कुछ दिन से दिल्ली मेट्रो एमएमएस कांड चर्चा में है। क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ, किसने क्या किया वगैरह-वगैरह। जाँच चलेगी, मुकदमा होगा, कार्यवाही होगी, कानून अपना काम करेगा। मानसिकता बदलने, वर्जनामुक्त होने के साथ संस्कार न छोड़ने की रस्साकशी फ़िर से चलेगी। मेट्रो भी चलती रहेगी, ऐसे कारनामे भी चलते रहेंगे और जिन्दगी यूँ ही गुजरती रहेगी लेकिन कुछ सवाल जरूर खड़े होते रहेंगे मसलन यह वीडियोज़ सही हैं या इनके साथ छेड़छाड़ की गई है?
दोष किसका है, उन जोड़ों का जिन्हें फ़िल्माया गया है या उनका जिन्होंने इन वीडियोज़ का दुरुपयोग किया?
सार्वजनिक स्थान पर की जाने वाली ऐसी क्रीड़ायें क्या वाकई निजता का अधिकार है?
अगर हाँ तो फ़िर सार्वजनिक स्थानों पर यह सब करने वालों को इसमें गलत नहीं लगता तो फ़िर दिखने में क्यूँ गलत लगेगा?
कुछ दिन पहले मित्र गिरिजेश राव ने फ़ेसबुक स्टेटस में पूछा था, "सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम का प्रदर्शन उचित है कि नहीं?" यह मैं अपनी याद्दाश्त के आधार पर लिख रहा हूँ, हो सकता है कि शब्द अक्षरश: यही न हों लेकिन भाव कुछ ऐसे ही थे। विषय विचारोत्तेजक लगा था, मैंने सुझाया भी था कि इस विषय पर अच्छा विमर्श हो सकता है। वहाँ तो बात आई गई हो गई, फ़ेसबुक वैसे भी कुछ ज्यादा ही त्वरित अभिव्यक्ति का साधन है(यही स्टेटस ढूँढना चाहा तो अभी मिला ही नहीं) लेकिन मेट्रो दीवानों ने दिखा दिया कि यह विषय प्रासंगिक है।
एक और फ़ेसबुक स्टेटस देखा था जिसमें एक सज्जन ने दिल्ली के पार्कों में ऐसी बातों की तरफ़ इशारा किया था। क्या हम जैसे इन लोगों के पास भी कोई निजता का अधिकार है?
ब्लॉगिंग में आने के बाद ज्ञानचक्षु काफ़ी खुले हैं, स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि मैंने PDA(Public Display of Affection) के बारे में पहले नहीं सुना था। ये अलग बात है कि इसके बारे में सुनने\पढ़ने के बाद भी अपने विचार बहुत आधुनिक नहीं हुये, अब भी पहले जैसे ही हैं कि कुछ काम पर्दे में ही ठीक हैं। लेकिन हमेशा की तरह यह भी मालूम है कि दुनिया सिर्फ़ मेरे सोचने से बदलने से नहीं रुकने वाली। सदा से बदलाव होता आया है तो समाज में ये बदलाव भी सही।
जब एक के अधिकार दूसरे से टकराने लगें तो समाधान ढूँढना आवश्यक है। वर्जनाहीन समाज, सेक्स एजुकेशन, मानसिकता बदलने जैसे सदुपदेश खूब पढ़ लिये, कुछ प्रैक्टिकल उपाय अपनाये जाने चाहियें। आपसे समाधान पूछने की बजाय पहले अपनी राय संक्षेप में बताता हूँ।
कुछ जनजातीय समाज घोटुल परंपरा का पालन करके अपनी युवा शक्ति को चैनलाईज़ करते ही रहे हैं। वैसे ही मेरी राय में अब समय आ गया है कि सरकार द्वारा कुछ सार्वजनिक स्थान यथा कुछ पार्क या कम्युनिटी सेंटर आदि चिन्हित कर दिये जाने चाहिये और जैसे सिगरेट\तंबाकू आदि के पैकेट पर एक संवैधानिक चेतावनी(अब एक चित्र सहित) रहती है कि ’तंबाकू के सेवन से कैंसर होता है’ वैसे ही इन सरकारी घोटुलों के बाहर एक संवैधानिक चेतावनी टाईप नोटिस लगा रहे कि यह स्थान सिर्फ़ व्यस्कों के लिये है और यहाँ आप अपनी इच्छा से जा रहे हैं।
बाकी तो आप सब समझदार हैं ही, इस सुझाव पर भी सोच देखियेगा ...
लगता है आप और गिरिजेश राव दोनों मुम्बई के सागर तटों की घुमक्कड़ी नहीं की है ......हमारी टींम ने दो दशक पहले ही वर्सोवा बीच पर यही कोई डेढ़ सौ प्रणय स्थल और पचास के लगभग प्रणय गड्ढे (लव पिट्स ) चिह्नित कर लिए थे. और तब भी यह ही स्वीकार्य था और हमें बताया गया था कि पिछले दशकों से भी ऐसा ही आ रहा था ! इस यथार्थ ने हमारी आप सरीखी नौसिखिया प्रतिक्रयावादिता पर लगाम लगा दिया था !
जवाब देंहटाएंन गएँ हों तो घूम आईये विजन ब्राड हो जाएगा -दिव्य दृष्टि खुल जायेगी ....गुमराह नैतिकता को एक राह दिख जायेगी!
गिरिजेश बाबू के बारे में ठीक से कह नहीं सकता लेकिन मेरे बारे में विश्वास से कह सकता हूँ कि आपको जो लगता है, वो अवश्य ही ठीक होगा। आप सरीखी विज्ञान सम्मत सम्यक दृष्टि पाये बिना प्रणय स्थल चिह्नित करने जैसा दुष्कर कार्य मुझ जैसों के लिये तो कई दशक तक संभव नहीं।
हटाएंकुछ के लिये या अधिकांश के लिये स्वीकार्य है तो सभी के लिये स्वीकार्य होना चाहिये, यह भी तो स्वतंत्रता का हनन ही है न? इसीलिये तो मेरा सुझाव उसे विधिसम्मत बनाने का है।
विज़न ब्रॉड होने की जहाँ तक बात है, ऐसे ब्रॉड विज़न को लेकर क्या चाटना जो खुद के व्यक्तित्व और सिर्फ़ अपनी सोच को ही विराट दिखाने लगे। दिव्य दृष्टि जो खुलनी होगी, आसार ऐसे हैं कि आप लोगों की कृपा दृष्टि से यहीं खुल जायेगी।
(:(:(:
हटाएंpranam.
समय तेज़ी से बदल रहा है.
जवाब देंहटाएंबहुत पहले, बंबइ में जब पहली बार लड़कों- लड़कियों को सरेआम हाथ पकड़ कर चलते देखा तो बहुत अजीब / वल्गर सा लगा था क्योंकि हम दिल्ली गांव से वहां पहुंचे थे. पर आज दिल्ली वालों ने दिखा दिया कि वे भी किसी से पीछे नहीं हैं. कभी बंबइ में भी यही शोर हुआ होगा जो आज दिल्ली में मचा है . आम आदमी नज़ारा लेने व स्टेटसबाज़ी के अलावा कुछ नहीं कर सकता ...
हम भी अभ्यस्त हो ही रहे हैं काजल भाई। हाँ, हर आम आदमी अब खास हो चुका है तभी तो नज़ारे ले रहा है।
हटाएंप्रेम की गूढ़ता इस बात से सिद्ध नहीं होती कि उसका सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाये, न उससे प्रेम बढ़ता ही है। एक रोमांच है, जो मन में करने की इच्छा हो आती है। एकांत उकसाता है। उस भीड़ में रहना भी तो एकांत ही है, जहाँ कोई जानता ही न हो।
जवाब देंहटाएंइसीलिये तो मैं तो खुद सरकारी प्रश्रय देने की पैरवी कर रहा हूँ प्रवीण जी कि किसी को रोमांच लेने से क्यों रोका जाये?
हटाएंसही है ..
जवाब देंहटाएंदेखना , लोग इसे गंभीरता से ले लेंगे ! खुशदीप मियां भी मक्खन के साथ मेट्रो में बैठे हुए हैं , कुछ कुछ ऐसा ही, वहा भी है !
विचार होना चाहिए :)
मुझे तो पता था बड़े भाई कि लोग गंभीरता से नहीं लेंगे, सुझाव के गुण-दोष न बताकर टरकाऊलोजी से काम चला लेंगे। हमारी गंभीरता की ऐसी-तैसी ऐसे ही फ़िरती है।
हटाएंखुशदीप मियां मेट्रो में मक्खन के साथ? लाहौल ...:)
समाज के आगे-पीछे विधान और संविधान.
जवाब देंहटाएंसमाज-विधान-संविधान, समाधान इसी में ही होना चाहिये न सर।
हटाएंबंबई में इसे शुरू से ही सामान्य तौर पर लिया जा रहा है अब दिल्ली भी लगता है इस मामले में तैयार हो चुकी है.
जवाब देंहटाएंदिल्ली देश की राजधानी होने के कारण यहां के युवा सियासती और राजनैतिक रैलियों, दांव पेंचों में ही उलझे रहते थे, मेट्रो कांड से समझ आता कि दिल्ली के युवा अब राजनिती से ऊबकर प्रेम और प्यार की तरफ़ बढ रहे हैं.:)
रामराम.
सरकार द्वारा कुछ सार्वजनिक स्थान यथा कुछ पार्क या कम्युनिटी सेंटर आदि चिन्हित कर दिये जाने चाहिये
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव काबिले तारीफ़ है, मेरा एक सुझाव है कि नये कम्युनिटी सेंटर बनाने में खर्चा ज्यादा होगा और रूपये की तबियत भी इन दिनों कुछ ज्यादा ही नासाज है, इसके मद्देनजर "मेट्रो ट्रेन" का नाम बदलकर ही "घोटुल ट्रेन" रख देना चाहिये.:)
रामराम.
युवा वोटर्स की संख्या देखते हुये ये खर्चा कुछ नहीं ताऊ। रामराम।
हटाएंअब देखिये जिन प्रेमी युगलों को दर्शाया गया है उन्हें तो कोई फरक नहीं पड़ा. जबरन इसको एक काण्ड बना कर दूसरे मरे जा रहे हैं. बहश बाजी हो रही है और समय बर्बाद कर रहे हैं. बडे शहर महा घोटुल हैं.
जवाब देंहटाएंबहसबाजी के लिये किसी दुर्घटना के बाद का समय एकदम उपयुक्त होता है।
हटाएं@ अगर हाँ तो फ़िर सार्वजनिक स्थानों पर यह सब करने वालों को इसमें गलत नहीं लगता तो फ़िर दिखने में क्यूँ गलत लगेगा?
जवाब देंहटाएंजी देखना बिलकुल गलत नहीं है किन्तु उनकी वोडियो को चुरा कर या बना कर पैसे के लिए कही लोड कर देना अपराध की ही श्रेणी में आते है । हमारे पिटा ने विवाह होने के बाद मेरी माँ का चेहरा देखा और एक हम आज के ( ठीक है कल के ) महा बेसरम लोग विवाह के पहले घंटो फोन पर बतियाया करते थे , ये सब बदलना नहीं चाहिए था पहले वाला ही ठीक था ।
मै कई दिनों से इस पर पोस्ट लिखने की सोच रही थी , जिसमे कुछ ऐसे विषय भी हो जो लोगो को बड़े अजीब लगे किन्तु ये हमारे ही भारतीय समाज की सच्चाई है , पुराणी और आज की भी ।
जी, पैसे के लिये चुराकर वीडियो लोड करने वाले निश्चित ही अपराधी हैं, उनपर कार्यवाही जरूर होनी चाहिये।
हटाएं@ ये सब बदलना नहीं चाहिए था पहले वाला ही ठीक था
:)
हमारा तो सुझाव है, आंखे मूंदिए और अतिविशाल दृष्टि बन जाईए…… आजकल अनैतिकतावादियों के लिए यह सब स्वछंदता स्वीकार्य है। वैधानिक चेतावनी से क्या होगा, रेव पार्टियों पर रोक, बार डांस पर रोक, बीच आदि पर पुलिस निगरानी! फिर भी यदा कदा अनियंत्रित स्वछंदता प्रकाश में आ जाती है। उच्च वर्ग के निजि फ्लेटों में से भी धरपकड के मामले आते है। क्या कीजिए स्वछंद मानसिकता विधानों को भी स्वतंत्रता के नाम पर धत्ता बताती है। और स्वछंदता प्रसारकों के प्रचार में निजता सार्वजनिक होकर फलती फूलती है। समाज जाए खड्डे में, अपना तो तुच्छ मनरंजन हो गया!!
जवाब देंहटाएंजैसे बीसियों साल पहले तम्बाकू से कैंसर नहीं होता था, अब होता होगा, तब जाकर अब वैधानिक चेतावनियां छपी होती है। फिर भी तम्बाकू के नशैडी, चेतावनी की अवहेलना करके मजे लेते ही है और उपर से तर्क ठोकते है इतना ही बुरा है तो बिकता क्यों है? 'पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए' लाखों तर्क होते है, पीने से दिव्य दृष्टि खुल जाती है, पीने वाला सत्य बोलता है। साहसी हो जाता है आदि, उसे ऐसी नैतिकताएं सहज ही प्राप्त हो जाती है…… वगैरह वगैरह
यदि ऐसे घोटुल गृह बना भी दिए गये तो विरान हो जाएंगे, क्योंकि स्वछंदता प्रेमियों को मजा ही तब आता है जब प्रचुर प्रकट सार्वजनिक हो…………
हम अतिविशाल दृष्टि बन गये तब भी गुमराह ही कहलायेंगे :)
हटाएंअब ये सार्वजनिक माहौल में करना सही है या नहीं इस बारे में मेरा यही मानना है कि हम पहले यह देखें कि यदि बाहर हम अपने माता पिता या भाई बहन के साथ जाते हैं तो क्या दूसरे जोड़ों को ऐसा करते देखकर सहज रह पाते हैं?यदि नहीं तो फिर खुद भी जगह और माहौल का ध्यान रखना चाहिए और दूसरों के लिए न सही तो कम से कम खुद के लिए ही क्योंकि आजकल ये कैमरे हर भीडभाड वाले इलाके में मिल जाते हैं तो आजकल कैमरे वाले मोबाइल भी समस्या है।इन बेवकूफ लडके लडकी ने ध्यान ही नहीं दिया।लेकिन आपका प्रश्न है कि ये लोग बुरा क्यों मानेंगे।पर ऐसा नही है कि ये लोग दूसरों को दिखाने के लिए ऐसा करते हैं बल्कि वो तो खुद छुपने की ही जगह ढूँढते है वो मेट्रो में भी अपनी तरफ से छुपकर ही प्रेमालाप कर रहे होंगे जब भीड़ नहीं होगी पर कैमरों पर ध्यान नहीं गया होगा।अतः नेट पर क्लिपिंग अपलोड कर देने को किसी भी तर्क से सही नहीं साबित किया जा सकता।ये कुछ ऐसा ही है जैसे अभिनेत्रियों के मालफंक्शन की तस्वीरें अखबार वाले साईट पर डाल देते है।अब उस महिला ने ऐसा चाहा तो नहीं था वह तो एक दुर्घटना थी जो पुरुषो के साथ भी होती होगी पर उसे देखने में किसे रुचि है?
जवाब देंहटाएंराजन. व्यक्तिगत रूप से मैं भी बिल्कुल यही मानता हूँ कि हमें व्यवहार वैसा ही करना चाहिये, जैसा दूसरों से अपेक्षा करते हैं।
हटाएंखाली जगह और छुपने की जगह जैसी बातें मुझे सही नहीं लगती। इस बात को मेट्रो ट्रेन की हद से बाहर देखें तो दिन दिहाड़े भी बहुत कुछ होता हुआ दिखता है।
मुझे लगता है कि लोग चाहते बहुत कुछ हैं लेकिन जाहिर नहीं करना चाहते। जैसे होटल\रेस्टोरेंट आदि में अलग से ’स्मोकिंग ज़ोन’ मार्क कर दिया जाता है, ऐसे मामलों के लिये भी सरकार कुछ इंतजाम कर दे तो हो सकता है इन प्रेमियों को भी अपेक्षाकृत सुरक्षित अवसर मिल जायें और जो इन सबसे असहज महसूस करते हैं, उन्हें भी परेशानी नहीं होगी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन रुस्तम ए हिन्द स्व ॰ दारा सिंह जी की पहली बरसी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें ,कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
प्रस्तुत होता हूँ सक्सेना साहब.
हटाएंबहुत ही अच्छा लिखा आपने। बहुत ही सुंदर रचना। ...... रहिये :)
हटाएं... इस विषय पर कोई टिप्पणी नहीं ...
जवाब देंहटाएंचलेगा जी.
हटाएंKya pata premiyon kee kuchh alaghee duniya ban jati hai....maie chalees saal pahle premvivah kiya tha.....mai muslim pariwarse,pati Hindu....sar dhanka rahta tha aur patike saath kursipe baithna chalanme nahi tha....saasu maa ko saath liye ghoomne tak nahi jaa sakte the......aaj mere bachhe...beta aur bahu, chhichhore kapde pahan,hamara koyi ehsaas kiye bina ek dooje ko chipke rahte hai....aur hame ye sab sweekarna padta hai..
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हटाएंया तो विवश होकर स्वीकार करते रहिये या फ़िर विकल्प सुझाईये, वही कोशिश(कच्ची-पक्की जैसी भी है) की है।
पशुओँ में ,माँ-बाप ,भाई-बहन, बच्चों आदि की कोई मर्यादा और लाज-शरम नहीं होती
जवाब देंहटाएंप्राइवेसी की जरूरत भी उन्हें नहीं.वही स्तर आज के आदमी का होता जा रहा है -पर लगाम लगनी चाहिये हमारी संतानों को सुरुचिपूर्ण संसार मिले !
मर्यादा\प्राईवेसी\सुरुचिपूर्ण संसार - सब बदल रहा है।
हटाएंवैधानिक चेतावनी वाला पार्क! बड़ा भयानक आइडिया है। यह तो वैधानिक अनुमति मिलने के बराबर है। दोनो का नुकसान होगा। चोरी-चोरी प्यार करने का मजा जाता रहेगा और दूसरी तरफ नंगई बढ़ जायेगी।
जवाब देंहटाएंदेवेन्द्र भाई, पोस्ट का साईज़ देखकर अंदाजा लगाईये कि सेंसर की कैंची न चली होती तो कैसे कैसे घनघोर आईडिये और पढ़ने को मिल रहे होते।
हटाएंi s m a i l i y e????
हटाएंpranam.
:)
हटाएंमुझे लगता है की प्रेम प्रदर्शन के लिए शारीरिक होने के आवश्यकता नहीं होती। मेट्रो और पार्कों में हो रहा ये सब प्रेम प्रदर्शन नहीं बल्कि कामुकता का प्रदर्शन है जो संक्रामक होता है अतः इस सब पर कड़ा प्रतिबन्ध होना चाहिए। एक प्रेमी जोड़े के लिए शारीरिक प्रेम की अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम स्थान उनका शयन कक्ष ही हो सकता है और कोई जगह नहीं।
जवाब देंहटाएंसैद्धांतिक रूप से शत प्रतिशत सहमत लेकिन कड़ा प्रतिबंध अभी तो कुछ वर्ष और संभव नहीं दिखता, फ़िर अल्लाह जाने क्या होगा आगे...
हटाएंशयनकक्ष वाली बात सब पर लागू नहीं हो सकती क्योंकि सार्वजनिक स्थान पर अभिव्यक्ति के बाद प्रतिभागियों को अपने-अपने रास्ते जाना होता है और वो रास्ता अमूमन एक ही शयनकक्ष को नहीं जाता। इन प्रेम पुजारियों को मार पीट कर तो फ़िलहाल ये सब करने से रोका नहीं जा सकता इसलिये गंभीरता से मैंने एक विकल्प सुझाया है। ऐसा होगा भी एक दिन, हमको है विश्वास।
पहले ऐसा नहीं होता था...ये सोच भ्रामक है..बस आपको पता नहीं चलता था....दूसरे इनकी तादाद कम थी...दिल्ली का बुद्दा गार्डन आज से नहीं दशकों से फेमस था..उल्टा आजकल उसका महत्व घट गया है....क्योंकि मेट्रो है न...ठंडा-ठंडा कूल-कूल...हां तब नेट नहीं था...सूचना के साधन सिर्फ सुनी सुनाई बातों या किसी अखबार पत्रिकाऔं में पढ़कर ही जाना जाता था....ठीक वैसे ही हाइवे किनारे के रेस्टोरेंट तब शहर के पैसे वाले क्षणिक प्रेमियों के आराम के ख्याल से बनाए गए थे। पर वहां कुछ पैसा इक्ठा करके क्षणिक अमीर भी क्षणिक प्रेम का आनंद लेने पहुंच जाते थे। बस सूचना की तेजी ने आपको घर बैठे इतना ज्ञानवान बना दिया है और आपको सूचानाओं के साथ-साथ दृश्य भी दिख जाता है।
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हो महाराज।
हटाएंरेल के सफर में इस प्रकार के करतबों पर मैंने भी लिखा था। पोस्ट का लिंक ढूंढना पड़ेगा। वीडियो बनाकर प्रदर्शन करने वाले से प्रश्न पूछने से ज्यादा उचित है जो लोग सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे कृत्य करते हैं, उनपर कार्यवाही हो।
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट ध्यान आती है।
हटाएंकार्यवाही करने से ज्यादा आसान मानसिकता बदल लेने वाला है, खुद भी आनंद से रह सकेंगे औरों को भी रहने देंगे।
आप सही कहे की गलत ये तो नहीं पता , क्योंकि हम नौसिखिये जो ठहरे !
जवाब देंहटाएंपर एक विराट चेतना-पुंज हैं हमारी जानकारी में जो किसी भी भाग कर शादी करने वाले जोड़े के परिजनों को बाबा आदम के समय से बाहर आकर प्रगतिशील बनने की शिक्षा देते हुए अपने छोरे-छोरियों को अपनाने की सलाह देते थे ---- ये अलग बात है की ऐसे अधिकाँश गन्धर्व विवाह २-३ सालों में ही धराशायी हो गये----- हाँ तो हुआ यह की उन विशाल आँखों वाले सज्जन जी की पुत्रवधू अत्यधिक उदारता का परिचय देते हुए एक विधुर की गृस्थी को पुनर्जीवित करने हेतु चली गयी और उनकी एक पुत्री अपने पिता के उद्दात स्वाभाव को हृदयंगम करते हुए अपने सहपाठी की सहधर्मिणी बन बैठी बेंगलोर में, उदार नैनो वाले महामना आजकल अवसाद में हैं, लकवे का हल्का दौरा इस बीच आ चुका है। (इश्वर स्वस्थ रखे )
सोचता हूँ की आँखों को बड़ी करूँ की फोड़ लूँ ...... टेम मिले तो सलाह दे-दीज्यो :)
कुछ सीख लो , आँखे मत फोड़ो
हटाएंपांच साल में तो नई सरकार बन जाती है , यहाँ जवाब भी नहीं बनी
ये मैट्रो वाले हर स्टेशन पर 4x6 साईज के छोटे-छोटे एक बिस्तर के रुम बनाकर प्रति घंटे के चार्ज किराये पर देने लगे तो दिल्ली मैट्रो एक महिने में मालामाल हो जायेगी।
जवाब देंहटाएंसही है आपकी राय... क्योंकि जो काम परदे के हैं वे अब रोड पर ही होने लगे हैं, आपके और हमारे मना करने से लोग मानेंगे तो नहीं बल्कि हमको ही बुरा भला कहने लगेंगे.. जैसे पुरातनवादी, समाज को १६ वीं सदी में ले जाना चाहते हैं.. इसलिए अच्छा होगा की स्मोकिंग जोन की तरह ऐसे भी जोन बना दिए जायें... नाम ऐसे ही प्राणियों से पूछ कर रख लिया जाये....
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