बात ये है जी कि हम करना कुछ चाहते हैं और हो कुछ जाता है। पिछली पोस्ट में एक डायरी का जिक्र कर बैठा था। कई साल पहले एक सेठ दिवाली के मौके पर गिफ़्ट दे गया था। उस डायरी में शुरू में एक कोई रचना, कविता, गज़ल, नज़्म या पता नहीं क्या थी, थी कोई स्त्रीलिग वाली ही चीज, बहुत पसंद आई थी हमें। सबके लिये सुख की कामना इतने अच्छे शब्दों में की गई थी कि पूछिये मत। यही वजह थी कि उसे घर तक ले आये थे। नहीं तो दीवाली जैसे मौकों पर रास्ते में ही कोई न कोई यारा-प्यारा टोक दिया करता था और वैसे भी डायरी वगैरह लिखने लायक किस्से थे ही नहीं अपने पास तो हम ये गिफ़्टेड चीजें आगे ठेलकर मुफ़्त की वाहवाही लूट लेते थे और भार उठाने से बच जाया करते थे। अब जब ब्लॉगर(बोत वड्डे वाले) बन ही गये हैं तो सोचा था कि दिवाली वाले दिन वो जो भी थी गज़ल टाईप की चीज, उसे लिख देंगे अपनी पोस्ट में। काम का काम हो जायेगा और नाम का नाम। दाम कुछ लगेगा नहीं और हमारा भी शुमार होने लगेगा शायरों, कवियों, गीतकारों में। पहले तो कोई ध्यान से पढ़ता ही नहीं फ़त्तू के अलावा, पढ़ता तो पहचानता नहीं कि चोरी का माल है, पहचान लेता तो मुरव्वत में टोकता नहीं हमें(टोकाटाकी करने का एकाधिकार सिर्फ़ हमारा है) और फ़िर भी कोई टोक देता तो हम खेद प्रकट कर देते, येल्लो बात खत्म थी।
लेकिन ऐन मौके पर वो कमबख्त डायरी खो गई। मेरी बात रही मेरे मन में। दीवाली की रात पूजा, सन्ध्या वगैरह करने के बाद फ़िर एक राऊंड लगाया गया उस तलाश-ए-डायरी में, लेकिन हम कौन सा ओबामा के स्निफ़र्स ठहरे? हैं तो हिंदुस्तानी मध्यमवर्ग के मानुष, बस्स ’वैल ट्राई पर काम न आई’ करके रह गये। खो गई चीजें, वो भी हमारी, ऐसे नहीं मिला करतीं। इनामी राशि भी घोषित की गई, संजय कुमार MBBS जुट गये तलाश में। ईनाम की आधी राशि तो काम होने से पहले ही अर्पित कर दी थी, डायरी नहीं मिली लेकिन सर्चिंग पार्टी का तर्क था कि हमने तो मेहनत की है न? शेष आधी राशि भी सौंप दी शराफ़त से।
कोई अजीज चीज या इंसान खो जाये तो ये गम ही बहुत बड़ा होता है, फ़िर हमसे दूसरी गलती ये हो गई कि सारी बात लिख दी पोस्ट में। अब जब इंटरनेट वाले अनलिमिटेड पैक के नाम पर जेब काट ही रहे हैं, हम भी टाईप कर ही रहे हैं तो काहे को कुछ छुपायेंगे? और हमारे खैरख्वाह भी ऐसे हैं कि ये सलाह नहीं देते कि जो खो गई उसे भूल जाओ और नई पर नजर डालो, जिसे देखो वही सलाह दे रहा है उसे ही ढूंढो। बहुत अच्छे, हम तो लगे रहें उसी खोई हुई की तलाश में, नई नई तुम सब हड़प लो:) सब समझते हैं हम, ये फ़ार्मूले हमने भी बहुत चलाये हैं कभी। नहीं ढूंढेंगे उसे, जाओ कल्लो क्या करोगे हमारा? उसे अगर रहना ही होता मेरे पास तो खो क्यों जाती?
वैसे फ़ार्मूला तो उसे ढूंढने का भी मालूम है। कोई और कीमती चीज जानबूझकर गुम कर देता हूं, फ़िर जब उसे खोजने लगेंगे तो वो नहीं मिलेगी, ये मिल जायेगी। और ये सिलसिला ऐसी ही चलता रहेगा तो फ़िर क्यों न इस डायरी के खो जाने पर ही सब्र कर लूं? अपना अनुभव है कि कुदरत खाली स्थान नहीं रहने देती। इससे अच्छी वाली, इससे बेहतर वाली डायरी मिलेगी। इस नजरिये से तो कुछ पाने के लिये पहले कुछ खोना जरूरी है। और तो और, ’हरि’ को पाने के लिये ’मैं’ को खोना पड़ता है। डायरी का गम तो बर्दाश्त कर लेंगे, लेकिन मेरी ’मैं’ चली जाये, ऐसा कब होगा? ऐसा चाहता भी बहुत हूँ और कसकर पकड़ भी रखा है इस ’मैं’ को।
एक सौ प्रतिशत शर्तिया गारंटी और कामयाबी वाला फ़ार्मूला भी है, एक बार ये शोशा भर उछाल देना है कि उस डायरी में अपने लिखे कोई नितांत व्यक्तिगत पत्र हैं, घर के जिस सदस्य को वो डायरी मिले तो उसे बिना खोले ही मुझे लौटा दे। फ़िर तो जनाब चाहें सातवें पाताल में क्यों न हो, डायरी बरामद हो जानी है। ये अलग बात है कि उसके बाद क्या होगा? हमारी तो देखी जायेगी वाली बात हर जगह नहीं चलती है।
वैसे भी कौन सा ये हवाला वाली डायरी है जिसके कारण सियासत में भूकंप आ गया था, निजाम बदल गये थे। अंजाम उसका भी यही निकला था ’सिफ़िर’, सारे बाइज्जत बरी, हमारे वाली खोई हुई मिल भी गई तो थोड़ा सा होहल्ला हो लेगा और फ़िर तो बरी हो ही जाना है हमने। हम कौन सा उस डायरी के विछोह में पोस्ट लिखने से रह गये? बल्कि एक पोस्ट और लिख मारी। भारी भरकम और गंभीर टाईप की एक दो पोस्ट लिख दी थीं, इस खोने पाने से मूड चेंज होना शुरू हो गया है, फ़िर से मजा आने लगा है जीने में। एक निर्जीव डायरी के खो जाने के बदले आप जैसों का आभार जताने का मौका मिलता है, ये थोड़ी नियामत है क्या?
कई बार अपनी उम्र को और अपने लिखे को देखता हूँ तो दिमाग पूछता है कि कब बड़ा होऊंगा मैं? दूसरी ओर दिल कहता है कि सारी उम्र बच्चे बने रह सको तो ज्यादा अच्छा होगा। द्वैध में फ़ंसा ये फ़ैसला ही करता रहता हूं कि मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ? आखिर में दिल ही जीतता है। इतना गम और इतनी आपाधापी फ़ैली हुई है हर तरफ़ कि जिसकी कोई थाह नहीं। कोई आये गमों से घबराकर, उकताकर और मेरे दर पर दो घड़ी सुस्ता ले। ताजादम होकर बिना बोझ लिये फ़िर से चल दे अपने सफ़र पर, तो अपना लिखा वसूल है।
:) फ़त्तू के पडौस में नई नई शादी हुई थी। रोज दोपहर में फ़त्तू पहुंच जाता पडौस में, बाहर बुढ़िया बैठी रहती। फ़त्तू आग के बहाने चूल्हे पर रोटी बनाती भाभी के पास जाकर बतलाया करता। एक दिन नई दुल्हन का भाई आया और उसे कुछ दिन के लिये अपने साथ ले गया। रूटीन के हिसाब से फ़त्तू आया और बुढ़िया से पूछा, “ताई आग सै?” ताई बोली, “छोरे, तेरी आग तो ज्या ली आज बारह वाली रेल में।”
फ़त्तू के मुंह पर तबसे बारह बजे रहते हैं, हमें भी बारह वाली रेल बहुत बुरी लगने लगी है।
भीगना है क्या बेमौसम की बारिश में? रेडियो पर ये बजता था तो कमरे का दरवाजा बंद करके हम भी माईकल जैक्सन बन जाते थे कभी, रोज वाली मैट्रो(सवारियाँ) मिस करनी पड़ती थी। देखा मैंने भी पहली बार ही है, आभार यूट्यूब:)
पोस्ट तो राप्चिक है ही...फत्तू का फत्तूयापा भी गज़ब का है :)
जवाब देंहटाएंडायरी न खोती तो शायद यह सब पढ़ने को भी नहीं मिलता..
जवाब देंहटाएंबारह वाली रेल के बारे में कोई टिप्पणी नहीं।
जवाब देंहटाएंडायेरी ज़रूर मिलेगी ... ढूँढ़ते रहिये ....
जवाब देंहटाएंऔर फत्तू जी से कहिये आग गई है तो वापस भी आएगी ... साथ एक चिनगारी भी लाएगी ...
@ सतीश पंचम:
जवाब देंहटाएंपहले फ़त्तू का स्यापा, अब फत्तूयापा? थम जाओ भाई जी, कोई और यापा मत लाना गरीब के नाम पर:)
@ भारतीय नागरिक:
होती ही न तो खोती भी न, है न सर? इसे भी होने ने ही डुबोया है।
@ स्मार्ट इंडियन:
मंजूर है जी आपका ’नो कमेंट’ भी।
@ Indranil Bhattacharjee:
और फ़त्तू को क्या बुलायेगी?
"थी कोई स्त्रीलिग वाली ही चीज, बहुत पसंद आई थी हमें" ?...
जवाब देंहटाएंअजी वो फत्तू वाली आग से क्या रिश्ता है इस बात का ?
डायरी में आप के अक्षर हैं तो निर्जीव कैसे?
जवाब देंहटाएं@ द्वैत में फ़ंसा ये फ़ैसला ही करता रहता हूं कि मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ?
दुविधा में सिर खुजला रहा हूँ कि 'द्वैत' होगा या 'द्वैध'?
डायरी खोने पर केवल एक पोस्ट, न खोती तो श्रंखला बन जाती।
जवाब देंहटाएंकभी- कभी कुछ खोने से भी भला हो जाता है ...
जवाब देंहटाएंआज फत्तू नहीं जमा मुझे ...मगर हर बार फत्तू सबको जमे , जरुरी भी तो नहीं ...
@ अली साहब:
जवाब देंहटाएंरिश्ता फ़कत इत्ता है जी कि यारों की किस्मत एक सी होती है, हमारी डायरी खो गई, फ़त्तू की आग....हा हा हा। और ये स्त्रीलिंग वाली बात पर बिना पूछे स्पष्टीकरण दे देता हूँ कि गजल, नज़्म, कविता का कन्फ़्यूज़न था और ये सारे शब्द स्त्रीलिंगी ही हैं, कोई दुर्भावना नहीं थी।
@ गिरिजेश जी:
यानि कि पढ़ते तो हैं आप:)
धन्यवाद, अभी सुधार देता हूँ।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
सही कहा जी, घाटा हो गया मेरा।
@ वाणी गीत:
सही कहा जी आपने, धन्यवाद।
एक परामर्श दे रही हूँ, अनुचित लगे तो मत मानना। आपकी पोस्ट चौडाई में बहुत विस्तार लिए है, इसलिए पढने में कठिनाई आ रही है। इसे पठनीय बनाएं। आप स्वयं पढ़कर देखें कि एक ही कॉलम में लिखी गया पोस्ट पढ़ने में कितनी कठिन होती है।
जवाब देंहटाएंरही डायरी तो वो मिल ही जायेगी ...
जवाब देंहटाएंब्लोगिंग में भी कुछ ऐसा ही दीखता है मुझे तो ... कोई आग मांगने आता है यहाँ ... कोई आग सेंकने ... कोई अपनी रोटी सेंकने ... फत्तू को अंग्रेजी में लिखता हूँ तो कुछ फट्टू जैसा समझ में आता है ... कब तक पडोसी के चूल्हे से आग लेता रहेगा ...
वैसे बहुत अच्छा लगता है इधर आकर ... फट्टू...सॉरी फत्तू तो फत्तू ही है :)
@वैसे फ़ार्मूला तो उसे ढूंढने का भी मालूम है। कोई और कीमती चीज जानबूझकर गुम कर देता हूं, फ़िर जब उसे खोजने लगेंगे तो वो नहीं मिलेगी, ये मिल जायेगी
जवाब देंहटाएंएक दम सही फोर्म्युला है गुरु जी , जरूर अपनाएंगे :)
@एक बार ये शोशा भर उछाल देना है कि उस डायरी में अपने लिखे कोई नितांत व्यक्तिगत पत्र हैं, घर के जिस सदस्य को वो डायरी मिले तो उसे बिना खोले ही मुझे लौटा दे।
गुरु जी ये फोर्म्युला शादीशुदा लोगों को अपनाना चाहिए क्या ?? मतलब साइड इफेक्ट वगैरह होने की सम्भावना ज्यादा लगती है :)
@कई बार अपनी उम्र को और अपने लिखे को देखता हूँ तो दिमाग पूछता है कि कब बड़ा होऊंगा मैं?
अजी बिलकुल सही रवैया है, जो लोग खुद को मेच्योर समझने लगते हैं अपनी दशा और दिशा भूल जाते हैं, वैसे भी "ये बचपन बड़े काम की चीज है" [मैं तो हमेशा अपने साथ रखता हूँ]
फत्तू को ये गाना सुनना चाहिए
जहां कदम कदम पर दादी नानी [और ताई भी] देती है जी पहरा ..
ऐसा देश है मेरा .. हाँ .. ऐसा देश है मेरा ....
Duboya mujhko hone ne...
जवाब देंहटाएं"उस डायरी में शुरू में एक कोई रचना, कविता, गज़ल, नज़्म या पता नहीं क्या थी, थी कोई स्त्रीलिग वाली ही चीज, बहुत पसंद आई थी हमें। सबके लिये सुख की कामना इतने अच्छे शब्दों में की गई थी कि पूछिये मत। यही वजह थी ----
जवाब देंहटाएं"काम का काम हो जायेगा और नाम का नाम। दाम कुछ लगेगा नहीं और हमारा भी शुमार होने लगेगा शायरों, कवियों, गीतकारों में।"---
और इसके बाद भी -----
"एक निर्जीव डायरी के.....
---- "आप जैसों का आभार जताने का मौका मिलता है"---इस तरह की पोस्ट पर....
@ Dr. Ajit Gupta:
जवाब देंहटाएंआदरणीया, इसमें अनुचित मानने की कोई बात नहीं है। आप मेरे लाभ की ही बात कह रही हैं, आभार स्वीकार करें।
@ पद्म सिंह:
गज़ब विश्लेषण है आपका, हम भी फ़ैन हैं जी आपके ब्लॉग के।
@ गौरव:
गुरू जी? रांग नंबर, गौरव:)
ताई के सताये दिखते हो, बंधु:)
@ Anand Rathore:
न होता मैं तो क्या होता...
@ Archana ji:
कुछ गलत लिख गया क्या मैं?
जी नहीं, गलत नहीं,
जवाब देंहटाएंजिसमें जीवन की बातें हो, वो डायरी मुझे निर्जीव नहीं लगी...
पोस्ट अच्छी लगी इसलिये आभार कहा...( आपकी शैली में)
कभी कभी कुछ खोना भी शुभ रहता है.... आप को अच्छी डायेरी जरूर मिलेगी
जवाब देंहटाएंसर जी,
जवाब देंहटाएं'बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय....'
ऐसी पोस्टें बनती हों तो चीजें चुराने में भी कोई हर्ज नहीं है.
सर जी,
जवाब देंहटाएंकभी खोएगी हमारी डायरी भी, हम भी कहेंगे की कोई निबंध, लेख, संस्मरण, आलेख, ज्ञान था (थी नहीं) जो "पढ़ा वसूल" था. वो क्या है कि आधे से ज्यादा गणित "सिफ़र" से ही है, और कामयाब है.
आपकी डायरी मिले तो आपका "चुना" पढ़ेंगे, न मिले तो आपका "गुना/बुना" पढेंगे...दोनों सूरतों में अपने तो वारे-न्यारे ही हैं.
@ Archana ji:
जवाब देंहटाएंमेरी शैली....... वाह रे हम:)
@ उपेन्द्र जी:
मेरा भी यही ख्याल है, शुक्रिया।
@ prkant:
हा हा हा, ऐ काश कि.....आप सही होते...
@ Avinash Chandra:
ना छोटे भाई, तुम्हारी कोई चीज नहीं खोनी चाहिये, ख्वाब में भी नहीं।
वारे-न्यारे तो मेरे होते हैं ऐसे कमेंट्स पाकर। जमीन से उठ जाता हूं, सच में।
भूल सुधार :
जवाब देंहटाएंअजी टाइप करते हुए अंगुलियाँ फिसल गयी थी :)) "गुरु" की जगह "मित्र" पढ़ा जाये :)
और हाँ .... मेरे मामले में उल्टा हिसाब है बुजुर्ग दुखी रहते हैं की टीवी देख देख कर जो धार्मिक विद्वता[?] हासिल की है वो मेरे भोले भाले प्रश्नों [अक्सर उत्तरों] से सामने ना आ जाये :))
[राज की बात: यही परेशानी कथित "नास्तिक" युवाओं की भी है ]
मै चाहूँगी कि आपकी डायरी जल्दी ही मिल जाये और हमको कुछ और पढने को मिले
जवाब देंहटाएंtu na hota to khuda hota...
जवाब देंहटाएं@ Gourav Agrawal:
जवाब देंहटाएंपढ़ लिया ’मित्र’:)
बुज्रुर्गों को तो हम भी कम दुखी नहीं करते सो कोई राय नहीं। ’तथाकथित’ वाली बात पर ये कहना है दोस्त कि जिन्हें परेशान रहना है, वो कारण खोज लेते हैं और न मिले तो पैदा कर लेते हैं।
@ पलाश:
आपके पधारने और सदेच्छा के लिये शुक्रिया।
@ Anand Rathore:
हैप्पी बर्थ डे, आनंद। असीम शुभकामनायें।
आपकी डायरी खोने का कमाल है यह पोस्ट, तो अगर डायरियां ही गुम होती रही तो ऐसी और कितनी पोस्टें लिखोगे ....?
जवाब देंहटाएं"कई बार अपनी उम्र को और अपने लिखे को देखता हूँ तो दिमाग पूछता है कि कब बड़ा होऊंगा मैं? दूसरी ओर दिल कहता है कि सारी उम्र बच्चे बने रह सको तो ज्यादा अच्छा होगा।" मैं आपके दिल की बात से बिलकुल सहमत हूँ. आपका जो अंदाजे बयां है उसके क्या कहने. इसे यूँ ही चलाने दें.
जवाब देंहटाएंभाई साहब,
जवाब देंहटाएंडायरी खोने के पर जो आपने पोस्ट लिखी है वाकई कमाल है, आपके ही शब्द है कि कोई भी चीज अपनी जगह से हटती है तो अपनी से अच्छी के लिए।
खैर डायरी मिलती तो पता नही क्या पढने को मिलता मगर न मिलने से पढने को मिला उसका जवाब नही।
आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाये (देरी के लिए माफी)
@ केवल राम:
जवाब देंहटाएंपधारने का धन्यवाद। भाई,कुछ और न मिले लिखने को तो ऐसे ही लिखते रहेंगे, यहाँ कौन सा किसी संपादक से अप्रूवल करवाना होता है!!
@ विचार शून्य:
दीप, दिल से सहमति तो ठीक है लेकिन मेरे बारे में गिरिजेश जी की पोस्ट पर अफ़वाह क्यों फ़ैलाई? हा हा हा, गज़ब हो बन्धु..
@ दीपक सैनी:
शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद दोस्त। दिलवालों की जमात के हो तुम भी:)
गिरिजेश भाई ने जब से बच्चे की तश्वीर लगाई है नज़र और तेज हो गई है..
जवाब देंहटाएं..उम्दा पोस्ट।
''कौन सा उस डायरी के विछोह में पोस्ट लिखने से रह गये?'' हम तो यही टिप्पणी चिपकाने वाले थे, आपने पहले से ही छाप रखा है, यह भी सो हमारा काम कापी-पेस्ट से चल गया. अजीत गुप्ता जी के सुझाव के साथ यह भी कि 'आह चांद, वाह चांद' पोस्ट का बैकग्राउंड सादा है, इससे वह पढ़ने में अधिक सुभीता हुआ, ऐसा ही बाकी सब के लिए रहे, आप विचार कर सकते हैं.
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