एक गाना था. ’लो आया प्यार का मौसम।’ मेरी नजर में होना चाहिये था ’लो आया पैरोल का मौसम।’ अब ये ’पैरोल’ कौन सी भाषा का शब्द है, नहीं मालूम, लेकिन ये शब्द मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित करता रहा है। अब कोई सोच सकता है कि ये आज कौन से नये मौसम की चर्चा ले बैठे हैं, मौसम तो सबको पता है गर्मी का है। तो साहब लोगों, इस गर्मी के मौसम में ही छुपा हुआ है पैरोल का मौसम। सरोगेटिड है जैसे बैगपाईपर क्लब सोडा की एड आती है कि छोटा सा कहीं लिखा होगा ’क्लब सोडा’ लेकिन जो संदेश दिया जा रहा है और जो लिया जा रहा है वो किसी और ही चीज के लिये है। ऐसा ही है गरमियों का मौसम, छुपा हुआ सा है इसीके अंदर पैरोल का मौसम। बच्चों के स्कूल बंद, अब आगे कुछ अपने आप समझ जाओ। बहुत इंतज़ार के बाद जब ये सीज़न आने को हुआ तो हमें पैरोल पर छोड़ दिये जाने का फ़ैसला हाईकमान ने ले लिया। क्षेत्रीय पार्टी के छुटभैये नेताओं की तरफ़ से गरीब जनता की रोटी छिन जाने की दुहाई दी भी गई. लेकिन वो हाईकमान ही क्या जो ऐसे मामलों में सख्ती से न निबटे? हमारे घाट घाट के पानी पिये होने के आशय का सर्टीफ़िकेट एक बार फ़िर से जारी हुआ और अब ये आलम है कि अमिताभ की तर्ज पर मैं और मेरा फ़त्तू अक्सर तन्हाई में बातें किया करते हैं कि ये होता तो वो होता या फ़िर न होता मैं तो क्या होता? सही बात तो ये है कि हम कह रहे हैं, बाकी लोग मन ही मन खुश होते हैं, बस फ़र्क इतना ही है।
तो जनाब लोगों, शुरू के कुछ दिन दिल को यूं बहलाया कि बहुत दिन हो गये घर की दाल रोटी खाते हुये, कुछ दिन बाहर की चटपटी ही सही। फ़िर जानकारी मिली कि बाहर का खाने से एड्स हो जाता है. ’ग्लोबलाइजेशन’ जैसे महत्वपुर्ण विषय पर सोचते सोचते एक दिन ’जानम समझा किये’ कि कल को अगर एड्स की गिरफ़्त में हम आ गये तो इतना नाम तो है हमारा कि कोई परिचित ये नहीं मानने का कि बाहर की रोटी खाने से ये बीमारी हुई है। वैसे ही लोग बाग बड़े उच्च विचार रखते हैं हमारे चरित्र के बारे में, कहेंगे देख लो, हमें पहले ही पता था। मजबूर होकर हमने घर पर ही हाथ आजमाने की सोच ली। शुरू किया जब पाक कला का प्रैक्टीकल, तो सबसे पहले विश्व का राजनैतिक मानचित्र खरीदा और रसोई में टांग दिया। रोटी साली बस गोल ही नहीं बनी, बाकी आड़ी टेड़ी, लंबी, बेलनाकार, सितारानुमा, तिकोनी, चौरस, बहुकोणीय सारी आकृतियां बना डाली। हर बार रोटी बनाने के बाद नक्शे से मिलाते जाते और मिलती जुलती आकृति के देश पर निशान लगाते जाते। सप्ताह भर में ही हिन्दुस्तान के अलावा बाकी सारे संसार का भक्षण कर चुके तो फ़िर से अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार किया और फ़िर बाहर की तरफ़ मुंह कर लिया। हिन्दुस्तान को इसलिये छोड़ दिया क्योंकि थोड़ी सी गैरत अभी बाकी है अपने में, और उससे भी बड़ी बात है कि हम खा लेते तो ये नेता लोग क्या करते? ये भी तो खा ही रहे हैं, कतरा कतरा करके, और बोटी बोटी करके अपने देश को। ये भी सोचा कि मरना ही है तो खा पीकर मरो, फ़िर जो मर्जी समझती रहे कि एड्स बाहर के खाने से हुई थी या किसी और वजह से। तो जी सप्ताह भर में हाथ जलाकरऔर मुंह जलाकर, दिल के दुबारा जलने की गुंजाइश थी नहीं, लौट के बुद्धू बाहर को गये। और कुछ करें न करें अपन, मुहावरे सारे पलट देने हैं।
बात रविवार दोपहर की है, हम दोपहर का खाना लेने गये। फ़त्तू घर में कूलर के आगे बैठकर टी.वी. देख रहा था, ऐसे ऐसे तो चेले हैं हमारे। तो जी ढाबे पर गये और आर्डर दे दिया, बैठ गये इंतजार करने। उसके टी वी पर पंजाबी गाना चल रहा था, ’जे असी दोनों रुस बैठे तां मनाऊ कौन वे।’ मजा आ गया, अब ये मजा भी साली ऐसी चीज है कि आ जाये तो पता नहीं किस छोटी सी बात पर आ जाये और न आये तो त्रिलोकी का राज मिलने पर भी न आये। खाना लेकर घर आये तो फ़त्तू से थोड़ी चुहल करने का मन कर आया। मैंने उससे पूछा कि यार इस गाने में उठाया गया सवाल वाकई वाज़िब है, अगर दो दोस्त आपस में रूठ बैठे और कोई मनाने वाला न हो तो सच में बहुत मुसीबत हो जाती है, क्या ख्याल है? फ़त्तू से जब कुछ पूछ लिया जाये तो वो अपने को सुकरात से कम नहीं समझता है। कहने लगा, "उस्ताद जी, बन्दा समझदार वही है जो पहले से जुगाड़ करके रखे। याराना डालो किसी से तो मुझे पहले कामन फ़्रैन्ड बना लेना।"
’तू ठीक है प्यारे, मैंने तेरे से तेरा ख्याल पूछा है एक जनरल बात पर और तू मेरे से ही अपना ख्याल रखने को कह रहा है? और भाई, हम तो पुराने याराने खत्म करके इधर आये हैं, अब नये कहां से डलेंगे? तो प्यारे, मेरे भरोसे मत रहियो, यहां गुंजाईश नहीं रही है अब नये सिरे से याराने डालने की और फ़िर उन्हें भूलने की।" अब बारी फ़त्तू की थी अमिताभ बच्चन बनने की, शोले वाली तर्ज पर कहता है, "घड़ी घड़ी ड्रामा करते हो उस्ताद जी। ये दूसरों को इमोशनल, सेंटीमेंटल करने की कोशिश मत करो। मान जाओ, नहीं तो मैं ही अपील कर दूंगा ब्लॉग जगत में कि इनकी बातों में मत आना, चाहे फ़र्जी प्रोफ़ाईल बनाकर ही करना पड़े।"
बहुत महंगा पड़ा अपने को फ़त्तू से मजाक करना। खुद ही जाकर कुल्हाड़ी के पैर मार दिया, मिल गई अपने को कई दिन की डोज़। ठीक है प्यारे, पहले ही हमने कौन से आरोपों को नकारा है कभी, एक तेरी तरफ़ से भी सही। बन्धुओं, अपने चेले की धमकी से डरकर हम खुद ही अपील कर देते हैं कि किसी को नल. टल(इमोशनल, सेंटीमेंटल टाईप) होने की जरूरत नहीं है। नो नीड टु टेक अपन को सीरियसली। सब ड्रामा है अपना। फ़त्तू को भी किराया भाड़ा देकर, चार दिन की छुट्टी देकर भेज दिया था कि जा पहाड़ों की ठंडक ले आ कुछ दिन। मैं भी चार दिन कुछ सुकून के काट लूंगा। आ गया है मेरा शेर उसी दिन वापिस, मुझे कोई और नहीं और उसे कोई ठौर नहीं। जल्दी लौटने का कारण नीचे लिखा तो है किसी के यकीन आये तो। अब फ़िर वही मैं और मेरा फ़त्तू, अक्सर तन्हाई में बातें.................। फ़त्तू में लाख दोष हैं, पर है वो अपना, और रहेगा भी।
:) फ़त्तू ने हिमाचल जाने की बस पकड़ी। कंडक्टर टिकट बनाने आया तो एक सवारी ने एक टिकट मांग ली ’आनंदपुर’ की। पीछे वाली सीट पर बैठे एक तगड़े से यात्री को अपने पवित्र स्थान की बेअदबी पर गुस्सा आया, उसने जाकर सवारी के एक जोरदार थप्पड़ लगाया और बोला, "तैनूं बोलना चाही दा सी कि एक टिकट ’आनंदपुर साहिब’ दी दे दो।" ठीक बात थी जी, धार्मिक जगह का नाम तो अदब से ही लेना चाहिये। फ़त्तू ने देखकर सबक ले लिया। अब दूसरी सवारी ने पहले वाले का हाल देखकर कंडक्टर से कहा, "जी, एक टिकट ’चंडीगढ़ साहब’ दी दे दो।" आत्मगौरव से भरा सूरमा फ़िर से उठकर गया और एक थप्पड़ उसके भी लगाया, "क्यों ओये, ’चंडीगढ़ कद तों साहब बन गया? तू कैहणा सी कि एक टिकट चंडीगढ़ दी दे दो।" ऐ गल्ल वी ठीक है, फ़त्तू ने एक सबक और पल्ले बांध लिया। अगला नम्बर फ़त्तू का था. कंडक्टर ने पूछा, "हांजी, बोलो कित्थे दी टिकट देवां त्वानूं?" फ़त्तू ने जवाब दिया, "जी, भाईसाहब से पूछ कर बताता हूं कि साहब लगाना है कि नहीं?" भाईसाहब फ़िर से उठकर आये, एक झन्नाटेदार फ़त्तू के लगाया और बोले, "सालेया, मैं कोई सारी बस दा ठेका लै रख्या है?"
फ़त्तू अपनी हिमाचल यात्रा मुल्तवी करके फ़िर से घर को आ गया है।
कई टिप्पणियाँ लिखीं मगर कोई भी खतरे से खाली न पाकर अभी हम यही कहेंगे - नो कमेंट्स साहिब!
जवाब देंहटाएंअपुन भी फ़त्तू की तरह टिप्पणी स्थगित कर रहे है
जवाब देंहटाएंफत्तू पुराण तो एकदम धाँसू है जी....औऱ आफका देश भक्षण भी लाजवाब रहा :)
जवाब देंहटाएंपता नहीं आपकी पोस्ट पढ़कर क्या हो जाता है, काफी देर तक दूसरी दुनिया में पहुँच जाता हूँ . भंगेड़ी की तरह रह रह कर हँसता रहता हूँ, कभी अजीब से विचारों में निकलता घुसता रहता हूँ. खुद पे काबू नहीं रह पता, साथ वाले अलग खब्ती बताने लगे है. टिपण्णी करने की कोन कहे !!!!!!!!! आज बड़ी मुश्किल से संभाला है अपने आप को वोह भी अपने कई मित्रों को फत्तू पुराण सेंड करने के बाद
जवाब देंहटाएंएक बात जमी नहीं। बस हिमाचल (शिमला) जा रही है, आनन्दपुर साहिब और चण्डीगढ की सवारियां भी हैं। लेकिन बस आ कहां से रही है?
जवाब देंहटाएंजाहिर सी बात है कि हिमाचल से ही आ रही है।
अच्छा हुआ आपने भारत को छोड़ दिया...:-) हमेशा की तरह बहुत मजेदार पोस्ट. मुझे सबसे बढ़िया यह लगता है कि आप कहाँ से शुरू करके कहाँ पहुँच जाते हैं. बिलकुल अपने मन के हिसाब से. फत्तू जी जिंदाबाद.
जवाब देंहटाएंबातें तो बहुत सी हैं पर क्या करें थप्पड़ों की गूंज से मन घबरा गया. अतः ज्यादा कुछ नहीं कहूँगा. बस इतना ही कहूँगा 'हाजिर हूँ मास्टर जी"
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@Smart India:
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क्या मिल गया सर जी खाली पीली डांट लगवा कर हमें अदा जी से?
@धीरू सिंह जी:
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बड़ी मेहरबानी जी, राजनैतिक आदमी होकर भी आपने हमारा लिखना स्थगित करने का हुक्म नहीं दिया।
@सतीश पंचम जी:
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आभारी हूं भाई जी।
@अमित शर्मा:
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अमित, धन्यवाद पधारने का। अभी आपके ब्लॉग पर एक जंबो कमेंट किया था बहुत दिल से, तीस लाइनों का। पब्लिश किया तो उड़ गया, मुझे प्रतिबन्धित तो नहीं कर दिया था बन्धु? दुबारा लिखने का जमा नहीं और फ़िर इतनी मेहनत अपने ब्लॉग पर करेंगे तो अपनी एक टिप्पणी बढेगी, इसलिये यहीं मेहनत कर रहे हैं। बहुत शुक्रिया।
@नीरज:
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नीरज प्यारे, हिन्दी फ़िल्मों की तरह अपनी पोस्ट को दिमाग लगाकर देखोगे तो क्यों, कैसे में ही उलझ जाओगे। हमने तो फ़त्तू की बात चुपचाप मान ली थी, तुम भी मान लिया करो।
@शिव कुमार मिश्र जी:
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"मुझे सबसे बढ़िया यह लगता है कि आप कहाँ से शुरू करके कहाँ पहुँच जाते हैं"
बड़े भाई, हम जैसे बेसिरपैर की हाँकने वाले न हों तो आप जैसे.........? हा हा हा
@ दीप पांडेय:
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तुम्हें तो सच में मैं प्रतिबंधित कर दूंगा, एक बार आ जाये मुझे ये करना। मुझे दिल्ली बुलाकर पहाड़ों पर चले गये थे, कब तक बचोगे प्यारे, चाय पिलाने से?
@ अदा जी:
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मोहतरमा, प्रतीत हो ही गया था तो का जरूरत थी सारी पोल पट्टी खोलन की? हमारा रोटी, पानी सब कुछ बन्द करवाने का सामान कर दिया आपने। और हमें महान कुक नहीं बनना है, ये रोज की ड्यूटी और गले पड़ जायेगी। हम तो बनी हुई को बिगाड़ देने वाले हैं, और ऐसे ही मजे में हैं। फ़त्तू की बहुत चिंता हो रही है आपको, झेलना पड़ता न तो चार दिन में सारी सहानुभूति उड़ जाती आपकी।
आभार आपका।
हमारे यहाँ भी कुछ दिन पहले एक मौसम आया था... लो आया खाप का मौसम !
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
मौजू कथानक ।
जवाब देंहटाएंआपके पोस्ट पढकर हमेशा की तरह बड़ा मज़ा आया ... इसीलिए आपके ब्लॉग पर आने का मज़ा ही और है ... कोई टेंशन वाली बात ही नहीं रहती है ... बस पढ़ो और एन्जॉय करो ... दिल-दिमाग फ्रेश हो जाता है ...
जवाब देंहटाएंऔर ये जानकर खुशी हुई कि मेरा इंतज़ार करने वाले लोग भी हैं .... धन्यवाद दोस्त ...
Gajab!
जवाब देंहटाएं@ mired mirage:
जवाब देंहटाएंआदरणीय घुघूती बासूती जी, मौसम के प्रकार की तो अपने यहां कोई कमी है ही नहीं। पर खाप वाले मौसम से अपना पैरोल वाला मौसम लाख बेहतर है, है न?औरों के लिये एकदम निरापद।
@ अरुणेश मिश्र जी:
धन्यवाद मिश्र साहब।
@ indranil bhattacharjee:
दोस्त तो याद भी करते हैं, इंतज़ार भी करते हैं, देखा ही होगा अपनी लास्ट पोस्ट पर, कल ही याद किया था और आज आप आ भी गये, और अपनी पोस्ट भी लिखी। शुक्रिया।
@ ktheLeo:
आपका भी शुक्रिया।