शनिवार, अप्रैल 09, 2011

ऑफ़िस-ऑफ़िस


बैंक की वार्षिक लेखाबंदी, पेंशन वितरण, ऑडिट आदि आदि के चलते मुश्किल से दो दिन की छुट्टी का जुगाड़ हो पाया था। सोमवार को ड्यूटी करके रात भर बस में जागकर सुबह दिल्ली पहुँचा। नहा धोकर नाश्ता किया और जिस स्कूल में बच्चों के एडमिशन की बात पहले से कर(वा) रखी थी, वहाँ पहुंच गया। प्रिंसीपल महोदया से मिलने का सुयोग जब तक मिला, बारह बज चुके थे। परिचय देकर जब मिलने का मकसद बताया तो उन्होंने कहा कि छोटे बेटे का टैस्ट ले लेते हैं लेकिन बड़ा जोकि दसवीं कक्षा में आया है, उसका दाखिला मुश्किल है। सी.बी.एस.ई. बोर्ड के तहत अब दसवीं कक्षा में एडमीशन देने के लिये बहुत सी औपचारिकतायें हैं और बहुत दिक्कत आती है। सारा केस उन्हें फ़िर से बताया तो वे कन्विन्स तो हो गईं कि आपका जेनुईन मामला है, लेकिन वही बात कि सी.बी.एस.ई. से अनुमति आपको खुद ही लेकर आनी होगी। थोड़ा इंतजार कीजिये, दो बजे स्कूल के मैनेजर कम डायरेक्टर साहब आते हैं, उनसे बात कर लीजिये। साथ ही उन्होंने आश्वासन दिया कि जितनी मदद हो सकेगी वे करेंगी। मैनेजर साहब आये, फ़िर से वही सारी कहानी दोहराई गई और इस बार मैंने खुद ही कहा कि सी.बी.एस.ई. वाली अनुमति की जिम्मेदारी मेरी। तब इधर से भी हरी झंडी मिल गई। मैनेजर साहब ने  बताया कि एक एफ़िडेविट भी देना होगा जिसमें तमाम तरह के डेक्लेरेशन रहेंगे, एफ़िडेविट तैयार करवाकर स्कूल में लाकर दिखा दिया जाये तो वो इस आशय का एक पत्र सी.बी.एस.ई. को एड्रेस करके स्कूल के लैटर हैड पर बनवाकर दे देंगे। अगले दिन एक बजे का समय तय हो गया।   इस बीच छोटे वाले का टैस्ट भी हो चुका था। समय हो चुका था तीन, सुबह से बच्चे भी भूखे थे और जिसके माध्यम से स्कूल में बात चल रही थी, वो सज्जन भी सुबह से ही हमारे साथ थे, बोले तो जैसे हम भूखे वैसे हमारे मेहमान भी भूखे।  आधी जंग जीतकर बुद्धू पार्टी घर को लौट आई। एम.बी.बी.एस. के अकेले अकेले फ़ोटू भी एडमीशन फ़ार्म पर लगाने को  चाहिये थे। शाम को ये आयोजन भी संपन्न हुआ।  अथ श्री प्रथम दिवसे कथा।

दूसरे दिन एफ़िडेविट तैयार करवाकर निश्चित समय यानि एक बजे से पहले ही स्कूल पहुंचे। एफ़िडेविट से संतुष्ट होकर प्रिंसीपल साहिबा ने फ़ारवर्डिंग लैटर तैयार करवा दिया। टाईपिस्ट महोदय ने लैटर टाईप किया, हमने प्रूफ़ जाँचा। दूसरे के दोष पकड़ने के माहिर होने की विशेषता के चलते(थैंक्स टु सो मैनी यंगर ब्लॉगर्स) वो साधारण सा लैटर तीसरी बार में जाकर ओके हुआ। अटकते भटकते सी.बी.एस.ई. कार्यालय पहुंचे। डीलिंग सीट पर जाकर नमस्ते की तो साहब ने ऊपर से नीचे देखा, पहले मुझे फ़िर चिट्ठी को। पहला ओब्जैक्शन आया कि साथ में पिछली कक्षा की मार्कशीट और ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट की अटैस्टेड फ़ोटोकापी लगानी थी जबकि मैंने स्कूल के कहे अनुसार ओरिजिनल लगा दी थी। दरयाफ़्त करने पर पता चला कि जिस स्कूल में एडमीशन करवाना है, वही अटैस्ट करेंगे। मैंने पूछा कि अटैस्टेड का क्या मतलब होता है?  जवाब मिला कि अटैस्टेड का मतलब है कि ये असली की ही फ़ोटोकापी है। मैंने अपना पक्ष रखा कि जब स्कूल के लैटर हैड पर उन्होंने संलग्न कागजों में इसका विवरण दे दिया है फ़िर अटैस्टेड की क्या जरूरत रही? और फ़िर मैं तो उसके बदले में आपको ओरिजिनल ही दे रहा हूँ।  नियमों से बंधे बाबू साहब ने दलील दी कि ओरिजिनल की आपको जरूरत पड़ेगी। 
मैंने पूछा, “कहां जरूरत पड़ेगी? ये देखकर अगर इन्हें नौकरी मिलती हो तो फ़िर मैं एडमीशन नहीं करवाता।”  
बाबू साहब उवाच, “भाई साहब, आप मजाक कर रहे हैं? नवीं क्लास की मार्कशीट के आधार पर चौदह साल के बच्चे को नौकरी मिल जायेगी क्या?”  
मैंने कहा, “श्रीमान जी, मजाक तो आप कर रहे हैं। मैं आपको ओरिजिनल देने को तैयार हूँ और आप हैं कि अटैस्टेड फ़ोटोकापी की जिद कर रहे हैं।” 
उन्होंने किसी नियम का हवाला दिया कि वहाँ ऐसा ही लिखा है। मैंने कहा कि मैं भी एक जगह नौकरी करता हूँ, आप जैसी रौब वाली जगह तो नहीं है, लेकिन फ़िर भी कुछ चीजें डीलिंग हैंड के विवेकाधीन होती हैं। अगर आप मेरी बात से कन्विंस नहीं हैं तो अलग बात है, लेकिन अगर आपको मेरी बात ठीक लगती है तो कुछ पुनर्विचार करें। गलती से ये भी बता दिया कि अटैस्ट करवाने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन बात कम से कम कल तक जायेगी और मुझे आज रात वापिस लौटना है।  टिप्पणियां पाने के चक्कर में चमचागिरी करनी आ गई है, ये कला वहाँ काम आ गई। दो तीन बार सर सर बोला उन्हें, साहब थोड़े से फ़ूल गये और कहने लगे कि मैडम से पूछकर आता हूँ। मैंने और चढ़ाया, "भाई साहब आप भी वड्डी सरकार से कम नहीं हो वैसे:)" 

खैर, वो हाईकमान से केस डिस्कस करके आये और अहसान कर दिया मुझपर। “वैसे तो नियम एकदम स्पष्ट हैं, लेकिन आपका केस जेनुईन है इसलिये हम ओरिजिनल मार्कशीट और ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट से काम चला लेंगे। कल से बच्चे को स्कूल भेज दीजिये, परमीशन आठ दस दिन में स्कूल में पहुंच जायेगी।”  नतमस्तक होकर, आभारी होकर, अनुग्रहीत होकर लौटकर घर आया तो लंच और डिनर के बीच का समय हो चुका था। फ़िर रात में वापिस भी लौटना था, अगले दिन से ब्रांच में आडिट होना था और हम बैंक वाले वैसे भी बहुत बदनाम हैं कि काम धाम कुछ करते नहीं और तन्ख्वाह सबसे ज्यादा और सबसे पहले लेते हैं। 

उससे अगले दिन जब छोटा भाई बच्चों के एडमिशन करवाने स्कूल गया तो पता चला कि सी.बी.एस.ई. कार्यालय से स्कूल में फ़ोन आ चुका है कि ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट पर पुराने स्कूल के इंस्पैक्टर के काऊंटरसिग्नेचर भी चाहिये थे, वो नहीं हैं। वो बेचारा सारा दिन अपने काम का हरजा करके स्कूल, सी.बी.एस.ई. की नई बिल्डिंग और पुरानी बिल्डिंग, सीट दर सीट चक्कर काटता रहा। दो तीन बार मैंने डीलिंग हैंड से फ़ोन पर बात की और शाम तक जाकर इंस्पैक्टर के काऊंटरसिग्नेचर  की कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो सकी। एक बार फ़िर से बच्चे को स्कूल भेजने की  आज्ञा मिल गई है, लिखित परमीशन में अभी समय लगेगा। 

बिना फ़ीस और विविध शुल्क लिये स्कूल वाले बच्चे को क्यों पढ़ायेंगे और पैसे जमा करवा देने के बाद फ़िर से कहीं कोई कोमा, बिन्दु या रेखा या कोई और ऐसा वैसा ओब्जैक्शन लग गया तो?    मेरा काम करने के लिये तो मेरा छोटा भाई है, जो अपना काम छोड़कर भी इधर से उधर धक्के खा लेगा लेकिन जिन बच्चों के पास ऐसे चाचा, मामा नहीं हैं उनका इन सब बातों में क्या कुसूर है? और बहुत सी बातें हैं, बोर्ड की परीक्षा तो वैकल्पिक हो गई, लेकिन किसी क्लास में एडमिशन के लिये परीक्षा जरूर ली जायेगी। ईश्वर न करे  जिस घर में हालात बहुत अच्छे न हों, उस घर के बच्चों को पढ़ने का भी हक शायद नहीं मिलना चाहिये। पढ़ जायेगा तो आने वाले समय में नौकरी की भी अपेक्षा कर सकता है। ये सब सवाल तो तब उमड़ रहे हैं जब एक बहुत हाई फ़ाई स्कूल की बात नहीं हो रही। और सौभाग्य से जिनसे भी वास्ता पड़ा है, स्कूल प्रबंधन हो या सी.बी.एस.ई. कार्यालय,  वो अपेक्षाकृत सहयोग ही करते दिख रहे हैं। लेकिन कुछ सुविधा शुल्क अभी तक उन्होंने लिया नहीं है, सो दिल है कि मानता नहीं कि काम हो जायेगा। 

हर ऑफ़िस आज के समय में कम्प्यूटरीकृत है, कोई ओब्जैक्शन लगानी हो तो कहीं से भी निकल कर सामने आ जायेगी, अगर किसी कागज की या रिकार्ड की सत्यता जांचनी है तो ऑनलाईन रिकार्ड का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता?  मेरे घर का हाऊसटैक्स रैगुलर भरा जा रहा है।  जो नहीं भरते उन्हें अभी तक नहीं पूछा गया लेकिन मेरे यहाँ नोटिस आया रखा है कि सन 2006-2010 का हाऊसटैक्स असैसमेंट और कर भुगतान मैंने नहीं किया है। दस दिन के अंदर प्राधिकृत अधिकारी के समक्ष उपस्थित हो जाऊँ नहीं तो ……। यदि भर रखा है तो सभी कागज लेकर जाऊँ कि हां जी, मैंने गुनाह किया है जो आपके कहे अनुसार टैक्स भर दिया था और ये रहे सुबूत।  किसी जमाने में जब मेरे दादालोग संयुक्त परिवार के रूप में रहते थे और फ़िर मेरे दादाजी के भाई अपने हिस्से की जमीन बेचकर कहीं और चले गये थे,   बिजली का एक कमर्शियल मीटर  जो कि मेरे दादाजी  के नाम था, हमारे हिस्से आया। दसियों साल उसका मिनिमम बिल भरने के बाद जब उसे उतरवाना चाहा तो द्स हजार सुविधा शुल्क मांगा गया था। मीटर उतरवाने के लिये दस हजार?   जवाब मिला था कि नहीं तो भरते रहिये तमाम उम्र इस हाथी का बिल।

मेरी आदम प्रवृत्तियाँ जोर मार रही हैं, सभ्यता के ढोंग में जीने की बजाय खुले आम जंगल का कानून नहीं  लागू होना चाहिये? इन स्थितियों से आदर्श स्थिति वही नहीं थी क्या.? कम से कम मालूम तो रहता था कि जीने  के लिये कितनी तरद्दुद करनी है। अभी की तरह एक भ्रम की स्थिति में तो नहीं थे हम कि हम एक सभ्य समाज हैं। सवालों के जवाब नहीं हैं, हर जवाब के सौ सवाल जरूर मिल जायेंगे। फ़िलहाल तो आज का जो हॉट टापिक चल रहा है उसी के बारे में सोच रहा हूँ, ’अन्ना की जन लोकपाल बिल की मांग मान लेने पर सब ठीक हो जायेगा न?’ ज्ञान-ध्यान की बातें अब मुझे ज्यादा समझ भी नहीं आती और मैं समझना चाहता भी नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि  सबको शिक्षा का अधिकार का कानून, रोजगार की स्वतंत्रता का कानून, बाल श्रम कानून, सार्वजनिक स्थानों पर  धुम्रपान निषेधक कानून, दहेज विरोधी अध्यादेश वगैरह वगैरह  शायद पहले से अस्तित्व में हैं और इनके कागजों में विद्यमान होने मात्र से समर्थ लोगों की रूह काँप उठती है इसीलिये ऐसे अपराध और इन कानूनों के अनुपालन में होने वाली चूकें अब शायद नहीं ही होती होंगी। 

सुन रहे हैं कि अन्ना की मुहिम को जबरदस्त समर्थन मिल रहा है, हमारी तरफ़ से  भी शुभकामनायें। शायद आई.पी.एल. वाले तो घाटे में रहेंगे इस बार, काहे कि अन्ना ने सारा फ़ोकस हाईजैक कर लिया दिखता है। पी.वी.आर., शापिंग माल्स, बार वगैरह अब खाली रहेंगे क्योंकि जनता ससुरी जाग गई है, एक हम जैसे हैं जिन्हें गहरी नींद ने घेर रखा है। नींद है कि जाती नहीं, होश है कि आता नहीं। 
’सुखिया सब संसार है, खावत है और सोत,
दुखिया दास कबीर है, जागत है और रोत।"

खाने दो यारों मुझे भी और सोने दो, प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब:)) 




35 टिप्‍पणियां:

  1. मैं भी यही कहता हूँ, प्रशासन, व्यवस्था जैसी कोई चीज़ हमारे देश में है ही नहीं - रिश्वत या जान पहचान के बिना बेचारा गरीब क्रे भी तो क्या करे?

    @दो तीन बार सर सर बोला उन्हें
    सर? हा, हा, हा!

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  2. संजय जी,
    अव्यवस्था का दर्द हर व्यक्ति को होता है.
    लेकिन मेज़ की दूसरी तरफ जाकर वह भी अव्यवस्था का हिस्सा बन जाता है.
    इसका उतर हमें अपने भीतर ही खोजना होगा.

    हीरो की तलाश भारतीय जनता कर रही है .
    अभी अन्ना हजारे ही सही,कुछ उम्मीद तो जागी है.

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  3. भ्रष्टाचार और लालफीताशाही हमारे देश और समाज को इस तरह जकड़े हुए हैं कि इनसे निजात मुश्किल लगता है ...
    अन्ना हजारे जी के इस धरने के बाद हालत शयद थोडा सुधर जाय पर मुझे तो उम्मीद कम ही है ... क्यूंकि अकेले अन्ना क्या करेंगे ...
    आज जनता उनके साथ खड़ी है ... पर कल ..?
    लेकिन चोर उच्चकों में बड़ी एकता रहती है ... हमारे भ्रष्ट नेता क्या इतने जल्दी सुधर जायेंगे ... भ्रष्टाचार और चोरी तो उनके gene में है ...
    और शिक्षा की तो बात ही मत करिये ... आज जहाँ ज्यादातर देशों में प्राइमरी शिक्षा को मुफ्त कर दिया गया है ... और शिक्षा पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है ... वहीँ हमारे देश में शिक्षा एक उपेक्षित सेक्टर है और दिन व दिन महँगी होती जा रही है ...

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  4. yahi to dosh hai system ka... jo sabse adhik jimmedaar hain, we aankh, naak, kaan, munh, haath, pair sab band kar baithe huye hain. kyonki wahi to is sabke sootradhar hain, preneta hain, rachayita hain.. isliye oopar se khatm hoga ye sab..

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  5. इस दौर से हम भी गुज़रे है पतिदेव तो व्यस्त रहे मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़े :)
    अंत भला सो सब भला .
    शुभकामनाए

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  6. कम्प्यूटर भी फाइलों की तरह तथ्य को और छिपाने लगे हैं।

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  7. bahut khoob .we the mango people ..they the simla apple ...hahahaaaaaa

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  8. "एम.बी.बी.एस. के अकेले अकेले फ़ोटू भी एडमीशन फ़ार्म पर लगाने को चाहिये थे। शाम को ये आयोजन भी संपन्न हुआ। अथ श्री प्रथम दिवसे कथा।" :)
    बड़ा तामझाम है है ये कार्यक्रम भी। अरसा हुआ हमारे यहाँ ये हुए लेकिन फिर भी, तब इतने झमेले थे, अब तो कितने ही होंगे बस अंदाजा लगा रहा हूँ।

    और आखिरी के तीन अनुच्छेद, कितने तीखे हैं!
    सच अब कड़वा नहीं लगता, तीखा लगता है।
    हम राग कितने ही अलाप लें, symmetry व्यवस्था में नहीं है, randomness में ही है। वैसी ही, जैसी प्रकृति ने हमारे हाथ में थमाई थी।
    status change और bulk sms के "तुम(हम नहीं) चलो तो....." वाले समय में मुझे do not disturb से अच्छा विकल्प नहीं सूझता।

    वैसे C.B.S.E. का दिल्ली कार्यालय तुलनात्मक रूप से अच्छा है, सुना है मैंने।

    आपके लिखे से एक ख़ास उम्मीद हमेशा रहती है मुझे, और आप हमेशा पूरी करते हैं वो उम्मीद। :)

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  9. दरअसल किसी भी कार्यालय के प्रचलित नीयम इतने पारदर्शी,सरल नहीं होते कि एक बार में ही समझ मे आ जांय। कितनी भी सावधानी से काम करो कुछ न कुछ चूक हो ही जाती है। कमी हमारी भी होती है कि हमारे पास न धैर्य होता है न समय। कष्ट उठाना ही नहीं चाहते। इसी का लाभ तंत्र उठाता है।
    आपने सयंम व बुद्धि का परिचय दिया..कमोबेश लोग भी सज्जन मिले। बधाई।

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  10. लो जी हम आ गये आपको डिस्टर्ब करने।
    क्या करें स्कूल वाले और बैंक वाले परेशान तो करते ही है। हमे तो अब आदत हो गयी है।
    एडमिशन का वर्तांत अच्छा लगा।

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  11. इतनी आसानी से काम निपट गया यह तो आपके पुण्यो का फ़ल है .

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  12. नियम-कानूनों की हमारी ज्‍यादातर जानकारी यही होती है कि तुम गलत हो और सही क्‍या है यह देखना पड़ेगा (क्‍योंकि हमें नियम से नहीं चलना, नियमों को हमारे मुताबिक चलना है).

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  13. व्यवस्था में अव्यवस्था- यही हमारे देश के कार्यालयों की पहचान है।

    कानून बनाने वाले ही कानून की धज्जियां उड़ाते हैं। ऐसे में हम खीझने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं। कामना करते हैं कि अन्ना जी का सपना साकार हो।

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  14. संजय बाउजी!
    पेंशन पेमेंट से याद आया... कोई पेंशनभोगी अपने जीवन प्रमाण पत्र के साथ गया तो उसके चालू पेंशन का भुगतान कर दिया गया किन्तु पिछले बकाया पेंशन का भुग्तान नहीं किया गया, क्योंकि पिछला जीवन प्रमाण पत्र उन्होंने नहीं जमा किया था. जो आज जीवित है वो पिछले महीने जीवित था यह साबित करने के लिए प्रमाण पत्र चाहिए.
    (कु)व्यवस्था व्याप्त है (मैं तो अव्यवस्था भी नहीं कहता)..

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  15. @ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन:
    उन सर को सेवापानी का ऑफ़र भी स्वीकार्य नहीं था, सौजन्य हमारा फ़ौजीकट होना:))
    और जब हमें भी कोई कोई सर बना जाता\ती है तो हम अपने पास कैसे रखें, बढ़ाकर आगे सरका आये।

    @ विशाल:
    ऐसा ही होता है। गाड़ियों में बहुत देखा है, जब तक हम गेट पर लटके रहते हैं अंदर वालों को पुकारते रहते हैं कि हमें भी आने दो अंदर और जहाँ अंदर जगह पाई, अगले स्टेशन पर नये आने वालों को दूसरे कोच में जाने के लिये कहते हैं - इधर भीड़ बहुत है। स्थानम प्रधानम।

    @ Indranil Bhattacharjee:
    शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है तो स्वरूप भी बदलना स्वाभाविक है। अन्ना के मिशन, प्रयासों की शुचिता पर हमें भी गर्व है लेकिन हालात के बारे में अपना भी आप की तरह ही सोचना है।

    @ bhartiya naagrik:
    discretion भी कोई चीज होती है, लेकिन उसका प्रयोग सुविधानुसार किया जाता है। ऊपर नीचे सब एक समान हैं सर, हाँ, ऊपर अगर सही हो तो नीचे वालों की हिम्मत बेशक नहीं सर उठायेगी।

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  16. @ सरिता जी:
    आपके पापड़ बेलने से साहब को रिलीफ़ जरूर मिली होगी। ऐसा होना भी चाहिये।

    @ Poorviya:
    शुक्रिया मिश्रा जी, जय बाबा बनारस।

    @ प्रवीण पाण्डेय:
    कम्प्यूटर को सुविधानुसार कभी तलवार की तरह और कभी ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं हम लोग।

    @ Anand Rathore:
    these days Simla apple are not solicited, its the time for californian apples:)

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  17. @ Avinash Chandra:
    discipline है जो प्रकृति की randomness में भी symmetry बनाये है। वैसे सहमत हूँ तुमसे(कब नहीं था?)।
    खुशकिस्मत हो छोटे भाई जो उम्मीद पूरी हो जाती हैं, वरना तो अपुन उम्मीदें तोड़ने के रिकार्ड तोड़ने वालों में से हैं:)
    आना तेरा मुबारक, तशरीफ़ लाने वाले:))

    @ देवेन्द्र पाण्डेय:
    लोग भी सज्जन मिले और ’फ़ेस टु फ़ेस’ बात हो सकी, इसका भी फ़र्क पड़ा। कहीं लाईन लगी होती तो कौन सुनता और कौन सुनने देता? बधाई के लिये शुक्रिया।

    @ Deepak Saini:
    स्कूल वालों को तो खैर फ़िर भी हक है, बैंक वाले सच में बहुत परेशान करते हैं(मन्ने भी। :))

    @ dhiru singh {धीरू सिंह}:
    मेरे पुण्यों का भी और आप मित्रों की दुआओं का भी। नहीं होता तो आपको फ़ोन लगाना था सिफ़ारिश के लिये, आपके पुण्य भी काम आये:))

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  18. चलिए फिर भी किस्मत है आपकी की आपको बिना सुविधा शुल्क लिए काम करने वाले बन्दों से पाला पडा .............. लेकिन टाल-मटोल तो फिर भी खानी पड़ रही है ............... वैसे अब पता चला ना आपको भी परेशानी का .................. याद कीजिये कैसे पास-बुक में एंट्री करवाने वाले को बैंक वाले कह देतें है अभी मशीन खराब है .......... या दूसरी ब्रांच वाले बन्दे का कैश जमा करने में हील-हुज्जत करतें है कैशियर साहब :)

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  19. @ राजेश उत्साही जी:
    और एक पोस्ट का जुगाड़ भी:))

    @ Rahul Singh ji:
    वैल सेड, सर। सही क्या है और कैसे हुआ सही, ये भी देखना होता है।

    @ mahendra verma ji:
    अव्यवस्था ही व्यवस्थित है जैसे आजकल बेईमानी में ही ईमानदारी। अन्ना के मिशन के प्रति हमारी भी शुभकामनायें हैं सर।

    @ चला बिहारी....:
    मेरे ख्याल हाईजैक कर लिये हैं सलिल भाई। पोस्ट में नहीं लिखा था ये ’लाईफ़ सर्टिफ़िकेट’ वाला किस्सा, सोचा था कमेंट्स में चेपूँगा। आपका कहा भी और अनकहा भी सर माथे।
    अभी भी सचिन बने हुये हैं क्या आप?

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  20. कबीर एडमशिन के चक्‍कर में होते तो ये दोहे साखी नहीं हो पाते.

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  21. राज काज की देर से सही पर खबर तो हुई आपको :)

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  22. ये लीजिये ओरिजिनल कमेन्ट, अटेस्ट नहीं करवा पाया तो ओरिजिनल ही दिए जा रहा हूँ.
    बैंक वालो को डोक्युमेंट के लिए दौड़ाया गया तो सुन कर हंसी आई. चोर के घर में चोरी. सुना है कि दुनिया जहाँ को तो बैंक वाले दौडाते है और ये आये हैं बैंक वालों से डोक्युमेंट मांगने. :)
    वैसे इस हालत में उम्मीद ही की जा सकती है. शुभकामनायें दे रहा हूँ कि आपका काम हो जाए.
    और एक सीख लिए जा रहे हैं हम भी आगे से 'सर' बोला करेंगे. एक बार मैं एक ऑफिस में चला गया था अटेस्ट करवाने, हाफ पैंट पहन के. विडीओ साहब गुस्से में आ गए 'ये कोई तरीका है ऑफिस में आने का.' वो तो गनीमत है कि उन्होंने पूछ लिया कि कहाँ पढ़ते हो. कॉलेज के नाम से थोड़े ठंडे हुए तो प्यार से बोले 'थोडा ढंग से आया करो ऑफिस में'. सर वाला फ़ॉर्मूला होता तो तपाक से काम आया होता.

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  23. सर जी विकट कथा है...हर ओफ़िस में ऐसा ही ढंग है...सब जगह अटेस्टेड मानसिकता के ही लोग बैठे मिलते हैं...जो नौकरी की शुरूआत में ठीक-ठाक होते हैं वह भी समय के साथ वैसे ही हो जाते हैं...इसमें जाति,धर्म, प्रदेश से कोई अन्तर नहीं पड्ता.

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  24. @ अमित शर्मा:
    तुम्हें तो मौका मिल गया प्यारे, सारे बैंक वालों की ज्यादतियाँ मुझ गरीब के सर थोपने का| अच्छे दोस्त हो भाई:)

    @ राजेश सिंह जी:
    सही कहते हैं सर।

    @ अली साहब:
    क्या करें भाई साहब, हमें तो हर चीज की खबर देर से हो पाती है और कई बार तो हो ही नहीं पाती:)

    @ अभिषेक ओझा:
    अरे हुज़ूर, आपकी तो अनैटैस्टेड बात में भी ओरिजिनैलिटी से ज्यादा दम है। सर, साहब जी, जनाब का पाठ १०८ बार करने से औरन सीतल होते हैं। फ़िर भी काम न चले तो पंजाबी बोलनी शुरू कर देने से कार्यसिद्धि होने के चांस बढ़ जाते हैं।

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  25. sanjay maine jaanboojh kar nahee hataya tha tanki pata to chale aisaa bhee hota hai yanha....... comment dena majbooree nahee hai.......
    settle ho gaye naye shahar me ?
    All the best.

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  26. त्रिभुवन जननायक मर्यादा पुरुषोतम अखिल ब्रह्मांड चूडामणि श्री राघवेन्द्र सरकार
    के जन्मदिन की हार्दिक बधाई हो !!

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  27. aajkal aisaich game khel riya hoon bhaijan.......office bhi distrubed hai.....

    bara bore game hai ye office-office to....

    thora bahut laga-kar rakhne den bare bahi.....itni jaldi kya hai.....chukta karne ki......

    pranam.

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  28. @ prkant:
    सहमत, सर।

    @ Apanatva:
    सरिता दी, आपके द्वारा कमेंट न हटाने की मुझे भी यही वजह लगी थी।
    बाकी हाल मेल में लिखा है, शायद आप तक पहुंच गया होगा।

    @ अमित शर्मा:
    आपको भी और धन्यवाद अमित।

    @ सञ्जय झा:
    डिस्टर्बेंस जल्दी खत्म हो, यही कामना है।
    कर्ज बढ़ता ही जा रहा था बंधु और कर्ज या मर्ज जल्दी निबटें तो बेहतर:))

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  29. आपकी प्रति कमेंट की आदत मुझे दुबारा ब्लॉग पर आने के लिए मजबूर करती है।

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  30. संजय सर बस इन्हीं कुछ परेशानियों को ध्यान में रख कर मैंने डेपुटेशन पर जाने का इरादा त्याग दिया है वर्ना अभी इसी माह के प्रारंभ में भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के

    कार्यालय द्वारा दिल्ली सरकार के कर्मचारियों को देश के विभिन्न प्रान्तों (पोर्ट ब्लेयर से लेकर कश्मीर) में नियुक्ति का न्योता मिला था.

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  31. हुकुम…!

    क्या माकूल समय पर पोस्ट चेंपी है…! आज कल नये निर्माणाधीन घर के लिये बिजली-पानी के कनेक्शन और पोस्टल रजिस्ट्रेशन के लिये हम भी ऑफ़िस-ऑफ़िस खेल रिये हैं। अब लगता है कि लालटेन और हैंडपम्प पे ही भरोसा बेह्तर था। शेष तो आप समझ ही गये होंगे, आखिर समानुभूत पीड़ा है।…

    ज्ञान-ध्यान की बातें अपने भी पल्ले नहीं पड़ती…अनुज जो ठहरे। पर आखिर के दो पैरा मुझ मोटी-बुद्धि में भी कुलबुलाहट पैदा करते हैं।


    नमन !

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  32. बहुत शोर सुनते हैं कि दफ्तर 'पेपर लैस' हो गए गए हैं.... हकीकत यही है कि दफ्तरों में अभी भी 'कागज़' का ही बोलबाला है...दफ्तरी मानसिकता की अच्छी तस्वीर खींची है आपने!!

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  33. @ देवेन्द्र पाण्डेय:
    कष्ट के लिये खेद है जी:)

    @ विचार शून्य:
    जाना चाहिए था बन्धु, खेत और भी हैं मंडावली के बाहर:)

    @ रवि शंकर:
    अरे वाह अनुज, हर ओफ़िस में कोई न कोई कमजोर कड़ी होती है और वही हमारी तुम्हारी सबसे बड़ी सहायक होती है। नये घर के लिये शुभकामनायें।

    @ SKT:
    त्यागी साहब, आभार।

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