(चित्र गूगल से साभार)
"श्रवण कुमार ने अपने आसुंओं से अपने माता पिता के चरण भिगो दिये और फिर से उन्हें बहंगी में बिठाकर और बहंगी को अपने कंधे पर रखकर तीर्थ यात्रा करवाने निकल पड़ा" बेटे के बालों में उँगलियाँ फिराते हुए उन्होंने कहा।
"पापा, उस दिन दादाजी को सत्संग में जाना था तब आप साथ चले जाते तो उन्हें आसानी होती न?" उनींदी सी आवाज में बेटे ने पूछा।
"अरे मेरे पास छुट्टी नहीं थी, गाडी और ड्राइवर भेज दिया था न.."
दो चार पल के मौन के बाद फिर से बेटे की आवाज आई, "जिन दिनों मम्मी की तबियत खराब थी, तब भी आप ऑफिस से आते समय क्लब होकर ही आते थे।"
अब उनकी आवाज में थोड़ी सी तल्खी आ गयी थी, "तबियत खराब थी तो डॉक्टर, दवा वगैरह करवाया था कि नहीं? काम काज और सोशल लाइफ छोड़कर सारे बीमार बनकर तो नहीं बैठ सकते।"
कुछ देर चुप्पी छाई रही। लड़के को फिर से कुछ याद आ गया, "चाचू का फ़ोन आया था, कह रहे थे तेरे पापा तो फ़ोन ही नहीं उठाते। आपको याद दिलाने को कह रहे थे कि प्लाट की रजिस्ट्री वाला काम अभी रहता है।"
"बहुत बोलने लगा है तू, हम छोटे थे तो अपने मां-बाप के आगे जुबान नहीं खुलती थी हमारी। एक ये हैं आजकल के बच्चे, छोटे-बड़े का लिहाज ही नहीं। अबके तेरे मुंह से आवाज निकली तो फिर देखना। सो जा चुपचाप, तू सोयेगा उसके बाद ही मैं अपना लिखने पढने का काम कर पाऊँगा।"
"ओके पापा, गुड नाईट। आप लिख लीजिये।"
बेड पर लेटे लेटे ही लैपटॉप पर आनन-फानन में 'पारिवारिक मूल्यों को बचाने में हमारी भूमिका' शीर्षक से एक निबंध लिखकर 'व्यास साहब' को मेल कर दिया और टाइम मैनेजमेंट के लिए खुद को शाबाशी दी। कितनी बार इशारा करने के बाद आज उस साहित्यकार की दुम 'व्यास' ने उनसे एक लेख माँगा था, आज चूक जाते तो जाने फिर कब अखबार में छपने का मौका मिलता।
"श्रवण कुमार ने अपने आसुंओं से अपने माता पिता के चरण भिगो दिये और फिर से उन्हें बहंगी में बिठाकर और बहंगी को अपने कंधे पर रखकर तीर्थ यात्रा करवाने निकल पड़ा" बेटे के बालों में उँगलियाँ फिराते हुए उन्होंने कहा।
"पापा, उस दिन दादाजी को सत्संग में जाना था तब आप साथ चले जाते तो उन्हें आसानी होती न?" उनींदी सी आवाज में बेटे ने पूछा।
"अरे मेरे पास छुट्टी नहीं थी, गाडी और ड्राइवर भेज दिया था न.."
दो चार पल के मौन के बाद फिर से बेटे की आवाज आई, "जिन दिनों मम्मी की तबियत खराब थी, तब भी आप ऑफिस से आते समय क्लब होकर ही आते थे।"
अब उनकी आवाज में थोड़ी सी तल्खी आ गयी थी, "तबियत खराब थी तो डॉक्टर, दवा वगैरह करवाया था कि नहीं? काम काज और सोशल लाइफ छोड़कर सारे बीमार बनकर तो नहीं बैठ सकते।"
कुछ देर चुप्पी छाई रही। लड़के को फिर से कुछ याद आ गया, "चाचू का फ़ोन आया था, कह रहे थे तेरे पापा तो फ़ोन ही नहीं उठाते। आपको याद दिलाने को कह रहे थे कि प्लाट की रजिस्ट्री वाला काम अभी रहता है।"
"बहुत बोलने लगा है तू, हम छोटे थे तो अपने मां-बाप के आगे जुबान नहीं खुलती थी हमारी। एक ये हैं आजकल के बच्चे, छोटे-बड़े का लिहाज ही नहीं। अबके तेरे मुंह से आवाज निकली तो फिर देखना। सो जा चुपचाप, तू सोयेगा उसके बाद ही मैं अपना लिखने पढने का काम कर पाऊँगा।"
"ओके पापा, गुड नाईट। आप लिख लीजिये।"
बेड पर लेटे लेटे ही लैपटॉप पर आनन-फानन में 'पारिवारिक मूल्यों को बचाने में हमारी भूमिका' शीर्षक से एक निबंध लिखकर 'व्यास साहब' को मेल कर दिया और टाइम मैनेजमेंट के लिए खुद को शाबाशी दी। कितनी बार इशारा करने के बाद आज उस साहित्यकार की दुम 'व्यास' ने उनसे एक लेख माँगा था, आज चूक जाते तो जाने फिर कब अखबार में छपने का मौका मिलता।
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जवाब देंहटाएंबच्चा अच्छी तरह समझ रहा है कहानी का मर्म, शायद याद भी रखे इसे, अपने बच्चे को सुनाने के लिए.
जवाब देंहटाएंलिखना , कहना आसान है , निभाना बहुत मुश्किल ...वैसे इतना मुश्किल भी नहीं है , मन हो तो !
जवाब देंहटाएंएक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ट्रांसफर भी तो ऐसे ही होंगे ये संस्कार !
मानवीय मूल्यों को समझाती एक लघुकथा...पठनीय...और ..."श्रवणीय"....
जवाब देंहटाएं"श्रवणीय" - इंतज़ार :)
हटाएंyahi sthkiti ho gayi hai...charitra to bahut padhne ko mil jaate hain..anukaran karne ke liye koi nahi mil paata...kathni aaur karni me bahut antar ho gaya hai...sadar bahdayee ke sat
जवाब देंहटाएंन हंसाया न गुदगुदाया आज तो छील कर रख दिया !
जवाब देंहटाएंफूट-फूट के रोई-गाई जब आपन आई बारी
कथनी औ करनी में जेकरे अंतर होला भारी।
जीवन की सच्चाई यही हैं।
जवाब देंहटाएंरोग ग्रसित तन-मन मिरा, संग में रोग छपास ।
जवाब देंहटाएंमर्जी मेरी ही चले, नहीं डालनी घास ।
नहीं डालनी घास, बिठाकर बँहगी घूमूँ ।
मम्मी तेरी खास, बैठ सारे दिन चूमूँ ।
चाचा का क्या प्लाट, प्लाट परिवारी पाया ।
मूल्य बचाते हम, व्यास जी को भिजवाया ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
पर उपदेस कुसल बहुतेरे, तुलसी बाबा पहले ही कह चुके हैं. सत्य यह है कि अपनी स्वार्थपूर्ति के हिसाब से नियम-क़ानून-प्रथा को हम मोड़ लेते हैं.
जवाब देंहटाएंकाश ये बेटे जाने कि कभी ये भी बूढ़े होंगे।
जवाब देंहटाएंकहानी कोई भी सुना लें, लेकिन बच्चों ने तो हमसे ही सीखना है ना
जवाब देंहटाएंप्रणाम
कहने की बातें और होती हैं और रहने की और।
जवाब देंहटाएंइसे मैं लघु कथा नहीं कहूँगा. महा कुछ ....
जवाब देंहटाएंआशीर्वाद बना रहे आपका.
हटाएंदिल को छू गयी....
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक लेखन...
सादर.
वोई तो..!
जवाब देंहटाएंऊ कहते हैं ना..हाथी के दाँत, खाने के और, दिखाने के और...
आप भी कलब जातें हैं ?? वड्डे लोग वड्डी बातें...:)
हाँ नहीं तो..!!
वोई तो..
हटाएंचाँद की बात करने के लिये चाँद पर जाना जरूरी ही होगा, है न?
एक तरफ़ चाँद, एक तरफ़ कलब - वड्डा कौन?
Aisa bhee hota hai!
जवाब देंहटाएं'पारिवारिक मूल्यों को बचाने में हमारी भूमिका'
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्या लेख लिखा होगा, सी सी टू संजय बाऊ भी कर देते तो अच्छा था.. अब एक अलग मेल से लिंक भेजेंगे. क्या ख़ाक टाइम मनेजमेंट की है. :)
ले लो हमारे मजे बाबाजी तुम भी, देखी जायेगी :)
हटाएंसच ही तो है - ऐसी ही जिंदगी .... ऐसे ही हम ?
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बंद करो बक बक - ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंजीवन का कटु सत्य...
जवाब देंहटाएंसत्यजित रे की फिल्म "शाखा-प्रशाखा" याद हो आयी!! कदवा सच!!
जवाब देंहटाएंjeevan kee sachchai yahi hai.great presentation.ये वंशवाद नहीं है क्या?
जवाब देंहटाएंसजी मँच पे चरफरी, चटक स्वाद की चाट |
जवाब देंहटाएंचटकारे ले लो तनिक, रविकर जोहे बाट ||
बुधवारीय चर्चा-मँच
charchamanch.blogspot.com
do phidhiyon ke bich ka 'jaddojahad'......
जवाब देंहटाएंpranam.
बहु सुन्दर. हम आज मानवीय मूल्यों की अवहेलना कर रहे हैं और दिखावा इतना की अवहेलना की ही अवहेलना
जवाब देंहटाएंकरने पे उतारू हो जाते हैं. सही है हमें दूसरों को उपदेश तभी देने चाहिए जब हम वो अपने जीवन में धारण करलें.
कई बार यूँ भी होता है, कि हम जो नहीं हो पाते, या होते वह सब अपनी अगली पीढ़ी में देखना चाहते हैं, और अधिक उम्मीद रखना तो हमने हमेशा से बिन सिखाये सीखा है।
जवाब देंहटाएंसटीक!
माशा अल्लाह बड़ा ज़हीन बच्चा (और बढिया नसीब) पाया है साहब ने, वर्ना कई ग़रीब ऐसे भी होते हैं जो पढते थे तब मास्साब से मुर्गा बनते थे और जब पढाते थे तब छात्रों के जूते खाते थे।
जवाब देंहटाएंऐसे ही गरीब हम भी हैं जी, बालक थे तो बड़ों से डरते\सीखते थे और अब बालकों से डरते\सीखते हैं.
हटाएंऐसे मुखौटाधारी चेहरे हर जगह हैं।
जवाब देंहटाएंहम सब सभ्य और कुलीन होने का स्वांग रचने में कितने माहिर हो गए हैं ?
बहुत मार्मिक ।
जवाब देंहटाएंप्रिय मो सम कौन जी ?
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के ख्याल से एक लिंक टिकाये जा रहे हैं ! लगता है चचा ग़ालिब ने भी ऐसे ही हालात में साहित्यकार की दुम व्यास को ये गज़ल लिख भेजी होगी !
http://ghazalsagar.blogspot.in/2010/12/blog-post.html
लिंक चिपकाने से नफरत है ,तुम्हें लाख सही
लेकिन बा-मानी गज़ल मिलती नहीं यूंहीं कहीं :)
चचा की ये गज़ल ’हजारों ख्वाहिशें ऐसी..’ के भी ऊपर अपनी सबसे फ़ेवरेट गज़ल रही है और आज तक जानबूझकर सुनी नहीं है, सिर्फ़ पढ़ी है और खुद रेंके हैं:)
हटाएंलिंक चिपकाने से कतई नफ़रत नहीं है अली साहब, दिक्कत सिर्फ़ उमड़ते उफ़नते दीन-धरम के बंदों के लिंक से हुआ करती थी। वैसे सुना है कि अब हम बहुत बदल गये हैं तो किसी दिन हम भी विनीत, विनम्र होने ही वाले हैं:)
बामानी लिंक के लिये तहे दिल से शुक्रिया।
हम विश्व बन्धुत्व की भावना को अच्छी तरह जानते हैं,
जवाब देंहटाएंअपने भाई को छोड सारी दुनिया को भाई मानते हैं!
लगे हाथों मै भी एक लिंक चिपका ही दूँ,
पेड! "बरगद" का! http://sachmein.blogspot.in/2010/06/blog-post.html
बहुत खूब कुश भाई।
हटाएंहोते हम व्यासजी तो लिंक चिपकाना और भी कार आमद होता:)
वाह...वाह...वाह...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.....बहुत बहुत बधाई...
आप भी इस मुद्दे पर एक पोस्ट लिख किनारे हो लिए :)
जवाब देंहटाएंपारिवारिक मूल्य यह दोमुहें क्या बचायेंगे ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें संजय भाई !
आदर्शों की निर्मम हत्या ..
जवाब देंहटाएंआदर्श अब केवल किताबों में...या फिर शो-केस में सजने भर के ही रह गए हैं ....यतार्थ से कोसों दूर!
आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ ...प्रभावशाली प्रस्तुति
एक लघु कथा के माध्यम से पारिवारिक मूल्यों पर बहुत कुछ कह गए आप.सार्थक लेखन॥
जवाब देंहटाएंपारिवारिक आदर्श तो बस किताबो और कहानियो में ही अधिक मिलते है
जवाब देंहटाएंयथार्थ में बहुत कम
कडवी सच्चाई को शिद्दत से रखांकित कर गयी आपकी लघुकथा...
जवाब देंहटाएंसादर.
जीवन के कटु सत्य को दर्शाती रचना..बधाई!!
जवाब देंहटाएंमानवीय मूल्यों का अवमूल्यन दर्शाती बहुत सटीक लघुकथा...
जवाब देंहटाएंअंतस को बेधती हुई लघु कथा.......
जवाब देंहटाएंन केवल जीवन मूल्यों का पतन है बल्कि अब उस पतन का अहसास तक जाता रहा। सम्वेदनाएं अब सतर्क भी नहीं करती।
जवाब देंहटाएंआपने इस सच्चाई को वेधक मनोभावों में गुंथा है।
जीवन की सच्चाई यही
जवाब देंहटाएंक्या कहें जी !
जवाब देंहटाएंबड़ी खतरनाक पोस्ट है जी। :)
जवाब देंहटाएंnishabd
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