रविवार, मार्च 25, 2012

बंधन

"औंल?   जूंते कैंसे लहे?"

नकियाता  था, तुतलाता था और थोड़ा सा हकलाता भी था।   जब उसने ये सवाल पूछा तो पहले तो ये लगा कि कहीं से इसने कुछ सुन सुना लिया है और वही दरयाफ़्त कर रहा है कि जूते कैसे पड़े? ऐसी बुरी रैप्यूटेशन तो नहीं थी वैसे अपनी, फ़िर भी  मैंने धीरे से कहा,  "कोई बात नहीं, ऑल इज़ वैल।"

"नहीं यांल, सलम की बांत नहीं, हम गैंल  थोले हीं हैं? बतां दें,   पैंसे खलचे हैं, मुफ़त का मांल थोले ही है।"   फ़िर ध्यान आया कि पिछले महीने इसकी दुकान से जूते खरीद कर लाया हूँ, वही फ़ीडबैक ले रहा है।

दरअसल हुआ ये था कि जब तक बापू के पैसे पर  ऐश करते थे तो कोशिश रहती थी ब्रांडेड जूते पहनने की, जब खुद की जेब पर जोर पड़ने लगा तब बाटा, लिबर्टी, फ़ीनिक्स जैसे महंगे ब्रांड्स को हम माया महाठगिनी के औजार समझने लगे और लोकल\स्वदेशी कंपनियों के जूते पहनने लगे। यूँ भी कहीं पढ़ा था कि जेंटलमेन की पह्चान जूतों से होती है तो  कहीं ब्रांडेड जूते देखकर कोई हमें जेंटलमेन न समझ ले,  अपनी ईमानदारी दिखाने के लिये हम लोकल पर उतर आये थे।

ये बंदा हमारा मित्र, संगी-साथी, सहपाठी और बहुत कुछ रहा था। पार्क में भागने से लेकर पुलिस से भागने तक हम साथ साथ रहे थे और कई ट्रेड बदलने के बाद उसने अभी तीन चार महीने पहले ही जूतों का शोरूम खोला था।  पिछले महीने जूते खरीदने गया तो जूतों के बारे में अपनी च्वॉयस उसे बताई और खुद ही  दुकान के लड़के को देशी पेय पदार्थ लाने को भेज दिया।  अब श्रीमान जी ने एक जोड़ी जूते मंगवाये और इतनी जबरदस्त रिकमेंडेशन की कि कुँआरेपन में भी किसी प्रोडक्ट की नहीं की होगी।  वही जूते खरीदने के अलावा कोई और चारा ही नहीं बचा। खरीददारी के मामले में वैसे भी अपन बहुत सैलेक्टिव नहीं रहे,  दस नंबरी होना चाहिये सिर्फ़(जूता), अपने लिये बहुत है।

जूते सच में इतने कम्फ़र्टेबल थे  कि मन करता था कि पहन कर ही नहाया जाये, सोया जाये।  अब हुआ ये कि बीस पच्चीस दिन के बाद जब भी चलता और बाँया पैर उठाकर रखता तो एड़ी के पास ठंडी हवा का एक झौंका महसूस होता। बिना मुड़े, झुके अंदाजा लगा लिया कि ये तो गया। मुहावरा बदल गया था, ’सस्ता रोये बार बार’ की जगह ’सस्ता हवा दे बार बार।’

उस दिन जब उसने पैसे खलचने की याद दिलाई तो हमने भी जूते पड़ने की झेंप उतारते हुये उसे बताया कि यार उसकी तो पेस्टिंग उखड़ गई थी इसलिये उन्हें घर में ही रख छोड़ा है और दूसरा जोड़ा पहन रहे हैं। पेस्टिंग उखड़ने की बात सुनकर उसने इतनी हैरानी से मुँह खोला जैसे बजट में इंकम टैक्स की सीलिंग तीन लाख होने की उम्मीद रखे बैठे हम जैसों ने भी बजट पेश होने के बाद  न खोला होगा।  यकीन ही नहीं हो रहा था उसे,  यही लग रहा था कि मैं मजाक कर रहा हूँ। ये बहुत पंगा है, किसी से सही बात करो तो वो यही समझता है कि मजाक हो रहा है।  वो न मानने पर जुटा था, कहता था कम से कम पचास जोड़ी वही  जूते बेच चुका है और एक भी कंप्लेंट नहीं आई  और मैं यही कह रहा था कि नहीं मानना तो मत मान, मैंने तुझसे कोई शिकायत तो नहीं की है। तूने बार बार पूछा तो सही बात बताई है। आखिर में यह तय हुआ कि जूते उसके पास भेजे जायें तभी यकीन करेगा। अंतत: ’तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ की तर्ज पर   जूतों की शिपमेंट यानि कि साईकिलमेंट(बजरिया UKP Sr) कर दी गई।

हम तो भूल भाल गये कि ऐसा कुछ हुआ भी था, सप्ताह भर बाद बैंक से घर लौट रहा था तो उसने आवाज लगाई। यक्ष प्रश्न हुआ, "एंक बांत बतां सचसच, जूंते  उतांलते तैम तंस्मे खोलके उतांलता है न?" मैं सोचने लगा, याद करने लगा। ऐसा होता है न, एक काम करते करते वो इतना सहज लगने लगता है कि उसके बारे में हम सोचते ही नहीं।  मुझे सोचते देखकर उसने फ़िर टोका, "झूंठ न बोलियो, फ़ैक्टली गया था और वहाँ चैलेंज हो गंया है इस बात पल।"  अब मैं बोल बोलकर याद करने लगा, "सुबह ट्रेन से उतरकर बैंक भागता हूँ, पांच सात मिनट लेट होता हूँ तो भागकर सीट पर पहुँचता हूँ। जब तक कम्प्यूटर ऑन होता है, घड़ी और जूते उतार देता हूँ।"  उसकी उत्सुकता बढ़ रही थी, "दोनों चींज एंकसांथ कैंसे उंतालता है? हांथ तो दो ही हैं न?"

"अबे यार, हाथ तो दो ही हैं और दोनों घड़ी उतारने में उलझ जाते हैं।  बल्कि सच तो ये है कि शुरुआत घड़ी खोलने से होती है लेकिन जूते पहले ही उतर चुके होते हैं। दी एड़ी  पर एक एक चोट और जूता बाहर।"

ये सुनकर वो इतना खुश हुआ जैसे पता नहीं क्या खजाना पा लिया हो उसने। "देंखा, मैं कैता था न, जूंते में कोई कमी नहीं है। कमी तेंले उतालने में हैं, कंपनी वाले भी यंही कंह लंए थे।"  दुनिया भर का भाषण पिलाया कि क्या जरूरत होती है बैंक में  जूते उतारने की? क्या फ़ायदा हुआ स्कूल कालेज जाने का,  रहा तो वही का वही, वगैरह वगैरह। मैं चुपचाप सुनता रहा और मुस्कुराता रहा, सही बात है प्यारे, कमी तो मेरी ही होती है:)  मैं  बताता भी तो वो कैसे समझता  कि ये छोटे छोटे बंधन कितना उलझाते हैं मुझे।

एक हफ़्ते में जूते रिप्लेस होकर आ गये और आगे के लिये उसने बड़े प्यार से सावधान किया, "कंपनी के पांस पंहली कंप्लेंट गई है इस मॉडल की,  उनकी भीं लैंपूटेशन खलाब होती है। जूंते बदल दिये हैं उन्होंने, लेकिन भांई हांथ जुड़ंवा ले कि जूंते उंतालते टैम पैंले तंस्मे खोंलने हैं।"

"हाथ तो मैं ही  जोड़ लेता हूँ याल   तेले  आगे, जूते भी वापिस कल  दे कंपनी को। चाल  पांच सौ लुपल्ली के जूतों के लिये अपनी आदत तो बदलने से लहा।" बहुत हँसे हम दोनों,  एक महीना और चल गये  फ़ीते वाले जूते।  उसके बाद फ़िर वही हम और फ़िर वही एड़ी पर चोट,  बंधन नहीं बर्दाश्त होता।  लेकिन बंधन से छुटकारा भी तो नहीं - घड़ी गई तो मोबाईल का बंधन, ये गया तो वो का बंधन। माया का बंधन, मोह का बंधन, ममता का बंधन, अपनेपन का बंधन, तन का बंधन, मन का बंधन।  घड़ी, जूते जैसे दिखने वाले बंधन भी और न दिखने वाले बंधन भी।  जिन बंधनों से मन घबरा उठे वो बंधन भी और जिन बंधनों के लिये मन बेचैन हो उठें वो बंधन भी। हाँ, ऐसे भी होते हैं कुछ बंधन, जिनके बिना जीवन बिलकुल फीका फीका, सूना सूना सा लगता है और जिनके होने से जिंदगी को कुछ मकसद मिल जाता है। 

लेकिन क्यूँ होते हैं ये इतने बंधन?  शायद इसलिये होते हों कि बिना इनके  हम गैस वाले गुब्बारों की तरह बिना किसी दिशा के,  बिना उद्देश्य  के ही उड़कर अपनी ऊर्जा न खत्म कर लें।  बंधन  सोद्देश्य हो और विवेक जागृत रहे तो  मंजिल  तक पहुँच जायेंगे नहीं तो फ़िर वही..... :)  

चलो यारो, अब इतना झेला है तो इनाम में एक गाना तो बनता ही है, है न? 

79 टिप्‍पणियां:

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    1. वोई तो... तब तो.. हम तो...बंधे हैं... हाँ नहीं तो..!!

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  2. कुछ बन्धन होते ही हैं अनोखे! ,जिनकी डोर दिखाई भी नहीं देती न उनमें कोई खिंचाव ही महसूस होता है .....अब कुछ खास बातें-
    १-ईमानदारी दिखाने के लिए लोकल पर उतरना पड़ता है...
    २-सही बात करो तो मजाक समझते हैं लोग...
    ३-बंधन क्यों होते हैं? इसका जबाब तो आजू-बाजू रखी किसी किताब में नहीं मिला..
    बस होते हैं ,जिनके होने से जिंदगी को मकसद मिल जाता है....
    और गीत...........सालों बाद सुना....

    .....के हम तुम चोरी से तो नहीं............पर बंधे एक बन्धन से पक्का!!क्यों कि मो सम( मौसम )ही इतना अच्छा होता है!!!

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    1. बिल्कुल, हम आप मित्र हैं और मित्रता में चोरी का क्या काम?

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  3. जूतों का बंधन तो खोलना ही पड़ेगा, बहुत लोग हैं जो बिना फीते का जूता और बिना बंधन का जीवन जीना चाहते हैं।

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  4. हमें एक समर वियर ख़रीदन है ..कुछ टिप्स यहाँ से ले लिए हैं !:)

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  5. बंधन तो बहुत जरूरी है और बेहद उपयोगी भी। नाड़े में बंधन न हो तो पाजामा थमेगा नहीं, अकेला कुर्ता कितनी इज्जत ढंक पायेगा.....ये अलग बात है कि आजकल लिव इन टाईप इलास्टिक वाले नाड़े आ गये हैं जिन्हें बांधने की जरूरत नहीं पड़ती.....फिर भी कसाव कुछ कुछ उन लिव इन इलास्टिकों में भी तो होता है :)

    इस तरह के न जाने कितनी छोटी छोटी बातें हैं जो बंधन की उपयोगिता दर्शा ही देते हैं।

    राप्चिक ठेलेला है भिड़ू :)

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    1. लिव-इन में भी खून खच्चर होने शुरू हो गये हैं गुरू, वो इलास्टिक जल्दी ढीला पड़ता है:)

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  6. हाय रे जूते, इन्हे भी ना बख्सा, इन बेचारों की तो वैसे भी रोज खूब घिसम घिसायी होती ही है,

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    1. घिसते को ही और घिसते हैं भाई, तुम ही देख लो न अपनी नीली परी के पहिये:)

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  7. @ हाँ, ऐसे भी होते हैं कुछ बंधन, जिनके बिना जीवन बिलकुल फीका फीका, सूना सूना सा लगता है और जिनके होने से जिंदगी को कुछ मकसद मिल जाता है।

    हल्की-फुल्की बातों में भी ‘दीवन-दलसन‘ तलाश लेते हैं आप।

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  8. लगता है आपने अपने भोले भाले मित्र को शर्मिंदा करने के लिए जूते की पेस्टिंग उखाड़ दी ...
    ये दलत बात है !
    .....यह साइकिल मेंट वाला फंदा साफ़ कर देते तो काम आता !

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    1. भोले भाले लोगों को इसीलिये तो मित्र बनाते हैं हम जैसे कुटिल लोग, साईकिलमेंट बोले तो शिपमेंट बजरिये साईकिल... बड़े भाई:)

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  9. एड़ लगाने से घोड़ा सरपट दौड़ता है और एड़ लगाने से जूता चलता भी नहीं :)
    खूब उकेरा है सुविधाओं से उपजे आदतों के बंधन !!

    कुछ बंधन संकल्प निभाते, कुछ बंधन आचारी ।
    कुछ बंधन नियम है तो, कुछ बंधन लाचारी ।।

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    1. सही कहा, बंधनों से छुटकारा नहीं है सुज्ञ जी।

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  10. पढ़ने के बाद सोच रहे थे कि पहिले कमेंट लिखें कि गाना सुनें। अंत मे तय किया कि पहिल लिख ही लें..ई गाना सुनने का कौनो बंधन तो है नहीं। गाना बाद में भी सुना जा सकता है। अच्छा लगा तो फिर कमेंट किया जा सकता है। कौनो बंधन तो है नहीं कि लेख और गाना दुन्नो की तारीफ करो। जब लगाया है तो कोई बंधन वाला ही गाना होगा। हमको क्या, कौनो कवि को बंधन एकदम नही सुहाता लेकिन का करें..समाज में रहना है तो सभी प्रकार के बंधन का पालन तो करना ही पड़ेगा। अउर जब पालन करना ही पड़ेगा तो काहे न ताव से यह कहा जाय...
    ..बंधन को मानने से ही समाज का भला होता है बच्चा।

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    1. सतवचन बाबाजी:)

      सच तो ये है कि बंधन से मन उलझता तो है लेकिन हमें संयमित करने के लिये बंधन जरूरी भी हैं। यही कहना चाह रहा था कविवर।

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  11. अंतिम पंक्तियों में सार छुपा है. बंधन न हो तो आदमी आदमी न रहे. बहुत मजेदार भाषा और सम्वेदनशील आलेख.

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  12. कुछ बंधन जीवन में बहुत जरूरी है
    नहीं तो जीवन ही फीका हो जायेगा

    गाना बहुत अच्छा है

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  13. लेथ ने बांध ते लत्था आथिल तक, सच्ची!

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  14. ये बंधन तो आम है... अब जूता चले या न चले, रोज खोलने बांधने की फुरसत कहाँ.

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  15. भई स्‍नीकर्ज़ तो म्‍ौं भी बि‍ना खोले ही पहनता-उतारता हूं पर कभी सोचा नहीं कि‍ जूता बनाने वालों या बेचने वालों की छाती पर यूं सॉंप लोट जाएंगे अगर उन्‍हें इस बात का पता चला तो☺

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  16. ये तो प्यार का बंधन है.....टूटे न टूटे ये फीते औऱ जूते की जो़ड़ी..औऱ कुछ गाउं क्या समझ नहीं आ रहा..बंधन सारे तोड़ दूं..या कुछ बंधन छोड़ दूं..पर कुछ बंधन तो अपने आप से ही बांध के रखते हैं हम .वरना अराजक नहीं हो जाएंगे...क्या भाई...ठीक कहा न मैने

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    1. एकदम बराबर कहा रोहित भाई, अराजक नहीं होना है।

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  17. मेरे "ये" तो बिना फीतों वाले जूते पहनते हैं - और बेटे जी हमेशा एडी की मार से ही जूते उतारते हैं :)

    टूटे तो टूटे सही - आदत कैसे बदली जाए ?

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    1. फ़िर तो शिल्पा जी आपके ’वो’ और ’बेटाजी’ और हम एक ही यूनियन के मेंबर हैं:) शायद सभी आदमी ऐसे होते हैं।

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  18. सबसे पुरानी मीठी यादें किसी गीत की हैं तो वह यही गीत है। विडियो आज पहली बार देखा। एक खस्ता नज़्म आपकी पोस्ट पर:

    बन्धन हैं, रिश्ते हैं, नाते हैं
    जूते हैं, तस्मे हैं, लातें हैं
    हास्य में छिपा है गूढ ज्ञान
    ये मो सम कौन की बातें हैं

    नव-सम्वत्सर शुभ हो! :)

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    1. तो कभी हो जाये खुलासा कभी उस ’सबसे पुरानी मीठी याद’ का भी। वीडियो मैंने भी पहले नहीं देखा था, बल्कि अधिकतर गाने सुने हैं लेकिन देखे नही।
      खस्ता नज़्म पढ़कर खुद की पीठ ठोकने का मन कर रहा है जी:)
      नव-सम्वत्सर की विलंबित बधाई, नियमित नहीं रह पा रहा हूँ :(

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  19. सोद्देश्य बंधन तो सही है इसीलिये 'कम्पनी' इन बंधनों को भी सहजता से खोले जाने की अपेक्षा करती है बंधन में रहने वालों से :)

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    1. कहने का मकसद ये कि बंधन , उनसे मुक्ति और सहजता एक साथ रहें तो बेहतर !

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    2. अली साहब, बंधन-मुक्ति-सहजता, असली मर्म यही है। बहुत बहुत शुक्रिया।

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  20. कुछ बंधन बहुत प्यारे होते हैं , जिनसे हम छूटना नहीं चाह्ते ...

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  21. हम लेट गए थे कल थककर, इसलिए लेट हो गए...
    "बंधन" बड़ी कुत्ती चीज़ है संजय बाउजी!! लिंक बिखेरने की तबियत हो रही थी.. हमारे दोस्त (जो उम्र में मुझसे दुगुने थे) आई.एफ.एस. थे... बिना तस्मे वाले जूते, बिना घड़ी वाली कलाई, बिना टाई की गर्दन, बिना बनियान की कमीज़ और सबसे ऊपर बिना बंधन (पारिवारिक) के जीवन... एक पोस्ट लिखी थी उनपर, स्व. हरि मेहता साहब!!
    आदतें वैसे भी बंधन होती हैं.. कमबख्त अच्छी लगती नहीं - बुरी छूटती नहीं... मगर क्या करें.. कुछ बंधन चाहकर भी नहीं तोड़े जा सकते.. उन्हें गहना समझकर ही पहनना पड़ता है.. खोलने की कोशिश में जूते के तलवों के बाद, कभी कभी एडियाँ भी छिल जाती हैं.. और जब एडियाँ छिल जाएँ तो लाख बंधन को गहना बनाएँ, चुभन तो होती ही है..!!

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    1. "वो टिप्पणी ही क्या जो पोस्ट पर भारी न पड़े" आपने ही कहा था मेरी पोस्ट पर और आज फ़िर से साबित भी कर दिया।
      सलिल भैया, लिंक दे देते तो आसानी होती लेकिन आप भी बंधन मान गये शायद:)

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  22. बंधन पर सब ने इतना दर्शन बिखेर दिया है की उस पर अब लिखने को कुछ बचा नहीं फिर भी एक बात हमारी तरफ से भी हम सब को वही बंधन पसंद है जिससे हम दूसरो को अपने लिए बांध कर रखते है और जब दूसरे हमें बांधने की कोशिश करते है तो वो हमें घुटन भरे लगने लगते है ।

    तो आप भी उन लोगो में शामिल है जो बजट के पहले अखबारों में तिन लाख चार लाख से छ लाख पर छुट की खबरे पढ़ पढ़ खुश हो रहे थे और उम्मीद कर रहे थे की जैसे अखबार वाले हमें सपने दिखा रहे है वैसे ही प्रणव बाबु भी देखने लगेंगे , बजट सुन कर जोर की लगी होगी क्योकि हवाई महल बहुत ऊँचा ही बना दिया था खबर देने वालो ने । ध्यान से सोचिये कही जूता उस ऊंचाई से गिर कर तो नहीं फट गया था ।

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    1. पैरा एक = संभवत: एक सही निष्कर्ष,
      पैरा दो = हमें तो वित्तमंत्री छूट दे देते तो गृहमंत्री ने काटना था, कोई फ़र्क नईं पैंदा

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  23. याल बाती तो सब थीत है ज-ज-जे बताओ ति जे UKP Sr) ता है... :)

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  24. "नहीं यांल, सलम की बांत नहीं, हम गैंल थोले हीं हैं? बतां दें, पैंसे खलचे हैं, मुफ़त का मांल थोले ही है।" फ़िर ध्यान आया कि पिछले महीने इसकी दुकान से जूते खरीद कर लाया हूँ, वही फ़ीडबैक ले रहा है।


    ha-ha-ha-ha-ha-ha-ha-ha...............!

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  25. बहुत दिनों बाद ऐसे जूतों के साथ ताजगी भरी मार्निंग वाक हुई.

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  26. मेले तो भी थमद आ दया एली थे हवा आने ता लाद... थुन्दल औल लोतक वलनन तिया है आपने...
    थादल।

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  27. आपते थुन्दल औल लोतक तमेंत से दिल बाद बाद हो दया:)

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    1. सार्थक और सामयिक प्रविष्टि, आभार.

      कृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नवीनतम प्रविष्टि पर भी पधारें.

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    2. हमारी हाजिरी मान ली जाये शुक्ला साहब, गये थे लेकिन malware warning दिख रही है।

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  28. कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आये जन्मों के नाते !

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  29. जूते वाला लड़का जोरदार मिला, सबक सिखा गया। लेकिन जिन्‍होंने सीखना ही नहीं, भला कोई कर सकता है, ऐसे लोगों का! बढिया है आपका संस्‍मरण।

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  30. अपन भी जूते ऐसे ही उतारते हैं बस जरा जेंटलमैनिया से मुक्त होना है। रही घड़ी की बात तो वो तो बीस साल पहले पहनना छोड़ दिया। फ़ायदा ही हुआ- उतारनी नहीं पड़ती।

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    1. यानि कि यानि कि बीस साल से व्यवस्था फ़ायदे वाली है, कुछ टिप्स सरकारजी को भी प्रेषित किये जायें:)

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  31. एकदम मस्त लिखा है सर जी...! बधाई..!

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  32. जूता पुराण से बंधन तक पहुँच गए. सही है बंधन के बगैर भी चैन नहीं पड़ती. फिल्म "दो आँखें बारह हाथ" का वो सीन याद आ गया जब कैदी बंधन मुक्त कर दिया जाता है तो रात उसे नींद नहीं आती. अपने पैरों पर रस्सी वस्सी बाँध लेता है.

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  33. आज बहुत दिनों बाद ब्लॉग खोल सका, या कहें कि बहुत दिन बाद घर पर नेट चलाया होगा और सबसे पहले ये देखा (यह देर के लिए सफाई नहीं है, वो तो जन्मसिद्ध स्वाधीकार है। :))
    :)
    बहुत ख़ुशी हुई पढ़ के, जैसी कि हमेशा होती है।
    औथम! :)
    और हाँ! शिकायत... आप ऐसे ही कहीं भी MKS jr. को UKP नहीं कह सकते, public outlets में तो कतई नहीं।
    ज़माने में सबके चाहने वाले मौजूद है, हमारा घोर विरोध दर्ज हो। :)

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  34. जूतों के बंधन से लेकर प्यार के बंधन तक सब कुछ चोखा । जूते चल रहे हैं या हवादार हो गये ।

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  35. दादा सोंचा नहीं था बंधन पर इतनी बढ़िया पोस्ट पढ़ पाउँगा कभी 😊

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