आज अपनी एक पुरानी पोस्ट देखी, सोच रहा था कि क्या समय था वो भी, कैसी कैसी बातें होती थीं और हम थे कि मजे चुरा ही लेते थे। एक बार तो सोचा कि उसे ही धो-पोंछकर लगा देते हैं फ़िर से, लेकिन इरादा बदल दिया। आज सुनाते हैं आपको एक और किस्सा - जवानी का एक अन-रोमांटिक किस्सा:)
वो कॉलेज में हमारे साथ पढ़ता था। बहुत कम बोलने वाला, और जब बोलता भी तो इतने नपे तुले और सॉफ़्ट तरीके से कि ऐसा लगता था मुँह से फ़ूल झड़ रहे हों। मेरे ग्रुप के दो लड़कों का स्कूल टाईम का साथी था, यकीनन वो उसके बारे में मुझसे ज्यादा जानते थे। उन्होंने इतना बता रखा था कि बंदा है बहुत ऑब्जर्वर टाईप का। हर चीज को हर उपलब्ध एंगल से जाँचकर कुछ फ़ैसला लेता है।
खैर, यूँ ही वक्त गुजर रहा था कि एक दिन वो मेरे घर आया। अपने को शुरू से ही पढ़ाई करने के लिये एक कमरा छत पर अलग मिला हुआ था, खाने के लिये फ़्रूट वगैरह लेकर बड़ी श्रद्धा से हाथ-मुँह धोकर हम उसमें प्रवेश किया करते थे। बिना तैयारी के हम कुछ नहीं करते थे, घर भर में ढिंढोरा पिट जाता था कि पढ़ाई करने जा रहे हैं और यही हमारा मुख्य उद्देश्य होता था। रेडियो सुनो, टेप रिकार्डर सुनो, डायरी लिखो, कुछ प्लानिंग करो – कोई डिस्टर्ब नहीं करने आता था। तो हमारा मित्र आया और बैठ गया। थोड़ी बहुत बात चीत करते रहे और संतरे खाते रहे।
कुछ देर बाद वो कहने लगा, “यार, एक बात बता। मैं देख रहा हूँ कि जबसे हम संतरे खा रहे हैं, तूने इनके बीज बाहर नहीं फ़ेंके?”
बताया न कि बहुत तगड़ा ऑबजर्वर था, पकड़ ली मेरी आदत। जब से कहानी पढ़ी थी ’seventeen oranges’ मैं भी ट्राई करता रहता था कि कभी वैसी नौबत आने पर मैं कैसे रियैक्ट करूँगा। अब आदत पड़ गई थी और उससे कैसे कहता कि कसैली चीजें और उनके साथ खेलना मुझे अच्छा लगता है? ये आदत तो अब मेरी बन ही चुकी थी कि मैं संतरे के बीज बहुत देर तक मुँह में रखता था, चुभलाता रहता था। अपनी कमी को छुपाने के लिये वही फ़ार्मूला अपनाया जो यहाँ भी चलता है, सामने वाले पर फ़ायरिंग चालू कर दो:)
मैंने उससे हैरान होकर पूछा, “तू फ़ेंक देता है?”
“और क्या करूँगा?”
“अबे, तेरे घर में कोई रोकता टोकता नहीं?”
“क्यों रोकेंगे भाई?”
“कैसे आदमी हो यार तुम?
संतरे की बीजों के चिकित्सीय गुणों पर एक अच्छा सा भाषण पिलाया, जिसमें जातिवाद\प्रांतवाद जैसे मुद्दे भी मिक्स कर दिये। दस मिनट के भाषण के बाद उसको समझ आ गई कि उसके परिवार के सदस्यों के रंग दबे होने के पीछे, कद-सेहत आदि हमारे मुकाबले उन्नीस होने की एक ही वजह है कि उन्हें संतरे के बीजों के गुण नहीं मालूम और वो मलयगिरी के भीलों की तरह चंदन का मूल्य न समझने वाला काम कर रहे हैं। उसे बताया कि सीज़न न रहने पर हम तो पंसारी के यहाँ से संतरे के बीज खरीद कर भी लाते हैं। इफ़ैक्ट लाने के लिये खरबूजे के मगज़, तरबूज के मगज़ की याद दिलाई और वो मान भी गया कि ये सब तो वो भी खरीद कर लाते रहे हैं।
अगले दिन कॉलेज में उसके पहुँचने से पहले मैंने अपने दोस्तों को वैसे ही ये बात बता दी। उसके पुराने सहपाठी कहने लगे, वो तेरी बातों पर यकीन ही नहीं करेगा। वो आया, और थोड़ी देर बाद अतुल को लेकर साईड में चला गया। लौटा तो अतुल ने आँख मारी, ’देखा, कन्फ़र्म कर रहा था।’ एक एक करके जितने पंजाबी पुत्तर थे, उसने सबसे पूछा और सबने अपने अपने तरीके से उल्टे उसे ही धमकाया, "कैसी बेहूदा बात पूछ रहा है, तुझे ये भी नहीं मालूम?"
उस दोपहर मैं तो जरूरी काम होने के कारण घर को खिसक लिया, बाकी मुस्टंडे उसे लेकर बाजार गये। पांच-छह पंसारियों के पास जाकर उसे आगे कर देते थे, “ढाई सौ ग्राम संतरे के बीज देना।” अगले दिन बता रहे थे कि जिस नजर से दुकानदार देख रहे थे, बस कल्पना ही कर सकते हैं।
बाद में जब कभी इस बात का जिक्र छिड़ता तो भी वो हौले से मुस्कुरा देता था। दो तीन कंपीटिशन के एग्ज़ाम देने हम साथ साथ गये थे, मैं पास हो जाता था और वो रह जाता था। मुझे सच में तकलीफ़ होती थी, उसने भूले से भी कभी इस बात का अफ़सोस नहीं जताया जबकि उसे नौकरी की मुझसे ज्यादा जरूरत थी और वो ज्यादा तैयारी भी करता था। अपनी तरफ़ से उसकी मदद भी की, लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिलनी थी तो नहीं ही मिली।
अतुल, जिसका जिक्र ऊपर किया वो प्राईवेट जॉब में ही था लेकिन जगह उसकी प्रभावशाली थी। उसके पीछे पड़ा रहा मैं भी और वो खुद भी इसका कुछ करना चाहता था,अतुल ने उसे एक फ़ाईव-स्टार होटल में एकाऊंट्स के काम के लिये लगवा दिया था। उसके घर उसे बताने गये थे हम दोनों, कहकर उसकी बहन से चाय बनवाई और बाहर जाकर उससे पैसे निकलवाकर देवानंद बने, वो तो एकदम सूफ़ी था – सच में बहुत खुश थे हम दोनों उस दिन और वो वैसा ही, मंद मंद मुस्कुराता हुआ। दो तीन दिन रोज उसके ऑफ़िस के हाल पूछने उसके घर जाते थे कि कोई दिक्कत तो नहीं है? बताता था, "कुछ काम तो है नहीं, घंटा भर ऑफ़िस में बैठना होता है फ़िर निकल जाता हूँ कभी स्विमिंग पूल की तरफ़ और कभी किसी और तरफ़।" और हम हँसते थे कि अच्छे से ऑब्जर्व करने का, आँखें सेंकने का मौका मिला है तुझे। हफ़्ते भर बाद पता चला कि उसने नौकरी छोड़ दी है। सिर पीट कर रह गया अतुल भी, "कोई दिक्कत थी तो बताता तो सही?"
और वो वैसे ही हौले से बोला, “क्या बताता? ऐसी कोई दिक्कत थी ही नहीं, मन घुटा घूटा सा रहता था वहाँ, अनकम्फ़र्टेबल सा लगता था।” ठीक है भाई, रह ले अपने कम्फ़र्ट एरिया में।
कुछ साल पहले ट्रेन में मिला मुझे, कहीं प्राईवेट जॉब ही कर रहा है। पिछली बातें छेड़ीं तो अपने अंदाज में मुस्कुराता रहा, बिल्कुल नहीं बदला है। उसी नौकरी में खुश है, इतना तो अब मैं भी जान ही चुका हूँ कि असली सुख पैसे, नौकरी,पद, सत्ता में नहीं है। जो सरल है, सहज है वही प्रसन्न भी रह सकता है। मैंने संतरे वाली बात के लिये सॉरी बोली, तो वो हँसने लगा कि ये तो साधारण सी बात थी बल्कि और बातों के लिये मुझे धन्यवाद कहने लगा। कह रहा था कि अपने बीबी बच्चों को भी बता चुका है ये किस्सा, उसके घर जाऊँगा कभी तो उसकी बीबी पहचान लेगी मुझे।
“अबे जा, मुझे पहले मैं तो पहचान जाऊँ। आता हूँ किसी दिन”….. :) मेरा सारा अपराध बोध खत्म हो गया था। सुख दुख मन की अवस्थायें ही हैं, वही चीज कभी सुख देने लगती है तो कभी दुख।
ठीक कह रहा हूँ, मान लो। इत्ता उपदेश तो झेलना ही पड़ेगा:)
बहुत खूबसूरत पोस्ट है. शरारत गजब की और उस पर दोस्त साहब का बीजों की गिरी खरीदने जाना. और सुहागा इसमें कि खुशी अन्दर से ही है, state of mind है.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़कर. सीधे सरल लोग अब कम ही मिलते हैं.
जवाब देंहटाएंअरे बाप रे ! ये क्या बता दिया आप ने अपने मित्र को, कभी फलो के बिच नहीं खाने चाहिए नहीं तो पेट में जा कर वहा से पेड़ बन कर बाहर आते है और नाक कान मुंह से उसके फल निकलते है | सुकर है की आपने संतरे खाए थे तरबूज नहीं , नहीं तो सोचिये नाक के दो छेद से दो कानो से और मुंह से बड़े बड़े तरबूज लटके हुए कैसे दिखाई देते | हमने तो बचपन में ये सुना था और आज तक पालन कर रहे है | चलिए आप के बच्चो को अब आप से संतरे मुफ्त मिल रहे होंगे :)))
जवाब देंहटाएं"असली सुख पैसे, नौकरी,पद, सत्ता में नहीं है।"
जवाब देंहटाएं"जो सरल है, सहज है वही प्रसन्न भी रह सकता है।"
"सुख दुख मन की अवस्थायें ही हैं, वही चीज कभी सुख देने लगती है तो कभी दुख।"
--इत्ता उपदेश तो झेलना ही पड़ेगा:)
झेल चुके ......अब देखी जाएगी...
"जो सरल है, सहज है वही प्रसन्न भी रह सकता है।"
जवाब देंहटाएंबीज तो यही है, शाखा-प्रशाखा खुद ही आनी-जानी है।
बढ़िया पोस्ट है। पढ़कर अपनी ही एक कविता याद आई....
जवाब देंहटाएंदुःख के अपने-अपने नगमें
सुख के अपने-अपने चश्में
दिल ने जब-जब जो जो चाहा
होठों ने वो बात कही है
सही गलत है गलत सही है।
आज लम्बा कमेन्ट करने के मूड में हूँ. देखता हूँ कितना लम्बा खींच पाता है:
जवाब देंहटाएं१. हम भी प्राइवेट में ही रह गए. एक दिन बड़े भाई साब से बोला कि अपनी कंपनी में जुगाड़ करवा दीजिये, हम भी तेल बेच लेते उनकी तरह. तो घुमा दिया उन्होंने. अब आप गेस कीजिये ये कौन हैं :)
२. एक बार एक भोज में भण्डार वाले कमरे में एक पिल्ली चली गयी. बाहर लोग खा रहे थे तो भंडार के अंदर जो आदमी था उसे पिल्ली को बाहर निकलना अच्छा नहीं लगा. उसे लगा लोग अशुभ , अशुद्ध इत्यादि मान लेंगे. तो उसने पिल्ली को एक बड़े बर्तन के नीचे ढँक कर रख दिया. भोज खत्म होने के बाद वो भूल गया. किसी ने देख लिया और इस बारे में पूछा तो अब क्या बोलता. उसने कहा: 'अरे तुम्हे नहीं मालूम ! ये तो बहुत पुरानी प्रथा है. लाल रंग की पिल्ली भण्डार घर में ढँक कर रख देने से. भण्डार में कभी कुछ कम नहीं पड़ता.' तब से हर भोज के पहले लोग लाल पिल्ली ढूंढने निकल पड़ते. बहुत दिनों के बाद किसी ने पता करना चालू किया कि ये प्रथा चली कहाँ से. अंततः उस व्यक्ति के पास लोग पहुंचे तो... बोला कि अब आपलोग ही बताओ इससे अच्छा और कर ही क्या सकता था मैं !
३. एक बार एक व्यक्ति तीर्थ पर गया. उसके पास कुछ कीमती सामान था. उसने अपने सामान को रेत में रख दिया. आने पर आसानी से ढूंढ़ पाए इसलिए वहां पर थोडा रेत इकठ्ठा कर दिया. कुछ लोगों ने उसे ऐसा करते देख लिया. उन लोगों को लगा कि ये यहाँ की प्रथा है और ऐसा करने से तीर्थ का फल अधिक मिलता है. जब वो व्यक्ति लौटा तो उसे रेत के कई छोटे छोटे टीले दीखे. उसे समझ में नहीं आया कि उसका खजाना किस टीले में होगा. जब वो टीले तोड़कर खजाना ढूंढने लगा तो लोग उसे पीटने लगे :)
४. एक बार एक ब्लोगर संतरा खाकर.... आगे आपने लिखा ही है :)
५. ये गाना मुझे बहुत पसंद है.
अरे यार इतना बडा कमैंट किया था, ब्लॉगर ने गायब कर दिया। अब दोबारा लिखने का मूड नहीं है। वैसे आज का दिन उतना बुरा भी नहीं है, दो दिन पहले तो एक घंटे में लिखी गयी मेरी पूरी पोस्ट ही ब्लैंक हो गयी थी।
जवाब देंहटाएंप्रेरक किस्म की आपकी यह पोस्ट आज भी बहुतों के ज्ञानचक्षु खोलने में मददगार हो सकती है, भगवान भला करे.
जवाब देंहटाएंसंजय भाई,
जवाब देंहटाएंउपदेश तो झेल लिया .
संतरे के बीज खाना शुरू कर दिया है,
शायद आप जैसा मैं भी लिख पाऊँ अब.
बाप रे बाप! क्या अंदाज है! बेचारे को संतरे के बीज खिला दिए! अच्छी पोस्ट, आनन्ददायक।
जवाब देंहटाएंपढकर आनंद आ गया, बढिया पोस्ट के लिए आभार
जवाब देंहटाएंजो सहज सरल है………
जवाब देंहटाएंझेल लिया जी उपदेश, बल्कि तीर की तरह चुभ गया है भीतर
अब जिन्दगी में कितने सरल-सहज रह पाते हैं यह तो वक्त ही बतायेगा
प्रणाम
पोस्ट पढकर मजा आ गया
जवाब देंहटाएंऐसी चुहल कई बार की हैं। हम कुंवारे थे और मित्र की सुहागरात के दिन उसने जानकारी चाही थी। हमने भी पूरी पूजा करवा दी और लोटे से जल चढवा दिया उससे नवविवाहिता पर :)
प्रणाम
पढ़ाई के पहले इतना कर्म, पढ़ाई उपकृत हो गयी होगी।
जवाब देंहटाएंदेर से आने का फायदा ये हुआ कि पोस्ट के साथ रोचक टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिलीं...
जवाब देंहटाएंबहुत धैर्य रखते हैं....बेवकूफ बनाने में पर एक बड़ा सच कह गए..."जो सहज है...सरल है वो ही प्रसन्न रह सकता है.".
अभिषेक के भण्डार वाले किस्से की तरह ही एक मलयाली फ्रेंड ने बताया था कि...एक साधू हवन कर रहे थे...उनकी बिल्ली तंग ना करे इसलिए उसे एक जगह बाँध देते...अब उनके शिष्य..हवन करने से पहले कहीं से एक बिल्ली ढूंढ कर लाते और पास में बाँध देते फिर हवन शुरू करते.
अनुराग जी की तरह ही...पूरे तीन घंटे लगाकर लिखी गयी एक कहानी की किस्त सेव ही नहीं हुई....सारा दुबारा लिखना पड़ा...:(:(
तुस्सी छा गए संतरे के बीज की तरह.. किशोर दा का एक किस्सा याद आया कि उन्होंने अप्ने ड्राइंग रूम के बीचोबीच ईंटों का बिना पलस्तर किया चबूतरा बना रखा था. जब लोग पूछते कि ये क्या है और क्यों बनवाया है, तो उनका जवाब होता, "नहीं बनवाता तो आप नहीं पूछ्हते ना, इसीलिये बनवाया है.." कुछ दिनों बाद उसको तुडवा दिया.. कमाल का संतरे का बीज वाला दिमाग था उनका..
जवाब देंहटाएंऔर ज्ञान तो हमेशा हम बटोरते हैं यहाँ से!! हल्की बातों में गहरा ज्ञान!!
ाच्छा बच्चे तो आप इतने शरारती थे
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक किस्सा है। शुभकामनायें।
आज राहुल से मेरी बात हो रही थी, एक जनजाति के बारे में जो सब्बल से जमीन खोद कर खेती करते हैं. यह पोस्ट दिल छु गयी. अपना अपना नज़रिया है.
जवाब देंहटाएंसही है :)
जवाब देंहटाएंपोस्ट तो पोस्ट, टिप्पणीयाँ भी मस्त ।
रोचक संस्मरण रहा |
जवाब देंहटाएंसीधे सरल लोग अब कम ही मिलते हैं
जवाब देंहटाएं"सुख दुख मन की अवस्थायें ही हैं, वही चीज कभी सुख देने लगती है तो कभी दुख" विल्कुल सत्य वचन साहब . "Seventeen Oranges " by Bill Naughton पहले कभी नहीं पढ़ी थी. अभी नेट पर ही पढ़ी पर फिर भी संतरे के बीज मुह में दबाये रखने की आदत मेरी भी रही है. हजूर मुझे लगता है ये कहानी नहीं चार नम्बर का प्रभाव है.
जवाब देंहटाएंऔर पुरानी पोस्ट से एक बात याद आई की अपना फत्तू कहीं खो गया है......
जवाब देंहटाएं@‘तू फ़ेंक देता है?‘
जवाब देंहटाएं‘और क्या करूँगा?‘
‘अबे, तेरे घर में कोई रोकता टोकता नहीं?‘
‘क्यों रोकेंगे भाई?‘
‘कैसे आदमी हो यार तुम?‘
इस बातचीत में प्रश्न ही प्रश्न है, उत्तर एक भी नहीं।
अब ऐसी बातचीत को कोई गुल तो ज़रूर खिलाना ही था।
@जब बोलता भी तो इतने नपे तुले और सॉफ़्ट तरीके से कि ऐसा लगता था मुँह से फ़ूल झड़ रहे
हों।
किसी लड़के के लिए कहा गया संभवतः पहला वाक्य....।
संजय जी, बहुत बढ़िया लिखा है।
ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है क़िआप किसी व्यक्ति को लगातार बेवकूफ बनाते जा रहें हैं और वो बनता जा रहा है आप बहुत भाग्यशाली हैं
जवाब देंहटाएं@ अभिषेक ओझा:
जवाब देंहटाएंहैंड्स-अप हैं भाई अपने। नो गैस, लिक्विड, सोलिड। रहस्य से पर्दा आप ही हटायें और ऐसी अग्नि-परीक्षा हमारी लेते रहेंगे तो हमारे ज्ञान-अज्ञान का भरम जल्दी ही उतर जायेगा। आगे आप जीनियस हो ही:)
मूड बना रहे, ऐसे ही खींचते रहें आप।
जो सहज है...सरल है वो ही प्रसन्न रह सकता है...
जवाब देंहटाएंbahut sunder post..
जो सहज है...सरल है वो ही प्रसन्न रह सकता है...
जवाब देंहटाएंbahut sunder post..
:)
जवाब देंहटाएंकब का लिखा कब काम आ जाए कौन जाने
जवाब देंहटाएंअंत में ही जीवन का सारा सार बता दिया 👏
जवाब देंहटाएं