रविवार, जून 27, 2010

छोटे लोग बड़े लोग....chhote log bade log….

कल ऑफिस में बैठा काम कर रहा था की एक बहुत निरीह सी आवाज सुनाई दी|  सर उठा कर देखा तो एक  पचपन-साठ साल का गरीब सा दिखने वाला व्यक्ति हाथ जोड़े खड़ा था। कुपोषण के कारण शरीर की हड्डियाँ निकली  पड़ी थीं|  मैंने पूछा, "हाँ जी, बोलो, क्या काम है?" उसी मुद्रा में वो कहने  लगा, "जी, मैं आता तो नहीं, लेकिन बहुत मजबूरी हो गयी है, घरवाली बीमार है, डॉक्टर कहता है  फोटो करवा कर लानी पड़ेगी|"  मैं कुछ कनफ्यूज़ होकर उसकी तरफ देख रहा था कि उसने अपनी पासबुक आगे बढ़ायी|  पासबुक देखी तो उसमें लगभग तेरह सौ रुपये थे| मैंने पूछा, "बाबा, कितने रुपये  लेने हैं?" उसने फिर से अपनी मजबूरी का रोना सुनाया और पांच सौ रुपये लेने की बात कही. हाथ अब भी जुड़े हुए थे उसके|  बार बार एक ही बात कि मैं आता नहीं पैसे लेने, लेकिन मजबूरी हो गयी है इसलिए आया हूँ|  अब मैंने पूछा, "बाबा, ये तेरे पैसे हैं या किसी और के?" कहने लगा, "जी, मेरे हैं, मजदूरी करता हूँ, जो बच जाते हैं कभी कभी, इसमें डाल देता हूँ|"  मैंने समझाया, "जब पैसे तुम्हारे हैं तो फिर इतनी सफाई किस बात की देते हो? तुम्हें जरूरत है, ले जाओ|  और ये अपने पैसे ही लेने के लिए बार बार हाथ जोड़ना, इस सब की यहाँ कोई जरूरत नहीं होती है|"  बाबा बोला, "साहब जी, पैसे नहीं दोगे तो चलेगा, लेकिन हाथ तो मैंने जोड़ने ही हैं|  आप सारे सरकार ...|"   मैं पूछने लगा, "हाँ, बोलो पूरी बात, हम सारे क्या सरकार हैं?"  बोला, "हाँ, आप सारे सरकारी मुलाजिम हो, तो सरकार ही हो|" मैंने बहुत समझाया कि हम सरकार के नौकर हैं, सरकार नहीं है लेकिन वो भला आदमी बार बार एक ही बात कहता रहा, "जी, हाथ तो मैंने जोड़ने ही हैं|"
हमारा अधीनस्थ कर्मचारी आया और धीरे से मुझे कहने लगा कि जी ख़त्म करो बात, रुपये दिलवाओ इसे और भेजो यहाँ से| ये छोटे लोग सुधारने वाले नहीं है|  मुझे याद आ गया कि साल भर पहले मेरे इसी साथी ने एक ठेकेदार से मेरी मुलाक़ात करवाई थी, ये कहकर कि बहुत बड़ा आदमी है ये। सुबह तीन बजे उठकर पूजा पाठ, मन्दिर-गुरुद्वारा, दान वगैरह-वगैरह। पचास एकड़ से ज्यादा जमीन, एक मैरिज पैलेस, आढ़त का काम, शराब के ठेके में हिस्सेदारी और पता नहीं क्या क्या। उन दिनों में हमारे मैनेजर साहब नहीं थे। खैर, पानी वगैरह पिलवाया उसे(सॉरी उन्हें)  तो वो पूछने लगा कि सरकार की कोई नई स्कीम नहीं आई जिसमें सब्सिडी वगैरह हो? मैंने जब पूछा कि आपको लोन की क्या जरूरत पड़ गई तो वो बड़ा आदमी कहने लगा कि हमें लोन की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ़ सब्सिडी से मतलब है। मेरे द्वारा मतलब का  रुख न दिखलाने पर उसने आश्वस्त भी किया कि सब्सिडी सिर्फ़ वही नहीं हजम करेगा बल्कि बैंक वालों का भी पूरा ध्यान रखा जायेगा, कौन सा पहली बार या आखिरी बार ये काम करना है? कह दिया भाई हमने भी कि महीना दो महीना रुक जाओ, मैनेजर साहब आ जायेंगे फ़िर बात कर लेना। वो दिन और आज का दिन, न वो आँख मिलाता है मुझसे और मैं तो खैर बरसों से ही नजर बचाता फ़िरता हूं सबसे।
सोच ये हो रही है कि बड़ा कौन है और छोटा कौन है? जिसके पास है बहुत कुछ, लेकिन जिसकी भूख और ज्यादा बड़ी है वो बड़ा है या छोटा?
मुझसे मेरे मित्र अक्सर पूछते हैं कि यार तू इतना गमगीन क्यों रहता है?
जो शत्रुता भाव रखते हैं, सोचते हैं ये हरदम हंसता क्यों रहता है?
दुनिया की नजर में जो बड़े हैं, मैं सोचता हूं ये काहे के बड़े हैं?
जिन्हें दुनिया छोटा मानती है, मैं सोचता हूं ये छोटे कैसे हैं?
क्या मैं साम्यवादी होता जा रहा हूं, कि बड़ों को नीचे लाना और छोटों को ऊपर देखना चाहता हूं ताकि सब एक लेवल पर आ सकें? फ़िर ये नक्सलवाद जैसी चीज़ों के साथ मुझे सहानुभूति होनी चाहिये, लेकिन इसके नाम पर जो हो रहा है, उससे मेरा खून क्यों खौलता है?
मैं सरकार से वेतन लेता हूं, लेकिन अधिकतर सरकारी नीतियों  से इत्तेफ़ाक क्यों नहीं  रखता हूं।
दिमाग स्साला पहले क्या था, अब क्या हो गया है?
लोगों को देखता हूं, शॉपिंग करते, मॉल्स में जाते, बार में बैठे तो मुझे भूखे नंगे लोग याद आ जाते हैं।  भूखे नंगे लोगों को देखता हूं तो अमीरों के कुत्ते याद आ जाते हैं। याद आ जाती है ’नमक हराम’ फ़िल्म, और बहुत कुछ।
बहुत दिनों तक उधेड़बुन में रहने के बाद यही अपना स्टाईल बन गया कि जहां सारी दुनिया हंसे, वहां उदासी  ढूंढ लो और जहां सब उदास हो रहे हों, वहां कोई खुशी ढूंढ लो। दुनिया का क्या है, पागल समझती है, समझ ले। अपने से जहाँ तक हो सके, किसी का गलत नहीं करते। अपन तो जैसे हैं, मस्त हैं इसी में। देखी जायेगी अपनी तो।
:)नजदीक के गांव में कहीं सांग(हरियाणवी रागिनी) का कार्यक्रम था।  लोग बाग जा रहे थे, फ़त्तू को पता चला तो भाग कर वो भी ट्रैक्टर पे चढ़ गया।  जब उस गांव में पहुंच गये, तो एक आदमी को गली में खड़े देखकर उससे  सांग की जगह पूछने के लिये फ़त्तू भागकर गया और उससे पूछने लगा,  "भ...भ....भाई साब,   स..स..स...सांSSSSSग  कड़े हो रSS.रया सै?   अब वो आदमी भी हकलाता था, उसने सोचा कि ये मेरी नकल उतार रहा है, बोला,  " अ.अ.अ.आड़े ही रूक्क्क्क्क्क्क्क, ल्ल्ल्ल्ल्लाठी ल्याऊं स्स्स्सूं भीत्त्त्त्त्त्त्त्त्त्तर से,   स्स्स्स्स्सांग अअअअअअअआड़े ही होग्ग्ग्गा।"
सबक:   बात करने से पहले सामने वाले के बारे में जान लो नहीं तो आपस में सांग होने के पूरे चांस रहेंगे, आड़े ही।

17 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut gahrayi me le ja ke chhoda! Aakhir us gareeb ko paise diye yaa nahee?

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  2. @ मो सम कौन ?
    ... भाई छोटे बडों पर आपके ख्याल जानकर तसल्ली हुई !
    देखिये सब्सिडी होने का एक ही मतलब है कि सरकार सिद्धांतत: छोटों के हक़ में है पर क्रियांवयन-कर्ता एजेंसी यानि कि नौकरशाह / राजनेता ,बडों के साथ मिलकर इसे दूसरी तरह से व्यवहारिक बना देते है !
    आपके ब्लाग सांग (टिप्पणी बाक्स) पर पहली बार आयें है देखिये कोई अन्दर लाठी लेने तो नहीं चल दिया :)

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  3. @मो सम कौन
    सुखिया सब संसार है खाए और सोए
    दुखिया दास कबीर है जागे और रोए.

    @फत्तू
    सांग और song की समानता के बारे में सोच रहा हूँ.

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  4. यही तो रोना है संजय जी,

    कमबख्त, सरकार कितनी भी दरियादिल हो जाय.....समुंदर तो फिर भी प्यासा ही रहेगा .....जिसके पास जितना है....धन कुबेर है...वह अपने रत्नगर्भ को रीता ही मानेगा और तरह तरह के जुगाड़ से सरकारी लाभ उठाने की सोचेगा।

    और गरीब आदमी को तो पता ही नहीं होता कि सरकार क्या क्या स्कीम ला रही है और किसके लिए ला रही है।

    इस सब को देख कभी कभी नक्सलवादीयों की मांगे जायज लगती हैं लेकिन उनका क्रूर चेहरा देख सारी सहानुभूति उड़नछू हो जाती है।

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  5. क्या कमेन्ट करें? कुछ समझ नहीं आ रहा.
    बड़ी पोस्ट है. दिल से कह रहा हूँ.

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  6. अब शिव जी ने कह दिया तो आगे बचा ही क्या

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  7. @ क्षमा जी: बिलकुल दिए जी, देने ही थे, उसीके रुपये थे

    @अली साहब: सिद्धांततः सरकार सिर्फ और सिर्फ अपने हक़ में है| और साहब आप एंट्री करने के बाद 'मे आई कम इन' पूछ रहे है, आने से पहले पूछा होता तो स्वागत लट्ठ से ही होता, अब तो धरा का धरा रह गया:)

    @अनुराग सर : समानता जरूर मिलेगी, इधर का जयकिशन उधर जा कर जैक्सन बन सकता है तो सांग को song बनने में क्या हर्ज है।

    @सतीश पंचम जी: आप से पूर्णतया सहमत।

    @शिव कुमार मिश्र जी एवं धीरू सिंह जी: आपका आना ही बहुत है जी। धन्यवाद।

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  8. ह्म्म्म्म्म्म.....तो इतने झेल लिए है सांग.........(song)..
    सबक : समझ मे आ गया .......

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  9. ...जहां सारी दुनिया हंसे, वहां उदासी ढूंढ लो और जहां सब उदास हो रहे हों, वहां कोई खुशी ढूंढ लो...
    ..मैंने तो अपने काम की पंक्ति ढूंढ ली. अमल में लाने का प्रयास करूँगा.
    ...इन सब बातों से हम भी दो-चार होते हैं..ऐसा ही एहसास होता है दिल में. अपनी सी लगी यह पोस्ट. बधाई.

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  11. @ मो सम कौन ?
    भाई तब तो बाल बाल बचा मैं :)

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  12. दुनिया का क्या है, पागल समझती है, समझ ले। अपने से जहाँ तक हो सके, किसी का गलत नहीं करते। अपन तो जैसे हैं, मस्त हैं इसी में। देखी जायेगी अपनी तो।
    अपनी सी लगी यह पोस्ट. बधाई.

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  13. गंभीर प्रश्नों को कितनी सरलता से उठाते हैं आप
    पर यो सांग कडै हो रह्या सै, मन्नै भी बता दयो

    प्रणाम

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  14. अच्छी पोस्ट है।
    किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार...
    आगे गा लेना भाई या गुनगुना लेना
    मुझे तो यह गाना बहुत अच्छा लगता है।

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  15. काश आज देश में एक प्रतिशत लोग भी इस सोच के हो जाए तो देश का भविष्य बदल जाए. आरक्षण / सब्सिडी सारे भर्ष्टाचार की जड़ है. देश को बदलने के लिए कम से कम एक पीढ़ी चाहिए. सरकार को अगर सचमुच कुछ करना है तो अनिवार्य शिक्षा सही ढंग से लागु कर दे ताकि जायज लोगो को उनका हक मिल सके और न की इन धन और सत्ता के दलालो को.

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  16. @ अर्चना जी एवम अदा जी:
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    हम बात कर रहे हैं सांग की और आप बात करती है अपने अपने song की। लेकिन झेलने की बात कहकर हमारी श्रोत्र भावना के साथ अन्याय किया है आप दोनों ने। देख रहा है ऊपरवाला:)

    @ देवेन्द्र जी और अमित शर्मा जी:
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    पोस्ट अपनी सी लगी तो लेखक को भी अपना सा ही मानना होगा आपको।

    @ अली साहब:
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    अब और शर्मिन्दा मत करिये जनाब। बेअदबी की माफ़ी चाहता हूं।

    @ अमित जी(अन्तर सोहिल):
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    सांग आड़े ही होगा ढब्बी, क्यूं घबराये सै? थम तो मेरे हरियाणवी भाई हो, ये प्रणाम खटके है माड़ा सा।

    @ राजकुमार सोनी जी और भावेश जी:
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    आप लोगों का पहली बार पधारने पर धन्यवाद। मार्गदर्शन देते रहियेगा।

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  17. इस "मो सम" को "मो सम" ही माना है जी तभी तो साहब अपनी सी लगी है यह रचना..............यह अपनत्व बना रहे........

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