पढ़ा-लिखा कुछ खास नहीं था, शुरू से ही डील डौल वगैरह का काफ़ी अच्छा था। शरारती एक नंबर का, मारपीट जब तक एकाध बार कर न ले, खाया पिया हजम ही नहीं होता था। शायद सातवीं या आठवीं तक स्कूल गया फ़िर कहीं किसी दुकान पर नौकर लग गया। ट्रेन से डेली पैसेंजरी करता था। आदतें आसानी से जाती नहीं, अंदर सीटें खाली हों तो गेट पर लटकना और भीड़ हो तो जबरदस्ती सीट के लिये धक्कामुक्की करना उसका शगल था। जल्दी ही ट्रेन में मशहूर हो गया था, कुछ जगह ऐसी होती हैं और कुछ बंदे ऐसे, जिनके लिये बदनामी ही मशहूरी होती है।
समय बीतता गया, उसकी प्रतिभा नित निखार पा रही थी। अब उसने नया शौक पाल लिया, चलती गाड़ी में दरवाजे से हाथ बढ़ाकर टायलेट की खिड़की की सलाखें पकड़कर डिब्बे के पिछले हिस्से में पहुंचता और फ़िर दूसरे डिब्बे की खिड़की की सलाखें पकड़कर उस डिब्बे में घुस जाता। तालियाँ बजाने वालों का मनोरंजन हो रहा था मुफ़्त में, और वो खुद को हीरो समझता था। एक दिन हाथ फ़िसल गया और वो चलती गाड़ी से नीचे गिर गया। जान बच गई लेकिन एक टाँग घुटने के पास से काटनी पड़ी। वही तालियाँ बजाने वाले अब उसे बेवकूफ़ बता रहे थे।
कुछ दिन के बाद वो लाठी का सहारा लेकर चलता दिखाई दिया। स्वभाव वैसा ही, वही यारों दोस्तों के साथ धौल धप्पा और हो हल्ला। कुछ महीनों के बाद नकली पैर लगवा लिया उसने। अब बिना सहारे के भी चल लेता था, हाँ थोड़ी सी लंगड़ाहट(मौके के हिसाब से कभी कभी ज्यादा भी) जरूर बाकी थी। घरवालों ने शादी भी कर दी उसकी। दूसरे बहुत से सरकारी आँकड़ों की तरह ये लिंगानुपात वाले आँकड़े भी आज तक मेरी समझ में नहीं बैठे। बताते हैं कि हजार के पीछे आठ सौ के करीब लड़कियाँ हैं यानि उस हिसाब से लगभग हर पांचवा आदमी कुँवारा रहना चाहिये जबकि मुझे शायद ही कोई लड़का ऐसा दिखता हो जो लड़की के अभाव में कुँवारा रह गया हो। दूर क्यों जाया जाये, मुझ जैसे तक को(थोड़ा कन्फ़्यूज़न है, ही लिखा जायेगा या भी?) गौरवर्णीय, सुंदर, सुशील और गृहकार्य में दक्ष, जैसी कि हर भारतीय विवाहयोग्य कन्या होती ही है, मिल गईं:)) गरज ये कि कैसा भी बंदा हो, उसके लिये ऊपर वाले ने कहीं न कहीं कोई उसका जोड़ बना ही रखा है तो जी हमारा हीरो भी अब तक शादीशुदा हो गया था। जल्दी ही राशनकार्ड में तीन नाम और जुड़ गये।
भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ, हमारे भारत में परंपरा चली आ रही है कि जो कुछ न करता हो उसका ब्याह कर दो कुछ तो करता रहेगा स्साला, कुछ तो करेगा:) जो किसी काम में लगे हुये हैं वे बेशक कुँआरे रह जायें, जैसे हमारे राहुल बाबा बेचारे जनसेवा में लगे हैं तो अब तक…, लेकिन जिसके पास कोई काम नहीं, वे सब खूँटे से बांध दिये जाते हैं। दरअसल हँसते-खेलते, आजाद किस्म के लोगों को देखकर इन चीजों को खो चुके लोगों को बड़ी टीस उठती होगी कि हमारी आजादी छिन गई और ये है कि अब तक सर उठाकर घूम रहा है। शुभचिंतक होने का ड्रामा सा रचकर उम्रकैद दिलवाकर ही मानते हैं। यकीन न हो तो किसी शादी में देख लीजिये, दूल्हा बेचारा कसा बंधा सा कसमसाता रहता है और दूसरे नाच नाच कर खुशियां मनाते हैं। ये खुशी वैसी ही होती है जैसे अपनी कालोनी की लाईट गायब होने के बाद पड़ौसी कालोनी की जलती बत्तियों को हसरत भरी निगाह से देखने के बाद उन्हें भी गुल होते देखकर हमें अतुलनीय खुशी का अहसास होता है। शेरवानी, सेहरा इत्यादि इत्यादि पहनाकर दूल्हे को सजाया नहीं जाता बल्कि मार्निंग शो में प्रिंसीपल साहब के द्वारा छापा मारकर स्कूल के बच्चों को यूनीफ़ोर्म के जरिये पहचानने वाली बात से इसे जोड़ा जा सकता है। ऐन वक्त पर अगर दूल्हा भागने की कोशिश करे तो भीड़ में अलग से पहचान लिया जाये, इसीलिये ये सब नौटंकी की जाती है।
फ़िर से बहक गया मैं, हीरो की शादी भी हो गई और घर बच्चों से गुलजार भी हो गया। परिवार बढ़ा तो जिम्मेदारियां भी बढ़ीं। श्रीमानजी ने अब कुछ कमाई वगैरह करने की सोची और जल्दी ही फ़ाईनैंस का धंधा शुरू कर दिया। भारत सरकार ने तो अब financial inclusion जैसे काम शुरू किये हैं, हमारे ये मित्र अरसा पहले से ’जिसका कोई नहीं, उसका तो खुदा है यारो’ की स्टाईल में खुदाई दिखा रहे हैं। नजदीक ही एक सब्जी मंडी उनका कार्यक्षेत्र है, गरीब(तर) लोगों को पांच हजार देते हैं और दो महीने तक सौ रुपया रोज की किस्त। हिसाब सीधा है लेकिन ब्याज की दर निकालना इतना सीधा नहीं क्योंकि जिन दस बीस लोगों से उनका व्यवहार है, उनके यहाँ से पैसों के अलावा फ़ल, सब्जी वगैरह प्यार मोहब्बत में ले ही ली जाती है। शाम को जब रिक्शा में बैठकर घर लौटता है तो जेब नोटों से और रिक्शा दस बारह थैलियों से भरी होती है। हालचाल पूछने पर ऊपर वाले का शुक्रिया देते हैं और नम्रता से बताते हैं कि गरीबों की मदद करते हैं तो उनकी दुआयें काम आ ही जाती हैं।
आदत मेरी भी खराब है, जो बात कोई खुद से बता दे उसपर बेशक ध्यान न जाये लेकिन जो पर्दे में है वहां ताक झांक जरूर करनी है। खलनायक फ़िल्म का गाना याद आ रहा है, ’नायक नहीं…’ वाला। कहीं उल्टा सीधा सोचने लगो सब, हमारे जयपुर नरेश तो जरूर इसमें भी कोई प्वाईंट ढूंढ लेंगे, अगर इसे पढ़ा तो। कित्ती खराब सोच है यार तुम्हारी, छवि मेरी खराब करते हो:) तो एक शाम मैंने अपने दोस्तों से जानना चाहा कि यार सरकारी बैंकों को तो अपने ऋण वसूलने में इतनी दिक्कत आती है और ये बंदा कई गुना ज्यादा की दर पर कैसे कारोबार चला रहा है? जवाब में पहले तो बैंकों की कार्यप्रणाली की माँ-बहन एक की गई फ़िर हमारे हीरो की कार्यप्रणाली की तारीफ़ें की गईं। मालूम चला कि दिक्कतें तो उसे भी आती हैं लेकिन उनसे निपटने के उसके फ़ार्मूले भी अलग हैं। हर लोन का जमानती तो होता ही है, इसके अलावा इस धंधे में आदमी का थोड़ा सा रफ़-टफ़ होना भी लाजिमी है। जरूरत पड़ने पर डिफ़ाल्टिंग पार्टी से गाली-गलौज करना पड़ता है। कई बार मार पीट भी करनी पड़ती है। मेरी शंकायें बढ़ने लगीं थी। माना कि ये इस लाईन में शुरू से है, डील डौल भी अच्छा है लेकिन कभी सामने वाला भारी पड़ जाये तो? अब तो ये बेचारा भाग भी नहीं सकता, एक टांग नकली है उसकी। या फ़िर बात चौकी-थाने पर पहुंच जाये तो? बताया गया कि ऐसी स्थिति में नकली टांग ही तो उसका ट्रंप कार्ड बन जाती है। जब तक खुद हावी है तब तक तो कोई दिक्कत है ही नहीं, जब खुद पर बात आये तो पुलिस के आने से पहले उसकी लकड़ी वाली टांग उसके हाथ में आ जाती है। सी.एम.ओ. द्वारा जारी विकलांगता सर्टिफ़िकेट और पहचान पत्र हमेशा पास रहते ही हैं। दुहाई दे देता है, “आप ही करो जी फ़ैसला, मैं हैंडिकैप्ड आदमी हूँ। एक कदम बेख्याली में रखा जाये तो मेरी टाँग निकल जाती है, मैं क्या खाकर इस ’रेमंड्स’ से लड़ूंगा?”
मैंने तो उसे हमेशा ही हँसते, खिलखिलाते देखा है लेकिन सुना है कि मौका देखकर आँसू भी निकल जाते हैं उसके। फ़िर पुलिस वाले बेचारे भी उसे क्यों मेहमान बनायेंगे, उससे तो कुछ हासिल होना नहीं। उल्टे उसकी सेवा पानी करनी पड़ेगी, नहीं तो रिक्शा मौका-ए-वारदात से थाने की तरफ़ और जरूरत पड़ने पर एसीपी ओफ़िस, डीसीपी ओफ़िस, हैडक्वार्टर की तरफ़। रास्ते सब मालूम हैं उसे, ये भी और वो भी, आर.टी.आई, समाज कल्याण विभाग, मानवाधिकार वगैरह-वगैरह। मैंने कहा, फ़िर तो गनीमत है कि ये अल्पसंख्यक वर्ग से नहीं है, वरना एक और प्वाईंट जुड़ जाता उसके हक में।
तो मित्रों, आज के प्रवचन से ये शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि अपनी खामियों, कमजोरियों, दुखों, तकलीफ़ों को सही अवसर पर इस्तेमाल करने वाला प्राय: कामयाब होता है, जितना ज्यादा दुखी दिखाई दे सकने की कला में निपुण होगा, वह भीतर से उतना ही सुखी होगा। जिस तरह आजकल चैन में लगा परिचय-पत्र गले में टांगकर जेब में रखा जाता है और वक्त जरूरत दिखाकर अपना कार्य सिद्ध किया जाता है, इसी भाँति अपनी वास्तविक, काल्पनिक तकलीफ़ों का सर्टिफ़िकेट हमेशा अपने साथ रखें और मौके पर उसका प्रदर्शन करके चिरकाल तक अनंत सुख के भागी हों। सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु ........
p.s. - एक बिटिया की तरफ़ से एक शिकायत दर्ज हुई थी, उसके पापा कहते तो न भी मानता लेकिन बिटिया का कहना है तो सर-माथे पर:) आशा है, अब ठीक लग रहा होगा। दोबारा कुछ कहना हो तो पापा को बीच में डालने की बजाय सीधे दो लाईनें मेल कर देना। मुझ लापरवाह को जिम्मेवारी का अहसास करवाने के लिये शुक्रिया।
p.s. - एक बिटिया की तरफ़ से एक शिकायत दर्ज हुई थी, उसके पापा कहते तो न भी मानता लेकिन बिटिया का कहना है तो सर-माथे पर:) आशा है, अब ठीक लग रहा होगा। दोबारा कुछ कहना हो तो पापा को बीच में डालने की बजाय सीधे दो लाईनें मेल कर देना। मुझ लापरवाह को जिम्मेवारी का अहसास करवाने के लिये शुक्रिया।
http://youtu.be/zmzSnJmB7QQ