ध्यान नहीं गया था तो अलग बात थी, जबसे इस बारे में सोचना शुरू किया तबसे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था| मेरा ख्याल हर अगले पल में और मजबूत होने लगा था| दर्पण के इस इस्तेमाल की तरफ पहले किसी ने क्यों नहीं सोचा? सिर्फ सूरत निहारने के अलावा इसका और भी कुछ इस्तेमाल हो सकता है, क्या इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया? अब मैं खुद को निरीह नहीं मान रहा था, मैं खुद को एक समुराई मानने लगा था| एक ऐसा समुराई जिसके हाथ में तलवार नहीं एक दर्पण होगा| जब कोई अपनी बातों से, तर्कों से मुझे निरूत्तर कर देगा या मुझे लगेगा कि वो मुझसे बेहतर है जोकि यकीनन वो होगा भी, मैं उसकी नजर के सामने अपना हथियार लहरा दूंगा| उसकी जो भी, जैसी भी कमी होगी, जोकि यकीनन होगी ही, उसे ठीक अपनी आँखों के सामने नाचती दिखेगी| मैं सिर्फ ये कहूँगा कि दर्पण झूठ नहीं बोलता| सामने वाले का आत्मविश्वास डगमगाएगा, और उसके दंभ भरे गुब्बारे में पिन चुभ जायेगी| फिर मैं अपने तर्को से, बेशक वो कितने ही भोथरे क्यों न होंगे, उसके परखच्चे उड़ा दूंगा| मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चातुर्य सब मेरी सोच की हिमायत भी कर रहे थे और उसे सान पर भी चढ़ा रहे थे| हाँ, मैं सर्वोत्तम, मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ जिसने एक साधारण से दर्पण की सहायता से सभी पर जीत हासिल कर ली| अब मुझे कोई नहीं रोक सकेगा| अपनी वाहवाही खुद भी करूँगा और दूसरों से भी करवाऊंगा| मुझे दर्पण पर बहुत प्यार आ गया और मैं उसे चूमने लगा| मेरी बाहर की आँखें भी बंद थीं और जैसे ही मैंने दर्पण को चूमा, या कहूँ कि खुद को चूमा, मेरे ओंठ जल उठे| बेसाख्ता ही मेरी आँखें खुल गईं और दर्पण में मैंने एक कुत्सित,.वीभत्स चेहरा देखा| कौन है ये? दर्पण ने मुझे बताया कि ये मैं ही था| और यह भी बताया कि दर्पण झूठ नहीं बोलता| और फिर इतने में ही बस नहीं हो गई, दर्पण ये भी बोला कि उसका इंसान की तरह का धर्म नहीं होता जैसे बन्दूक की गोली का भी नहीं होता| उसके निशाने पर जो भी आ जाये, वो लिहाज नहीं करती वैसा ही दर्पण के साथ था| मेरे कानों में जैसे लावा गिर रहा था, अंतर तक मैं दाह महसूस करने लगा| मेरा चेहरा अब दर्पण में और भी वीभत्स दिखने लगा था| मैंने दर्पण को जमीन पर पटक दिया और उसके टुकड़े टुकड़े हो गए| न चाहते हुए भी उन टूटी हुई किरचों में मुझे अपने अनगिनत अक्स दिखने लगे थे| मुझे लगने लगा कि ये आवाज दर्पण की नहीं, मेरी आत्मा की थी| अंतर का दाह अब शीतलता की सरिता बन गया था| कुछ देर में विश्वविजय का मेरा ख़्वाब मुझे भूल गया था लेकिन मुझे कोई अफ़सोस नहीं था क्योंकि दर्पण के उन टूटे हिस्सों में फिर से एक सामान्य चेहरा दिखने लगा था|
संजय जी ,
जवाब देंहटाएंनिशाने पर कौन था और क्यों था ? कहना बड़ा कठिन है :)
...वैसे आपने यह पोस्ट अंधों का ख्याल किये बगैर लिखी है ! मेरा मतलब पक्षपात करते हुए :)
निशाने पर मैं खुद था अली साहब, और बस यूं ही था| मेरे लिए आसान है कहना:) पक्षपात की बात मानी जा सकती है:)
हटाएंदर्पण किरचें और अक्स |
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति |
आभार भाई जी ||
धन्यवाद दिनेश जी|
हटाएंwell said
जवाब देंहटाएंthanx Rachna ji.
हटाएंकुत्सित और वीभत्स ....
जवाब देंहटाएंजमे नहीं ...
सामान्य हो गए न भाईजी:)
हटाएंदर्पण हथियार है लेकिन तब तक ही जब तक उसमे अपना चेहरा देखा जाये।
जवाब देंहटाएंपैराग्राफ़ मे लिखने से पाठक को सहजता से पढ़ने मे मदद मिलती है।(यह मेरी निजी राय है और बिना मांगे दी गयी सलाह भी :) :) )
आपकी राय सर आँखों पर अरुणेश जी, भविष्य में अधिक ध्यान रखा जाएगा|
हटाएंहे राम - आपने तो दर्पण ही दिखा दिया आज |
जवाब देंहटाएं:(
खुद देखा है शिल्पाजी:)
हटाएं:)
हटाएंबुत हाई फाई लिखा है संजय जी , सब कपार के ऊपर से गुजर गया .
जवाब देंहटाएंअच्छे बैट्समैन बेकार गेंद को कपार के ऊपर से निकल ही जाने देते हैं कमल भाई, i must say, well saved.
हटाएंविलक्षण चिंतन और अद्भुत दृष्टि!!
जवाब देंहटाएंलोग बडे चतुर समुराई है, दर्पण को दूसरों के सामने ही लहराते है। दर्पण के पिछे ही अपना चहरा छुपा कर मंद मंद मुस्काते है। न तो भूल से उसमें अपना मुख देखते है और देख भी ले तो न दाह उत्पन्न होता है न शिकन भर आती है।
मुझे कालिदास बनाकर मानेंगे आप भी:)
हटाएंपहले कई बार प्रतुल भाई मेरी बातों की सकारात्मक व्याख्या कर देते थे, एक न एक विद्वान फंसा ही लेता हूँ मैं:)
अपने आप फँस जाते हैं
हटाएंपर वो जानबूझकर हनुमान जी की तरह फंसते है
दो बार पढने के बाद लगा कि ये पोस्ट अपनी खोपडी से बाहर है
जवाब देंहटाएंजै रामजी की
आओगी समझ प्यारे, धीरे धीरे| अंगरेजी वाली की तरह धीरे धीरे असर करेगी:) जय राम जी की|
हटाएंये पोस्ट अपनी खोपडी से बाहर है
जवाब देंहटाएंjai baba banaras....
अब तो हमारी खोपड़ी से भी बाहर है कौशल जी:)
हटाएंयदि ये पोस्ट किसी को ध्यान में रख कर लिखी गई है तो जिस पर लिखी गई है उससे इस बात की माफ़ी की मुझे बिल्कुल भी नहीं पता की ये पोस्ट किस पर लिखी गई है मेरी टिप्पणी सिर्फ पोस्ट पर लिखी बात पर है |
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है की की दर्पण में अपनी सच्चाई देख कर वो डरता है जो खुद को श्रेष्ठ और अच्छा समझने का भ्रम में हो और ज्यादातर समाज उसमे ये भ्रम भरता है क्योकि समाज अच्छा और श्रेष्ठ होने का एक खाचा बना देता है, ( जो बस उसके नजर में ठीक हो ) और जो उसमे फिट है वही श्रेष्ठ है , भूल से कई लोग भी अच्छा बनने के चक्कर में उसी खाचे में खुद को फिट का श्रेष्ठ समझने लगते है | और ऐसे सभी अच्छे भले लोग ही दूसरो को ज्यादा दर्पण दिखाते है और अपना चेहरा देख डर जाते है | उन्हें किसी भी चीज से डर नहीं लगता है जिन्हें अपनी कमजोरियों और बुराइयों का पुरा भान और ज्ञान दोनों होता है वो आये दिन दूसरो को दर्पण नहीं दिखाते फिरते है और ना खुद देखते है क्योकि उन्हें समाज दुनिया सभी की बदसूरती का भान बिना दर्पण के होता है , वो जानते है बदसूरती और बुराई भी समाज का ही हिस्सा है जिसे पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है , उसे स्वीकारिये सबको संत बनाने की सोच से बाहर आइये , ये जरुरी नहीं जो आप की नजर में बुरा हो वो वास्तव में बुरा ही हो |
और हा झेलाना बस आप को ही नहीं आता है दूसरे भी झेलाने की शक्ति रखते है और हो सकता है आप से ज्यादा सो झेलिये ये टिप्पणी |
:):):)
हटाएंpranam
देखा, मंगवा ली न माफी? ये पोस्ट मेरे ऊपर ही थी इसलिए आपने जो माफी माँगी, आपको दे देते हैं:) मैं किसी को बुरा नहीं कहता खुद के सिवा, कहा हो तो प्रूव कीजिये| और झेलने झेलाने की खूब कही, ये झेलना भी कोई झेलना है? :)
हटाएं@ नामराशि-
बड़े हैप्पी हैप्पी दिख रहे हो जनाबे आली, चक्कर क्या है?
दो बाते जब माफ़ी दे दी है तो सफाई क्यों दूँ दूसरे मुझे ज्यादा साफ सफाई पसंद नहीं है , पर जानती हूँ की आप बड़े साफ सफाई पसंद है सो सफाई दे दे रही हूँ | टिपण्णी के पहली लाइन का अर्थ है की टिप्पणी को व्यक्ति विशेष से न जोड़ा जाये फिर आप खुद से क्यों जोड़ रहे है , चुकी बात आपने खुद को संबोंधित करके लिखा है तो टिप्पणी भी आप को संबोधित करके आप की ही शैली में लिखी गई है, आप के लिए नहीं लिखी गई है | ये इस तरह की आप की अकेली की पोस्ट नहीं है ये दर्पण वाली पोस्ट कई जगह पढ़ चूँकि हूँ तो जवाब उन सभी के लिए ही था ये बताने के लिए की सुन्दरता और कुरूपता इन दो खाने में हम समाज को नहीं बाँट सकते है बीच में वो भी है जो न सुन्दर है न कुरूप बिल्कुल सामान्य है और वो भी जो परिस्थिति के हिसाब से व्यवहार करता है और समाज के लिए कभी कुरूप तो कभी सुन्दर बना जाता है |
हटाएंसत्वचन है जी.
हटाएंसच तो ये है, दर्पण कभी सच नहीं बोलता...
जवाब देंहटाएंबाएँ को दायें और दायें को बाएँ दिखाता है... :):)
ये दर्पण जो जगह जगह सबको उनका चेहरा दिखाता फिरता है...उसे भी मालूम नहीं कि जो वो दिखा रहा है, वो 'सीधा' नहीं है..
हाँ नहीं तो..!!
आप सही कहती हैं|
हटाएंआप भी सही कहती हैं|
आप भी सही ही कहती हैं, हाँ नहीं तो...:)
पहले मैं सोचती थी :
हटाएंशायद आप कुटिल हैं
फिर लगा आप ही कुटिल हैं
अब लगता है आप कुटिल ही हैं
यहाँ 'कुटिल' 'कौटिल्य' के अपभ्रंश के रूप में लिया जाए..हाँ नहीं तो...:):)
'नौ दिन चले अढाई कोस' को भी पीछे छोड़ दिया जी, यहाँ ढाई साल में रहे वही कुटिल के कुटिल, वैसे ये तो हम पहले दिन से ही कह रहे हैं:)
हटाएंपहले, फिर, अब तो जान लिया, अल्ला जाने क्या होगा..
खुदा खैर करे
जवाब देंहटाएंखुदा तो खैर ही करता है बाबाजी, ये तो हम बंदे हैं जो मानते नहीं|
हटाएंगीत ये भी ठीक लगा मुझे---
जवाब देंहटाएंhttp://youtu.be/c44Ah24hr9M
येस, ये गाना ज्यादा सही रहता| उस समय ध्यान नहीं आया था ये:(
हटाएंवाह. पढ़ कर याद आया, कुछ इसी तरह इतिहास में भी होता रहा है, शायद मक्खलिपुत्र गोशाल था वह.
जवाब देंहटाएंऔर विवरण मिले तो आनंद आये राहुल सर|
हटाएंहां! राहुल जी, मक्खलिपुत्र गोशालक का उद्धरण जानने की चाहना है.
हटाएंदर्पण देखता हूँ तो अपना हालचाल अवश्य पूछता हूँ...
जवाब देंहटाएंआप तो दर्पण दर्शन में भी नए आयाम ढूंढ लेंगे प्रवीण जी|
हटाएंभगवान बचाए!
जवाब देंहटाएंअरे नहीं जी. दर्पण और कैमरा झूठ भी बोलते हैं. होस्टल में हमारे कमरे में लोग चेहरा देखने आते स्टाइल में. तो मेरा रूम पार्टनर पीछे से कहता कि... अरे ये आइना ही गलत है इसमें सभी स्मार्ट दीखते हैं :)
जवाब देंहटाएंसही कहता था आपका रूम पार्टनर, पीछे से :)
हटाएंमुझ लगता है दर्पण अंधे के लिए बेकार है, कमजोर आँख वाले के लिए चश्मे का मोहताज है और जिनकी आँखें पूर्णतया स्वस्थ हैं उनसे घबड़ाता फिरता है।:)
जवाब देंहटाएं...अच्छा नहीं दिखाया तो तोड़कर फेंक देगा।:)
हटाएंबिलकुल फेंक देगा:)
हटाएंकविता भी, दर्शन भी... बढ़िया!
जवाब देंहटाएंआत्म श्लाघा से ग्रस्त व्यक्ति खुद कभी दर्पण नहीं देखता औरों को दिखाता रहता है .अपनी शेव बनाके साबुन दूसरे के मुंह पे फैंकना ही इस दौर की रवायत है ... . अच्छी प्रस्तुति .कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएंबुधवार, 20 जून 2012
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
http://veerubhai1947.blogspot.in/
जब कोई समझाने से मानता ना हो, उसे आईना दिखाना जरुरी होता है, क्योंकि सच्चाई आखिर सच्चाई होती है।
जवाब देंहटाएंकभी कभी मेरा दर्पण भी बहुत झूठ बोलता है.. जब वह मुझे बेहद खूबसूरत दिखता है, बॉलीवुड के हीरो की माफिक...
जवाब देंहटाएंहा हा हा...
तो सही दिखाता है आपका दर्पण तो, आप हीरो दीखते हो लोकेन्द्र भाई|
हटाएंभैया आपके आत्म अवलोकन के साथ आत्म मंथन की बारीकी पसंद आई .
जवाब देंहटाएंखुद से वही बातें करता है जो अपना सच्चा मित्र होता है .
खुद से दीवाना भी बात करता है सिंह साहब|
हटाएंहम्म!
जवाब देंहटाएंह्म्म्म!
ह्म्म्मम्म!
जरा देर पहले लिख के देखा था, दर्पण लिखे को भी वीभत्स दिखाता है, लेकिन फिर कोई प्रतिबिम्ब अस्तित्व होता तो भी ऐसा सोचता हमारे लिए शायद।
जबरदस्त!
गहरी बात! समझने में प्रयासरत हूँ!
जवाब देंहटाएं:)
भाई संजय जी, जरूरी नहीं कि दर्पण हमेशा ही समतल हो.
जवाब देंहटाएंविषम तल होगा तो अपना चेहरा भी पहचानना
भूल जायेंगें जी..
गाना में यह स्पष्ट करना चाहिये कि दर्पण कौन से वाला है.
महाराज धृतराष्ट्र और आईने का क्या मेल?:)
जवाब देंहटाएंरामराम