सोमवार, दिसंबर 27, 2010

एक चादर फ़ैली सी

सरदार राजेन्द्र सिंह बेदी जी की लिखी कहानी पर बनी एक संवेदनशील फ़िल्म ’एक चादर मैली सी’  का एक सीन याद कीजिये -

हेमा मालिनी चौके में बैठकर खाना बना रही है और जब अपने देवर ऋषि कपूर को खाना परोसती है तो वो शरारत से ’थोड़ा सा प्यार’ भी माँगता है। आंखें तरेरती भाभी जब हाथ में पकड़े चिमटे\बेलन या कड़छी से उसे मारने का उपक्रम करती है तो वो हँसते हुये स्पष्ट करता है कि ’थोड़ा सा प्याज़’ ही तो माँगा है।

रिमिक्सिंग का टाईम चल रहा है, आज की तारीख में यह सीन कुछ इस तरह का होता -

हेमा मालिनी चौके में बैठकर खाना बना रही है और जब अपने देवर ऋषि कपूर को खाना परोसती है तो वो शरारत से ’थोड़ा सा प्याज़’  भी मांगता है। खुद को लाचार, बेबस और मजबूर महसूस करती  भाभी खीझ उतारने के लिये   जब हाथ में पकड़े चिमटे\बेलन या कड़छी से उसे मारने लगती है तो वो हँसते हुये स्पष्ट करता है कि ’थोड़ा सा प्यार’ ही तो माँगा है, क्या गुनाह किया है?

बेट्टे, तुझे नहीं पता कि तूने कैसे गुनाह  किया है?  साठ रुपये किलो वाला प्याज़ माँग रहा है, आठ रुपये किलो वाले प्यार की  कोई कदर नहीं तुझे? प्यार सस्ता है और प्याज़ महंगा, फ़िर भी गरीब होकर प्याज़ मांगता है? वैसे हम मध्यमवर्ग वाले हैं बहुत खराब, ड्रामा पूरा करते हैं समाज का हिस्सा होने का लेकिन हमारी कथनी और करनी में कितना फ़र्क है?  होगा प्याज़ हम लोगों की रसोई का एक अहम किरदार, जरा सा महंगा क्या हो गया बस शुरू हो गये सारे सरदारजी सॉरी सरकार जी को कोसने में, जैसे  प्याज़ का रेट उन्होंने ही बढ़ाया हो। प्याज़ के बढ़े रेट दिख गये सबको,  सरकार की नीयत नहीं देखते। ये तो छुपे रास्ते से प्यार का प्रचार-प्रसार करने का फ़ार्मूला निकाला है हमारे कर्णधारों ने।

हम जैसों को तो ये बात अपील कर गई कि प्याज़ महंगा हो गया है तो उसके सस्ते विकल्प ’प्यार’ की तरफ़ ध्यान देना चाहिये।  सब्ज़ी-मंडी में, रेहड़ी-ठेलों में, हाट-बाजार में,  मॉल्स वगैरह में सिर्फ़ प्याज़ की जगह प्यार शब्द को रिप्लेस करके देखिये, कैसा मजा आ जायेगा। ट्रकों में लदकर नासिक का प्यार सारे भारत में सप्लाई हो रहा है, बोरियाँ कंधों पर लादकर जब पल्लेदार लोग प्यार की लोडिंग-अनलोडिंग करेंगे तो कैसे उसकी खुशबू से सरोबार होंगे? ढेरियाँ लगी हैं प्यार की, आवाजें लगा लगाकर बिक रहा है प्यार, ले जाओ बीबीजी –इस भाव में कहीं नहीं मिलेगा, छांट लो अपनी पसंद का प्यार।  आठ रुपये किलो का प्यार खरीदकर थैले में भरकर घर लायेंगे।

 सरकार जी, हम तुम्हारी सपोर्ट में हैं। बायें-दायें(पंथियों) की परवाह नहीं करनी है। जमाखोरों, सटोरियों को भी खाने-कमाने का मौका मिलना ही चाहिये। इनसे  क्यों घृणा की जाये,  वैसे भी बापू ने कहा था कि ’पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ हम तो कहते हैं कि पाप से भी नहीं करनी चाहिये।  मूल में भावना देखनी चाहिये।  देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ जाये तो कोई नुकसान है क्या? कितनी अच्छी छवि बनेगी भारत की, जब छपेगा ’फ़ार्च्युन’  जैसी पत्रिकाओं में कि पिछले दस सालों में करोड़पतियों की संख्या में कितना इजाफ़ा हो गया है। गरीबों का क्या है,  कौन से युग में नहीं थे? गरीब की चादर तो पहले भी मैली थी, आगे भी मैली ही रहनी है बल्कि अब तो फ़ैली  भी रहती है, और यही तो चाहते हो आप।    

 तो सरकार जी,  लगभग पचास दिन का टैम है तुम्हारे पास ’अंतराष्ट्रीय प्यार-दिवस’ के आने में।  रोज के रोज  दो-ढाई रुपये किलो की दर से प्याज़ के ’फ़ट्टे चक्क दो’, अपने आप डेढ-दो सौ रु. किलो की रेंज में पहुंच जायेगा ’चौदह फ़रवरी’ तक आते-आते। जितने नैतिकता-फ़ैतिकता के झंदाबरदार है, झक्क मारकर खुद ही प्याज़ की जगह प्यार को इस्तेमाल करने की बातें करते मिलेंगे।  गुलाबी चड्डियों का तो पिछला कलेक्शन ही रखा होगा अब तक उनके पास, फ़िर कभी देख लेंगे विरोध वगैरह।  समाज में स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को कोई खतरा नहीं होगा,  सरकार का राज भी रह जायेगा और ताज भी, प्याज़ की देखी जायेगी।

वैसे सही मायने में हम खुद भी  प्याज़ जैसे ही नहीं है क्या? परत के नीचे परत, अंत तक पहुंच भी जायें तो निकलता कुछ नहीं। कितनी परतें डाल रखी हैं, क्या है जिसे इतना छुपाते हैं? रूप की परत, रंग की परत,  देश, कौम, मजहब और फ़िर वर्ग की परत। परत-दर-परत छीला जाये तो अंत में दिखता  कुछ नहीं सिर्फ़ गंध सी महसूस होती  है। आत्मा भी कहाँ दिखती है, लेकिन जैसे गंध है उसका भी तो अस्तित्व है या यूँ कहें कि उसका ही अस्तित्व है।   जब तक सुलभ है, कोने में उपेक्षित से पड़े रहते हैं, जहाँ कुछ भाव बढ़े  तो आंख का तारा बन गये। कोई परतें छीले तो आंखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन छिले बिना और छीले बिना कोई गति भी नहीं है।

:) फ़त्तू ने सब्ज़ी की रेहड़ी लगाई। 
ग्राहक ने टमाटर का  भाव पूछा,  “रै टमाटर का के भाव सैं?”
फ़त्तू ने बताया,                           “तीस रुपये किलो”
ग्राहक:                                      “जीज्जी के यार, तीस रुपये किलो?”  फ़िर पूछा, “और  प्याज़ का के ढंग सै?”
फ़त्तू:                                          “तेरी जीज्जी के दो यार” 

भाई फ़त्तू, तुझसे तो रिक्वेस्ट कर ही सकते हैं हम, भाईचारा रहा है हमारा। इसकी जीज्जी के यार इससे ज्यादा मत होने दियो।

सॉरी जी, हम गलती से अकाऊंट्स की लाईन में घुस गये थे, एंट्री बराबर करने की सनक सी रहती है तो ऊपर प्याज़ की जगह प्यार को रिप्लेस करने का रिकमेंड किया था। अब गाने में प्यार की जगह प्याज़ को रिप्लेस करके सोचिये और सुनिये , एंट्री बराबर हो जायेगी:)

38 टिप्‍पणियां:

  1. प्याज और प्यार दोनों एक है, छीलते जाओ पर्ते मिलती ही रहती हैं। और आँसू?
    आँसू ही न निकले तो प्याज क्या, प्यार क्या?

    @कोई परतें छीले तो आंखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन छिले बिना और छीले बिना कोई गति भी नहीं है। - छा गए!

    बाकी आप की मौलिकता के क्या कहने! मैली चादर से लेकर आने वाले प्यार दिवस तक छीलते चले गए।

    प्यार बाँटने पर जूते पड़ते हैं। गए जमाने में प्याज बाँटते तो लोग गेस करते कि प्यार में चोट खाया होगा, पगला गया बेचारा! च च च।
    इस जमाने में बाँटो तो लोग दानवीर या आने वाले इलेक्शन का कैंडिडेट मानने लगेंगे और घर वाले पागल। ये दुनिया चाहे जितनी बदले, रहती वैसी ही है।

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  2. आंसू, आंसू, आंसू...कभी गम के, कभी खुशी के लेकिन अभी तो (धांसू)प्‍याज के.

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  3. अगर सब प्याज को एक हफ़ते के लिये खाना छोड दे तो यही प्याज १० रु किलो मारा मारा घुमे . प्यार और प्याज को ठोकर पर रखो तो ही काबू मे आता है

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  4. दिल विल प्याज प्यार मैं क्या जानू रे ....

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  5. इतना प्यार/प्याज बाँट देंगे तो कंगाल हो जायेंगे।

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  6. मियां प्‍याज की नाईं छील रिए हो आप तो। कोई बात नहीं आसूं तो आने ही ठहरे । चाहे प्‍यार में प्‍याज छीलो या प्‍यार में प्‍याज लाओ।
    *

    धीरू भाई प्‍याज तो ठीक है,पर प्‍यार को तो ठोकर पर मत रखो। मत भूलो कि आप भी किसी के प्‍यार होओगे। और उसने यह युक्ति पढ़ ली तो क्‍या होगा।

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  7. अजी आप तो बैंक वाले हो ......................तो हमको जे बताओ की पियाज खरीदने के लिए कोई लोन-वोन देने का विचार भी चल रहा है क्या अंदरखाने में !!!!!!!!!!!!!!

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  8. सच है व्‍यक्ति प्‍याज के समान ही है।

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  9. जे फत्तू ने अपनी रेहड़ी कहा लगाई है बताइये जरा दो चार दस किलो टमाटर मै भी ले लू जिज्जी के एक यार के बदले क्योकि हमारे यहाँ तो टमाटर और प्याज में भाव की होड़ लगी है कौन कितना भाव मारेगा फ़िलहाल दोनों ही जिज्जी के दो यार में मिल रहे है | इससे ज्यादा बेईज्जती टमाटर की और क्या हो सकती है की प्याज के बराबर भाव मारने पर भी प्याज पर कितनी पोस्टे आ गई और टमाटर पर दो लाइन भी नहीं | इतना भाव ना दीजिये प्याज को नहीं तो बाकि सब्जिया, फल भी जलन के मारे इतराते हुए भाव मरना शुरू कर दी तो कल को रोटी को बस कटोरी में रखे प्यार से ही खाने की नौबत आ जाएगी |

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  10. सरका(दा)र जी की अच्छी क्लास लगाई है आपने प्याज सारी प्यार से। जय हो।

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  11. मसले आम जिन्दगी के मसले ख़ास से बड़े,
    प्याज़ की कीमत बढ़ी , मजाल जैनी बन गए ;)

    पिछले हफ्ते ये मक्ता बनाया था, कमबख्त इससे आगे ही नहीं बढ़ रहा था, आपकी पोस्ट देख कर कुछ विचार कौंधे है, लगता है अब बात बन जाएगी ;)

    लिखते रहिये ...

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  12. परत के नीचे परत, अंत तक पहुंच भी जायें तो निकलता कुछ नहीं
    मैं तो हूँ जी प्याज जैसा ही, अभी मेरे भी भाव बढ रहे हैं।
    एक चेहरे पर हजार चेहरे लगाये रखता हूँ। कब तक उघाडोगे?
    आपसे ईर्ष्या का ग्राफ बढता जा रहा है जी, बल्कि चरम बिन्दु पर पहुँच चुका है।:)

    प्रभु को प्रणाम

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  13. "जब तक सुलभ है, कोने में उपेक्षित से पड़े रहते हैं, जहाँ कुछ भाव बढ़े तो आंख का तारा बन गये। कोई परतें छीले तो आंखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन छिले बिना और छीले बिना कोई गति भी नहीं है।"

    छिलना और छीला जाना, इतने में ही तो सब रह गया है।
    ऐसा लिख जाते हैं आप, यहाँ मौलिक तारीफ़ के शब्दों का टोटा है, आज मौन प्रशंसा रख लीजिये। वो brown-brown वाली।
    फत्तू साहब फिर से छा गए हैं, प्याज तो ठीक है कुछ टमाटर हम भी ले आत़े उनसे।

    टमाटर से मेरी सहानुभूति है, कितनी भी कारगुजारियां कर ले, चर्चे मशहूर प्याज के ही होंगे। टमाटर न हुआ द्रविड़ हो गया।

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  14. ये भी अच्छा है कि हम लहसुन प्याज नही खाते वर्ना खाने भारी पड़ जाते।
    फत्तु की रेहडी का पता तो बता दिजिए जरा टमाटर लेने है।
    प्याज बाटँते चलो ..................
    प्रणाम

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  15. @ गिरिजेश राव जी:
    आचार्य, हम तो खुद छिलने वाली प्रजाति के हैं, छील कैसे सकते हैं? ये आँसुओं वाली समानता खूब भिड़ाई, मान गये(वैसे तो पहले से ही मानते हैं आपका लोहा:))

    @ राहुल सिंह जी:
    आँसू-आँसू में फ़र्क, सच में कितना!

    @ धीरू सिंह जी:
    अभी तो हम इनकी ठोकर पर हैं:)

    @ सतीश सक्सेना जी:
    आप न जानें, ऐसा हम न मानें:)

    @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    कंगाली का अपना सुख है पाण्डेय साहब।

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  16. @ राजेश उत्साही जी:
    सही पकड़ा मियाँ, धीरू भैया को। छिले नहीं गये हैं कभी,एसा लग रिया है।

    @ अमित शर्मा:
    जित्ता मर्जी ले लो यार लोन, चाहे प्याज के लिये चाहे प्यर के लिये - मार्जिन 100%.

    @ अजीत गुप्ता जी:
    शुक्रिया मैडम।

    @ दिनेश शर्मा जी:
    धन्यवाद दिनेश जी।

    @ anshumala ji:
    वो जो बेचते थे सस्ते टमाटर, रेहड़ी अपनी बढ़ा गये।
    ये तो सच में नाईंसाफ़ी हो गई जी टमाटर के साथ, भूल सुधार करेंगे कभी न कभी। आपका विशेष आभार, ह्यूमर को सही स्पिरिट में लेने के लिये।

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  17. @ उपेन्द्र जी:
    आप भी खूब नहले पर दहला मारते हैं:)

    @ poorviya:
    प्याज पर प्यार करने में कोई आशंका नहीं कि रूठ जायेगा, पहले से ही रूठा हुआ है।

    @ मज़ाल साहब:
    अरे वाह, हमारे जरिये कोई बात बन भी सकती है, वैरी रोमांटिक:)

    @ अरविन्द:
    आभारी हूँ अरवैन्द जी।

    @ अन्तर सोहिल:
    यानि की अब डाऊनफ़ाल शुरू होगा? नहींइइइइइइइइ......।

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  18. प्याज छिलते-छिलते आँसू आ जाते हैं मगर आपको तो पूरा दर्शन ही मिल गया....

    वैसे सही मायने में हम खुद भी प्याज़ जैसे ही नहीं है क्या? परत के नीचे परत, अंत तक पहुंच भी जायें तो निकलता कुछ नहीं। कितनी परतें डाल रखी हैं, क्या है जिसे इतना छुपाते हैं? रूप की परत, रंग की परत, देश, कौम, मजहब और फ़िर वर्ग की परत। परत-दर-परत छीला जाये तो अंत में दिखता कुछ नहीं सिर्फ़ गंध सी महसूस होती है।
    ......बहुत खूब।

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  19. @ कोई परतें छीले तो आंखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन छिले बिना और छीले बिना कोई गति भी नहीं है।
    संजय जी,
    छिलने की व्यथा और छीलने का मज़ा याद दिला दिया आपने.

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  20. प्याज और प्यार में ऐसा कोरीलेशन ! वाह जी मान गए आपको भी और उनको भी जिनका लोहा आप मानते रहे हैं :)

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  21. संजय बाऊजी !
    आपके प्याज़ की परत तो हम न जाने कब से देख रहे हैं..तब से, जब ये प्याज़ बिना कॉमा, फुल स्टॉप के छिलती चली जाती थी.. और छीलती चली जाती थी कलेजे को ऐसे कि आँसू भी न निकल पाएँ और हम आंसू को मुस्कान में छिपाते रह जाएँ.
    हमें तो पता ही न चला कि कब आपका प्याज़ और प्यार “मिलकर दोऊ एक बरन भए”... आपका प्याज़ तो आपके शब्दों में सीरियस वीरियस कुछ नहीं है, बस ऐँ वें ही है... लेकिन हमारे लिए तो फत्तू की जिज्जी के दसियों यार क़ुर्बान...
    गाने की लाइन से अच्छा किया जो आपने प्यार को प्याज़ से रिप्लेस कर दिया. अकउण्टिंग के लिहाज़ से एण्ट्री बैलेंस्ड तो है ही, न होती तो कॉपीराइट क़ानून का उल्लंघन होने का ख़तरा था.. बच गए बाऊ जी!!

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  22. @ Avinash Chandra:
    दोस्त, किसी भी मशहूर इमारत को याद करो तो पाओगे कि चर्चा\तारीफ़ उसकी मीनारों, गुंबद, दीवारों, छत जैसी चीजों की ही ज्यादा होती है और नींव की तरफ़ लोगों का ध्यान नहीं जाता, लेकिन चर्चा न होने से बुनियाद का महत्व कम नहीं हो जाता। औरों की नहीं जानता, मुझे द्रविड़ अच्छा लगता था पहले से ही। कुछ महीने हुये, ज्यादा ही अच्छा लगने लगा है जबसे यह पता चला है कि ’द वॉल’ मेरे एक फ़ेवरेट का फ़ेवरेट है।

    @ दीपक सैनी:
    प्याज़-टमाटर गये अपने ऐसी-तैसी कराने,तुम कहाँ गुम थे महाराज? हमने तो पूछा भी नहीं कि कहीं ये न समझ बैठो कि टिप्पणी नहीं मिली इसलिये पूछ रहे हैं भाई-साहब। गैर-हाजिर होना हो तो सूचना देकर जाया करो - फ़र्स्ट वार्निंग है.!!

    @ देवेन्द्र पाण्डेय जी:
    यह पोस्ट चार दिन पहले लिखी थी, पब्लिश करने से पहले आपकी ’मर्निंग वाक गाथा’ पढ़ ली। वो सारा दिन फ़िर उसी मस्ती में बिताया। आपके कारण यह पोस्ट लेट हुई है, बनारस आयेंगे तो पेनल्टी वसूल कर लेंगे:)

    @ prkant:
    प्रोफ़ैसर साहब, अपने को बहुत बार छिलने में मजा और छीलने में व्यथा महसूस हुई है। बात तो एक ही है वैसे।

    @ अभिषेक ओझा:
    सही है गुरू, आपका लोहा तो हम भी पहले से मानते रहे हैं और वो भी मानते हैं जिनका लोहा हमने भी माना और आप भी मान रहे हैं। दीखे है लोहे के भे भाव शूट-अप करने वाले हैं:)

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  23. @ मजाल साहब ,
    कहीं ये,प्याजखोरों के विरुद्ध बेप्याजियों की कोई साजिश तो नहीं :)

    @ मो सम कौन ? साहब ,
    कीमतें भले ही आसमान छू जायें पर प्याज की खेती करने वाले किसानों के हाथ खुदकुशी ही आयेगी !

    हम तो समझते थे कि सब्जी अफोर्ड ना कर सको तो प्याज,नमक और मिर्च के साथ रोटी खाई जा कर ,गरीबी में गुजारा हो जाएगा !

    आपकी पोस्ट से एक टायटिल /एक ख्याल सूझा ...'एक भीड़ फ़ैली सी' यानि कि मुल्क में जब तक भीड़ फ़ैली सी रहेगी माशाल्लाह प्याज भी मैली सी रहेगी !

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  24. "मेरे गीत" पर प्रति टिप्पणी

    @ मो सम कौन ,
    इतने सार गर्भित टिप्पणी के लिए धन्यवाद ...आज मूड में लग रहे हो :-)

    " सक्सेना साहब " ने हमारे तुम्हारे बीच काफी दूरी पैदा कर रखी है संजय बहुत दिनों से तुम इसे छोड़ नहीं पा रहे और हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते :-(
    सतीश भाई ...भैया ...कहो तो अच्छा लगेगा और कभी कभी यार ... कहो तो

    यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी
    http://www.youtube.com/watch?v=XoZEkJouqZo

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  25. @ संजय जी

    जरा अपने WIFE श्री का ई- मेल आई डी देंगे का तनिक हमको दो चार बाते करनी है उनसे :)))))

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  26. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  27. प्याज से प्यार का ये अंदाज़ अच्छा लगा........

    क्या हुनर है........ सरकार का.. १५ रुपे की चीज़ - १५ दिन में ६० रुपे किलो ...... अगले १० दिन में ८० रुपे किलो....... फिर सरकार का मन हुवा तो........ ४० रुपे किलो.......

    सोचिये जरा........ क्या क्या हो गया होगा.

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  28. वाह साहब छा गए. सच में. कुछ समय पहले आपके विषय में चर्चा करते हुए प्रतुल ने मुझे कहा था की ब्लॉग्गिंग की यही देन हैं की उसने छिपी हुई प्रतिभाओं को मंच दिया है, सामने आने का मौका दिया है. वो बात वास्तव में सही थी. मुझे हमेशा आपके लेख बेहतरीन लगे और जब प्रतुल ने मेरी बात पर मुहर लगाई तो मुझे कोई शक ही नहीं रहा.

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  29. मजा आया जी पढ़ के। यहाँ आना सार्थक हो गया।

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  30. अफ़सोस है कि अंशुमाला उस निर्मल हास्य को समझ नहीं पायी अतः पिछली टिप्पणी हटा रहा हूँ संजय ! रचना और अंशुमाला मेरी निगाह में स्पष्ट और अच्छा कार्य कर रही हैं अतः यह अपने ऊपर मज़ाक सर इनके सम्मान में ही किया गया था !
    खैर .....
    यहाँ अपनेपन को समझने की परिपाटी भी नहीं है भविष्य में कोशिश करूंगा कि सावधान रहूँ ..

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  31. @ चला बिहारी......:
    सलिल भैया, दो शिकवा(या शिकवे कहा जायेगा ,.: सब लगा दिये हैं)
    १. ग्राहक की जिज्जी के कुर्बान करने थे:)
    २. प्यार की बात करें तो कापीराईट उल्लंघन? देखी जायेगी:)

    @ अली सा:
    माशाल्लाह टाईटिल तो बहुत जोरदार है, गोया हमें पढ़कर भी कुछ काम की सूझ सकती है, मजा आ गया। शुक्रिया।

    @ सतीश सक्सेना जी:
    बड़े भाई, मुझे लगता है कुछ कन्फ़्यूज़न हो गया है। अंशुमाला जी का कमेंट उनकी पोस्ट पर मेरे कमेंट के जवाब में है, आप एक्स्ट्रा प्रिकाशियस हो गये हैं। मेरा मानना है कि अंशुमाला जी ब्लॉगजगत की बहुत समझदार और मैच्योर ब्लॉगर हैं, हास्य के मामले में वे गलती नहीं कर सकतीं।

    @ अंशुमाला जी:
    @ ईमेल आई.डी. - ऊपर वाले कमेंट में आपकी इतनी तारीफ़ कर दी है, अब तो रहम की उम्मीद रख सकता हूँ:)

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  32. सच है व्‍यक्ति प्‍याज के समान ही है।

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  33. @ दीपक बाबा:
    बाबा, हम ये सोचकर खुश है क्या-क्या न हुआ? वो सब भी हो जाता तो कोई क्या कर लेता?

    @ विचार शून्य:
    दीप, आप और प्रतुल दोनों ने मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया है(बोले तो टंकी पर चढ़ाया है)। दोस्तों का विश्वास टूटा नहीं है, अच्छा लगता है।

    @ सोमेश सक्सेना:
    आपके ब्लॉग पर जाना मेरे लिये सार्थक रहा, आप जैसा शुभेच्छु मिला।

    @ सतीश सक्सेना जी:
    सतीश जी, रचना जी और अंशुमाला जी दोनों मेरे लिये सम्माननीय हैं। यहाँ(ब्लॉगजगत) की परिपाटियों के किये हम सब सामूहिक जिम्मेदार हैं। जब तक माथा देखकर तिलक लगाने की प्रवृत्ति हमारे अंदर रहेगी, हम अपने साथ और दूसरों के साथ अन्याय ही कर रहे हैं। विचारों का थोड़ा सा अंतर होना ही हमें असहिष्णु बना देता है। और बड़े भाई, सुबह के कमेंट में आपने कहा था कि आज मूड में दिखते हो.... शुक्रिया, अपना ये बारहमासी मूड है। सावधान रहने में कोई बुराई नहीं:)

    @ Patali-The-Village:
    पधारने का शुक्रिया।

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  34. सतीश के ब्लॉग पर आप का कमेन्ट पढ़ कर यहाँ आई , तब तक सतीश का कमेन्ट मेरे और अंशुमाला के ऊपर आ चुका था । दुबारा आई मिट चुका था । ख़ैर वो उनके बीच की बात हैं ।

    आप की पोस्ट पर नहीं आप के आखरी कमेन्ट पर कमेन्ट कर रही हूँ
    आप ने सही कहा हैं माथा देख कर तिलक करने की परिपाटी ने काफी मुश्किल किया हैं । मुद्दे के साथ खड़े हो ब्लोगर के साथ नहीं तो बात बनती हैं । लेकिन यहाँ ये नहीं हैं ।

    हम आभासी दुनिया मे क्यूँ आये ताकि मन की कह सके और निश्चिंतता से आगे बढ़ सके ।

    अपने सामाजिक सरोकारों से ही कहना होता तो बाहर के समाज मे कम लोग हैं क्या ?

    रिश्तो का निर्मम प्रदर्शन यहाँ लोगो को रिश्तो मे तो बाँध नहीं रहा हां एक दूसरे के प्रति निर्मम जरुर कर रहा हैं ।


    हम यहाँ एक दूसरे को टिपण्णी प्रति टिपण्णी से खेमो मे बांधते हैं । जब की इन्टरनेट की सुविधा से हम देश की सीमाए लाँघ रहे हैं फिर रिश्तो मे आभासी दुनिया मे बंधने से क्या हासिल होगा । बस इतना ही की आज एक दुसरो को पेडस्टल पर खडा करके और कल डोर मेट की तरह उस पर पैर पोछ कर निकल जाए ।

    आभासी दुनिया मे अपनत्व खोजने से बेहतर हैं जो अपने हैं उनसे अपने संबंधो को सुधरा जाए ताकि आभासी दुनिया मे रिश्तो को नहीं शब्दों और मुद्दों को जिया जाए

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  35. हम प्याज़ से बचने वालों को चाय कहाँ जलपान कहाँ
    हम प्याज़ से बचने वालों को....

    जवाब देंहटाएं

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