है। शायद शारीरिक व मानसिक विशिष्टतायें ही नारी को यह मौका देती हैं और यही वजह है कि गली गली पगलाये-पगलाये घूमने वालों में पुरुषों की संख्या कहीं ज्यादा दिखाई देती है। लेकिन, इस बात का कोई अफ़सोस मुझे नहीं है और न ही इस मामले में स्त्रियों को आरक्षण देने की मैं कोई मांग करने जा रहा हूं। अगर किसी के बाल उतारने ही हैं, तो जी हम भेड़ें ही ठीक हैं(सारे मर्द लोग हां भरो फ़टाफ़ट) इस काम के लिये। हम नर भेड़ों को कोई दर्द नहीं होता है। होगा भी तो कहीं किसी मयखाने मे, किसी कोठे पर या ऐसी ही किसी जगह पर जाकर फ़ाहा लगा लेंगे, आपका क्या होगा जनाबे-आली? और अगर फ़िर भी दर्द असहनीय हो जायेगा तो गली गली में पगलाये फ़िरने वालों की संख्या थोड़ी सी बढ़ जायेगी, बस।
लेकिन इस विषय पर मेरे व्यक्तिगत सलाहकार श्री फ़त्तू जी के विचार थोड़े से भिन्न हैं। मैं चाहता तो उनके विचार ऐसे ही मॉडरेट कर सकता था, जैसे विद्वान लोग असहमति वाली टिप्पणियों को कर जाते हैं, लेकिन ये अच्छी बात है कि हम अभी इतने बड़े नहीं हुये कि…..। जाने भी दो यारों, सब मेरे से ही कहलवा लोगे तो फ़िर आपकी ब्रेन मसल्स की भी आदतें खराब हो जायेंगी। तो फ़त्तू जी का कहना है कि देह को अगर न देखें तो उन्हें तो सभी पागलों में स्त्रियां ही दिखाई देती हैं। जिसके पास स्त्री के नाजुक शरीर(जनरल बात है, कहीं मल्लेश्वरी, कुंजुरानी, सानिया, लैला सरीखी शक्तिरूपा बुरा मान जायें) जैसा नरम दिल है, वही इस दुनिया में बहुत ज्यादा प्यार, दुत्कार, स्नेह, वफ़ा, जफ़ा जैसी चीजें नहीं झेल पाते हैं और बाल, नाखून बढ़ाये पगलाये से घूमते रहते हैं। चलूं यार, मैं भी बाल कटवा आता हूं, बहुत बढ़ से गये हैं।
वैसे फ़त्तू ने इस विषय पर स्टिंग आपरेशन करके फ़ाईनल रिपोर्ट देने का वायदा किया था और वायदे के अनुसार स्पत्नीक दिल्ली के दौरे पर गया था।पता नहीं क्या हुआ कि दूसरी शाम को पत्नी को वापिस घर छोड़ने आया और फ़िर सुबह सुबह दुबारा फ़ील्ड में चला गया था। अब वो अपनी रिपोर्ट हमें कोरियर से भेज रहा है, दो तीन रिपोर्ट्स आये हैं, लेकिन कुछ गड्डमगड्ड सा हो गया है, देख लेना समझ आये तो। कुछ स्टेज 1, स्टेज 2, और स्टेज 3 टाईप का चक्कर है, आज का वीडियो(यूट्यूब से साभार) शायद स्टेज 2 का है, जहां आदमी पागल होने से बच जाता है, ये अलग बात है कि जिंदा नहीं बच पाता है। ये गाना मेरा बहुत फ़ेवरेट है, ड्रीम गर्ल शायद इससे ज्यादा असरकारक कहीं नहीं रही, कम से कम मेरी नजर में।
दिल्ली से फ़त्तू और उसकी पत्नी के अतिशीघ्र वापसी का जो कारण हमें पता चला है, वो इस प्रकार है।
फ़त्तू और उसकी पत्नी जब दिल्ली पहुंचे तो रात बिताने के लिये पहाड़गंज के एक होटल में चले गये। रिसेप्शन पर लिखा था, ’कमरे का किराया दो सौ रुपये, खाना प्रति व्यक्ति सौ रुपये।’ अब फ़त्तू ने घर से चलने से पहले दस बारह परांठे बना लिये थे(पत्नियां अब नहीं बनातीं, उन्हें बने बनाये मिल जाते हैं)। उसे डील ठीक लगी और रात वहीं टिक गये। सुबह जब चलने का समय आया तो काऊंटर पर बैठे मैनेजर ने चार सौ रुपये का बिल थमा दिया, दो सौ कमरे का किराया और दो सौ रुपये खाने के। फ़त्तू ने ऑबजेक्शन उठाया कि खाने के पैसे काहे के, खाना तो तुम्हारा हमने खाया ही नहीं।
मैनेजर- “सर आपने खाया हो या नहीं हमारा तो तैयार था।”
अब फ़त्तू ठहरा पढ़ा लिखा भी और ताजा ताजा ब्लॉगरिया भी, समझ गया कि होटल वालों का नुक्ता ठीक है। वैसे भी उसका सामान्य ज्ञान ब्लॉग-जगत ने काफ़ी बढ़ा दिया है। उसने वहीं काऊंटर से एक कागज उठाया, कुछ लिखा और मैनेजर को थमा दिया। “ले भाई, एक छोटा सा बिल म्हारा भी है तेरी तरफ़, एक हजार मात्र का। मेरी पत्नी के साथ वन नाईट स्टैंड लेने का बिल – एक हजार ओनली।”
मैनेजर- “पर सर, हमने तो कुछ किया ही नहीं।”
फ़त्तू - “भाई, तन्नै कुछ करया हो के ना, हमारी वाली तो बिल्कुल तैयार थी, धोरे खड़ी है पूछ ले।”
भाई जी, कमाल है! हिन्दी ब्लोगरी अभी-अभी एक बड़ा तुलनात्मक अध्ययन पूरा करके चुकी है और आपने फिर से जूं का जूं [courtesy सिम्पू सिंह] एक नया तुलनात्मक अध्ययन शुरू करा दिया.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंहमारी बोलती बन्द है ;)
जवाब देंहटाएंभेड़त्त्व पर ज्ञान प्रवाह से हम लाभान्वित हुए मुनिवर!
वैसे 'भिड़त्त्व' की काफी सम्भावनाएँ हैं इस लेख में :)
हम तो चुपचाप पढ़ लिए. कुछ कहेंगे नहीं. मगर इत्ता लम्बा आलेख भी एक सांस में पढ्वा गये तो बधाई की जरुर बनती है....गिरिजेश भाई की जहाँ बोलती बंद हो, उहाँ हमारी..हा हा!
जवाब देंहटाएंवाह ! हा हा हा ... सही बात है भेड़ कहीं न कहीं तो अपना बाल उतरवाएगा ज़रूर ! बढ़िया लगा !
जवाब देंहटाएंवैसे तो सर्वप्रथम इस बढ़िया व्यंग्य के लिए बधाई ! हाँ , मैंने सूना था कि भेड़े तो प्रतिकार ही नहीं करती ! कहीं आप भेडियों का जिक्र तो नहीं कर रहे थे ?
जवाब देंहटाएंBolti band hai..aage kya kahen?
जवाब देंहटाएंअजी, हमने तो ऊपर भेड वाला किस्सा पढा ही नहीं, लेकिन फत्तू वाला किस्सा जम गया।
जवाब देंहटाएंअजी
जवाब देंहटाएंइतना लम्बा लेख पढवा दिया मुझे
ज्यादातर इतने लम्बे लेख मैं देखते ही बंद कर देता हूं, आपने पता नहीं क्या लिखा था, बस पढता चला गया;-)
फत्तू नै मेरी राम-राम कह देना जी
khatiya khari kr di. mauj aa.....aa gayi.
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लाँग पर पूर्व टिप् नही थी . हटाने का औचित्य ही नही ।
आपका स्वागत बार बार ।
वाह भैया वाह!!!
जवाब देंहटाएंकहाँ से शुरू करके कहाँ-कहाँ होते हुए कहाँ पहुंचा दिए. लेखनी में ऊ बात है तभी तो हम चुप-चाप उसके साथ चलते गए. कमाल की पोस्ट है.
और गाना मेरा भी बहुत फेवरिट है. मर्दों की जब बात चली तो धरमिंदर जी का गाना ही यहाँ फबता है....:-)
ख़तरनाक व्यंग है .... भई जबरडसड़ लिखते हैं आप तो ...
जवाब देंहटाएंमैं नालायक हूँ...गधा.... हूँ.... दुनिया भर की फ़ालतू पोस्टें दिख जातीं हैं.... और यह इतनी अच्छी पोस्ट छूट गई.....लानत है मुझ पर..... अब आपके ब्लॉग को ईमेल से सबस्क्राइब कर लिया है..... अब से ऐसा नहीं होगा.... हद होती है नालायकी की.... अब ख़ुद को लानत भेजने के अलावा और कर भी क्या सकता हूँ.... ? अबसे ऐसी गलती नहीं होगी.... फत्तू को नमस्कार कहियेगा....
जवाब देंहटाएंअब हम इस बात में भी शुरू से ही कन्फ़्यूज थे कि जब गधी पर जवानी होती है तब वो परी लगती है या जब देखने वाले पर जवानी होती है तब हर गधी परी लगती है।
जवाब देंहटाएंगजब टाईप का कन्फूजन है :)
पोस्ट तो धाराप्रवाह लिखी है।
बाकी तो अपनी भी बोलती बंद है।
हिन्दुस्तान की आम जनता तो भेड़ बनने को मजबूर है.
जवाब देंहटाएंमर्दों की जब बात चली तो धरमिंदर जी का गाना ही यहाँ फबता है
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