रविवार, नवंबर 17, 2013

तटस्थता का झंझट

हमारे पापा के एक दोस्त हैं, सहकर्मी रहे हैं और अब दोनों ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सही मायने में अपने को जो थोड़ा बहुत पढ़ने का शौक हुआ, इन्हीं अंकल की बदौलत हुआ। असल में उनकी पोस्टिंग मेरे स्कूल के पास थी और कभी पापा का कोई संदेश पँहुचाने के लिये और कभी-कभार अपने किसी काम से उनके ऑफ़िस में जाना पड़ता था। परिवार इसी शहर में रहते हुये भी एक तरह से मेरे लोकल गार्जियन का कर्तव्य इन्हीं अंकल ने निभाया।

अंकल एकदम शरीफ़ टाईप के लेकिन हर मर्ज की दवा रहे, निस्सवार्थ और निस्संकोच स्वभाव उनके चरित्र का यू.एस.पी. है। हर विभाग में उनके परिचित निकल आते थे और किसी का भी कोई काम हो तो वो निस्संकोच अपने सिर ले लिया करते थे। किसी अस्पताल में किसी और के काम से गये तो बातों-बातों में पता चलता कि अब उन्हें बिजली दफ़्तर में जाना है और अस्पताल वाले परिचित का कोई काम उस बिजली विभाग से निकल आता। वहाँ जाकर अपने काम करवाये तो पता चला कि बिजली विभाग वाले को बैंक में चेक जमा करवाने या ऐसे ही किसी काम से जाना है तो अगला पड़ाव बैंक होता था और महीने-दो महीने में एकाध बार हम भी उनके साथ संलग्नक बनकर घूमते रहते थे। यूँ समझिये कि रोज का एकाध घंटा उनका इसी सेवाकार्य में गुजरता था। ऐसे ही एकबार किसी की किताबें लौटाने लाईब्रेरी गये तो मैं साथ था और फ़िर मेरे यह पूछने पर कि क्या मैं भी इसका सदस्य बन सकता हूँ, उन्होंने उसी समय मेरा लाईब्रेरी कार्ड बनवा दिया।

अंकल का सादा स्वभाव मुझे बहुत पसंद आता था। एक बार मुझसे पूछने लगे, "किताबें तो पढ़ता है कभी नाटक-वाटक भी देखे हैं अंग्रेजी वाले?"  मैं  भी कौन सा कम सादा था, कह दिया कि देख तो लूँ लेकिन अंग्रेजी के संवाद समझ  नहीं आयेंगे। कहने लगे कि समझने की कोई जरूरत नहीं होती, जब सब ताली बजायें तो ताली बजा दो, जब सब हँसें तो हँस दो। आज्ञा शिरोधार्य करते हुये इसी अंदाज में एकाध नाटक देखा भी, अंकल अपने को आज भी पसंद हैं लेकिन वो आईडिया अपने को उस समय ज्यादा पसंद नहीं आया। फ़िर हमने न देखे अंग्रेजी के नाटक-फ़ाटक। मन में यही सोचा कि इस तरह से अंग्रेजी नाटक देखने से तो सप्रू हाऊस के पंजाबी नाटक देखना ज्यादा बढ़िया रहेगा, कम से कम कुछ पल्ले तो पड़ेगा।

पिछले कुछ दिन से या तो बदली हुई दिनचर्या का असर है या कुछ और बात, अंकल की कही बात थोड़ी-थोड़ी पसंद आने लगी है।  ताजा हालात से अपडेट नहीं रह पाता, हो-हल्ला सुनकर रहा भी नहीं जाता और पूरी जानकारी न होने के चक्कर में कुछ कहा भी नहीं जाता। एक तो जब तक कोई बात समझ आती है, तब तक नई ब्रेकिंग न्यूज़ आ चुकी होती है। इत्ते मामले हो गये, हमने कुछ प्रतिक्रिया ही नहीं दी। आसाराम जी का मामला, खजाने का मामला, मोदी का मामला, राहुल का मामला, नीतिश जी का मामला, और अब सचिन का मामला -  गरज ये कि अपना हाल ऐसा हुआ पड़ा है कि एक चीज की मीमांसा करने की सोचते हैं, तब तक भाई लोग नया हो-हुल्लड़ शुरू कर देते हैं। अबे मिलजुलकर सरकार बना सकते हो, मिलजुलकर घोटाले कर सकते हो, दूसरे उल्टे सीधे काम कर सकते हो मिलजुलकर लेकिन ये नहीं हो सकता कि नया मामला खड़ा करने में मिलजुलकर और आम सहमति से काम ले लो। एक ने कुछ कहा या किया तो तुमसे इतना सब्र नहीं होता कि कम से कम एक हफ़्ता तो इंतजार कर लो? तुम्हारा तो ये फ़ुल्ल टाईम धंधा है लेकिन हम जैसों को तो दो टकेयां दी नौकरी भी देखनी होती है और दूसरी तरह की दुनियादारी भी। वैसे तो हम प्रतिक्रिया न भी दें तो चलेगा, प्रतिक्रियावादियों की कमी तो है नहीं लेकिन कवि लोग जो कह गये हैं कि तटस्थ रहने वाले भी पाप के भागी हैं तो हम चुप कैसे रहें भला? ’जबरा मारे और रोने भी न दे’ वाली बात कर रखी है मुझ जैसे गरीबों के साथ।

हारकर हमने फ़ैसला किया कि अंकल की बात पर अब अमल करेंगे, सब ताली बजायेंगे तो हम भी ताली बजा देंगे और जब दूसरे हँसेंगे तो हम भी हँस देंगे ताकि कम से कम तटस्थ तो न समझे जायें। लेकिन इन धुरंधरों से हमारे साथी ही कौन सा कम हैं? इन मित्रों से अच्छे तो वो दर्शक हैं जो एक दूसरे को देखकर ताली बजाते हैं या हँसते हैं। तुम तो फ़टाफ़ट से हर बात में भारत-पाकिस्तान बना लेते हो। मोदी ने कुछ कह दिया तो समर्थक उसे ही जस्टीफ़ाई करने में लग जायेंगे और विरोधी आरोप लगाने लगेंगे। और अगर राहुल ने कुछ कह दिया तो फ़िर वही करम, आमने-सामने। बात न देखी जायेगी, अपनी प्रतिक्रिया इससे प्रभावित होगी कि बात कही किसने है।

मुजफ़्फ़रनगर दंगों के बाद राहुल के भाषण को लेकर अच्छा खासा बवाल उठ खड़ा हुआ। जहाँ तक मेरी जानकारी है, राहुल ने कहा था कि इन दंगों के बाद आई.एस.आई. कुछ मुस्लिम युवाओं के संपर्क में है। जब तक हम इस बात के लिये तैयार हुये कि चलो भाई ने कोई तो समझदारी की बात की। अब थोड़ी वाहवाही कर ली जाये, तब तक पता चला कि इस बात पर चुनाव आयोग में शिकायत भी हो गई और नेताओं ने राहुल से स्पष्टीकरण भी माँग लिया कि या तो आप उन युवाओं के नाम बताईये या फ़िर मुस्लिम समुदाय से माफ़ी मांगिये। ले भाई संजय कुमार, दे ले प्रतिक्रिया। हम फ़िर से तटस्थ हो गये लेकिन एक बात नहीं समझ आई कि किस बात की माफ़ी मांगी जाये साहब?  इस व्यक्तव्य से पूरे मुस्लिम समुदाय का अपमान कैसे हो गया? आपकी ये माँग किसे क्लीनचिट दे रही है?

उधर पटना भाषण, जोकि मेरे विचार में मोदी के सबसे हल्के भाषणों में से एक था से अपना भी फ़्यूज़ उड़ा हुआ था कि सामने वालों ने उससे भी तगड़ी बातें करनी शुरू कर दीं। सरदारजी ने ज्ञान बघारा कि भाजपा है जो इतिहास और भूगोल बदलती है। सत्वचन महाराज, तुस्सी सच में ग्रेट हो। सब टीवी  पर आने वाले हमारे परिवार के पसंदीदा सीरियल ’तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ का वो सीन याद आ गया जब दया भाभी एक काकरोच को देखकर चीखती है ’कारकोच-कारकोच’ और उसका पति जेठालाल उसकी गलती पर उसे डाँटता है कि पगली इसे कारकोच नहीं कहते। दया के सकुचाकर पूछने पर कि फ़िर इसे क्या कहते हैं, इतराते हुये जेठालाल बताता है, "इसे कहते हैं, ’काचरोच’"

हँसी-मजाक की बात एक तरफ़, लेकिन गंभीरता से इस बात पर क्या हमें नहीं सोचना चाहिये कि ये आरोप-प्रत्यारोप सिर्फ़ सत्ता के लिये लगा रहे हैं और इनके भी कुछ दुष्परिणाम हो सकते हैं?

ऐसा भी हो सकता है कि  मैं इन बातों को संपूर्णता में न समझ पा रहा होऊँ।  अगर ऐसा है तो फ़िर अंकल की बात पल्ले बांध लेने में कोई बुराई नहीं कि सब जैसा करें, वही किया जाये और काकरोच को कारकोच नहीं बल्कि काचरोच कहा जाये :)

28 टिप्‍पणियां:

  1. तटस्थता अच्छी है पर एक स्टैंड लेना उससे बेहतर है. :)

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    1. स्टैंड लेना ही चाहिये। असली मुद्दा तो स्टैंड क्या लिया जाये, यही है। जिसे हम सही मानते हैं, उसकी हर बात को सही साबित करने की कोशिश करना या सही बात का समर्थन करना बेशक वो किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ़ से आये जिसे हम सही नहीं मानते?


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  2. हमारा अन्तर्मन जो कहता है हमें वही मान लेना चाहिए ।

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  3. काकरोच से डरना ही सत्‍य है बस डर के मारे कुछ भी शब्‍द निकल सकता है। इसलिए लोकतंत्र में डरते रहो, नेताओं की सुनते रहों और देश हित में जो जो अच्‍छा है उसे मानते रहो।

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    1. सुनो सबकी, करो मन की। ओमपुरी ने भी यही कहा था, कंबल मिले या नोट मिलें तो ले लो लेकिन वोट अपने मन से दो :)

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  4. अपना हाल भी बिलकुल वही है जो आप का है कि एक पर कुछ लिखे उसके पहले दूसरा मुद्दा सामने आ जाता है उस पर कुछ सोचते है तो तीसरा आ जाता है चुनावी मौसम में यही होना है , और अंदर प्रतिक्रियाओ का घर भर गया लगा कि फूटने से पहले कुछ उसमे से कम कर दिया जाये हमने तो दो विषयो का कॉकटेल बना दिया , या कहिये बना बनाया था क्योकि हमारे देश में कुछ भी राजनीति से अछूता नहीं होता है , वैसे सोचती हूँ कि तटष्ठता भली या हर किसी के सही को सही कह थाली का बैगन कहलाना या हर किसी के गलत को गलत कह आलोचन असंतोषी , नकारात्मक कहलाना ।

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    1. अपेक्षा तो यही रहनी चाहिये कि सही को सही और गलत को गलत माना जाये।

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  5. शांति मे ही शक्ति है ...जब कुछ समझ मैं न आये तब शांत रहना ही बेहतर है ....

    जय बाबा बनारस....

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    1. इसमें भी लोचा है कौशल भाई, चुप्पी को कमजोरी मान लिया जाता है.

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    2. इसमें भी लोचा है कौशल भाई, चुप्पी को कमजोरी मान लिया जाता है.

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  6. इस समय सबको चुनाव की पड़ी है...बाद में जो होगा तब होगा...अभी तो सब लुभाने में लगे हैं...

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  7. 1) सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा
    2) जिस बात से सब डरते हों, उससे डरना ही अच्छा?

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    1. 1) लट्ठमलट्ठा होये बिना, ... कहाँ विश्राम?
      2) एक तरफ़ तो ये सुभाषितानि प्रचलित करवा दिये कि ’जो डर गया वो मर गया’ और दूसरी तरफ़ जो न डरे उसपर 2/7/76/20 सब ठुकवा देते हैं। वो डरे न डरे, दूसरे सौ-पचास जरूर डर जाते हैं :)

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  8. होना क्या चाहिए इस विषय पर सबके अपने मत हो सकते हैं .... हाँ, हो यही रहा है आजकल

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  9. झंझट से बचा कौन है भला ...:-P

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  10. एक तो पच्चीसों न्यूज़ व्यूज़ चेनल हैं । रोज एक नया तमाशा। ऊपर से ये बुद्धि जीवी उर सत्ता जीवि जन । और इनकी बुद्धि का आलम । तिस पर ये मुई नौकरी । न समय है न िइंटरेस्ट । इनसब पर तठस्थता ही भली ।

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  11. Excess TV watching is not good for good writing. I like your writing about daily chorus of mango people. Keep it up.

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  12. तटस्थता ही भली लगती है , मगर कई बार तमाशा नाकाबिले बर्दाश्त हो जाता है !

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  13. ध्यान से देखिए सब तमाशे एक ही हैं..आपको उसका रंग रुप बदला हुआ नजर आता है....मगर ऐसा होता नहीं....घूम घूम कर तमाशा आता है...बस उसके आने का क्रम बदलता रहता है इसलिए आपको लगात है कि हर बार नया मामाल आ जाता है....आप भी न इतने ज्ञानी होकर भ्रम में कैसे पड़ जाते हैं..हां नहीं तो....अरे भई पहले आरोप..फिर प्रत्यारोप, ये तो चलेगा ही

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    1. हमें ज्ञानी बताया जायेगा तो हम भी मजाक पर उतर आयेंगे बंधु :) आरोप-प्रत्यारोप कोई नई चीज नहीं है रोहित भाई, अपनी बातचीत तमाशाईयों से नहीं है बल्कि अपने जैसे तमाशबीनों से है।

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    2. लो कल लो बात......मजाक मजाक तो चलता रहेगा...वइसे तमाशबीन तमाशाइयों से ज्यादा जरुरी होते हैं....अब बताइए तमाशाई तमाशा दिखाने के बाद किसके आगे हाथ पसारता है....तमाशबीन लोगो के सामने ही न..अब तमाशबीन की मर्जी वो पइसा दे या न दे....अगर उसे कुछ समझ आता है या अच्छा लगता है तो वो पइसा देता है वरना चुपचाप चल देता है..ठीक उसी तरह प्रतिक्रिया जब देने का मन हो दें..वरना कोई बात नहीं..तमाशबीन तो बाज आएगा नहीं तमाशा दिखाने से

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    3. @ मजाक-मजाक - ऐत्थे केड़ी ना है? :)

      तमाशबीनों को अपना महत्व समझना चाहिये, यही तो मैं भी कहता हूँ।

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  14. काकरोच को कारकोच नहीं बल्कि काचरोच कहने को जाएं तब तक विद्वान कारोकच सिद्ध कर देते है :)
    सटीक व्यंग्य है, संजय जी!!

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  15. न कारकोच न ’काचरोच’" बल्कि चारकोच :-) मैं सच में भूल गया उस पिद्दी से कीड़े को असल में कहते हैं क्या? :-)

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    1. जी उस पिद्दी से कीड़े डायनासोर के पड़ोसी को तिलचट्टा कहते हैं अपनी भाषा में

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  16. अंकल के वर्णन पर अपनी अम्मा याद आ गयीं. बहुत अफसोस होता है इतनी जिंदादिल और सक्रिय औरत को बिछावन से जुड़ा देखकर! खैर, पोस्टिंग ने हमारा ऐसा स्टिंग कर रखा है कि अपुन भी अखबार, टीवी से वनवास झेल रहे हैं.. यहाँ तक कि फेसबुक पर लिखे गए दोस्तों के आलंकारिक स्टैटस भी समझने के लिये चैतन्य भाई के फोन का इंतज़ार करना पडता है या उनसे पूछना पडता है.. जैसे ये इनवर्टेड कॉमा में साहब वाला एपिसोड. साला कब सरक गया पता नहीं. जब उनसे पूछा तब पता चला कि पूरा मामला क्या है!
    जितना समझ लेते हैं उतने पर कमेन्ट कर लेते हैं, बाकी पर तटस्थ हो लिये.. देखा जाएगा जब समय हमारा इतिहास लिखेगा.. हम हाशिए पर ही खुश हो लेंगे!!

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  17. कभी कभी तटस्थ रहने में अधिक पीड़ा हो जाती है। कह देने में, सह लेने से अधिक सहजता होती है।

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