ट्रेन में डेली पैसेंजरी का जिक्र कई बार कर चुका हूँ, ऐसे ही एक सफ़र की बात है - कोई त्यौहार का दिन था| उस दिन सभी स्कूल, सभी कार्यालय बंद थे लेकिन बैंक खुले थे| लौटते में हमारे ग्रुप में सिर्फ दो मेंबर थे, एक मैं और एक शेर सिंह जी| एक सहकारी बैंक में मुलाजिम थे और रिटायरमेंट के नजदीक थे, प्यार-दुलार में सब उन्हें 'बड़े मियाँ' बुलाते थे| हम तो हैं बगुला भगत टाईप के, आसपास कुछ न हो तो आँख बंद करके भगतई का ड्रामा कर लेते हैं जो आगे पीछे काम आ जाता है लेकिन 'बड़े मियाँ' बिना ताश खेले जल बिन मछला हुआ जाते थे| कोच में बैठे एक एक
बन्दे से पूछते थे 'सीप खेलनी आती है?' एक पार्टनर मिल गया, एक और की दरकार थी| अगला स्टेशन आया, फिर वही
कवायद हुई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ|
इसी तरह दो तीन स्टेशन गुजर गए आखिरकार उनकी तलाश पूरी हुई और बाजी जम गई| ताश का पार्टनर मिलने की जो खुशी उनक चेहरे से छलक रही थी, इतनी तो वांछित बहुमत प्राप्त करवा देने वाला पार्टनर दल मिलने पर गठबंधन सरकार के मुख्य घटक दल को भी शायद न मिलती हो|
बार बार मुझसे कहते थे, 'देखा, कोशिश की तो मिल गया न खिलाड़ी? नहीं तो सारा रास्ता बोर होते जाते|'
मैंने कहा, 'ये तो है| वैसे आधा रास्ता तो कट ही गया था, बाकी आधा भी कट ही जाता|'
बड़े मियाँ ने अकर्मण्य, सुस्त, कामचोर, निरुत्साही, जाहिल आदि आदि ढेरों सर्टिफिकेट जारी कर दिए| बहुत प्यार करते थे न हमसे|
इसी तरह दो तीन स्टेशन गुजर गए आखिरकार उनकी तलाश पूरी हुई और बाजी जम गई| ताश का पार्टनर मिलने की जो खुशी उनक चेहरे से छलक रही थी, इतनी तो वांछित बहुमत प्राप्त करवा देने वाला पार्टनर दल मिलने पर गठबंधन सरकार के मुख्य घटक दल को भी शायद न मिलती हो|
बार बार मुझसे कहते थे, 'देखा, कोशिश की तो मिल गया न खिलाड़ी? नहीं तो सारा रास्ता बोर होते जाते|'
मैंने कहा, 'ये तो है| वैसे आधा रास्ता तो कट ही गया था, बाकी आधा भी कट ही जाता|'
बड़े मियाँ ने अकर्मण्य, सुस्त, कामचोर, निरुत्साही, जाहिल आदि आदि ढेरों सर्टिफिकेट जारी कर दिए| बहुत प्यार करते थे न हमसे|
खैर, पत्ते बाँट दिए गए और खेल शुरू हो गया और जिसको वो इतनी शिद्दत से ढूंढकर लाये थे, उस भले आदमी ने इतनी देर में पत्ते पलट कर रख दिए, "मेरा तो स्टेशन आ गया जी, मैं तो अब उतरूंगा|"
बड़े मियाँ के चेहरे की ट्यूबलाईट बुझ गयी, पोपले मुंह से अपनी जनाना सी आवाज में बोले, 'धत मेरे यार, अभी तो खेल का मजा आना शुरू हुआ था और तू उतर भी रहा है|' आसपास जितने बैठे थे और उनकी व्यग्रता का आनंद ले रहे थे, खूब हँसे|
जुलाई २०११ के लास्ट में पंजाब से ट्रांसफर होकर आया था| एकदम नया माहौल, नयी तरह के ग्राहक, यूं कहिये सब कुछ एकदम नया नया सा, अपरिचित सा था| हमें तो आदत थी गाँव-कस्बों की ब्रांचों की, यहाँ पर आकर हर चीज को या तो टुकुर टुकुर देखते रहता था या फिर वही आँख बंद कर लेते थे| अब जाकर धीरे धीरे कुछ पंजे जमने शुरू हुए थे कि अचानक बड़े मियाँ वाला किस्सा याद आ गया, याद दिला दिया गया|
To Cut A Long Story Short , हिस्टरी ने फिर से खुद को रिपीटा|
सफ़र बढ़ गया है जी, दो घंटा रोज| हो सकता है पोस्ट लिखने की और टिप्पणियों की नियमितता कुछ प्रभावित हो लेकिन अभी पीछा नहीं छूटेगा आपका, क्योंकि 'यही कहेंगे हम सदा कि दिल अभी भरा नहीं|'|
हाजिर होते रहेंगे नए पुराने किस्सों के साथ, तब तक जय राम जी की|
....कि मंजिल आ ही जाएगी साथ चलने से ...
जवाब देंहटाएंwah sahab maja aa gaya
जवाब देंहटाएंआपको मजा आया साहब तो हमें भी मजा आया, शुक्रिया आपका|
हटाएंअगर ताश न होते तो डेली पैसेंजर्स का न जाने क्या होता!
जवाब देंहटाएंताश न होती तो अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो करते लेकिन कुछ न कुछ जरूर करते, हमारी गाडी में फिर से चढ़ने के लिए धन्यवाद सरजी:)
हटाएंभेरी सैड (वर्तमान शाखा के लिये)!
जवाब देंहटाएं:(
लगता है भारतीय रेल को आपका साथ भा गया है।
भेरी सैड (वर्तमान शाखा के लिये)!:( ?
हटाएंहाय अल्लाह, ये दिन भी देखने थे:( वर्तमान शाखा में रिपोर्ट करने के बाद ही सूचना दी थी जी:)
रेल का नहीं जी, विक्रम वेताल वाला साथ है :(
@ताश का पार्टनर मिलने की जो खुशी उनक चेहरे से छलक रही थी, इतनी तो वांछित बहुमत प्राप्त करवा देने वाला पार्टनर दल मिलने पर गठबंधन सरकार के मुख्य घटक दल को भी शायद न मिलती हो।
जवाब देंहटाएंलेख् का सबसे ज्यादा दमदार अंश, एकदम हरिशंकर परसाई स्टाइल !
आनंदम्।
प्रणाम वर्मा साहब|
हटाएं24-25 साल पहले मैने एम एस टी होल्डर्स पर पूरी एक कापी लिखी थी। पता नहीं कहाँ गुम हो गई है!:( मैं जब भी आपकी ऐसी पोस्ट पढ़ता हूँ उस कापी की याद आती है। कई बार ढूँढा मगर मिलती नहीं। मिल गई तो पढ़ा के दम लूँगा, कम से कम आपको।:)
जवाब देंहटाएंपढवाओ न महाराज, बहुत कुछ मिलता जुलता होगा जरूर|
हटाएंताश के पत्ते और सफ़र ऐसे ही चलती रहे ....आनंद ही आनंद
जवाब देंहटाएंअब तो ये भी लग्ज़री लगती है गोरख जी|
हटाएंराह ध्येय से अधिक रोचक हो जाती है।
जवाब देंहटाएंअपुन तो वैसे ही सेप्टेम्बर के तले दबे हुए हैं.. बरसों बाद यह सेप्टेम्बर नसीब हुआ है.. सोचता हूँ नसीब खराब थे हमारे!!
जवाब देंहटाएंखैर, ये नयी डेवेलपमेंट का मुझे पता भी नहीं था!! शुभकामनाएं!!
पंद्रह दिन की बात है बड़े भाई, फिर सितम्बर हमारे तले होगा|
हटाएंआशीर्वाद कहा करो आप तो हमें|
आप यहां आते हैं तभी सजती है बाजी.
जवाब देंहटाएंहम यही आपके लिए कहते हैं राहुल जी|
हटाएंआना जाना रुकना ये तो सिलसिला है जिंदगी का
जवाब देंहटाएंकौन कब कैसे कहाँ रुक जाए ये मालिक ही जाने
पहले अरविन्द मिश्रा जी फिर डाक्टर दराल और अब आप ब्लोग्गिं से चोरी छिपे विदा ले रहे हैं.
जवाब देंहटाएंजे बात कुछ ठीक नहीं ....
सूप तो सूप, छननी भी बोले - जे भी अच्छी बात नहीं है:)
हटाएंकोई विदा नहीं, और कोई चोरी छुपे नहीं बन्धु| हम यहीं हैं, बस नई ब्रांच के चलते कुछ अनियमितता की कैफियत दी है| कैफियत की कैफियत और इस बहाने जो याद आया था, वो भी उगल दिया| हमारी तो यही ब्लौगिंग है|
बिल्कुल सही....सूप तो सूप...छननी भी बोले...हां नहीं तो ..मैं पूरी तरह सहमत हूं..
हटाएंहाँ तो री-पीटना शब्द पर अटक गए :)
जवाब देंहटाएंअटकना सही भटकना गलत, इसलिए अटके तो सही ही अटके होवोगे:)
हटाएंरेल का सफ़र कई बार ऐसा होता है आरामदायक सीट मिलने की ख़ुशी पूरी भी नहीं हो पाती कि स्टेशन आ जाता है , जिंदगी की ही तरह !
जवाब देंहटाएंरोचक !
मुझे भी अपने डेली पैसेंजरी के दिन याद आ गए :-)
जवाब देंहटाएंहो जाए एकाध किस्सा आपका भी, वैसे अब तो आपकी वीकली पैसेंजरी या फिर मंथली पैसेंजरी की वेला चल रही होगी :)
हटाएंमजे का ऐसा ही है,हमेशा आनन्द अधूरा ही रह जाता है/लगता है।
जवाब देंहटाएंआप भी तो 'बड़े मियाँ' की व्यग्रता का आनन्द ले रहे थे। :)
आदतों पर निर्भरता हमेशा अतृप्ति का सर्जन करती है।
wah re daily passengari hamne bhee ki hai 14,saal ,ka banwaas kat kar aaye hai .....
जवाब देंहटाएंkahete hai ki bada luf thaa jab kunware the hamtum... usi tarah se daily passengari ka maja hamne bhee bahut liya hai..bade kisse hai is ke...HAMARA TO TAKIYA KALAAM THA NAUKARI TO BAHUT MILTI HAI ..LAKIN GADI AGAR CHOOT GAYEE TO WOH KAL HI MILAGEE....HAM NAUKARI CHODANE KO TAYAAR RAHATE THE LAKIN GAADI CHODANE KO TAYAAR NAHI HOTE THE...
jai baba banaras...
AAP MAHAAN THE, HAIN AUR RAHENGE KAUSHAL BHAI, HAM TO GAADI CHHODNE KO TAIYAAR RAHTE HAIN KAAHE SE KI IS UMAR MEN NAI NAUKRI-SHOKRI TO MILNE SE RAHI :)
हटाएंलो जी, आल इंडिया बकबक ब्लॉग्गिंग अस्सोसिअशन भी बनने से पहले थप होने चली, इस अस्सोसिअशन के भावी/पूर्व प्रधान पर एक चाय का कप बकाया है.
जवाब देंहटाएंखैर हम उधारी की किताब को और मोटा करते चले जाते हैं. :)
मेरे भाई हिस्टरी तो बनी ही रेपीटने के लिए है :)
ठप्प हो चुकी बाबाजी, फायदा ये है की पुरानी ठप्प होगी तभी तो नई बनेगी|
हटाएंबकाये से कौन मुकरता है? हम तो सारी उम्र हाँ भरते रहने को तैयार हैं, तुस्सी खाते किताबें मोटी पतली करते रहो:)
हम्म! होता तो है।
जवाब देंहटाएंपंद्रह दिन तक हमने चक्कर न काटा, उतने में हिस्ट्री रिपीट हो गई।
साक्ष्य रहने में हमारा रिकॉर्ड नहीं सुधरने वाला लगता है।
और कितना सुधरोगे भाई? ख्वामख्वाह खुद को कोसते रहते हो हरदम (मेरी तरह) :)
हटाएंBahut badhiya likhte hain aap.
जवाब देंहटाएं'सीप' के शौक़ीन वृद्ध के साथ बहुत सहानुभूति.
जवाब देंहटाएंदो घंटे में तो दो तीन पोस्ट सोच कर तैयार कर सकते हैं. पौडकास्ट कैसा रहेगा ट्रेन से?
घुघूतीबासूती
सफ़र में आईडिये फूटते हैं लेकिन हर दो मिनट में नए धक्कों से फूट जाते हैं, मेट्रो की पैसेंजरी ऐसी ही है| पोडकास्ट तो अपने बस का बिलकुल नहीं है जी|
हटाएंhistory ripit-ti hai ripit-ne den.......lekin, aap bhi ripit-te rahen......
जवाब देंहटाएंpranam.
हिस्ट्री रिपिट तो हुई....पर आपने ये न बाताय कि आप ताश को कौन सी फड़ सजा रहे हैं ट्रेन में....या कौन सा खेल खेलते हैं..जिसमें दूसरे सहयोगी की आवश्यकता पड़ती है।
जवाब देंहटाएंहैं नहीं भाई, थे| 'सीप' खेला करते थे और उसमें भी 'बेगमपकड़' में अपनी रेपुटेशन अच्छी खासी थी|
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंहम भी तो यही कहते हैं,सबै दिन होत न एक समाना|
हटाएंवैसे दिन न रहे तो ऐसे दिन भी न रहेंगे, मौक़ा मिलते ही फिर से पकड़ लेंगे हम अपनी लय:)
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबहुत खूब! किस्सा भी और आपके पाठकों की टिप्पणियाँ भी - खासकर ये जो 'हाँ नहीं तो' वाली शायराना 'अदा'यगी है, वो आपके दिलचस्प बड़े मियाँ का बड़प्पन बड़ा रही है :)
हटाएंरोजमर्रा की जिन्दगी के छोटे मोटे वाकये भी कई बार गहरी छाप छोड जाते हैं। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंपोस्ट लिखते लिखते लगता है कि मंजिल आ गयी थी उतरने की इसलिए छोटी सी लिखकर ही सरका दी है। बड़े की चाहत है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी|
जवाब देंहटाएंआखिर जीवन की गाड़ी है, सवारियों का चढ़ना-उतरना तो लग ही रहेगा. यादें रहेंगी और जीवन रहेगा.
जवाब देंहटाएंਤੁਹਾਡੇ ਇਸ ਸਫ਼ਰ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਜੁੜਦੀ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਕਵਿਤਾ ਹੈ
ਚਲਦੇ ਚਲਦੇ ਪਤਾ ਨੀ ਕਿਵੇਂ ਏਕ ਦੋਸਤ ਮਿਲ ਗਿਆ
ਉਡਾਰੀ ਦੀ ਜਿੰਦੜੀ ਦਾ ਹਮਸਫ਼ਰ ਮਿਲ ਗਿਆ
ਏਹੇ ਜਿੰਦੜੀ ਕਿਸ ਵੇਲੇ ਮੁਕ ਜਾਵੇਂ
ਕਦ ਹੋ ਜਾਇਏ ਸ਼ਿਕਾਰ
ਜੋ ਕੇ ਤੁਸੀਂ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ ਰਹ ਕੇ ਆਏ ਹੋ, ਤਾਂ ਮੈਂ ਵੀ ਪੰਜਾਬਣ ਹਾਂ. ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਪੇਲੀ ਪੋਸਟ ਲਿਖੀ ਹੈ. ਤੁਸੀਂ ਤੇ ਅਸੀਂ ਬੈੰਕਿੰਗ ਸੇਕਟਰ ਦੇ ਹਾਂ. ਫਿਰ ਏਕ ਵਾਰ ਬਲੋਗ ਤੇ ਆਉਣ ਦੇ ਕਿਰਪਾ ਕਰੋ
ਉਡਾਰੀ ਦੋਸਤੀ ਦੀ !!!!
https://udaari.blogspot.in
ट्रेन से रोज एक ही समय पर यात्रा करने वालों का घर से बाहर का अपना एक अलग ही नाता होता है.आप चाह कर भी इसे कोई नाम नहीं दे सकते.किन्तु इसकी टीस इसका स्मरण सदा ही ह्रदय को जिस भाव से भर जाता है ,वह अकथनीय है.हरिद्वार से देहरादून जाने वाली सुबह की पहली गाडी में देहरादून में पढने वाले ,और नौकरी करने वाले लोगों का अपना ही एक शगल हुआ करता था टाइम पास करने का.उनमे से कई ताश खेलने के इतने धसकी होते थे की ट्रेन में घुसते ही आपस में बिना दुआ सलाम किये ,सीधे पत्ते बांटने लगते थे...........आपके लेख ने उन्ही दिनों की याद ताजा करा दी.सरल भाषा सीधे ही अपना काम कर देती है.बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंकाश आपका स्टेशन इतनी जल्दी ना आता तो बडे मियां के कुछ और किस्से सुनने को मिलते ।
जवाब देंहटाएं