बुधवार, मार्च 02, 2011

अमर प्रीत - (एक पुरानी कहानी)



उसने सर उठाकर देखा, प्रीत अपने क्यूबिकल में बैठी थी। बाहर भी मौसम खराब था  और ऑफ़िस के अंदर भी। सुबह से बारिश की झड़ी लगी है, ग्राहक कौन आता?  शायद आज आठवीं बार उसने  फ़ोन मिलाया और फ़िर प्रीत ने फ़ोन काट दिया। उसने अपनी डायरी निकाली और लिखना शुरू किया। कब पांच बजे, नहीं मालूम चला। देखा तो प्रीत भी अभी बैठी थी, शायद बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी। उसने डायरी से पेज फ़ाड़ा, तह किया और लिफ़ाफ़े में डालकर कोट की जेब में रख लिया। ब्रीफ़केस उठाया और चल दिया, मनोज ने कहा भी कि रुक जाओ, अभी बारिश है लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। प्रीत के पास जाकर ठिठका, लिफ़ाफ़ा उसके सामने रखा और बिना देखे, बिना बोले बाहर निकल गया। भीगना कोई नई बात नहीं थी उसके लिये, जब तब खूब भीगा है वो बारिश में, आज भी सही। इक्का दुक्का स्कूटर या मोटरसाईकिल वाले  थे जो सड़क पर दिखाई दे रहे थे, पैदल चलता तो वो अकेला ही था। 

घर पहुंचकर कपड़े बदले, काफ़ी बनाई और मोबाईल स्विच-ऑफ़ करके बिस्तर में घुस गया। न रहेगा बाँस और न बजेगी बांसुरी। खाना बनाने की हिम्मत नहीं थी या खाने की इच्छा नहीं थी, खुद ही नहीं तय कर पाया। रह रहकर आंखों के सामने प्रीत का भावशून्य चेहरा आ रहा था। एक जरा सी बात पर कोई इतना पत्थरदिल कैसे हो सकता है? इतने महीनों का सामीप्य कैसे भुला सकती है वो?  ठीक है, अगर उसे जिद है तो यही सही। रात भर नींद तो नहीं ही आई, खुली आँखों के सामने देखे अनदेखे ख्वाब जरूर नाचते रहे। सुबह चार बजे के बाद कहीं आँख लगी उसकी।

प्रीत को घर पहुंचने में आज देर हो गई थी। आज खाने का मन नहीं था, सो मना कर दिया। खुद ही जाकर काफ़ी बनाई और बिस्तर में घुस गई। काम करना बंद कर सकता है कोई, खाना स्किप किया जा सकता है एकाध टाईम, आंखें भी बंद की जा सकती हैं लेकिन ये जो मन होता है, ये निठल्ला नहीं बैठता। जेहन में बार बार अमर का चेहरा आ रहा था। आज बहुत गुस्सा दिलाया उसने, क्या जरूरत थी उसे उसकी हर बात में दखल देने की? दूधपीती बच्ची तो नहीं वो, जो किसी बात को हैंडल नहीं कर सकती।  बहुत सर चढ़ा लिया मैंने ही, आज बच्चू को अपनी हैसियत मालूम चल ही गई दिन में दस बार फ़ोन किया होगा। इतनी तो हिम्मत थी नहीं कि आमने सामने आकर बुला ले।  दस गज की दूरी है, महाशय जी फ़ोन मिलाते हैं।  अच्छा हुआ आज दिल मजबूत करके बैठी रही, नहीं किया फ़ोन अटैंड। और शाम को कैसे ब्रीफ़केस उठाकर बारिश में बाहर निकल गया, जैसे फ़िल्मी हीरो हो। सोचता होगा कि अभी प्रीत रास्ता रोक लेगी जैसे सत्तर की फ़िल्मों में हीरोईन अपनी कसम देकर हीरो को रोक लेती थी, हुंह। अरे, ध्यान आया एक चिट्ठी दे गया था जाते जाते। देखूं तो क्या प्रेम कहानी लिख गया है। बैग से कागज निकाला और पढने लगी।

’प्रीत,  (मेरी प्रीत लिखने की हिम्मत नहीं हो रही)
जानता हूँ आज तुम नाराज हो, हक है तुम्हें। वैसे ये पहली बार नहीं कि तुम नाराज हुई हो मुझसे,  ऐसा जरूर पहली बार हुआ कि मैंने आज तुम्हें मनाने की कोशिश की है। नहीं तो तुम बिगड़ती थी और मैं अकड़ा रहता था, थोड़ी देर में तुम ही हँसकर मना लेती थी मुझे। और मनाना भी क्या मनाना था, सिर्फ़ आकर बात करना शुरू कर देती तुम और मैं छोटे बच्चे की तरह सब भूल जाता था।  मैं बदल रहा हूँ खुद को, नहीं तो रूठकर मानना और रूठों को मनाना कभी नहीं करता था मैं।      आज तुम्हें मुझपर गुस्सा आया,  मैंने एक दो बार नहीं आठ बार तुम्हें कॉल किया और तुमने हर बार फ़ोन काट दिया। प्रीत, ऐसा क्या हो गया हमारे बीच?  तुमने ही तो मेरे जीवन में  आकर मेरे होने को एक वजह दी थी, वरना मैं जिन्दा थोड़े ही था?  सिर्फ़ साँस चलते रहना, दिल का ध़ड़कते रहना ये जीवन थोड़े ही होता है। अब तो मेडिकल साईंस ने भी जिन्दगी और मौत की परिभाषा बदल दी है। वही नौकरी, वही मैं, वही सबकुछ पहले भी था – एक तुम मेरी जिन्दगी में बरबस ही समाती चली गई और सब बदल गया। याद है तुम्हें, कैसे पहली ही मुलाकात में हम एकदम से अनौपचारिक महसूस करने लगे थे? मैं तो चुप्पा, घुन्ना और जाने क्या क्या नामों से जाना जाता था, और तुम्हारे साथ ऐसी कॉमपैटिबिलिटी बनी थी कि कभी लगा ही नहीं कि हम एक दूसरे की आदतों को न जानते हों। सच कहूँ, तो तुमने ही मुझे जीना सिखाया। इतना सम्मान दिया, इतना अपनापन कि मैं खुद से ही रश्क करने लगा था। मैंने कुछ कहने में बेशक समय लगा दिया हो, तुमने मानने में एक पल नहीं लगाया। मैं ही ठिठक ठिठक कर कुछ कहता था, आदत नहीं रही  थी मुझे कि मेरा कुछ कहना ही किसी के लिये पत्थर की लकीर बन सकता है। झूठ नहीं कहा तुमसे, हमेशा अकेला नहीं रहा मैं भी, कई बार हमसफ़र मिले लेकिन जिसे अपनी माना हो वो आजतक एक ही मिली, तुम सिर्फ़ तुम।  वरना  तो किसी के साथ दो कदम चलकर और किसी के साथ दो बात करके ही मन भर जाता था।  तुमसे जितना बात हो जाए, लगता ही नहीं कि बस्स बहुत हो गया। मुझे ऐसी ही मंजिल की तलाश थी जिसे पाकर भी सफ़र मुकम्मल न हो।      तुमसे मैंने कई बार कहा कि आंख बंदकर मुझपर भी भरोसा मत करो, और तुम कहती थी कि भगवान से भी ज्यादा भरोसा है मुझपर। कहाँ खो गया वो भरोसा?
खैर जाने दो, मैं तो पहले भी खुद को तुम्हारे लायक नहीं मानता था और आज भी नहीं मानता। बीच में जरूर कुछ समय ऐसा लगा था कि पिछले समय में जो कुछ झेला, भुगता था मैंने उसीकी वजह से खुद को अंडर एस्टिमेट कर रहा था,  नहीं तो तुम जिसे चाहो, वो मामूली इंसान नहीं हो सकता। लेकिन ये एक भ्रम ही था, तुम्हारी आँखों पर ही शायद चाहत का चश्मा चढ़ा था, या मेरे सितारे अच्छे थे उन दिनों। बुरे समय के बाद अच्छा समय आता है तो और भी अच्छा लगता है लेकिन जब फ़िर से वही गम की भरी रातें और तनहाईयां आ घेरती हैं तो साँस लेना भी दुश्वार लगता है।
कई दिन से मुझे ऐसा लग रहा  था कि मेरी बातें तुम्हें नागवार गुजर रही हैं। तुम भी शायद  ऐसा महसूस कर रही होगी।   आज सारा दिन मुझ पर कैसे गुजरा है, मैं जानता हूँ। लेकिन अब मैं शांत हूँ। अगर हम दिल से एक नहीं हो सकते तो क्या जरूरत है ऐसे सपने देखने की? सोच देखना, आज शाम और रात तुम्हारे पास है। कल सुबह तुम्हारे फ़ैसले का मुझे इंतज़ार रहेगा। मोबाईल स्विच-ऑफ़ कर दूंगा आज रात, कहीं मैं ही कमजोर न पड़ जाऊं और तुम्हें फ़िर से फ़ोन  मिला बैठूँ। देखता हूँ कल की सुबह मेरे लिये सुबह बनकर आती है या ……? इतना जान लो, मेरे लिये अब जिन्दगी में या तुम हो या फ़िर कोई नहीं। बस शोर शराबा मुझे पसंद नहीं, भले ही  हम एक साथ हों कि न हों, जो भी फ़ैसला हो आराम से बता देना।
तुम्हारा  अमर

कागज पढ़कर फ़ाड़ दिया प्रीत ने और बड़बड़ा रही थी. “ओह, देवदास जी, बड़ा आया इमोशनल करने वाला। देख लूँगी इसे तो।” कागज पेन लेकर अब वो बैठ गई थी, रात के एक बजे। नींद न आए तो कुछ तो करना ही था।

अगले दिन ऑफ़िस में सब वैसा ही चल रहा था जैसे एक आम ऑफ़िस में होता है। दोनों में आज हाय-हैलो भी नहीं हुई। साढ़े बारह बजे होंगे,  प्रीत आई और एक कागज अमर की मेज पर रखकर चली गई। धड़कते दिल से अमर ने कागज खोला,  एक गोला बनाकर उसके अंदर लिखा था ’अमरप्रीत’ और नीचे सिर्फ़ एक पंक्ति .”मेरे होने वाले पति जी, आज मैं लंच नहीं लाई हूँ। ’गेलार्ड’ में लंच करवाओगे न?   स्साला नौटंकीमास्टर कहीं का, हा हा हा”

अमर की आँखें भीग आईं थीं, एक जमाने के बाद। भीगी आंखों का भी अपना ही आनंद होता है।


46 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी रोना Sorry कुछ ’दाग’ वास्तव में अच्छे है!

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  2. "होने वाले पति जी ..."
    "स्साला नौटंकीमास्टर ..."
    क्माल की हीरोइन है जी। एक ही झटके में दो-दो रिश्ते!

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  3. जय हो, अन्त में सब मिला दिया, इतनी कशमकश के बाद।

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  4. शुरू की कहानी ..अन्त मे वाकई "अमरप्रीत"...स्साला नौटंकीमास्टर कहीं का, हा हा हा”
    भीगी आँखों का आनन्द----क्या खूब याद दिलाया............

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  5. सुखान्त और बहुत सुन्दर !
    दिल को छू लेने लायक रचना रही संजय !!

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  6. कहानी पढते पढते जाने क्या क्या सोच रहा था कि ऐसा होगा वैसा होगा
    हुआ वही जो सबको अच्छा लगता है “हैप्पी एंडिग“

    स्साला नौटंकीमास्टर कहीं का, हा हा हा”

    ये शब्द अब भी दिमाग मे बज रहे है
    शुभकामनाये

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  7. एक एक शब्द खनक रहा है, बहुत सुंदर.

    रामराम.

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  8. असली जीवन मे तो सुखान्त कम ही होते हैं लेकिन कहानी बिना सुखान्त के हो ये अच्छा नही लगता।
    अन्त मे सुखान्त पढ कर शान्ति मिली। कथानक शैली, कथ्य सब कुछ अच्छा लगा। बहुत अच्छी लघु कथा। बधाई।

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  9. मुझे ऐसी ही मंजिल की तलाश थी जिसे पाकर भी सफ़र मुकम्मल न हो।

    अप्रतिम...

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  10. :) :)

    बस इतना ही कहना है हुकुम !

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  11. दिल को छू लेने लायक रचना रही|बधाई।

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  12. अमर की आँखें भीग आईं थीं, एक जमाने के बाद। भीगी आंखों का भी अपना ही आनंद होता है।

    ........aur aapne ohi bhigi aankhon wala anand diya hai..................f e n t a s t i c...

    pranam.

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  13. आज दिलोदिमाग को बहुत एकाग्र करके कहानी के साथ बह रहा था की एक भारीभरकम बुद्धिजीवी सी कमेन्ट चेपूंगा ................... पर रस्साला कहानी के हीरो हिरोइन ही नौटंकीबाज़ निकले ....................... अब हम कैसे बुद्धिजीवी बने :(

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  14. बाकि जब पच्चीस-तीस के लगभग ऐसी शानदार रचनाएं बन जाएँ तो उन्हें छपवाने का उपक्रम जरूर कीजिएगा .................... सहायता तो मैं भी कर सकता हूँ प्रकाशक खोजने में पर तब रायल्टी का सेवंटीफाइव परसेंट का सेंट मैं ही लगाउंगा :)

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  15. अच्छा लगी आपकी ये छोटी सी कहानी। ये रूठना- मनाना, ये नौंकझौंक इसी में तो असली लुत्फ़ है मोहब्बत का।
    और ये भी अच्छा लगा कि इस बार क्रमशः की रुकावट नहीं आई। :)

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  16. कहानी का विच्छेदन करूँ तो पाता हूँ कि आज भी प्रीत ने हमारे हीरो के इमोशंस की कोई इज्ज़त नहीं की , ये भी कोई मनाना हुआ | इन दोनों के बीच शर्तिया कभी न कभी , शायद शादी के बाद , प्रीत के attitude को लेकर बहस जरूर होगी |

    सुखान्त अच्छा लगा |

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  17. तो आज आ गई तीस फरवरी! :)
    Anything is possible in this marvelous world यकीन तो था ही मुझे।
    सुखद कहानियाँ तो यूँ भी मुझे पसंद हैं।
    और हाँ.. हीरोइन वाकई कमाल है। :)

    वैसे क्या नायक बिना काट-पीट, बिना व्याकरण की गलतियों के इतना लम्बा पत्र लिखते/लिख पाते होंगे?
    वैसे लिखते ही होंगे, तभी तो नायक हैं। :)

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  18. हर बार ही कुछ नया लेकर आते हैं आप . बहुत बढ़िया लगी कहानी
    दिल को छू लेने वाली. और गाने का तो क्या कहने लाजवाब .

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  19. क्या ख़ाक कहानी लिखी है... न कोई क्रमशः, न कोई विरहांत.. ये भी कोई कहानी हुई... हीरोईन कहती है स्साला नौटंकीमास्टर और पति जी.. ये तो जय छाप बसंती हो गई!!
    ये तो बेस्टमबेस्ट है संजय बाऊजी!!
    @अविनाशः
    लिख लेते हैं अविनाश जी, तभी तो लिखा है..क्यों संजय बाऊ जी!!

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  20. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  21. एक और हैप्पी एंडिंग करवा गए आप :)

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  22. अंत भला सो सब भला । भले से लड़के और भली से लड़की की भली सी कहानी लगी।

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  23. आन्खे गीली होने के बाद सब साफ़ साफ़ सा दिखता है

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  24. @ ktheLeo:
    इस ’कुछ’ में ही सार है, सरजी।

    @ स्मार्ट इंडियन:
    क्या भैया, हीरो कमाल का नहीं लगा जो ऐसे झटके हंस हंस कर झेल रहा है।

    @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    कहानी तो अपने हाथ में है ही, क्यों न चलायें जी अपनी मर्जी:)

    @ भारतीय नागरिक:
    सब भला है सरजी।

    @ अर्चना जी:
    लेडीज़ डिपार्टमेंट का तो वैसे भी ये रोने धोने वाला महकमा बहुत मनपसंद महकमा है।

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  25. @ सतीश सक्सेना जी:
    आपको पसंद आई भाईजी, शुक्रिया।

    @ दीपक सैनी:
    आभार दीपक।

    @ ताऊ रामपुरिया:
    ताऊ का आशीर्वाद मिल गया, मजा आ गया।
    राम राम।

    @ निर्मला कपिला जी:
    आभारी हूँ आपका।

    @ लक्की:
    शुक्रिया।

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  26. @ रवि शंकर:
    इतना भी बहुत है, अनुज। खुश रहो हमेशा, ऐसे ही।

    @ सञ्जय झा:
    तुम्हें आनंद आया तो हमें भी अच्छा लगा, दोस्त।

    @ PADMSINGH Ji:
    लंबे अरसे बाद ठाकुर साहब के दर्शन हुये, अच्छा लगा।

    @ अमित शर्मा:
    कुछ सही रेट लगाओ यार, हम तो दस परसेंट पर काम करने वाले हैं, पच्चीस परसेंट में तो बिफ़र जायेंगे:) चलो जयपुर आना ही है, वहीं नेगोशियेट कर लेंगे।

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  27. मिला ही दिये अंत में...ठीकै किये..को गाली सुने पाठकों की।
    ...सुखद अंत अभी भी अच्छा लगता है।

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  28. @ सोमेश सक्सेना:
    छोटी छोटी खुशियां बड़े गमों से लड़ने में बहुत ताकत देती हैं। सोमेश, क्रमश: तो मुझे भी पसंद नहीं, कभी कभी मजबूरी हो जाती है।

    @ नीरज बसलियाल:
    प्रीत को नटखट, ऐरोगैंट होने के साथ साथ बात संभालने वाली दिखाने की कोशिश की थी, उसने इमोशंस की कदर तो की है लेकिन अपने स्टाईल में।
    शादी के बाद क्या होता है, देखते हैं हम लोग:)
    शुक्रिया नीरज, राय रखने के लिये।

    @ Poorviya:
    धन्यवाद कौशल जी।

    @ अविनाश चन्द्र:
    तुम्हारे यकीन को तो जीतना ही है, अवि।
    गागर में सागर नहीं भरना आता, नहीं तो हमारा नायक कविता भी लिख मारता:)

    @ मिथिलेश दुबे:
    यह गाना बहुत प्रिय है मुझे, मिथिलेश। अच्छा लगा तुम्हें यहाँ देखकर।

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  29. @ चला बिहारी....:
    सलिल भैया, देखा होगा आपने किसी न किसी ब्ल्यू लाईन के पीछे लिखा हुआ, ’न्यूऐ चालैगी’ - भाईजी, अपनी कहानी तो ’न्यूऐ चालैगी’

    @ अदा जी:
    - नायक का भीगना देखा आपने, सुलगना, उबलना, फ़ुंकना, जलना नहीं देखा? राशि के बारे में कुछ नहीं कहेंगे, न तो एक और मौका मिल जायेगा लोगों को।
    - पहला संबोधन महालफ़नटुस टैप इसलिये बुझाता है क्योंकि कहानी पुरानी है।
    - संस्मरण नहीं, कहानी है, काहे नहीं यकीन आता है आपको?
    - नायक गया था इग्नू में कोर्स-उर्स करने, डिग्री विग्री भी दिखानी होगी क्या?
    वैसे कोई और गोले दागने रह गये हों तो वो भी दाग ही देतीं आप, काहे बचाकर रख लिये?
    आज कमेंट अहस्ताक्षरित रह गया आपका:))

    @ अभिषेक ओझा:
    एंडिंग वैंडिंग तो ठीक है जीनियस, बिहार झारखंड वाले तीन दिग्गज एक साथ टूट पड़े हैं मुझ गरीब पर, खुदा खैर करे:)

    @ राजेश उत्साही जी:
    आपकी भली सी टिप्पणी ने चहुं ओर भला कर दिया:)

    @ धीरू सिंह जी:
    सही कहा, धीरू भाई।

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  30. ''सिर्फ़ साँस चलते रहना, दिल का ध़ड़कते रहना ये जीवन थोड़े ही होता है। अब तो मेडिकल साईंस ने भी जिन्दगी और मौत की परिभाषा बदल दी है।'' ऐसी अभिव्‍यक्ति आपके लेखन में ही होती है.
    ब्रह्म और माया अंशधारी अमर-प्रीत, बहुरंगी को एकांकी की तरह समेट दिया है आपने.

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  31. एकता कपूर के धारावाहिकों के ज़माने में ऐसी सीधी -सादी प्रेम कहानी पढ़कर बहुत सुकून मिला !

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  32. बहुत ही गलत बात है इ सब ब्लॉग पर लिखने से पहले अपनी पत्नी से इजाजत ली थी हो सकता है उन्हें न पसंद हो अपनी बाते ब्लॉग पर लिखना !!!

    और प्रीत समझदार लड़की थी जो नौटंकीबाज की इ सब इमोशनल ड्रामा को समझ गई काहे की इ सब तबे तक है जब तक वो होने वाले पति है उसके बाद तो न इ शब्द होंगे न इ भाषा और तब मायके जाने पर भी आठ बार फोन होंगे पर इ पूछने के लिए की फला सामान कहा रखा है और फला कहा और पता चलते ही फोन कट | इसमे एक गलती है नायिका कभी भी ऐसे पत्र खास कर होने वाले पति के नहीं फाड़ती है लेमिनेट करा कर रख लेती है एक तो ऐतिहासिक चीज है ये दुबारा न होगा कभी और भविष्य में जब फिर लड़ाई होगी और ऐसे पत्र नहीं लिखे जायंगे तो उन्हें पति देव को दिखा दिखा कर ताने मारे जायेंगे की देखो पहले क्या थे अब क्या हो गए हो |

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  33. अली साहब की मेल के जरिये प्राप्त टिप्पणी :

    अली सैयद to me
    show details 6:47 PM (4 minutes ago)
    आपका कमेन्ट बाक्स मुझे लगातार ठुकरा रहा है सो मेल कर रहा हूं !

    अपने होने वाले शौहर को साधिकार डांटती हुई रमणी की रोमान गाथा मुझे हमेशा से पसंद रही हैं फिर भले ही वो चट से शादी में तब्दील होकर सारा मजा किरकिरा कर दे :)
    बहरहाल रूमानियत भरे अफ़साने बयान करने का हुनर आपने क्या खूब पाया है !

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  34. कई पुरानी फिल्मों के सीन याद करवा दिए आपने.
    sms ही लिखवा दिए होते.खतों का सिलसिला तो बहुत पुराना हो गया अब तो.
    सलाम.

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  35. @ देवेन्द्र पाण्डेय:
    सही कहे देवेन्द्र भैया, को सुने पाठकों की गाली?...:))

    @ राहुल सिंह जी:
    राहुल जी, साधारण नायक नायिका को ब्रह्म और अमया अंशधारी के उपमा देकर आपने मुझे कॄतार्थ किया, धन्यवाद स्वीकारें।

    @ वाणी गीत:
    एकता कपूर के साथ टी.आर.पी. का चक्कर है, इधर वो नहीं है। आपने सराहा, शुक्रिया।

    @ anshumala ji:
    इजाजत? आर्डर मिला था जी, वही बजाया है।
    प्रीत तो समझदार लगनी ही थी आपको, पक्की नारीवादी हैं आप:)
    फ़ाड़ने वाली गलती है, एक्सपीरियंस नहीं था न, आगे से ध्यान रखेंगे। ताने तो इस बात पर नहीं तो किसी और बात पर सही, मारने ही होते हैं आप नारियों ने। ये न होता तो कोई दूसरा गम होना था...:):)

    @ अली साहब:
    इस कमेंट बाक्स की तो..:))
    चलिये इस बहाने हमारा मेल बाक्स आपका मेजबान बना।
    अली सा, वो मजा ही क्या, जो किरकिरा न हो:)

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  36. firstly.....main insaan pehchaanne ki ya fitrat ya psychology ki zyaada samajh nahin rakhti.....one of the many things im not good at...lol

    par aapki kahaniyon main ek baat aam hoti hai....jo bhi happy ending ho (agar galti se kabhi ho ;) to vo zarur shaadi mein end hoti hai...haina....aap romance ko badi jaldi wind up kar dete ho...hihihiii

    just kidding....vaise amar ka inna labma letter...!!! uff, preet ka letter muje bada pasand aaya, kammaaal ka tha, awesome, aise hi hona chahiye....more like me....

    beautiful story dost....pleasure :)

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  37. बिना एक्सपीरियंस इतनी प्रेम कहानिया और ये शानदार प्रेम पत्र ??? भरोसा करने वाली बात तो नहीं लगती है |

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  38. @ saanjh:
    इत्ती बढ़िया तो साईकोलोजी है आपकी,शार्ट वाईंडिंग-अप पकड़ ली आपने। वैसे मेरी राय में रोमांस जब वाईंड-अप होना हो तो जल्दी ही होना चाहिये, ये क्या कि देवदास की तरह बिहेव किया जाये? और रोमांस के बाद शादी को हैप्पी एंडिंग मानती हैं आप? ye to biggest tragedy hai :))

    @ anshumala ji:
    एक्सपीरियंस होता तो कहानी होती, सिर्फ़ एक, हा हा हा।
    अप तो क्या, भरोसा तो कोई भी नहीं करता\करती मुझ पर, सिर्फ़ एक मेरी बीबी को छोड़कर:))


    @

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  39. @शादी को हैप्पी एंडिंग मानती हैं आप? ye to biggest tragedy hai :))

    mujhe bata rahe hain aap......!!!!!

    hee hee ha ha haa....

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  40. रूठना-मनाना, यह प्रसंग सभी के जीवन में जगह बना लेता है। लेकिन इस कहानी के पात्रों के रूठने-मनाने का अंदाज बिल्कुल निराला लगा।
    एक का खिलंदड़ापन दूसरे की पलकों का पानी बन गया। पलकों का यह पानी बिरलों को ही नसीब होता है।

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  41. ये संजय अनेजा बोत पहुंचेला प्राणी लगता है :)

    मस्त कहानी है, मस्त।

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  42. @ saanjh:
    आपको नहीं बता रहा जी, आपकी साईकोलोजी तो पहले से ही शानदार है। ये ज्ञान तो दूसरों के लिये था:))

    @ महेन्द्र वर्मा जी:
    सही कहा सर आपने, विरले ही हैं जो इसे पाते हैं।

    @ सतीश पंचम:
    काये का पहुंचेला बीड़ू, सरकेला है:)

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  43. amarpreet..bs ek shabbd hi kaafi hai sb kuck keh jaane ko

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